मंजिले - भाग 21 Neeraj Sharma द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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मंजिले - भाग 21

                       मंजिले कहानी सगरहे की रोचक कहानी "वो छोकरी " चंदा पर आधारत थी। समाज और नानी की बेमिसाल उलझने। सुन कर पढ़ कर खुश हो जाओगे, पर जो गम चंदा का, चंदा का ही रहेगा।
                       चलो शुरू करे।
" हा बाबू जी आपको जनक कहु जा बाबू जी। " चंदा थोड़े शर्मिंले दंग से बोली।
" कुछ भी कहो, पर जरा प्यार से,  श्याम के मंदिर दिखाने का जिमा हैं, चंदा तुम्हारा। " जनक थोड़ा चलते हुए खिसया कर बोला।
" ये हैं सकरी सी गली, देखो बाबू जी, कहते हैं इधर हाथी की सवारी निकलती थी। " जनक हैरान सा होकर सुन रहा था चंदा की बाते। फिर उसने कहा, " हाथी कमजोर होगा " चंदा खुद ही बोल पड़ी। जनक ने हैरान होकर पूछा कयो???
" इतनी सकरी गली मे हाथी कैसे घुस सकता हैं... हाँ बाबू जी, कहती हू, बिहारी की किर्पा से ही हो सकता हैं। " चंदा टुकर टुकर बोले जा रही थी।
" हाँ यही से माथा टेको " चंदा ने हुक्म जारी किया हो जैसे, मंदिर यही से शुरू हैं। " ये सामने चाट पापड़ी वाले... हैं इनके मुँह मत लगना, कहती हू। " जनक ठगा सा हस रहा था मन मे, बहुत कुछ देखा, पर ऐसा पहली वार देख रहा हू। 
                        "  ---चंदा तुम एक अच्छी गाइड हो!"
जनक ने सिफत और कायदा बोला।
" चंदा ने अन सुना कर दिया, मंदिर की घंटिया वज रही हैं, सुन रहे हैं बाबू जी। " जनक ने माथा टेक ते हुए सिर हिला दिया। बड़ी कतार थी..." चौपये जी --- मै चंदा हू !
हाथ से इशारा किया " 
वो विचारा उठ कर आया, " हाँ बेटी बोल " उसने जनक को आगे किया, "ये पंडित जी हैं, शाम को ड्यूटी इनकी हैं। " चंदा ने कहा!!
जनक थोड़ा पंडित और चंदा के साथ आगे निकल गया...    "इधर आओ " चंदा ने कहा।
"--वो चुप करके आगे आ गया, सामने नगड़ा सुन रहे हो। " चंदा बोली उच्ची आवाज़ मे।---- " अब संख की ध्वनि मे मथुरा का बाके का मंदिर मेरी कल्पना हैं। " 
                               मंदिर मे प्रवेश लिया दोनों ने।
राधा रानी के और कृष्णा का मंदिर मे दर्शन किया। और काफ़ी टाइम वो बैठे रहे दोनों सब संगत के साथ।
फिर दोनों उठे, प्रशाद लिया, और नीचे को चल पड़े। सीढ़ियों से आना जल्दी था।
                        जनक ने पूछा " चंदा पापड़ी खाओगी.... " 
वो बोली ----" मन तो हैं, पर गला खराब हो गया तो फिर। " 
जनक थोड़ा मुस्करा कर बोला, " सुना हैं तुम गीत भी गुनगुना लेती हो। " 
"हाँ पर यहां नहीं.... चलो खा लेते हैं पापड़ी... "  चंदा ने गर्दन हिलाते बोला।
" दो -  दो  पापड़ी खाते हुए.. उसने पुछ लिया, तुम  मेरी नानी को कैसे जानते हो। " 
उसने अनसुना कर दिया, " जोर से कहा " संख, घंटी, नगाड़ा वज रहा हैं, आरती का समय  हैं, इस लिए सुन नहीं रहा हैं। " 
वो दोनों फिर  चल पड़े... जनक को ये यात्रा याद रखने को बस ये पल समेटने थे। कुछ रिश्ते यही तक का सफर तेह करते हैं। जिंदगी और लिहाज़ से वो बस दिल प्रचावा ही होते हैं। जनक को वो इतनी पसंद थी... कि शायद कोई लफ़्ज़ ही न हो... देखते हैं आगे मुलाक़ात होती हैं जा नहीं।
(--चलदा )--------------------------------- नीरज शर्मा 
                          शहकोटी