चाँद की गवाही में कुकून से निकली नई औरत Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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चाँद की गवाही में कुकून से निकली नई औरत

नीलम कुलश्रेष्ठ

 

डॉ. उर्मिला शिरीष जी ने अपने उपन्यास 'चाँद गवाह 'के शीर्षक को पता नहीं किन अर्थों के लिए चुना लेकिन मैं इसे दो अर्थों में ले रहीं हैं। एक तो चाँद या उसकी नशीली चांदनी गवाह होती है स्त्री पुरुष के आत्मीय संबंधों की। दूसरा चाँद सृष्टि की रचना के आरम्भ से गवाह है कि किस तरह कुछ अटल नियम इस तालिबानी व्यवस्था के कारण स्त्री को जकड़े हुए हैं। चाँद गवाह है कि स्त्रियां इनसे लड़कर किस तरह अपना रास्ता बनातीं हैं। कुछ बानगी देखिये :

---हर तीसरे चौथे घर का पुरुष किसी नशे का शिकार होकर, उस पर जुल्म करता है। ऐसी स्त्रियों को उससे हमेशा पैसे की भीख माँगनी पड़ती है।

----इस व्यवस्था के कारण ही स्त्री मुक्ति, स्त्री सशक्तिकरण, स्त्री की आज़ादी, स्त्री की अस्मिता, स्त्री की पुरुष से समानता की धारणाएं इस शब्दों का जन्म हुआ।

--चाँद गवाह है इन शब्दों को खोखला साबित करता समाज अंदर से बिलकुल नहीं बदला, पुरुष नहीं बदला [या उसके बदलने की गति कछुआ जैसी है, स्त्री बदल रही है।

---- किसके पिता या पति या भाई अत्याचारी, शोषक या दुष्ट नहीं होते ? किसको इनसे संघर्ष नहीं करना पड़ता ?

----वी के लिए शादी से पहले प्रेम करो तो गुनाह, शादी के बाद प्रेम करो तो और भी उससे बड़ा गुनाह ? फिर वह कब प्रेम करे ?

हर स्त्री में किसी भी उम्र में कोई तो प्रेमी आता है जब वह 'अपने होने के बोध 'से लबालब भर जाती है। ऐसे शख्स से मिलकर उसके अंदर एक नई औरत का जन्म होता है।

ये कुंठा है हर उस शिक्षित स्त्री की जो जब सिर्फ घर सम्भालती रह जाती है, जीवन में तीन विपरीत ध्रुवों पर घूमते हुए, घायल, कुंठित होती रहती है., सोचते हुए मैं जीवन में कुछ नहीं कर पाई सिर्फ आज्ञाकारी बहू बेवकूफ़ पत्त्री, ज़िद्दी बेटी बनकर रह गई। बच्चों को पालने में उसने अपना सब कुछ उलीच दिया और ख़िताब पाया 'गैर ज़िम्मेदार माँ। इस उपन्यास की ग्रहणी नायिका दिशा के नई औरत के रूप में जन्म लेने व समाज व परिवार से बुरी तरह टकरा जाने की कहानी है। दिशा की खुलेआम दृढ़ता एक अपवाद है लेकिन कहीं कहीं ये सब हो ही रहा है।

डॉ. आदर्श मदान ने इस नई औरत के जन्म को बहुत सटीक रूप में व्यक्त किया है:

"मुझे चाहिए अस्मिता, सार्थकता, सहजता, सम्पूर्णता, अपने होने का अहसास,

हे अर्जुन ! अब सुभद्रा को नहीं स्वीकार्य रिरियाती, बिलबिलाती, रेंगती हुई ज़िंदगी।"

सबसे पहले डॉ. उर्मिला शिरीष जी को हार्दिक बधाई कि उन्होंने बेहद कठिन विषय पर कलम चलाई है कि जब पति पियक्कड़ हो, बीवी को लताड़ता रहता हो तो वह किसी मित्र को सहारे की तरह चुन सकती है. मैंने एक कहानी 'सौतेला पति 'लगभग तीस पैंतीस वर्ष पहले लिखी थी, जिसमें लिखा था जिस तरह पत्नी बनना, मां बनना एक स्त्री की संपूर्णता है, उसी तरह किसी की प्रेमिका बनना उसकी एक और निजी सम्पूर्णता है। इस उपन्यास की नायिका दिशा इसी तरह अपनी दिशा तलाशती है। वह घर की बदहाली से तंग आकर गोपेश, भट्टाचार्य, यहाँ तक कि एक गुरु के साथ व्यवसायिक योजना बनाना आरम्भ करती है लेकिन वे पुरुष हैं, ये बात उसकी दोनों बेटियों को भी अच्छी नहीं लगती। पति द्वारा हर तरह से सताई स्त्री गुरु के अलौकिक रूप पर विश्वास करने लगती है। गुरु तो गुरु घंटाल निकलते हैं। इन सबसे उसे किसी न किसी धोखाधड़ी के कारण किनारा करना पड़ता है। किस्मत से वह ऐसे व्यक्ति संदीप से मिलती है जिससे उसे आत्मिक प्रेम व व्यवसायिक सहारा मिलता है- यही उसे उसके अंदर की औरत से मुलाक़ात करवाता है। एक संबंध संदीप से खुले आम जीने लगती है जो कि शरीर से बढ़कर उसका आत्मीय सुख है।

दरअसल उर्मिला जी ने बहुत जाँबाज़ी से इस सच को उद्घाटित किया है:

"स्त्री के भीतर

सदा जीवित रहता है एक प्रेमी।

दुनियां की तमाम

कुरूपताओं और

जुल्मों से लड़ने की

ताकत देता है

वह प्रेमी

वह पुरुष।

स्त्री के रहस्यमयी होने का

यही एक सच है।"

 

संदीप उसे अपने पैरों पर खड़ा करना चाहता है इसलिए उसके पति के पैतृक फ़ार्महाऊस में रहने आ गया है। जो समाज की लताड़ के आगे एक दृढ़ दीवार की तरह खड़े होकर कहता है, "किसी रिश्ते के नाते नहीं, इंसानियत के नाते, दोस्ती के नाते दिशा को खड़ा करके ही जाऊंगा।

कितना आसान होता है किसी पुरुष के लिए ऐसे सम्बन्ध को स्वीकारना, पत्री को मकान दे दिया है, बच्चों की शादी कर दी मैंने अपनी निजता को किसी के सामने बंधक नहीं बनने दिया। "

लेकिन स्त्री के लिए कितना कठिन होता है माँ, भाई बहिनों व समाज की गालियों को झेलना, अपनी ही बेटियों के ताने व हिकारत। कितनी स्त्री दिश…के ताने व हिकारत। कितनी स्त्री दिशा या भक्त मीरा की तरह अपने सच को स्वीकार पातीं हैं ? पुस्तक से ली गईं इन पंक्तियों जैसे:

 

" मैं निकल पड़ी,

इन दरख्तों के पार,

मेरी मंज़िल के बीच कोई नहीं,

सिर्फ और सिर्फ तुम हो।

 

दिशा की ये भटकन ऐसे ही नहीं हुई थी इस विदुषी स्त्री का पति मूर्ख, गंवार पियक्कड़ था। उधर संदीप स्पष्टवादी व तार्किक उसे बीज, कृषि व ज़मीन व खेती की जानकारी थी। उधर वह धर्म, आध्यात्म विज्ञान और राजनीति व वैश्विक विषयों पर भी नज़र रखता था

इन स्थितियों का गहन विश्वेक्षण, जंगल के ऐसे सुरम्य वतावरण का उर्मिला जी द्वारा मनभीना वर्णन ."सुबह सुबह का खूबसूरत, शीतल शान्त वातावरण पक्षियों का कलरव चमकते हरे भर वृक्षों में गूँज रहा था जैसे कई वाद्यंत्र एक साथ बज रहे हों। सुबह की धूप में अजीब सी नरम सुगंध बसी थी। जैसे मखमली नर्म शब्दों के बीच दिशा को झकझोरने वाले आक्षेपों व उसके पति, आर्थिक स्थिति व समाज से टकराने की हिम्मत को बहुत धारदार भाषा में साधते हुए इस उपन्यास को कलम से रच गई हैं उर्मिला जी.

दिशा की एक बहिन [नरेटर उससे सहानुभूति रखती है। इसलिए इन पंक्तियों द्वारा दिशा अपना दुःख व्यक्त करती है

"मैं चक्की में पड़े दानों की तरह पिसती रही,

लोग सोचते रहे कि चक्की गा रही है औरतों के गीत। "

 

दिशा आज की उन कवयित्रियों का प्रतिनिधित्व करती है जो कवितायें लिख लिखकर फ़ेसबुक पर पोस्ट कर वाहवाही लूटतीं हैं। वे पत्रिकाओं के सम्पादकों को नहीं भेजतीं कि कहीं चापलूसी न करनी पड़े। वे ये भूल जातीं हैं कि लाइक करने वाओं को कितनी कविता की समझ है ? लाइक करने के ढेरों शब्दों 'वाऊ' - तुस्सी ग्रेट- - क्या कविता है आपने तो वर्ड्सवर्थ जैसी बात कह दी जैसे चालू नूतन मुहावरों के जाल में फंसकर रह जातीं हैं। उनकी प्रतिभा किसी मुकाम तक नहीं पहुँच पाती।

अपने जीवन को सार्थक बनाने की चाहत, घरवालों के सामने हाथ फैलाने की मजबूरी से छुटकरा पाने की चाहत व संदीप से प्रेम ने उसे इतना निडर बना दिया है कि बिना जंगली जानवरों के डर के आदिवासियों के खूंखारपन की परवाह किये वह निपट सुनसान जंगल में बने फ़ार्महाउस में रहने लगती है। क्या निश्छल प्रेम स्त्री को इतना निडर बना देता है? संदीप जंगल के उजाड़ फ़ार्महाउस को उपयोगी बनाने के लिए वह वृक्षारोपण करके, डेयरी फ़ॉर्म खोलकर दिशा को स्वावलमबी बनाना चाहता है।

दिशा फ़ार्महाउस के एक हिस्से को ट्रेकिंग करने वाले युवाओं को देकर उन की सहायता करती है जिससे इस उजाड़ में कुछ रौनक हो जाए। वे सामान वहां रखकर दिन भर ट्रेकिंग करके लौटकर खाना बनाते हैं, गाते बजाते हैं लेकिन उसी की बेटी पारुल उन्हें दादागिरी करके, डॉट लगाकर भगा देती है। उनका आना भी बंद हो जाता है। पारुल का क्रोध ये है, "आजकल कोई शादी नहीं करना चाहता, हर कोई फ़्री रहना चाहता है। मैं मुंबई रहकर अच्छी खासी नील के साथ रह रही थी। आपकी शादी करने की शर्त से वह मुझे छोड़ गया। मैंने चौदह पंद्रह दोस्तों के साथ अपनी लाईफ़ एक्स्प्लोर की है। मेरा क्या बिगड़ा ?"

ये आजकल की पीढ़ी के कुछ युवाओं के कटु यथार्थ हैं जिनसे खालिस देशी माँ बाप की देशी मानसिकता को टकराना पड़ रहा है। समाज ने स्त्री पुरुष के एक साथ रहने की विवाह व्यवस्था को सर्वोत्तम माना था, जो हर समय का सच भी है। जब इसी घर के पहिये में से एक दिशा के पति राजीव की तरह लड़खडाया होता है, तो घर का ढर्रा बिगड़ ही जाता है. इसीलिये बेढब हैं दिशा की दूसरी बेटी निधी भी।

जो समाज उसके पति की नशीली लत व जानवरों जैसे व्यवहार को कोसता था अचानक वह दिशा को अपने फ़ार्महाउस में संदीप को रख लेने से सो कॉल्ड पति 'दया का पात्र बन जाता है और दिशा स्वार्थी, कठोर व बेहया स्त्री।

विरोध करने वाले दिशा के रईस भाई भी संदीप से मिलकर उसके पांच भाषाओं के ज्ञान, उसकी बुद्धि से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। लेकिन उनके सामने भी वही नपा तुला ख़ाका है राजीव व संदीप में से एक को चुनो। मतलब राजीव को तलाक देकर संदीप से चाहो तो शादी कर लो।

ये उपन्यास भी बहस है विवाह के बाद जीवन में आई दूसरी स्त्री को 'रखैल 'पद देने वाले समाजिक दृष्टिकोण के प्रति। मुझे याद है दक्षिण के एम जी रामचंद्रन की मौत पर लोग कहने लगे कि जयललिता उनकी रखैल थी तो मैं उनसे भिड़ गई थी कि जयललिता के पास इतना पैसा था कि वह अपना भरण पोषण कर सकती है फिर वह क्यों रखैल हुई ? विवाह व्यवस्था भी सार्थक है, इसके बीच में हुए विवाहेतर संबंध भी सच हैं-अब ये स्त्री पर निर्भर करता है कि वह कितनी दृढ़ता से इसे स्वीकारती है। ये उपन्यास एक द्वन्द है - पत्नी, प्रेयसी या रखैल की स्थिति के लिए भी।

दिशा जैसा दुस्साहस अब्बल तो औरत कर ही नहीं पाती, दूसरे आज की लम्पट दुनियाँ में धीर गंभीर भरोसा करने लायक पुरुष ही कितने हैं ? संदीप किस श्रेणी में आता है ? इन परिस्थितियों में जकड़ी दिशा उसकी बेटियों, संदीप के सामाजिक उत्तरदायित्व और दिशा उसके भविष्य, प्रेम की अतल गहराई व ऐसे संबंध से बौखलाये हुये समाज की मानसिकता को जानना हो तो इस उपन्यास को पढ़ना ही पड़ेगा। उर्मिला जी को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं इस उपन्यास के सृजन लिए।

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पुस्तक [उपन्यास ] -चाँद गवाह

लेखिक-उर्मिला शिरीष

प्रकाशक-सामायिक प्रकाशन

मूल्य-250 रु.