नगीना Wajid Husain द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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नगीना

वाजिद हुसैन सिद्दीक़ी की कहानी
वह मेरा घनिष्ट मित्र था। मौजमस्ती और झूठी शान के लिए धन व्यर्थ करना उसका स्वभाव था जिससे उसका परिवार त्रस्त था। 
एक दिन वह मुझसे मिला। उसने रूधें गले से कहा, 'मैं जा रहा हूं, पता नहीं फिर मुलाक़ात हो या न हो।' 
     'क्यों?' मैंने पूछा।
       'परिवार ने मुझे ज़िन्दगी और जायदाद से बेदखल कर दिया है।'
         'कहॉ जाओगे?'
          'पता नहीं।'
  यह सुनकर मेरी आंखें छल्छला गई। कई वर्ष बाद मैं मुंबई के एक पाश एरिया से गुज़र रहा था। वह एक बंगले के बाहर खड़ा था। उसने मुझे पुकारा, मेरे गले लगा गया और मुझे अपने बंगले में ले गया। उसकी बेपनाह खूबसूरत बीवी देखकर मैंनेे बेतकुल्लुफी से कहा, ' यह नगीना कहां से ले आया?' उसने कहा, ' यह जानने के लिए मैं तुम्हें एक सच्ची कहानी सुनाउंगा जिसकी स्क्रिप्ट झूठी है।' और कहानी सुनानेे लगा।
          ईमाम साहब सवेरे जल्दी उठने के आदी थे। वे कौऔं की पहली कर्कश कांव-कांव से जाग जाते थे और जब वह अपने हुजरे की खिड़की के पर्दे हटाते थे तो सामने सड़क की टिमटिमाती रोशनियों के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता था। घटते चांद की आख़िरी कुछ सुबहों में उनके मोहल्ले के रईसों की कोठियां मद्धम चांदनी में नहाई दिखती थीं। यह एक ख़ूबसूरत मंज़र था। लेकिन इस समय के अलावा हर वक्त वह ऐसी गर्द भरी गंभीर और निर्जीव दिखाई देती थीं जैसे इनके मालिकों ने इनका ख़्याल रखना बंद कर दिया हो। 
       मस्जिद के हाते में एक बड़ा सा नीम का पेड़ था। वह उस समय लगाया गया था जब यह मस्जिद बनी थी। यह पेड़ लगभग तीस साल पुराना था, यानी तक़रीबन जब इमाम साहब तालीम लेने के‌ बाद इस मस्जिद में इमामत के लिए आए थे। तक़रीबन जाड़ो भर पेड़ पर पत्ते नहीं रहते थे। इसकी सूखी डालियों से जाड़ों की धूप छन- छन कर आती थी। बसंत ऋतु के गर्मी में बदलने तक पेड़ पर इतने घने पत्ते हो जाते थे कि शाखाएं तक दिखनी बंद हो जाती थी। फिर उस पर तरह-तरह की चिड़ियां आने लगती थी। ज़्यादातर शामों को कोयल पत्तों की आड़ में छुपी सूरज के छुपने तक लगातार बोलती रहती थी।
      नीम का पेड़ ईमाम की ज़िंदगी का एक ज़रूरी हिस्सा बन गया था। वह इसकी शाखाओं में से उठते चिड़ियों के शोर से सुबह को जागते थे। फारिग़ होने के बाद एक टहनी से दातून तोड़ते और फज्र की अज़ान देने तक मूंह में चबाते रहते थे।
     एक सवेरे वह दातून लेने के लिए पेड़ के पास गए। वहां एक नौजवान को कुरआन पढ़ते देखकर हैरान हो गए। वह छरैरे बदन का ख़ूबसूरत नौजवान था जो देखने में किसी अमीर देहाती परिवार का मालूम पड़ता था। वह जींस‌ पहने हुए था। उसके सिर पर रुमाल बंधा था। ईमाम भौचक्का खड़े उसे देखते रहे फिर एक ऊंची जगह पर खड़े होकर अज़ान देने लगे। अज़ान की आवाज सुनने के बाद उसने कुरआन अपने बैग में रखा और नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद के हाल में चला गया। नमाज़ पढ़ने के बाद बाद ईमाम और नमाज़ी उसके इर्दगिर्द जमा हो गए और उस पर प्रश्नो की बौछार कर दी। उसने यह कहानी सुनाई।
      एक दिन मैं भीड़ भरी बस में पूना से मुम्बई का सफर कर रहा था। मैं सबसे पीछे की सीट पर खिड़की के पास बैठा था। चूंकि बसंत का मौसम था और ठंड हो रही थी, इसलिए मैंने शाल लपेटी और सो गया। कई घंटे बाद मेरी आंख खुली तब खुली जब मुझे किसी चिकनी सी चीज़ के अपने टखने पर लिपटे होने का एहसास हुआ। वह एक छोटा सा सांप था जिसने मेरी गर्म टांगों को कोई स्थिर वस्तु समझकर ठंड से बचने के लिए चुन लिया था। मैं चिल्लाने लगा। बस को जल्दी से रोका गया। ड्राइवर, कंडक्टर और यात्री दौड़ते हुए बस के पिछले भाग की तरफ भागे लेकिन मेरे टखने पर लिपटे सांप को देखकर ठिठक गए। यात्रियों की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। किसी ने कहा, 'यह पढ़ो किसी ने कहा, वह जपो। जिसने जो कहा वह मैंने किया पर सांप टस से मस नहीं हुआ। दाढ़ी वाले ड्राइवर का धैर्य जवाब दे गया तो उसने कहा, जो मैं पढ़ रहा हूं, वह पढ़ते हुए आप धीरे से बस के बाहर आए और अपनी टांग धूप में करके सड़क के किनारे बैठ जाएं। मैंने वैसा ही किया जैसा ड्राइवर ने कहा था। सांप बल खाता हुआ पहाड़ी से उतरता चला गया।
        मैं अपनी सीट पर बैठ गया। मैं बहुत घबराया हुआ घर पहुंचा। मैंने घर वालों को इस घटना का पूरा वृतांत सुनाया और वह भी सुनाया जो ड्राइवर ने मुझे बार-बार पढ़ने को कहा था। यह सुनने के बाद मेरे ताऊ जी ने विचलित होकर मुझसे कहा, 'लला तूने यह क्या कर डाला। यह तो मुसलमानों का कलमा है जिसे तीन बार पढ़ने के बाद आदमी मुसलमान हो जाता है। हाए राम! तू तो मुसलमान हो गया।' पहले तो मैंने यह बहुत हल्के में लिया। जब दादी ने मेरा खाना पीना रहना सहना सब अलग कर दिया तो मैंने सोचा, अनर्थ हो गया। रात को सोने लेटा तो सोचने लगा, 'सांप को भगानेे में क़ुरआन क्यों काम आया, क़ुरआन में ऐसा क्या है?'
        नमाजियों ने एक स्वर में कहा, 'सुभान अल्लाह,' और उसके इर्दगिर्द पालती मारकर बैठ गए। उन्होंने उत्सुकतावश कहा, 'भाई जान, 'फिर क्या हुआ?' मैंने इस्लामिक बुक स्टाल से एक ऐसा क़ुरआन लिया जिसकी हर आयत के नीचे हिंदी में मतलब लिखा था। रात को जब सब सो जाते थे, तो उसको पढ़ता और समझता था।' मेरे ताऊ जी महाराष्ट्र की सांप्रदायिक हिन्दू सेना के प्रमुख हैं। उन्हें भनक लग गई कि उनका भतीजा मुसलमान हो गया है और उनकी लंका का अंत निश्चित है। उन्होंने मुझे अंजाम भुगतने की चेतावनी दी। मैंने उनसे बस इतना कहा, 'मौत और जिंदगी अल्लाह के हाथ में है। जब तक मेरी मौत नहीं आई है, आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।' उन्होंने गुस्से में अपने पिस्तौल की सारी गोलियां मुझ पर चला दी पर अल्लाह को मेरी मौत मंज़ूर नहींं थी। मैंने जल्दी से एक झोले में क़ुरआन रखा, आटो से स्टेशन चला गया और सामने खड़ी गाड़ी में बैठ गया। वह गाड़ी मुझे आपके शहर में ले आई। स्टेशन के बाहर निकला और मस्जिद की मीनार देखते हुए चलने लगा। इस तरह अनवर अपने भाईयो तक पहुंच गया।'
      उसकी भावुक कहानी नमाज़ियों के दिल को छू गई। अति उन्मादी इनाम अहमद ने नमाज़ियों से कहा, 'यह नौ-मुस्लिम हैं, इनके रहने, खाने-पीने और सुरक्षा का इंतिज़ाम हमारी ज़िम्मेदारी है।' उनके कहने पर सबने मिलकर उसके रहने के लिए मस्जिद के मेहमान ख़ाने में व्यवस्था कर दी और हर घर को एक दिन खाना भेजने के लिए पाबंद कर दिया। यह ख़बर वायरल हो गई, 'इस्लाम से प्रभावित होकर एक कट्टर धर्म सेना प्रमुख के भतीजे ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया है।' शहर के मुसलमान उसकी तारीफ में क़सीदे पढ़ते, दावतें देते और उसे नज़राना भेंट करते थे। 
        एक दिन गर्मी तेज़ थी। धूप से बचने केे लिए वह पेड़ की साया में बैठ गया और कुरआन पढ़ने लगा। वह जहां बैठा था, वहां से ठीक सामने इमाम साहब के हुजरे की खिड़की थी। अनवर को कमरे की खिड़की में से एक लड़की दिखाई दी जो क़ुरआन पढ रही थी। लड़की बड़ी दिलफरेब थी। उसे लगा, इसके अंग-अंग में जुगनू टके हुए हैं। ऐसी खनक आवाज़ कि चुप भी हो जाती, तब भी चार तरफ से झंकार सी उठती रहती है। उसके बाद से वह क़ुरआन पढ़ने के बहाने पेड़ के नीचे बैठ जाता और कनखियों से लड़की को ताकता रहता था। धीरे-धीरे वह उससे मोहब्बत करने लगा, पर डरता था, कहीं इस मोहब्बत ने उसका राज़ खोल दिया तो मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेगा। मोहब्बत तो सुनामी की तरह होती है जो एक बार शुरू होती है फिर तूफान बनकर कर अंजाम से बेखौफ साहिल से टकराती है। उसे न भूख लगती, न प्यास, न नींद आती न चैन पड़ता। फरेबी बात़ों में, उसकी दिलचस्पी नहीं रही। हर समय उसके दीदार को मन करता और दिल उससे निकाह करने के लिए मचलता रहता।
          एक रात इमाम साहब दूल्हा मियां के मज़ार पर उर्स में गए हुए थे। हुजरे में लड़की अकेली थी। अनवर ने हुजरे के दरवाजे पर दस्तक दी। वह और लड़की आमने- सामने थे। अनवर ने उससे कहा, 'आपकी आवाज़ भी आपकी तरह ख़ूबसूरत है। आपकी आवाज़ में चांदी की कटोरियां बजती हैं। मैं आपसे मोहब्बत करने लगा हूं और आपको अपने निकाह में लेना चाहता हूं...। 
     लड़की ने उसे देखते हुए अपना सिर हिक़ारत भरे अंदाज में हिलाया और कहा, 'आप कुछ नहीं करते हैं। ज़रा सोचो जब गरीब मज़हब की रौ में बहकर आपको खाना खिलाते है तो क्या वह अपने बीवी बच्चों का तन- पेट नहीं काटते हैं? यह सुनकर उसका सिर शर्म से झुक गया, जी चाहता, ज़मीन फटे और वह उसमें समा जाए। उसने बड़ी हिम्मत जुटा के कहा, 'आपने अपने दिल में शौहर की जो तस्वीर सजोई है, उस पर खरा उतरने के लिए अनवर मेहनत करेगा चाहे खाल हड्डियों से चिपक जाए।'
     लड़की ने मुस्कुरा कर कहा, 'आप रेशमा को इतनी भी ज़ालिम मत समझिए।' और वह उसकी गुलाबी मुस्कुराहट और मोती जैसे दांतों को देखता रहा।
         अनवर ने अपने को पूरी तरह बदल लिया था। वह किराये के घर में रहने लगा था और फलों का व्यापार करने लगा था। उसने काफी धन अर्जित कर लिया था। उसकी गिनती अच्छे व्यापारियों में होने लगी थी। इमाम साहब ने उसे अपनी बेटी से निकाह करने की अनुमति दे दी थी।
       अनवर अक्सर सेब ख़रीदने कश्मीर जाता था। वहां फलों के एक व्यापारी शाहरुख के घर में ठहरता था। उसका आलीशान घर बाग में बना हुआ था जिसके सामने झरना बहता था। एक शाम अनवर पहुंचा तो शाहरुख ने बताया, 'कुछ ही दिन पहले उसका सदिया से विवाह हुआ है।' 
      खाने का समय हो गया था। सादिया ने फर्श पर दस्तरख़ान बिछा दिया। दोनों दोस्त बैठकर खाने का इंतजार करने लगे। घूंघट में हुुस्न छुपाए सादिया ने एक डोंगे में गोश्त बा, सुराई में ठंडा पानी और दो गिलास रख दिये। उसके बाद गर्म रोटी कोयले की आंच पर सेंक कर लाई और नज़ाकत से कहा, 'शुरू कीजिए।' खाना खाने के बाद वह फीरनी सर्वे कर रही थी, तभी अनवर ने उसका दीदार कर लिया। वह सोचने लगा, 'बादशाह जहांगीर ने कश्मीर के बारे में ठीक ही कहा है, 'जो जन्नत ज़मीन पर है, यहीं है, यही है, यही है ...।' जो जहांगीर ज़िंदा होते, तो इतना और कहते, 'बेशक जन्नत की हूर यहीं है, यहीं है ...।
      अगले दिन वह व्यापार के सिलसिले में बारामूला गया। जिस समय उसकी बस कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों से गुज़र रही थी, उसके दिमाग में फितूर चल रहा था, 'जन्नत की हूर और जुगनू वाली में कौन ज़्यादा सुंदर है?' इसका फैसला करने के लिए उसने एक जैसी दो पशमीना शाल खरीदी। एक सदिया के लिए दूसरी रेशमा के लिए। उसने सोचा सदिया को शादी का उपहार कहकर उढ़ाऊंगा और रेशमा को कश्मीर का गिफ्ट कहके उढ़ाऊंगा। मुझे यक़ीन है, जुगनू वाली जन्नत की हूर को मात दे देगी। यही सब सोचते हुए पता ही नहीं चला, सफर कब ख़त्म हो गया और वह वापस आ गया।
     घर का दरवाजा खुला था। कफन में लिपटी सादिया की लाश के पास बैठा शाहरुख मातम कर रहा था। अनवर के हाथ से शाल का पैकेट छुट गया। उसने रोते हुए शाहरुख को गले लगाया फिर पूछा, 'यह सब कैसे हो गया?' शाहरूख़ ने उसे वह सब बताया, जो सादिया ने झरने में डूबने से पहले उससे कहा था, 'तुम फरेबी हो। तुमने झूठ बोलकर मुझे हासिल किया है। मैं तुम्हें ज़िन्दगी भर तड़पने के लिए छोड़कर जा रही हूं।' उसके बाद शाहरुख ने पछतावे के लहजे में कहा, 'सादिया नर्म दिल थी। मैंने अपनी सच्चाई बता दी होती, वह मुझे माफ कर देती।'
      सादिया को दफनाने के बाद अनवर घर लौट रहा था। ट्रेन की बर्थ पर बैठा वह सोच रहा था, शाहरुख ने सादिया को‌ फरेब से हासिल किया था। मैं रेशमा को झूठ बोल के हासिल करने जा रहा हूं। 
     एक प्रश्न पर वह लगातार विचार कर रहा था। यदि रेशमा को निकाह के बाद मेरा अतीत पता चला तो वह सादिया की तरह आत्महत्या न कर ले ...। यदि मैंने उसे सच्चाई बता दी तो हो सकता है, मुझे धिक्कार दे। उसे कोई राह नहीं सूझी। उसके दोनों ओर मीलो लंबी खाई थी। परेशान होकर वह छोटी सी जगह में लगातार चहलक़दमी करता रहा। 
    घर पहुंचते- पहुंचते रात हो चुकी थी। वह मस्जिद के मुतावल्ली के घर गया और उनसेे कहा, मैं आपको कुछ बताना चाहता हूं।' 
        'इतनी भी क्या जल्दी कल फज्र की नमाज़ में बता देते।' मुतावाली साहब ने कहा।
     'कल तक बहुत देर हो जाती। कल मेरा निकाह है।
      'ठीक है, कहो- क्या कहना चाहते हो?' मुतावल्ली ने कहा।
    अनवर ने कहा, 'मैंने नमाज़ियों को अपनी कहानी सुनाई थी, उसकी स्क्रिप्ट झूठी थी...। दरअसल मैं जन्म से मुस्लिम हूं। मैं यारबाज़ी में पड़ गया था। मेरी झूठी शान दिखाने की आदत ने पापा को कर्ज़दार बना दिया था। मेरी आदतों से त्रस्त होकर पापा ने मुझे अपनी ज़िन्दगी और जायदात से बेदखल कर दिया था। मेरे ‌सामने रहने-सहने, खाने-पीने का संकट हो गया था। मैंने आप लोगों को इमोशनल ब्लैकमेल करके यह सब हासिल किया...। उसके बाद झिझकते हुए कहा, 'मैं मस्जिद में नीम के पेड़ की छाया में क़ुरआन पढता था। उसके सामने ईमाम साहब के हुजरे की खिड़की है जिसमें से उनकी लड़की को कुरआन की तिलावत करते देखता था। जब वह आयत पढ़ती थी, चिड़ियों के झुंड मुंढेरों पर उतर आते थे। मुझे यूं लगा जैसे वह नूर की बनी है। उसके चेहरे पर नज़र नहीं जम पाती जैसे सूरज पर नज़र नहीं जमती‌। मेरे क़दम रुक जाते, 'यह कौन लड़की है जिसकी आवाज़ में फरिश्तों के परों की फड़फड़ाहट सुन रहा हूं?' पहली बार मुझे उससे ख़ौफ आया। मैंने सोचा अगर मैंने उससे रिशते की बात की, तो कहीं वह जलाल में न आ जाए‌।'
       मैं उससे बेपनाह मोहब्बत करने लगा। एक दिन मैंने उससे अपने दिल की बात कह दी। उसने कहा, 'आप किसी काम के नहीं हैं, सिवाय खाने-पीने के। मुझसे निकाह करके आप मुझे भी उस बेहिसी में शरीक करना चाहते हैं जिसे करने में आपको शर्म नहीं आती।'
      उसने मेरी आत्मा को झकोर दिया। मैंने किराए का घर ले लिया और फलों की बिजनेस शुरू कर दी। मेरे पापा मुंबई में फलों के एक्सपोर्टर हैं। तजुर्बेकार होने के कारण मैं सफल हो गया। आज मेरे पास इज़्ज़त दौलत शोहरत सब कुछ है। मैं निकाह से पहले आपसे और उन लोगों से माफी मांगना चाहता हूं जिनसे मैंने झूठ बोला है। आप सब मुझे नालायक़ छोटा भाई समझ कर माफ कर दें और मेरे निकाह की दावत क़बूल करें। '
        मुतावल्ली साहब के साथ उनका लड़का रफीक़ बैठा हुआ था। गुस्से में आग बबूला होकर उसने कहा, 'अपनी नापाक ज़ुबान से रेशमा का नाम न ले। इतना बड़ा धोखा और ठगी करने के बाद उससे निकाह की बात कर रहा है।' 
       मुतावल्ली साहब ने अपने बेटे से कहा, 'बेशक इसने झूठ बोला था, 'मै मुसलमान हो गया हूं।' पर आपको कहना चाहिए था, 'धर्म अपनाना आपका व्यक्तिगत मामला है। इसमें आप हमें क्यों घसीट रहे हैं?' परन्तु आप सब इस तरह खुश हुए, जैसे ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जीतकर लाया है। आप उसे अपना हीरो मानने लगे, दावतें देते और नज़राना पेश करते थे ...।' जब तक आप लोग अपनी विचार धारा नहीं बदलेंगे, इसी तरह बेवकूफ बनते रहेंगे और हमारे दिलों के बीच धर्म की दीवार चौड़ी होती जाएगी। उसके बाद उन्होंने अनवर को निकाह के लिए मुबारकबाद दी और नमाज़ियों के साथ शरीक होने का वादा किया।
      अनवर उसी समय रेशमा से मिला। उसे सब कुछ बताया, जो उसने मुतावल्ली साहब को बताया था। उसने शर्माते हुए कहा, 'आपने लोगों को सच्चाई से रूबरू करके मेरी मोहब्बत में और इज़ाफा कर दिया।
     अनवर के विवाह में सम्मिलित होने के लिए उसके माता-पिता और संबंधी मुंबई से आए थे जिनमें महाराष्ट्र की धर्म सेना प्रमुख भी थे। वह उसके पापा के घनिष्ठ मित्र थे। 
    उन्होंने मुंह दिखाई की रस्म मैं रेशमा को सोने के कंगन भेट किए और अनवर से कहा, 'बहू रानी नगीना है, उसने तुझे क्या से क्या बना दिया।' अनवर और रेशमा ने उनका आशीर्वाद लेने के लिए अपना सिर झुका दिया। उन्होंने दोनों को गले लगाकर दिलों के बीच की दीवार को ढहा दिया।
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