मंजिले - भाग 10 Neeraj Sharma द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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मंजिले - भाग 10

 मंजिले कहानी पुस्तक मे एक ऐसी भावक मर्मिक कहानी कहना चाहता हुँ, कि आप रोक नहीं सकते मुझे। लिखू गा भाई लिखने दे....
                         " वो फिर न आया " 
           मागने वाले भिखारी कितना कुछ साथ ले जाते है। कभी सोचा, हमदर्दी, मार्मिक, ढेर सारा बुनायदि सम्मान और प्यार भावक्ता ले जाते है।
 एक ऐसा ही पात्र था जो मेरे शहर मे रेड़ी पे आता था... रोज मांगता था, साथ मे होंगी उसकी पत्नी जो रेहड़ी खींचती थीं। याद है मुझे साल 1981-82 की ताज़ा घटना थीं। कितना असेह दुख था... उसका खींचना और रेहड़ी वाले का मांगना। जो रेहड़ी थीं लकड़ की बनाई हुई। जो तीन पहियो पे चलती थीं। उसकी दोनों टांगे नहीं थीं घुटनो तक सर्दी के दिन थे, ऊपर कंबल रखे था। स्त्री साथ जो इतनी बूढ़ी भी नहीं थी। आ रही थी, उसके साथ खींचती खींचती... सास चढ़ जाता था। 
                    कोई उसे उस वक्त पांच से  कम कोई कम ही देता होगा। अक्सर उसे सहानुभूति मिल जाती थी, कोई चाये पिला देता, गर्म गर्म। कोई उसे कंबल नया ले देता था। मार्मिक थी उसकी कहानी।
दर्द था। बोलने पर कम ही समझ आता था उसका। उनकी भाषा ही हिंदी और बिहारी मिक्स थी।
                     सिफत बहुत करते थे। ज़ब कोई बड़ा दान देता तो। सबकी जान की खेर मांगते थे। मेरे जैसे सोच वाले लोग उनसे दोस्ती इसलिए डालते थे, कि जान सके, वो कौन है??? पर ये एक ख़याल ही था। दोस्ती किसी से डालते ही नहीं थे। सोच के धक्का लगा। बताओ, कितना ही।
                  पर लोग जल्दी ही भूल जाते  है... उनका बस जादू था चल निकला। छे महीने मे कितना कमा गए होंगे... हिसाब कौन लगाए।
                    बस सब बज़ार वालो को तरस आता था। भगवान के नाम पे दे दो, लोग तरस कर कुछ न कुछ दे देते थे।
                 कुछ के वो दोस्त बन गए थे.... लोग बड़ी उदारता से उने सम्भोधन करते थे। पर उनका कोई भी दोस्त नहीं था। माँगके खाने वाले कितना  किसी के बारे मे अच्छा सोच सकते है। वफादार तो बस एक रब ने कुत्ता ही बनाया है, सच बताऊ और कोई नहीं  है।
जो कुत्ता सोचता है आपने मालिक का, आदमी कभी नहीं सोच सकता। वो तो उसे सब तरफ नीचा ही दिखायेगा। दिखाता रहा है,  कभी सुधरेगा नहीं। सच मे। आदमी आदमी एक दूसरे को दुखी देखे, दोनों खुश पता नहीं कयो। जीवन का छोटा सा सच है, ज़हर मात्र।
          एक साल उनको यही मांगते हो गया था। रहते कहा थे कोई नहीं जानता था... कभी आपने शहर जायेगे, देखेंगे कैसे जायेगे। गाड़ी कैसे चढ़ेगा??? ये बड़ा प्रश्न था। कया हमारे एहसास भी लूट के ले जाएगा, दर्द देके जायेगा। सोचता हुँ। कितना सच पर कड़वा कयो लगे है।
                 आँखो मे धूल जोखने को कया कहोगे, कि हमें कोई उल्लू बना गया। सच मे तुम बनने को तैयार हो। वो दुपहर तक मांगते रहे। जितना हो सके, उसकी पत्नी उसे खींचती और वो दो हाथ जमीन पे रख लेता, और लकड़ी की गाड़ी तीन पहियो वाली खींचता... जोर से। उसने जाने का एहसास न होने दिया। पर हम भी कहा चुप बैठने वाले थे। ------ गाड़ी प्लेटफार्म पे रुकी... कोई पज सात मिनट धन्यवाद ट्रेन....
एक दम से उठा, और चल गाड़ी मे, हमारे शहर हवा की तरा बात फैल गयी। साथ ही लोगों ने कहा, जो उस वक़्त वहा थे, गुस्सा निकाला " दुबारा आया, तो बहुत माडा हाल करेंगे। "  इंजन की सीटी और गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ चुकी थी। शहर वाले सोच रहे थे, हमें इतना बड़ा उल्लू बना गया। फिर वो कभी नहीं आया।
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                                           नीरज शर्मा 
                                      शहकोट, ज़िला :जलंधर।