(1) -----लम्बी कहानी एपिसोड टाइप ------
----- मंजिले -----
बात उन दिनों की है, एक मकान बना कर रहना, एक मिसाल और योग्यता थी। मकान अगर मंजिले हो, तो कया बात, बहुत अमीर समझे जाने वाला शक्श....." हाहाहा, "हसता हुँ, आपने पर.... ये दोगला पन ही था..... मकान या घर या कलोनी, बीस साल तक बैंक की कर्ज़ादार थी।
ईटे, सिमट, सरिया, रेता, बजरी.... और मजबूती समान की, कया कहते हो साहब ------ नहीं कारीगर ही इस को मजबूत बना सकता है, कया झूठ बोल रहा हुँ।
"लो कर लो बात।" शर्मा जी मकान बना रहे हो। "
"चलो अच्छा हुआ " आवाज़ मे एक ज़िद थी... पता कया सुन कर हैरान हो जाओगे।" आप अगर न लेते " फिर रुक गए बात बदली, कि शायद महसूस होंगी " अच्छा पड़ोस मिल गया। " मैं हस पड़ा। कितने लोग गिरगिट है। कया से कया तोल देते है। ------" किसी चीज की जरूरत हो, तो हम हाजिर है। " मुस्करा पड़ा मैं। वैसे शर्मा जी अगर आप पहले मुझ से बात करते तो बस ---- काफ़ी कम क़ीमत पे करा देता सौदा। " मैंने कहा अच्छा जी। " आप प्रपटी डीलर भी है। " मैंने कहा।
"---हाहाहा " नहीं जी आप से थोड़ी कोई ऐसी बात। "
मै उनकी बात पे जोर से दहाका लगा दिया।------" फिर दोनों चुप.... "शर्मा जी, बंदे को रब कभी भूल नहीं जाना चाहिए??" मैने घबरा के कुछ हैरानीजनक ढंग से पूछा --" कया हुआ, जी " रब को कौन कमबख्त याद रखे। भूलना तो बहुत दूर की बात है । " कौन भूल गया जी , रब को। " मैंने मजाक मे सीरियस होते कहा।
"नहीं जी वैसे ही मुँह से निकल गया, उनका कमरा तो बना रहे हो। " मैं फिर हस पड़ा, उनकी बाते ही ऐसी थी, जिसमे काला नमक छिड़का हुआ था .... "नहीं जी, वो कोई किरायेदार थोड़ी है, मालिक है, घर के।" शर्मा जी की कड़क आवाज़ सुन कर वो बोला, "आप मालिक नहीं है। " मैं फिर हस पड़ा, "आप बड़े नोटि है जी ---"
" मालिक तो मै ही हुँ " कया समझे मैंने मजाक किया। " परमात्मा का एक कमरा अलग वस्तु शास्त्र से बनाये। " उसने नुकता चीनी करते पूछा।
"बुरा न माने, बाबू जी --- रब जो है, हमारा मालिक है,
हमारे बीच ही रहे गा, अलग कमरे मे कयो रखे उसे, वस्तु दोष को हम नहीं मानते, उनकी कोई चीज वस्तु मे दोष किधर होता है, हम खुद ही दोषी है।" शर्मा जी से और जिद बाज़ी करनी अच्छी नहीं समझी। " शर्मा जी, अच्छा जी मै चलता हुँ, कोई काम पड़े, तो पड़ोसी के नाते आवाज़ मार लेना। " मै नम्रता से खड़ा हो गया।
"शायद मै आप को बताना भूल गया, तीन मंजिले ठीक ही रहेगा।" शर्मा जी की आवाज़ पड़ी कान मे, तो वो बहरा हो गया लगा। वो देहलीज़ पार कर गया था।
उसे पता चल गया था, तीन मंजिले सर्दी मे धुप का आना बंद... लम्मी दीवारे जेल जैसी मेरे घर से दिखेगी।
अब कया हो सकता था। बुढ़बड़ा रहा होगा " सौदा हाथ से निकल गया, अब कया होगा..... रब जिथे रखे,
रहना पड़े।
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नीरज शर्मा
शहकोट, ज़िला :जलधर ----------------------