उससे कहना कि . . .
कहानी/sharovan
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क्यों आते हो यहाँ बार-बार? मत आया करो. ऐसे आने से लाभ भी क्या, जब तुम में मुझको अपने घर ले जाने का साहस ही नहीं है. अपनी मम्मी से तुम बात नहीं कर सकते हो? अपने पापा के सामने भी तुम खड़े नहीं हो सकते हो, तो फिर मुझे कैसे और किस प्रकार मांग सकते हो? मैं अकेली ही सही, किसी दूसरे की भी अगर हो हो गई तौभी तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा? बार-बार आते हो यहाँ, क्या मिल जाएगा तुमको? सिवाय इसके कि मैं ही बदनाम हो जाऊंगी, मेरे मम्मी और पापा? वह तो मारे शर्म के बाहर मुहल्ले में निकल भी नहीं सकेंगे. प्लीज़, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, पैर पड़ती हूँ, विनती करती हूँ, मेरे घर आना छोड़ दो...’
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गुदगुदी, एहसास, अनछुए बदन को सहसा ही पुलकित कर देने वाले स्पंदनों की झंकारें; दिल ही दिल में सोचते हुए रिमझिम अपने कोमल बदन को सुकोडते हुए और हाथों से गालों पर छाई लालिमा को छुपाते हुए इस प्रकार से लजा गई कि जैसे सावन ने अचानक ही चुपके से आकर उसको छू लिया हो?
पिछले चौदह वर्षों से रिमझिम सावन के साथ-साथ एक ही कक्षा, एक ही स्कूल से एक ही कालेज में पढ़ती आ रही थी. इतने वर्षों के अंतराल में उसके मन और मस्तिष्क में कभी भी इस प्रकार के विचार और भावनाएं नहीं आ सकी थीं. उसने तो हमेशा से ही सावन को अपना एक दोस्त, एक सहपाठी, बचपन से साथ रहनेवाला वह भला जन ही समझा था कि जिसे वह बहुत अच्छी तरह से जानती आई है और वक्त पड़ने पर जिस पर वह आँखें बंद करके विश्वास भी कर सकती है. लेकिन कब वह बड़ी हो गई? लोग कब से उसे सयाना कहने लगे हैं? महल्ले और जान-पहचान वालों की उन बातों पर भी वह सहज ही विश्वास नहीं करती थी. मगर जब एक दिन बातों-बातों में सावन ने उसे अचानक से छू लिया तो फिर उसे एहसास हुआ कि सचमुच उसके मुहं के साथ उसका बदन भी बात करने लगा है. जब उसके एहसास दिल की नाज़ुक और शबनमी धड़कनों से वास्ता जोड़कर उसके कानों में आहिस्ता-आहिस्ता प्यार के गीत गुनगुनाने लगे. कुछ तो तब्दीलियाँ उसके जीवन में उम्र के बढ़ने के साथ-साथ आईं हैं, जिनके कारण उसकी मां, उसे आये वक्त उस पर नज़र रखने लगी है. उसके पिता की आँखों में उसके प्रति चिंता और सतर्कता दोनों ही के चिन्ह स्पष्ट नज़र आने लगे हैं.
रिमझिम, उपरोक्त समस्त बातों, घर के हालातों को बहुत दिनों से देखती थी. देखती थी और सोचती थी. यही कि, क्या एक अकेली वही लड़की इस दुनिया में रह गई है जो बड़ी हो रही है, युवा हो रही है, जवान हो चुकी है? क्या इस संसार में और दूसरी लड़कियां नहीं हैं? क्या वे सब अपने समय पर बड़ी नहीं होतीं? उनके विवाह नहीं होते हैं क्या? समय-असमय, अक्सर ही उसके माता-पिता उसके ही भविष्य को लेकर बात किया करते हैं. उन की इन बातों में उसके प्रति चिंता, सोच-विचार और उसकी चुपचाप निगरानी के भाव दूर से ही झलक जाते हैं. ‘लड़की कालेज समाप्त कर ले, फिर रिश्ते की बात चलाएंगे, एक बड़ा बोझ तो है, पर क्या करें, उठाना तो पड़ेगा ही. सब ऊपरवाला करेगा, साहस तो करना ही है, आशा भी रखनी है.’ इस तरह की बातें रिमझिम अक्सर ही सुन लिया करती थी. सुनती थी लेकिन कभी भी इन्हें महत्वपूर्ण नहीं माना था. यदि ध्यान दिया भी तो केवल सावन को, उसके व्यक्तित्व को, उसके साथ पढ़ते हुए, उसके करीब आने के कदमों की दूरियों को कम करने के विषय में, कब वह उसकी हो जाए, कब वह उसे अपने घर ले जाए, उसकी दुल्हन बनकर वह कैसी हसीन और सुन्दर दिखेगी, बारात लेकर जब वह आयेगा तो कितने सारे लोग उसके दरवाज़े पर होंगे? आदि ऐसी तमाम बातों के सपनों के सागर में वह डूबती और उतराती थी. सावन ने भी उसे भरपूर विश्वास दिया, वास्ता दिया, उसे अपनी बनाने के लिए हर तरह के संघर्ष से जूझने के वादे किये, पर जब हकीकत सामने आई तो सावन तो पीछे नहीं हटा, वह स्वंय ही बड़ी आसानी से अपने हथियार डालने वाली नहीं थी. मगर बात तो वहीं आकर थम गई थी कि आगे कौन बढ़े? बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? मां ने उसका रिश्ता अपने जान-पहचान में किसी लड़के से तय करने के लिए सोच रखा था. उसके पिता को तो शायद इस बारे में कुछ भी बोलने की मनाही उसकी मां ने पहली ही कर दी थी. उसके पापा तो इस बारे में अभी तक कुछ भी नहीं बोले थे, मगर जब भी बोलते थे तो सदा मां को ही उनकी बात माननी भी पड़ती थी.
फिर कालेज बंद हुए. छुट्टियां हुई. घर के अंदर विवाह जैसा माहौल बनने के आसार दिखने से लगे और सावन से मिलना भी रिमझिम का करीब-करीब बंद सा हो गया. लेकिन एक दिन सावन रिमझिम को अचानक से बाज़ार में मिल गया. दोनों में बातें हुई. शिकवे-शिकायतों के मध्य रिमझिम ने अपने घर के सारे हालातों के बारे में स्पष्ट कर दिया. सावन सुनकर जहां चौंका वहीं वह चिन्तित भी हो गया. तब सावन ने उसे समझाया, अपने माता-पिता को उसके घर भेजने और उसका रिश्ता मांगने के लिए, वास्ता दिया. साथ ही उससे रोज़ ही उसके घर पर जब उसके मम्मी और पापा नहीं होंगे और दोनों ही अपनी नौकरियों पर होंगे तो वह उस मध्य उससे मिलने भी आया करेगा. लेकिन ऐसा हो नहीं सका. सावन की हिम्मत ही नहीं हो सकी कि वह अपने माता-पिता से इस बारे में बात भी करता. अगर उसमें कुछ साहस हुआ भी था तो वह केवल रिमझिम के मां-बाप की अनुपस्थिति में उससे मिलने उसके घर पर आने भर का ही. बाद में धीरे-धीरे दिन बीते, महीने हुए और रिमझिम के अपने घर में उसकी सगाई की बातें आये दिन होने लगीं. होने लगीं तो उसे चिंता हुई, मन ही मन खूब कुलबुलाई, छटपटाई, मजबूरी में अपने हाथ मलने लगी, दिन-रात वह परेशान रहने लगी. सोच लिया कि इस बार सावन आयेगा तो वह उससे खुलकर बात करेगी. कहेगी कि यदि वह उसको अपनी बनाना चाहता है तो अब देर न करे. अपने मां-बाप से स्पष्ट कहे और उन्हें मेरे घर भेजे. और अगर वह ऐसा नहीं कर सकता है तो फिर यहाँ आना छोड़े. भूल जाए मुझे और सारी ज़िन्दगी हाथ मल-मलकर पश्चाता रहे और मुझे भी रोने दे.
तब हमेशा की तरह जब सावन आया तो रिमझिम ने उसे आड़े हाथ ले डाला. उसको सारी परिस्थितियों से आगाह किया. बोली,
‘ऐसा अब और ज़्यादा दिन नहीं चलेगा. तुम्हें ही कुछ करना होगा. अपने मम्मी और पापा से खुलकर कहना होगा. मैं तो लड़की हूँ. मुझसे नहीं हो सकेगा ये सब. अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते हो तो फिर मुझे भूल जाओ. मेरे तो प्यार की बलि चढ़ेगी ही साथ ही तुम भी ज़िन्दगी भर पछताते रहना. अब से मेरे घर पर यूँ छुप-छुप कर आना भी बंद करो. किसी ने हम दोनों को अगर इस तरह से छुप कर मिलते देख लिया तो फिर और मुसीबत हो जायेगी.’
सावन ने चुपचाप सुना. सिर हिलाकर अपनी हां में उसकी बात का समर्थन किया और फिर चला गया. मगर फिर भी बाद में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. सावन ने न तो अपने मां-बाप से बात की और ना रिमझिम के घर आना ही छोड़ा. कोई जब बात नहीं बनी और सावन ने आना भी नहीं छोड़ा तो रिमझिम और भी परेशान हो गई. सावन का अपने मां-बाप से बात न करने का कारण ऐसा कोई विशेष मुश्किल वाला भी नहीं था. जिस परिवेश और अपने घर के माहौल में उसकी परिवरिश हुई थी उसमें इस तरह की बात और फैसले करने का तरीका उसे सिखाया ही नहीं गया था. वह करता भी क्या? और जब अपनी मजबूरी और परेशानी सावन ने रिमझिम को बताई तो वह उस दिन कुछ अधिक न बोलकर केवल इतना ही बोली,
‘तो ठीक है. तुम अब मेरे घर आना बंद करो. अगर आओगे भी तो मैं आगे से दरवाज़ा हरगिज़ नहीं खोलूँगी. सोच लेना कि मैं जितना अधिक तुमको प्यार करती हूँ उतना ही सख्त भी हो सकती हूँ.’
सुनकर सावन चुपचाप चला गया. लेकिन अपनी आदत से मजबूर उसने दूसरे दिन फिर से उसने निश्चित समय पर रिमझिम के घर का द्वार खटखटा दिया. मगर रिमझिम ने भी दरवाज़ा नहीं खोला. सावन ने बार-बार कहा. मिन्नतें कीं, अपने प्यार का वास्ता दिया, कसमें खाईं, लेकिन रिमझिम ने द्वार नहीं खोला. नहीं खोला तो सावन उस दिन जैसे बे-हद निराश होकर वापस लौट गया. उसके जाने के बाद रिमझिम वहीं द्वार से सिर लगाकर खूब रोई, अफ़सोस किया, सावन से दिल लगाकर पछताई भी. वह जानती थी कि ऐसा कब तक और क्योंकर चल सकता था? कुछ तो दोनों में से किसी न किसी को करना ही था. सो जो वह कर सकती थी उसने किया था.
अगले दिन, सावन बेशर्म बना फिर से आ गया. उसने द्वार की घंटी बजाई. तो अंदर उसके इंतज़ार में खिन्न सी बैठी रिमझिम समझ गई. वह अपने स्थान से उठी भी नहीं. मगर सावन ने घंटी बजाना बंद नहीं किया. बार-बार बजती हुई घंटी की आवाजें सुनकर रिमझिम मन ही मन झुंझलाते हुए अपने स्थान से उठी. जाकर उसने दरवाज़ा खोला और सावन को सामने खड़ा देखकर खिसियाते हुए बगैर कुछ भी कहे-सुने तुरंत ही दरवाज़ा बंद कर दिया. फिर आकर अपने कमरे में चली आई. रिमझिम ने सोचा था कि उसके ऐसा करने से कुछ तो बात बनेगी और कोई न कोई हल निकल ही आयेगा. मगर उसका सोचा हुआ कुछ भी नहीं हुआ. सावन आता और रिमझिम खिन्न मन से दरवाज़ा खोल देती और सावन को देखते ही तुरंत दरवाज़ा बंद भी कर देती. लेकिन अपनी आदत से मजबूर सावन ने रिमझिम के घर आना बंद नहीं किया. वह निश्चित समय पर आता, द्वार की घंटी बजाता, कुछ देर तक इंतज़ार करता, फिर वापस चला जाता. मगर रिमझिम द्वार पर आकर चुपचाप खड़ी तो हो जाती, पर उसे खोलती हरगिज़ भी नहीं.
फिर एक दिन, सावन फिर से आया. अपने समय पर. उसने द्वार की घंटी बजाई. रिमझिम ने सुना तो वह खिन्न सी होती हुई दरवाज़े पर आई, सोचा के वह आज सावन को को खूब ही खरी-खोटी सुना दे. इस प्रकार कि वह आइन्दा आना तो क्या इस तरफ का रुख भी करना छोड़ देगा. मगर नहीं, सावन का भोला और निष्कपट मुखड़ा उसकी आँखों के सामने जैसे ही आया तुरंत ही उसकी आँखों में आंसू भर आये. वह मन ही मन द्रवित हो गई. लगा कि वह फौरन ही द्वार खोल दे और सावन से चिपक जाए. फिर भी वह ऐसा नहीं कर सकी, और दरवाज़े के पीछे ही खड़ी-खड़ी गिड़-गिड़ाने सी लगी. रोते और सिसकते हुए कहने लगी,
‘क्यों आते हो यहाँ बार-बार? मत आया करो. ऐसे आने से लाभ भी क्या, जब तुम में मुझको अपने घर ले जाने का साहस ही नहीं है. अपनी मम्मी से तुम बात नहीं कर सकते हो? अपने पापा के सामने भी तुम खड़े नहीं हो सकते हो, तो फिर मुझे कैसे और किस प्रकार मांग सकते हो? मैं अकेली ही सही, किसी दूसरे की भी अगर हो गई तौभी तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा? बार-बार आते हो यहाँ, क्या मिल जाएगा तुमको? सिवाय इसके कि मैं ही बदनाम हो जाऊंगी, मेरे मम्मी और पापा? वह तो मारे शर्म के बाहर मुहल्ले में निकल भी नहीं सकेंगे. प्लीज़, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, पैर पड़ती हूँ, विनती करती हूँ, मेरे घर आना छोड़ दो...’
‘...रिमझिम . . .रिमझिम? क्या हो गया है तुमको? किससे रो-रोकर बात कर रही हो? दरवाज़ा तो खोलो जल्दी से.’ बाहर काफी देर से खड़े हुए उसके पिता की आवाज़ रिमझिम को अचानक ही सुनाई दी तो लगा कि जैसे उसके पैरों से जमीन ही खिसक गई है. भय के मारे वह शीघ्र ही पसीने-पसीने हो गई. घबराहट में उसने द्वार खोला तो सामने अपने पिता को यूँ खड़े देख उसे लगा कि वह जल्दी ही चक्कर खाकर गिर पड़ेगी. तभी उसके पिता ने उसे संभाला और अपने सीने से लगा लिया. बड़ी देर तक वे उसे अपने कलेजे का हिस्सा बनाये, अपने अंक से लगाए हुए उसके सिर पर स्नेह से हाथ रखे रहे. तब थोड़ी देर बाद लगा कि कुछ सामान्य सा हो गया है, वे रिमझिम से बोले,
‘जो लड़का तुमको पसंद है, ‘उससे कहना कि’, अपने किसी बुज़ुर्ग या फिर अपने मां-बाप के साथ मुझसे मिले. अगर वह ऐसा नहीं कर सकता है तो फिर उसके मां-बाप का नाम व पता और फोन नंबर मुझे दो. मैं खुद ही उनसे तुम्हारे रिश्ते के लिए हाथ मांगने जाऊंगा. अगर उन सबको कोई भी तकलीफ नहीं है तो मुझे भी कोई ऐतराज़ नहीं होगा तुम दोनों का विवाह करने के लिए.’
अपने पिता के मुख से इतनी प्यारी-प्यारी बात को सुनकर रिमझिम को लगा कि अचानक ही जैसे तपते हुए ग्रीष्म के खेतों में सावन की फुहारें इस प्रकार बरस पड़ी हैं कि वह उनकी बारिश में सारी ज़िन्दगी इसी तरह से भीगती रहे.
समाप्त.