------- (सच बोल रहे हो ) ----
आयो कुछ याद करा दू, हमने जो ज़ख्म खाये है, वो और नहीं हमारे लोग है। कितना सच बोल सकते हो, बोलो। प्रयास करो, खुल कर बोलो,, बोल दो, बस।
फिर देखो कैसे तोड़ दें गे तुम्हे लोग, कहे गे, एक और युधिष्ठिर पैदा हो गया है, कही जा कर ये कहो, " मैं चोर हुँ । " सच मे लोग हस पड़े गे, ये हम मे आकर चोर कयो कह रहा है, हैरानी जनक सत्य। " सच, मैं मैंने जब भी की चोरी की, समय की चोरी, किसी के काम न आने के बहाने की चोरी, हर किसी को झूठ बोल कर जीत जाने की चोरी, वादा कर के भागने की चोरी, पीठ पीछे छुरा मार के मुँह छुपाने की चोरी..... लोग हस पड़ेगे। कहेगे " बहुत पागल आदमी है " कोई ऐसे कहता है। दो मिनट के लिए सोचे गे, ", वाह, कया पता इसे हम कितने बे -गैरत से भरे हुए है। ये फ़टीचर सा बंदा कया और कयो सभा मे कह रहा है, और खुश हो रहा है, " साबित कया करना चाहता है। " मन मे सोचेंगे जरूर। अदरली गर्द कभी हटा देनी चाहिए। हल्के होने के लिए बोल दो, " मैंने कितनो को ठगा है, गोरमिंट को लुटा है, कैसे... बैंक के लोन को ले के उड़ गया, बाद मे 7 साल की सजा हुई, पत्नी छोड़ गयी, उसके गहने चोरी किये। जिमेवारियों से भागा, खूब भागा, जिम्मेवारी का भी चोर हुँ... " एक ने सभा मे से कहा " तुमने कोई नेक काम किया। " मै चुप था, " आपने कोई किया तो, दो लफ़्ज़ सुना दो, " मैंने बेझिझक कहा। वो चुप आग बबूला सा बैठ गया।
इसमें मुहल्ले के प्रधान बैठे थे, एक महीने मै एक बार सच बोलने की सभा लगती थी। जो कुछ भी है, "सब कहो।"
मर्ज़ी आपकी, तुम मे कितनी सहनसितलता है। और उसके बाद सच बोलने का अच्छा सा ईनाम... "पिछली दफा अब्दुल ले गे गया था।" पूछो गे नहीं कैसे " सच बोल कर "
जब उसने यही कहा था " मैंने तीन बहुत नींच काम किये.. " उसके बाद सजा हुई, फिर मैंने सादी ज़िंदगी गुज़ारी... अब तक। जयादा तो तमाशा बीन होते थे। जो ताड़िया मार कर हसते थे। मखोटा पहने तमीज मे लोग बैठे होते थे, स्टेज पे।
कोई किसी का वहा नाम नहीं ले सकता था। मेरे बाद रोशन जुलाहे की वारी थी। पर उसने सभा कील लीं थी।
बोला था " सस्कार अच्छे थे, बहुत अच्छे, ग़रीबी इतनी, कि एक रात मैंने ठंड मे चावल कि बोरी उठा कर ले आया। " फिर वो चुप हो गया। सब मुहल्ले को पता था। फिर रुक के बोला, " जो दो दिन से भूखा मेरा बाप, उसने मुझे दिए संस्कारो को आग मे जोख दिया था।
" बेटा, आज रज के पेट भरुगा, बहुत सवादिष्ट खाना है "
"भर पेट खाओ "-------मेरा पिता, आगे मै बाप था मेरे बच्चे तीन और मेरी बीमार पत्नी...." भरपूर भोजन किया। आज मन हलका हुआ... मोटे मोटे आंसू थे उसकी आँखो मे.... ग़रीबी ने मेरे सस्कार बखेर दिए, पेट कि भूख से बहुत सकून मिला। सभा ने ताड़ियों से अभिन्दन किया। वहा शर्त थी कोई सभा की बाते मच के बाद किसी से करे, तो जुर्माना होगा.... ऐसे ही चलती रही हमारे गांव की सकून भरी रात मे मन को हलका करने वालिया कहानियाँ..... बस यही थी बिहार राज्य की सच्ची कहानी.... बताने का निर्देश नहीं है।
मै सोचता था, ग़रीबी और संस्कार कभी कभी साथ चलते चलते डगमगा जाते है।
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-----------------------------------(चलता ) नीरज शर्मा
शहकोट, ज़िला जलन्दर