मंजिले - भाग 4 Neeraj Sharma द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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मंजिले - भाग 4

                   मंजिले ----   ( देश की सेवा ) 

मंजिले कहानी संगरे मे कुछ अटूट कहानिया जो इंसान के मर्म बन गयी। जिन्दा मार गयी, 

खत्म होने से अच्छा हैँ, लौकिक पन ढेर सारा हो। तबदीली किसे रोक पायी हैँ, इंसान को कोई नहीं मारता, हलात कभी कभी मार देते हैँ। हलात हम खुद ही ऐसे बना लेते हैँ, कि खुद ही मर जाते हैँ। सच मे कहता हुँ, मोहन दास मेरा ऐसा ही देश भगत  हैँ,  जो देश के लिए जान की बाज़ी लाने से भी पीछे नहीं हट सकता।सितारा कब चढ़ जाये और कब डूब जाए, ये इंसान की फ़ितरत मे ही लिखा हैँ, वो हलातो से जूझ रहा था, कितना बेबस हो गया था। देश की सेवा का फ़तुर..... बात 1955 की थी। कितनी शौक तबियत थी, मुस्लिम और हिन्दू मे  प्यार  की धुन बटवारे के कई साल तक भी थी। एक जोहर साब थे,  बहुत ही हसमुख थे। " कहता हुँ, एक दिन खून जहर से भर जायेगा " कैसे " हर कोई सोच ता था। चुपचाप खामोश वातावरण वाह कया मौसम, कच्ची सडके, कच्चे घर, कुछ आध पक्के थे। कितना मौसम मे सुहाना पन था।

                         वैरी थे कुछ लोग, पता कयो, वो मंजर देखे थे उननो ने, दशहत थी, मार काट  अब नहीं थी।

मोहनदास को फिर  सरहद बुला लिया गया था। शादी की कुछ रातो का गवाह था विचारा। "जी मैं आया था, लाल चुड़े वाली को छोड़ के जाना दिल पे पथर रख के, वाह री देश सेवा.... जो लाया हुँ, वो कमरे से अभी रसोई तक तो मुश्किल तक गयी थी।" चुडिया की खनखनाक थी, झाजरो की सुरीली गीत माला ---- " जी तो  नहीं चाहता था " कल आये। " आज वो सारा प्यार लुटा देना चाहता था। बरसाती मौसम... उसके हैया से कापते  हाथ, वो सारी रात कमरे मे गुनगुनाते रहे। 

                           सैना की भरती, बस कहने को हैँ, पर आपने लोगों से दूर..... कितना दुखदायी था। "वो कहते गए, बच्चा हुआ उसको सैनिक नहीं, खेती मे डालूगा, जमीन हैँ, बापू की, ठेके पे, कितनी दस बीघे... छोटे.... घर का गुजारा मुश्किल मे चले था... दो बहने थी... एक छोटा निठला भाई..." खबरदार करू, उसके मुँह मत लगियो। " थोड़ा दुखी अवस्था मे था।

                         " वो तेरा  छोटा  देयर हैँ। ये बेटों जैसा ही होता हैँ। " फिर पता नहीं बुलबुल कयो हस पड़ी। " कयो जी, बड़ा समझाते हो जी " उसने घुटक मे ही हैया मे कहा। " इतना फ़िक्र करे मेरा " तो कयो जाते हो। " बुलबुल को जैसे कुछ हो रहा था... सोच के ही।

देश का सिपाही दुचिति मे पड़ गया।  "जाना तो  पड़े से " मोहन दास ने दिल पर पथर रख लिया था। " ठीक जी " वो चुप थी। जाते हुए समान से लादी पीठ देख बुलबुल की आँखे भर आयी थी। एक साल बाद घर मे हलात आगे से बढ़िया हो गए। छोटे को छोटा ही बोलती थी.. वो उसे परदेसन कहता था। भाई सुधर गया था... कही अब जाता नहीं, परदेसन के पास ही मडराता रहता था। जैसे कमबख्त की जोरू होवें....

एक बाल था, जो चारपाई के झूले मे पड़ा मुँह मे अंगूठा लिए था... बुलबुल कह रही थी, बिलकुल आपने बाप पर गयो हैँ।  

                -------------- तभी चौखट पे मोहन दास ने जो दृश्य देखा, कि बुलबुल के हाथ मे बच्चा हैँ। " जी आप " खमोशी को तोड़ा उसने, पैर छुए, तो बाल को देख के बोला मोहन दास किस का बच्चा हैँ, अरी बता तो दें। वो आँखो मे आंसू भर के बोली, " इस के सिर कि शपथ मेरा लला हैँ... " मोहन दास चुप था। अरी ये कया शपथ खा रही हो, " बच्चा आपना हैँ " मोहन दास ने मुस्करा के मुश्किल से रब को ऊपर देखा।

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                                        नीरज शर्मा, 

                                        शहकोट, जलधर।