निंदिया Sharovan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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निंदिया

निंदिया/लंबी कहानी/शरोवन

‘दुनियां के तमाम झंझावात, दुखों, परेशानियों और हरेक कठिन से कठिन मोड़ से गुज़रने के एहसास से वाकिफ भूरी आंखों वाली निंदिया का कुमारेश के जीवन में अचानक से आ जाना भी एक संयोग ही था। एक दिन कुमारेश की मां ने उससे निंदिया के विषय में कहा था कि, मैं और तेरी बहन लता, दोनों ही निंदिया को जानते हैं, और मिल भी चुके हैं। बहुत ही प्यारी, सीधी और अच्छी लड़की है। चाहती तो थी कि तेरे बड़े भाई से शादी होती, पर उस पर तो अमरीका जाने का भूत चढ़ा हुआ है। सो वह तो यह शादी नहीं करेगा। मैं लड़की वालों को खुद ही पत्र लिख चुकी हूं सो अब . . .?’ 

कुमारेश अपने काम से आकर, हाथ मुंह धोकर, कपड़े बदलकर, जैसे ही अपनी मेज के सामने आकर बैठा, निशा ने भाप निकलता हुआ, गर्म चाय का प्याला, उसकी मेज पर लाकर रख दिया। निशा जानती थी कि कुमारेश बाहर से आकर कुछ भी खाने से पहले चाय जरूर ही पीता था। वह अपने उसके आने का समय भी जानती थी, इसीलिये कुमारेश के आने से पहले ही समयनुसार उसने चाय पहले ही से बनाकर रख ली थी। फिर जब निशा चाय का प्याला रखकर अपने ही स्थान पर खड़ी रही तो कुमारेश ने गर्दन घुमाते हुये निशा को गौर से देखा, फिर वह उससे बोला,‘बच्चे स्कूल चले गये? सब ठीक तो है?’‘हां, बच्चे आपके आने से कुछ ही देर पहले स्कूल चले गये हैं। महुआ का फोन आया था। वह इस सप्तांत में घर नहीं आ सकेगी। उसका कोई एक्जाम है सो वह वहीं रहकर अपनी स्टडी करना चाहती है। निशा कहते हुये फिर भी वहीं खड़ी रही तो कुमारेश ने फिर से उससे पूछा,‘

''कोई और विशेष बात?’‘

''हां।’'

‘?’ निशा के हां कहते ही कुमारेश अचानक ही अपने स्थान पर से उठा फिर चौंक कर बैठ गया। वह एक संशय से निशा का चेहरा ताकने लगा। तब निशा ने उससे कहा कि,‘निंदिया को अस्तपताल से छुट्टी मिल गयी थी, सो मैं उसे अपने ही यहां ले आई हूं। जब तक वह बिल्कुल पूरी तरह से स्वस्थ्य और ठीक नहीं हो जाती है, मैं उसे यहीं रखूंगी। फिर वह ऐसी दशा में कहां जाती? और कौन उसकी देखभाल करता? फिर यह घर तो उसी का है।’ कहकर निशा चली गई तो कुमारेश बड़े ही अचरज के साथ उसे देखता ही रह गया। आश्चर्य करने का कारण था कि, निंदिया कुमारेश की पत्नि थी, जिससे उसका कानूनी तरीके से कोई भी विवाह-विच्छेद तो नहीं हुआ था, पर दोनों के मध्य कुछ बातें ऐसी थीं कि जिसके कारण हालात ने उन दोनों को अलग रहने पर विवश कर दिया था और कुमारेश को निशा के साथ रहना पड़ गया था। पिछले बीस वर्षों से निंदिया कुमारेश की पत्नि होते हुये भी एक विधवा और परित्यग्या सा जीवन व्यतीत करती आ रही थी। निंदिया के नाम ने जब अचानक ही कुमारेश की आंखों के सामने से अतीत की जुल्मी यादों की पर्तों को साफ किया तो उसके पीछे छिपे हुये उसके जिये हुये कड़वे दिनों के चित्र स्वत: ही उसकी आंखों के पर्दों पर झलकने लगे। कितने कठोर और कष्टदायक दिन थे तब? किसकदर जालिम और सतावभरे? एक आपातकाल सा युग उन दोनों ने झेला था तब . . .।

‘घनन . . .घनन . . . घन।’ अचानक ही समुद्र पार से आनेवाले फोन की घटी बड़ी ही तीव्रता के साथ चीख़ पड़ी तो कुमारेश की बड़ी बहन ने फोन उठाया। हलो करते हुये किसी से कुछेक सेकिंड बात की, फिर फोन को कुमारेश को देते हुये बोली,‘ले, तेरी सिस्टर इन लॉ विद्या का फोन है। नई दिल्ली से।’कुमारेश ने फोन लिया और कान में लगाते हुये बोला,‘दीदी़ गुड मोर्निग। कहो कैसी हैं?’‘मैं ठीक हूं, लेकिन खबर अच्छी नहीं है।’‘क्यों क्या हो गया? सब कुछ ठीक तो है न? निंदिया और दोनों बच्चे सब कुशल से तो हैं?’ तनिक घबराते हुये कुमारेश ने कई प्रश्न एक साथ पूछ डाले।‘हां वे सब तो ठीक हैं। एक फरवरी को मेरे ससुर की मृत्यु हो गई और दो तारीख को मामा भी चल बसी। आज पांच फरवरी है। मैं और प्रताप आज ही शाहजहानपुर से वापस आये हैं, क्योंकि मुझको अपने ससुर की कंडोलेंस मीटिंग भी अटैंड करनी थी।’‘लेकिन निंदिया और मेरे दोनों बच्चों के पास कौन है अब?’ कुमारेश ने चिंता व्यक्त करते हुये पूछा।‘अभी दो हफ्ते तक तो भैया बने रहेंगे। फिर जगदीप आता जाता रहेगा।’‘ठीक है। मैं अपनी वापसी की टिकट बुक कराता हूं।’ कहकर कुमारेश ने फोन रख दिया।फोन रखकर कुमारेश बड़ी देर तक सोचता रहा। उसके दोनों बच्चे रॉकी और रिक्की तथा उसकी पत्नि निंदिया के चेहरे एक पल में ही उसकी आंखों के सामने से घूम गये। कैसे रह रहे होंगें वे तीनों उसके बगैर? एक पूरा सन्नाटे जैसा भूचाल उसके बीबी और बच्चों के सिर पर से गुज़र गया और वह कुछ भी नहीं कर सका? जब उसके दिल को कोई भी तसल्ली नहीं हो सकी तो उसने भारत का नंबर डायल किया और अपने मित्र नसरूद्दीन से बात की। कुमारेश ने पहले तो उसको सारी बात बताई तो उसका मित्र बोला कि,‘मैं भाभी और बच्चों को अपने घर ले आता हूं। फिर जब तक तुम भारत आओगे, वे सब मेरी छाया में सुरक्षित रहेंगे।’‘नहीं, अभी इसकी आवश्यकता नहीं है। तुम केवल इतना भर करो। तुम्हारे जो रिश्तेदार चाचा शाहजहांपुर के सदर में रहते हैं, उनके ज़रिये केवल इतना भर पता कर लो कि मेरी पत्नि और बच्चों के पास, उसके घर का कोई भाई या रिश्तेदार भी है अथवा वे तीनों अकेले हैं?’‘ठीक है। मैं अभी एक आध घंटे में पता करके फिर तुमको रिंग करता हूं।’फिर उस दिन कुमारेश अपने काम पर भी नहीं गया। हर समय उसके मन मस्तिष्क में अपने बच्चों और पत्नि के चेहरे ही आते-जाते रहे। तब लगभग दो घंटे की प्रतीक्षा के बाद नसरूद्दीन का फोन फिर से आया और उसने जो कुछ भी बताया उसे सुनकर कुमारेश का सारा मस्तिष्क ही घूम गया। नसरूद्‍​र्दीन की खबर के अनुसार, निंदिया और उसके दोनों बच्चों के पास कोई भी नहीं था। वे तीनों अकेले थे। कुमारेश के बड़े साले निंदिया को समझा-बुझाकर वापस मुरादाबाद चले गये थे। बीच वाले साले जगदीप भी अपनी बड़ी बहन के ससुर की कंडोलेंस मीटिंग के कारण दिल्ली जा चुके थे। छोटा वाला साला गाजियाबाद तक का किराया बचाने के कारण अपनी बड़ी बहन की कार में बैठकर जा चुका था। जिस मां ने अपने तन के कपड़े, पानदान और घर के बर्तन बेचकर इन सबको पाला पोसा था, उसकी कब्र की मिट्टी तक नहीं सूख़ पाई थी, और सब किनारा कर गये? शायद चढ़ते हुये सूरज और थके-थकाये ढलते हुये सूरज में यही फर्क है। आज को निंदिया की मां वसियत में अगर लाखों की सम्पत्ति छोड़ कर जाती तो क्या ये सब इतनी जल्दी पलायन हो जाते? कितनी अजीब सी बात है, सगी मां की मिट्टी और उसके दुख, संवेदना और शोक की कोई भी कंडोलेंस मींटिग नहीं और . . .?काफी देर तक सोचने और विचारने के पश्चात कुमारेश ने फोन उठाया और नम्बर डायल किया। फोन विद्या ने ही उठाया। वे जैसे ही हलो बोलीं, कुमारेश ने उनसे कहा कि, जीजा जी हैं?‘हां हैं। अभी देती हूं।’तब कुमारेश ने उनसे कहा कि वे किसी भी तरह से निंदिया और उसके बच्चों को अपने घर लें आये। जब तक मैं वापस भारत न आऊं उन्हें कैसे भी अकेला न छोडे़ं।’इतनी बात कह कर कुमारेश अपने स्थान से उठा। गाड़ी की चाबी उठाई और किसी से कुछ भी कहे बगैर कार को केंटन हाइवे पर भगाने लगा। थोड़ी ही देर में वह अलाटूना झील के किनारे जा पहुंचा। रात पड़ने लगी थी। अलाटूना का जल शांत था। दूर पाइन के लंबे वृक्षों की सींक जैसी पत्तियों की जाली से उठते हुये चन्द्रमा की दूधिया किरणें छना-छनकर झील के पानी में जैसे रात की चांदी घोल रही थीं। यह जगह कुमारेश की दिलपसंद जगह थी। जब भी उसका दिल उदास होता था, वह यहीं आकर झील के किनारे बैठकर अपना दर्द बांटने का प्रयास करने लगता था।दुनियां के तमाम झंझावात, दुखों, परेशानियों और हरेक कठिन से कठिन मोड़ से गुज़रने के एहसास से वाकिफ भूरी आंखों वाली निंदिया का कुमारेश के जीवन में अचानक से आ जाना भी एक संयोग ही था। एक दिन कुमारेश की मां ने उससे निंदिया के विषय में कहा था कि, मैं और तेरी बहन लता, दोनों ही निंदिया को जानते हैं, और मिल भी चुके हैं। बहुत ही प्यारी, सीधी और अच्छी लड़की है। चाहती तो थी कि तेरे बड़े भाई से शादी होती, पर उस पर तो अमरीका जाने का भूत चढ़ा हुआ है। सो वह तो यह शादी नहीं करेगा। मैं लड़की वालों को खुद ही पत्र लिख चुकी हूं, सो अब..’‘मैं सूली पर चढ़ जाऊं?’ मां की बात को कुमारेश ने पूरा कर दिया तो वे उसे समझाते हुये बोली,‘सूली पर नहीं। तेरा घर संभालकर रखेगी। तू अगर एक रोटी कमाकर लायेगा तो उसमें भी सबको खिलायेगी और एक टुकड़ा बचाकर भविष्य के लिये रखेगी।’‘हां, वह सब ठीक है। लेकिन मैं उस लड़की को जानता नहीं। कभी देखा भी नहीं, फिर मैं ऐसा करके किसी की नज़रों में खुद को धोख़ेबाज, और बेवफा साबित नहीं करना चाहता हूं। आप यदि मना नहीं कर सकती हैं तो मैं उन्हें जबाब दिये देता हूं। कुमारेश ने कहा तो उसकी मां तुरन्त ही उससे बोली,‘नहीं। नहीं। ऐसा कभी भी मत करना। मैं उन लोगों को जुबान दे चुकी हूं।’ कहते हुये वे रोने लगीं। कुमारेश ने यह सब देखा तो वह अपनी मां के आंसू नहीं देख सका। अपने हथियार डालते हुये वह मां से बोला,यदि आपकी यही जि़द है तो अभी मैं मंगनी किये लेता हूं, लेकिन शादी एक साल के बाद ही होगी।’उपरोक्त बात कहकर कुमारेश का विचार था कि अभी किसी तरह से बात टल जाये, बाद में वह लड़की को अपने बारे में जब सब कुछ बतायेगा तो स्वत ही सारी बात समाप्त हो जायेगी। लेकिन कहते हैं कि जोड़े परमेश्वर की तरफ से बनकर आते हैं। उपरोक्त किसी बात का अवसर ना तो कुमारेश को मिला और ना ही यह रिश्ता टूटने के कोई भी आसार बन सके। सब कुछ इतनी सहजता, समय से, कुशलपूर्वक हुआ कि समय गुज़रते देर नहीं लगी और इस प्रकार से निंदिया और कुमारेश एकसूत्र में बंध गये। दोनों का विवाह संपन्न हो गया। विवाह में निंदिया के पिता और परिवारवालों ने बरातियों की सेवा आदि में कोई भी कसर बाकी न रखी। इतना अच्छा प्रबन्ध और विवाह के सारे कार्य सम्पन्न किये कि लोग देखते ही रह गये। चूंकि, निंदिया एक अध्यापिका थी और वहीं एक स्कूल में काम भी करती थी। विवाह में उसकी सारी साथ की अध्यापिकायें और प्रधानाचार्या भी आंमत्रित थीं। विदाई समय कुमारेश से उसकी प्रधानाचार्या ने गुज़ारिश की और कहा कि,‘देखिये, आप सचमुच ही बहुत ही अच्छी लड़की यहां से ले जा रहे हैं। वह मेरे स्कूल की निहायत ही अच्छी टीचर है। मैं उसको कभी भी नहीं छोड़ती। उसकी शादी अक्टूबर के माह में, बीच सेशन में हुई है, और मैं किसी अन्य को इतना शीघ रख भी नहीं सकती हूं। अगर आप से हो सके तो उसका यह साल पूरा करवा देना।’कुमारेश को और क्या चाहिये था। वह तो खुद भी इतना शीघ्र अपने विवाह के लिये तैयार भी नहीं था।इ उसने सोचा कि यदि वह हां कह देता है तो उसे भी सुव्यवस्थित होने के लिये समय मिल जायेगा। विवाह से पूर्व तो वह अकेला था, पर अब एक जिम्मेदारी है। किसी के प्रति एक ऐसा उत्तरदायित्व है जिसे उसको सारी जि़न्दगी पूरा करना होगा। कुमारेश ने अनुमति दे दी। निंदिया विवाह के बाद अपनी ससुराल आई। दो सप्ताह रहने के पश्चात फिर से अपने मायके में रह कर अपनी नौकरी करने लगी।सब कुछ ठीक चल रहा था। कुमारेश अपने घर पर रहकर अपनी नौकरी कर रहा था तो निंदिया अपने मायके में। दशहरे, दीवाली और बड़े दिन की छुट्टियों में निंदिया ससुराल में आ जाती थी। अपने पति, सास, देवर, सबकी खूब सेवा किया करती। सारे घर को साफ करती, हरेक वस्तु को दुरस्त करती; कहने का आशय, जितना भी वह अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य समझकर कर सकती थी, वह करती थी। इस तरह से तीन वर्ष यूं ही व्यतीत हो गये। एक दिन कुमारेश घर में बीमार पड़ गया। मां को उसकी सेवा करनी पड़ी तो वह उससे बोलीं,‘शादी किये हुये तीन वर्ष से भी अधिक हो चुके हैं। एक बच्चे का बाप भी बन चुका है, और रहता ऐसे है कि जैसे शादी ही नहीं हुई है। बीबी को यहां क्यों नहीं लाकर रखता है। कम से कम तेरा तो ख्याल रखेगी?’‘कैसे ले आऊं उसे?’ कुमारेश जैसे मजबूर हो गया।‘कैसे ले आऊं? तेरी बीबी है वह। तेरे साथ नहीं रहेगी तो फिर कहां रहेगी?’ मां आश्चर्य से भर गई।‘ले तो आऊं, मगर सारे घर के खर्च कौन चलायेगा? आपका खर्च, उस निखट्टू टिक्कू का सारा खर्च, बिजली, पानी, यह सब कैसे चलेगा। निंदिया अगर अपने मायके में रहकर काम करती है तो मेरे बच्चे और अपना खर्चा तो उठा लेती है। यहां रहेगी तो दो जनों का खर्चा भी मेरे ऊपर पड़ेगा। ज़रा सोचिये कि घर में कौन मदद करता है?’ कुमारेश बोला तो मां जैसे अपने ही स्थान पर बिदक गईं। उसी को दोष देते हुये वे आगे बोलीं,‘अब तक तो किसी भी खर्चे की बात तूने कभी भी नहीं की थी। इतनी अच्छी नौकरी है तेरी। तेरे बिजली विभाग में काम करनेवाले तेरे साथ के लोगों ने कोठियां खड़ी कर ली हैं। तेरी ऊपरी आमदनी का क्या होता है?’‘वह मैंने लेना बंद कर दी है।’‘क्यों?’‘निंदिया को इस प्रकार के कोई भी काम पसन्द नहीं हैं। उसने मुझे रिश्वत लेने को मना किया है।’‘तो यूं कह कि यह हरिश्चन्द का पाठ वह तुझे पढा़ती रहती है। संसार कैसे चलता है? दुनियांदारी क्या चीज़ है? कभी जाना भी है? कभी बाइबल पढ़ते हो तुम लोग? चर्च जाते हो? अगर कोई खुशी से चार पैसे ऊपरी दे देता है तो उसे लेने में बुराई ही क्या है? तू अगर एक अकेला लेना बंद कर देगा तो क्या सारी दुनियां भी बंद कर देगी?’‘चोरी चाहे एक पैसे की हो, और चाहे एक लाख की। चोरी केवल चोरी होती है।’ कुमारेश ने कहा तो मां सुनकर भनभनाती हुई बाहर निकल गई।दिन इसी प्रकार कट रहे थे। निंदिया की अपनी समस्यायें थीं तो कुमारेश की अपनी। निंदिया कुमारेश के पास आकर रहने को तैयार थी, पर कुमारेश उसे रखता कहां? वह जहां रहकर नौकरी करता था, वह गुंडे- बदमाशों और डाकुओं का इलाका था। इधर कुमारेश की मां के भी तेवर अब बदल चुके थे। वे भी आये दिन निंदिया में ही ख़ामिंया निकाला करतीं। फलस्वरूप कुमारेश को यही भला लगा कि निंदिया अपने मायके में ही रहे। यूं भी निंदिया अपनी माता-पिता से इस हद तक जुड़ी हुई थी कि वह उनके बगैर सोचे एक पल भी नहीं रह सकती थी। कुमारेश ने निंदिया की यह बात बहुत करीब से जान रखी थी। अक्सर ही वह शादी के बाद जब भी अवसर मिलता था, अपने परिवार के बारे में उसे बताती रहती थी। उसकी बातों में शिकायत के साथ एक ऐसा दर्द भी समाया रहता था जिसको वह शायद महसूस ही कर पाती थी, पर शब्दों में ज्यादा अच्छा बखान नहीं कर सकती थी। उसकी इन दर्द भरी बातों और जि़न्दगी के कड़वे एहसासों में प्राय: वह कहा करती थी कि, ‘पापा ने हम बच्चों की अच्छी शिक्षा और भविष्य के लिये अपना गांव, घर, ज़मीन सब कुछ छोड़ दिया था। शहर में आकर छोटी से छोटी नौकरी की। अक्सर वह रात की नौकरी किया करते थे। बड़ी बहन को पढ़ाने और उनकी नर्सिंग के प्रशिक्षण के लिये अपने घर के सारे बर्तन तक बेच दिये थे। मामा ने अपना पीतल का पानदान बेचा था, ताकि बड़ी बहन की फीस भरी जा सके। पापा ने अपना हुक्के का शौक तक छोड़ दिया था। और जब उनकी नर्सिंग का प्रशिक्षण पूरा हुआ और वे चार पैसे कमाने लगीं तो अपनी मित्र के साथ अपने ही शहर की सरकारी नौकरी छोड़कर जो गई तो कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। बड़े भाई की शादी पापा ने की तो बड़ी भाभी भी ऐसी मिलीं कि जिन्होंने मामा को गालियां तो सुनाई हीं, साथ में उन्हें भी रूलाकर रख दिया। बीच वाले भाई ने ना तो टे्रनिंग पूरी की और ना ही अपनी पढा़ई। साथ में अपनी मर्जी से शादी करके भाभी को लाये थे, तब भी पापा आंसुओं से रोये थे। पापा दुकानदारों के कज़‍र् में इसकदर डूब चुके थे कि किसी ने कभी भी इस बारे में सोचना तो दूर, कभी पापा के हाथ में दो रूपये भी रखे हों? वह तो मैं नौकरी करने लगी थी तो जैसे-तैसे पापा का कर्जा पूरा किया...।’ निंदिया की इस प्रकार की बातें कुमारेश सुनता तो केवल यही समझाता कि जो हो गया उसके बारे में सोचने से बेहतर है कि अपने आगे की सोचो। मेरा अपना खुद का घर और रहने का बंदोबश्त हो जाये तो अपने मामा-पापा को अपने-हमारे घर में ही रहने देना।गुज़रती, इठलाती और कभी रोती हुई इन जि़न्दगी की हवाओं में अचानक से एक करारा तमाचा निंदिया के ऐसा लगा कि उसने रो-रोकर सारा आसमान सिर पर उठा लिया। बचपन से मां-बाप से जुड़ी हुई निंदिया के पापा एक दिन बगैर किसी से कुछ भी कहे हुये इस संसार को अलविदा कह गये। जिस समय उनकी मृत्यु हुई थी, केवल निंदिया, उसकी मां और उसका पहलौठा पुत्र जो केवल तीन साल का ही था, घर पर थे। कुमारेश भी उन दिनों घर से बाहर था। तब जब तक सब लोग आते उससे पूर्व ही निंदिया ने उनके कफन-दफन का सारा प्रबन्ध कर लिया था। मृत्यु के सारे दिन, और दूसरे दिन तक जब कोई नहीं आ सका तो फिर किसी प्रकार अंतिम संस्कार कर दिया गया। बाद में जब सब आये तो फिर सब निंदिया की मामा के बारे में बात करने लगे। ‘एक गाड़ी तो चली गई, अब दूसरी भी तैयार है। मामा चिन्ता मत करो, आपका बक्सा तो मैं बनवा दूंगा।’ सबसे छोटा वाला भाई कहते हुये अपनी मां के ज़ख्मों पर जैसे नमक छिड़क रहा था। मामा, अब आप कहां जाओगी? अगर लड़कियों के कहने में चलोगी तो मेरे यहां जगह नहीं है।’ बड़ी भाभी अपना गंवारपन दिखाते हुये कह रही थीं। ‘बुडढन तो चले गये, उन्होंने भी सदा मुझे सबसे अलग ही रखा था।’ पिता के मरने के पश्चात, पिता का स्थान रखनेवाले सबसे बड़े भाई ने जब ऐसा कहा तो कुमारेश सुनकर दंग रह गया। इन्हीं तमाम बातों के मध्य किसी ने निंदिया की मां की बात छेड़ दी। कहा गया कि, ‘अब पापा के जाने के बाद मामा कहां रहेंगी? कुमारेश ने कहना चाहा कि मामा उसके साथ जैसे अभी रह रही हैं, वैसे ही आगे भी रहेंगी, मगर तभी उससे पहले ही, निंदिया की बड़ी बहन के पति प्रताप ने बड़ी शान से कहा कि, ‘मामा हमारे साथ रहेंगी।’ सुनकर कुमारेश कुछ भी नहीं कह सका।और फिर पिता के मरने के केवल एक दिन बाद ही, औपचारिकता के दो आंसू बहाकर धीरे-धीरे सब ही अपने ठिकानों पर खिसक गये। अब निंदिया के घर पर कोई और तो रह नहीं गया था, वह वहां पर अकेली कैसे रहती। सो कुमारेश उसे और अपने बच्चे को अपनी मां के घर पर ले आया। निंदिया के घर पर ताला डाल दिया गया। लेकिन चार दिन ही ढंग से गुज़रे होंगे कि कुमारेश की मां ने निंदिया का जीना दूभर कर दिया। वह भी जैसे आसमान से गिरी और खजूर में लटक गई।दूसरी तरफ निंदिया की मां की भी तकलीफें बढ़ चुकी थीं। उनका अपनी बड़ी लड़की के यहां रहना जैसे बोझ बना जा रहा था। तब एक दिन विद्या ने अपने अपने छोटे भाई को बुलाया और मां को उसके साथ भेज दिया। छोटे लड़के ने भी मां को दो हफ्ते ही रखा होगा कि वह भी अपनी परेशानियां गिनाने लगा। उसने मां को फिर से बड़ी बहन के घर भेज दिया। तब मां अकेले में सोचती और अपनी किस्मत पर आंसू बहाती। सोचती कि पति की आंख बंद होते ही पांचों बच्चों में कोई भी उन्हें चार दिन नहीं रख सका। निंदिया की परेशानियां और साथ में उसकी मां के रहने की मुसीबत; कुमारेश ने यही सोचा कि क्यों न फिलहाल वक्ती तौर पर जो हो सकता है वही किया जाये। निंदिया ने अपनी साल भर की ली हुई छुट्टियां खारिज़ कीं, नौकरी फिर से शुरू की और दूसरी तरफ से अपनी मां को बुलाया, और इस प्रकार वह फिर अपने मायके में जाकर रहने लगी। इसके साथ ही कुमारेश का भी हर समय का आना-जाना भी बढ़ गया। लेकिन ऐसा कब तक चलता? कुमारेश ने अपना स्थानान्तरण निंदिया के शहर में करवाने के लिये सारे हाथ-पैर मार लिये, लेकिन सब बेकार रहा। ना ही स्थानान्तरण हुआ और ना ही उसका कोई भी ठिकाना बना। इसी भागम-भाग में निंदिया और कुमारेश को अलग-अलग स्थानों पर रहते हुये आठ वर्ष पलक झपकते व्यतीत हो गये। कुमारेश अपनी इस प्रकार की जि़न्दगी से इतना तंग नहीं हुआ जितना कि वह समय की बिगड़ी हुई आदतों से चिढ़ने लगा था। साथ ही निंदिया के चेहरे की भी सारी आभा फीकी पड़ने लगी। तब बहुत परेशान होकर एक दिन कुमारेश ने अपनी अमरीका में रहनेवाली बड़ी बहन से बात की। उन्हें सारी परिस्थिति से अवगत् कराया तो वह उससे बोली, ‘तुम लोग यहां यू. एस. ए. क्यों नहीं आ जाते हो? कम से कम एक साथ तो सब रहोगे?’ कुमारेश को अपनी बहन की यह बात जंच गई, और फिर उसने अमरीका जाने के लिये जरूरी कार्यवाहियां करनी आरंभ कर दीं। तब एक दिन कुमारेश का वीज़ा मंजूर हुआ और उसने अमरीका जाने के लिये अपनी बाकी की भी तैयारियां आरंभ कर दीं। मगर जैसे-जैसे जाने के दिन नज़दीक आते गये वैसे-वैसे निंदिया के व्यवहार में भी अंतर आने लगा। वह कुमारेश के साथ अमरीका जाने के लिये आना-कानी करने लगी। और फिर एक दिन उसने कुमारेश से स्पष्ट कह दिया कि वह अपनी मां को अकेली छोड़कर अमरीका नहीं जायेगी। आपको यदि जाना हो तो अकेले जा सकते हो। कुमारेश यह सुनकर अचानक ही सशोपंज में पड़ गया। वह सोचने पर मजबूर हो गया। एक प्रकार से निंदिया का कहना भी किसी सीमा तक सही था। जिस मां के साथ स्वंय मां बनने तक उसने अपनी जि़न्दगी का एक बड़ा लम्हा व्यतीत किया था। उनके हर दुख-सुख में वह बराबर से भागीदार रही थी। जिस मां ने अपने मुख के निवाले निकाल-निकालकर उसको पाला-पोसा था और अब खुद उसके ही बच्चे को पाल रही थीं, उसे वह किस तरह से अकेली मंझधार में छोड़कर जा सकती थी?तब कुमारेश के सामने जब यह समस्या आई तो उसने निंदिया के तीनों भाइयों और बड़ी बहन से बात कर लेना उचित समझा। सबसे पहले वह उसकी बड़ी बहन के घर गया। संयोंग से उस समय निंदिया की मां भी वहीं पर थी। तब कुमारेश ने उन सबसे कहा कि, ‘मेरा अमरीका जाने का सारा इंतजाम हो चुका है, और मुझे हर हाल में मार्च माह के अंत तक चला जाना होगा। मैं चाहता हूं कि साथ में मैं अपनी बीबी और बच्चों को भी ले जाऊं, लेकिन निंदिया तब तक मेरे साथ नहीं जायेगी जब तक कि उसकी और आपकी मां के रहने का उचित प्रबन्ध नहीं जाता है। अब बताइये कि आप लोग क्या कहते हैं?’‘देखो कुमारेश, मेरी स्थिति ऐसी है कि मैं मामा को अपने साथ नहीं रख सकती हूं।’ निंदिया की बड़ी बहन ने कहा तो कुमारेश अचानक ही चौंक गया। उनकी इस बात पर उनके पति प्रताप भी कुछ नहीं बोले। निंदिया की मां ने जब सुना तो वह चुपचाप उठकर बालकनी में चली गईं। कुमारेश के मन में आया कि वह भी कह दे कि जब आपकी ऐसी ही स्थिति थी तो फिर अपने पापा के मरने पर उन्हें क्यों सबके सामने कहकर यहां ले आये थे?’ लेकिन वह चुप ही रहा। यदि कुछ कहता भी तो होना तो कुछ भी नहीं था, केवल बात और अधिक बिगड़ जाती। वहां से निकलकर कुमारेश सीधा निंदिया के छोटे भाई के घर पहुंचा। वहां भी उसने यही समस्या और बात कही तो, उसके छोटे भाई ने कहा कि,‘आप निंदिया को ले जाइये। मामा को मैं ले आऊंगा।’‘तो फिर चलो मेरे साथ।’‘आप चलिये। छुट्टी मिलते ही मैं आऊंगा।’ बाद में बिल्कुल यही उत्तर कुमारेश को निंदिया के बीच वाले भाई ने भी दिया। बड़े भाई ने तो स्पष्ट ही कह दिया था कि मामा उनकी बीबी के साथ, उनके घर में नहीं रह सकेगीं। दिन सरकते गये। जाड़े की ठंड समाप्त हो गई। होली का त्यौहार अपने सारे रंग बिखेरकर चला गया, लेकिन निंदिया की मां की किसी ने भी कोई भी खबर नहीं ली। समय आया तो कुमारेश को विवश होकर निंदिया को उसकी मां के साथ, अपने बच्चों को छोड़कर अमरीका आना पड़ा।अमरीका आकर कुमारेश वहां समायोजित होने के लिये सारे प्रयास करने लगा। मशीन की तरह दिन-रात काम में जुट गया। इस बीच उसे भारत से आये हुये, अपने बीबी और बच्चों को छोड़े हुये आठ माह हो गये थे। निंदिया से तब केवल उसकी पत्रों के द्वारा ही बात हो पाती थी। इस बीच निंदिया कुमारेश के दूसरे लड़के की भी मां बन चुकी थी। उस बच्चे की जिसको कुमारेश ने अब तक देखा भी नहीं था। निंदिया का जब भी पत्र कुमारेश को मिलता था तो वह घर, परिवार और बच्चों की एक-एक बात उसे लिखती थी। उसके हरेक पत्र में यही लिखा होता था, आज रॉकी तीन महिने का हो गया है। कल उसने पहली बार पापा शब्द बोला था। रिक्की हिन्दी और अंग्रेजी के एलफावेट्स लिखने और पढने लगा है। अक्सर पूछता है कि मेरे पापा कहां हैं? लेकिन मामा बहुत दुबली होती जा रहीं है। कल उन्हें बहुत तेज बुखार चढ़ा हुआ था। अब तो मामा बिस्तर से लग गई हैं। मेरे लिये बहुत ही मुश्किल हो गया है कि बच्चों को देखूं, या नौकरी करूं अथवा मामा को देखूं? आप कब आ रहे हैं? बरेली से भैय्या कभी-कभी मामा को देखने जरूर आ जाते हैं, लेकिन सुबह आते हैं और शाम को लौट भी जाते हैं। एक रात भी नहीं टिकते हैं। कभी भी वह यह नहीं पूछते हैं कि घर में कोई सामान आदि तो नहीं मंगाना है। आटा वगैरह तो नहीं पिसवाना है। सारी घर की सौदा खरीदना, बाजार जाना, सब कुछ तो मुझे ही करना पड़ता है। आप पता नहीं कब आयेंगे? मैंने मामं की बीमारी आदि के लिये सबको बराबर लिख दिया है, लेकिन मजाल है कि किसी के कानों में जूं भी रेंगी हो। मामा अक्सर बिस्तर पर लेटे हुये आंखें फाड़-फाड़कर चारों तरफ देखती रहती हैं। लगता है कि वह अपने ही बच्चों को जैसे ढूंढ़ती रहती है? एक दिन मामा बड़े ही दुख के साथ कह रहीं थीं कि, ‘ऐ खुदा तू मुझे निंदिया के सामने ही उठा लेना। वरना वह अमरीका चली गई तो मेरी मिट्टी की भी बेकदरी हो जायेगी।’ कुमारेश उपरोक्त सारी बातें पढ़ता तो फिर अपना सिर ही पकड़कर बैठ जाता। उसकी समझ में नहीं आता कि वह करे तो क्या करे?निंदियां की मां की मृत्यु के पश्चात कुमारेश को भारत जाना ही था। इंदिरा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जब कुमारेश निंदिया से मिला तो वह उससे लिपटकर फूट-फूटकर रो पड़ी। साफ जाहिर था कि उसकी आंखों से टपकते हुये आंसुओं की एक-एक बूंद जैसे उसकी तकदीर बन चुकी थी। पिछले लगभग एक साल के अरसे में कुमारेश से अलग रहकर उसने किसकदर दुख उठाया था? उसकी सारी इबारत उसके जिस्म के चप्पे-चप्पे पर लिखी हुई थी। एक महिने भारत में अपने परिवार के साथ रहने के पश्चात कुमारेश निंदिया, और बच्चों को अपने साथ अमरीका ले आया। अमरीका दोबारा आकर फिर एक बार उसके संघर्षों का सिलसिला आरंभ हो गया। कुमारेश तो संघर्ष कर ही रहा था, पर साथ में जो विशेष बात उसने देखी, वह थी निंदिया का दूसरे देश, अपरिचित जगह और नये देश की नई संस्कृति में मन नहीं लगना। धीरे-धीरे वह भारत लौटने के बहाने करने लगी थी। अमरीका में अपने पति और बच्चों के साथ रहने पर भी वह अभी तक अपनी मां, अपने पिता और अपने घर को अपने जहन से निकाल नहीं सकी थी। फिर काफी दिनों के पश्चात एक दिन उसने कुमारेश से कह ही दिया कि, उसे अपनी मां की कब्र पक्की करवानी है, और इसके लिये उसे भारत जाना होगा। कुमारेश ने उसे समझाया और कहा कि, ‘यूं अमरीका से भारत जाना सहज नहीं होता है। रही बात मामा की कब्र के पक्की करवाने की, तो मैं यहां से तुम्हारे किसी भी भाई को पैसा भेज देता हूं, वह लोग यह काम करवा देंगे। हम लोग जब भारत जायेंगे, तब जायेंगे ही।’ इस पर निंदिया कुछ दिनों के लिये चुप भी हो गई। कुमारेश ने कब्र के पक्की करवाने के लिये पैसा भी भेज दिया। निंदिया के छोटे भाई ने कब्र भी पक्की करवाई। लेकिन उसका यह काम भी अधूरा ही रहा। कब्र का काम भी पूरा नहीं हुआ। ऊपर से उस पर पूरी तरह से सींमेंट भी नहीं लग पाया था। काम भी उसके भाई ने पूृरा नहीं करवाया। जब कारण पूछा तो उसे बताया गया कि कब्र के पक्की करवाने के लिये जो पैसा भेजा गया था, वह कम पड़ गया है। लगभग एक हजार रूपये और चाहिये थे। ये सब सुनकर कुमारेश को बड़ी गुस्सा आई। कुमारेश बोला कि, ‘यदि पैसा कम भी पड़ गया था तो अपने पास से नहीं लगा सकते थे? मां तो तुम्हारी पहले है?’ फिर ना तो पैसा ही भेजा गया और ना ही अधूरी बनी कब्र फिर कभी भी पूरी हो सकी। नहीं पूरी हुई तो निंदिया ने फिर से पहले पत्थर और बाद में पहाड़ अपने सिर पर उठा लिया। तब कुमारेश ने भी बहुत तंग आकर उसको भारत भेज दिया और कहा कि अब जब भी आओ तो वहां के सारे अधूरे काम पूरे करके ही आना।अटलांटा के अंतरराष्ट्रीय हार्टफील्ड हवाई अडडे पर जब कुमारेश निंदिया को भारत जाने के लिये बैठा के आया तब वह ना तो रो सका और ना ही हंस सका। एक अजीब ही परिस्थिति से उसका वास्ता आ पड़ा था। एक तरफ उसके बच्चे थे, पत्नी थी, अपनी नौकरी थी। पत्नी भी जा चुकी थी। वह नौकरी करता या फिर बच्चों को देखता। हां इतना ही अच्छा हुआ था कि जाते समय निंदिया ने कोई भी तमाशा नहीं किया था। साथ ही बच्चे स्कूल जाने लगे थे। बच्चों की स्कूल की समस्या तो उसने हल कर ली थी। वह दिन की पारी में नौकरी करने लगा था। और बच्चे भी स्कूल के बाद के कार्यक्रम में स्कूल में चार बजे तक रहते थे। कुमारेश नौकरी से आकर बच्चों को स्कूल से उठाकर फिर घर आता था। मगर इतने से सारे काम नहीं चलते थे। बहुत सारे काम बच्चों के ऐसे थे जिन्हें करने में उसे बहुत अधिक कठिनाई होती थी। समय धीरे-धीरे बीत ही रहा था। कुमारेश कैसे भी अपनी गाड़ी खींच रहा था। निंदिया जब से भारत गई थी, तब से उसने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा था। उसे गये हुये पांच महिने से भी अधिक हो चुके थे।एक दिन कुमारेश जे. सी. पैनी स्टोर से अपने दोनों बच्चों के साथ कुछ खरीदारी करके लौटा तो कार में बैठने से पहले ही एक स्त्री उसे वहीं पारकिंग के पास अकेली बैठी दिखाई दी तो कुमारेश का उसे यूं देखकर चौंकना और आश्चर्य करना बहुत ही स्वभाविक था। तब बहुत कुछ पूछने और जानकारी लेने के पश्चात उस स्त्री की जो कहानी कुमारेश के सामने आई उसके अनुसार उस स्त्री का नाम निशा था। वह भारतीय मूल की थी और उसने यहीं अमरीकी भूमि पर जन्म लिया था। जब वह पढ़ रही थी तो किसी पाकिस्तानी लड़के से, जो वह भी उसके साथ पढ़ रहा था, से उसके प्रेम संबन्ध पहले हुये और बाद में उसने बाकायदा अपने मां-बाप की मर्जी के बगैर विवाह कर लिया था। फिर विवाह के एक वर्ष के पश्चात जब उस लड़के को भी ग्रीन कार्ड मिल गया तो पहले तो वह लड़का उसे अक्सर ही परेशान करने लगा। वह कोशिश करता था कि किसी भी प्रकार से वह लड़की ही उसे तलाक दे दे। लेकिन जब ऐसा नहीं हो सका वह लड़का उसे एक दिन चकमा देकर कहीं गायब हो चुका था। तब से वह अपने पति की तलाश में थी और वहां कार पार्किग में टैक्सी के लिये प्रतीक्षा कर रही थी। तब उस दिन कुमारेश ने उस स्त्री को अपनी कार से उसके निवास पर पहुंचाया। और फिर इस तरह से निशा कुमारेश के जीवन में आई। एक दिन कुमारेश ने निशा को अपनी परेशानी बताई और उसे सलाह दी कि यदि निशा चाहे तो वह उसके घर में रहकर उसके बच्चों की देखभाल का काम कर सकती है, और साथ में अपनी नौकरी भी कर सकती है। कुमारेश उसको बच्चों की देखभाल करने का पैसा देगा और रहने-खाने का भी पैसा वह उससे नहीं लेगा। तब से निशा कुमारेश के साथ रहकर उसके बच्चों की देखभाल कर रही थी। तब से इतने वर्षों से एक साथ एक ही छत के नीचे रहते हुये निशा और कुमारेश दोनों ही एक दूसरे के सुख-दुख के साथी थे। निशा को उसको पति छोड़ गया था तो कुमारेश अपनी पत्नी के रहते हुये भी अकेला था। सो इस प्रकार से निशा को कुमारेश के घर में रहते हुये और उसके बच्चों की परिवरिश करते हुये एक, दो, दिन और माह नहीं बल्कि एक पूरा लम्हा बीत गया। निशा भी कुमारेश और उसके बच्चों से इसकदर घुल-मिल गई थी कि कोई भी उनको इस तरह से एक साथ रहते हुये एक संपूर्ण परिवार की संज्ञा दे सकता था। वक्त ने भी उनको एक साथ रहते हुये इतना एक दूसरे के लिये महत्वपूर्ण बना दिया था कि अब कोई भी एक दूसरे के बगैर अकेला नहीं रह सकता था। बच्चे निशा के बिना, निशा बच्चों के बगैर, और कुमारेश इन दोनों के बगैर अकेला रहने की अब कभी सोच भी नहीं सकता था। निंदिया का भी यह हाल रहा कि वह जब से भारत गई थी तब से उसने भी पीछे मुड़कर ना तो कुमारेश की तरफ और ना ही बच्चों की तरफ देखा था। शायद इसका कारण यही हो सकता था कि, उसके जीवन में अपने माता-पिता, उनके लाड़-दुलार, उनकी मुसीबतों के वे क्षण जिनमें से गुज़रते हुये उसने उनका हरेक दुख देखा था, मां-बाप के प्रति अपने से बड़े भाई-बहनों के द्वारा की उपेक्षा, अपना घर, वहां की हरेक हवाओं और वह धूल जिसमें लिपटकर वह इतनी बड़ी हुई थी और अपने देश की हरेक वह स्मृति जिनको वह कभी भी अपने से पीछे छोड़ नहीं सकती थी। उपरोक्त सारी बातें और परिस्थितियां उसके वर्तमान जीवन पर इसकदर भारी पड़ी थीं कि जिनके आगे वह अपना कर्तव्य और अपना उत्तरदायित्व सभी को भूल चुकी थी। लेकिन ऐसा भी कब तक चल सकता था? इंसान को जब अपनी लगी हुई उम्मीदों की आस करते हुये भी हाथ मलने पड़ते हैं, तब उसे महसूस होता है कि मात्र जुगनुओं का ढेर लगा लेने भर से घर का अंधकार समाप्त नहीं होता है। घर में रोशनी होती है, घर के वास्तविक चिराग़ के जलते रहने से। निंदिया के दिल पर जब उसके अतीत के दिनों ने करवट ली तो वह एक दिन चुपचाप, कुमारेश को सूचित किये बगैर भारत से अमरीका वापस आ गई।शनिवार का दिन था। बच्चों, निशा और कुमारेश, संयोग से तीनों ही की छुट्टी थी। कुमारेश सभी को शाम का खाना खिलाने के लिये सी. सी. पीज़ा के रेस्टोरेंट में ले गया था। निंदिया का जहाज शाम चार बजे ही जार्जिया की अटलांटिक भूमि को छू चुका था। कस्टम आदि से निकलते हुये निंदिया को सात बज चुके थे। उसने टैक्सी की और सोचा कि अचानक से जाकर वह बच्चों के साथ कुमारेश को भी सरप्राइज़ देगी। लेकिन वह खुद भी आश्चर्य से भर गई जब कि उसने घर पर आकर किसी को भी नहीं पाया। मजबूर होकर वह वहीं घर के बाहर, दरवाज़े की सीढि़यों पर बैठ कर कुमारेश के आने की प्रतीक्षा करने लगी। लेकिन उससे भी अधिक उसे तब सरप्राइज़ मिला जब कि कुमारेश रात नौ बजे बच्चों और निशा के साथ अपनी कार से बाहर निकला। उन सबको एक साथ देखकर निशा की छाती पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। फिर एक स्त्री का दिमाग, उसके सोचने का ढंग, निंदिया के लिये सच्चाई जानने की कोशिश करना तो दूर, इतना ही समझना बहुत था। सौतिया डाह से पूरी तरह लबरेज़ होती हुई उसने कुमारेश से कुछ पूछना तो दूर, उससे बात भी करना उचित नहीं समझा। उसके बच्चे भी, जिन्होंने एक लंबे अंतराल के बाद अपनी वास्तविक मां को देखा था, और साथ ही मां के रूप में निशा को इतने अरसे से देखते हुये वे निंदिया को पहचान भी पाये थे या नहीं? इस भेद को भी कोई नहीं जानता था। कुमारेश ने निंदिया को बहुत समझाना चाहा, निशा ने भी उसे मनाने की कोशिश की, लेकिन सब कुछ बेकार रहा। उसने टैक्सी बुलाई। जैसे वह अपने घर आई थी वैसे ही उल्टे पैर वापस भी चली भी गई। कुमारेश फिर एक बार मजबूरी में हाथ मलता रह गया। शायद वह रात निंदिया ने उस दिन किसी होटल या मोटल में ही गुज़ारी होगी? उसके पश्चात कुमारेश ने निंदिया को बहुत ढूंढा, बहुत खोजा, लेकिन उसका कुछ पता ही नहीं चला। वह शायद फिर से वापस भारत चली गई है? ऐसा सब कुछ सोचकर वह सन्तुष्ट तो नहीं पर अपने दिल पर एक बड़ा सा बोझ रखकर शांत हो गया। स्वंय को समझाया, और निरूत्तर हो गया।देखते-देखते फिर एक लंबा समय और गुज़र गया। बच्चे प्राईमरी स्कूल से निकलकर हाई स्कूल की चारदीवारी में पहुंच गये। कुमारेश यही समझता रहा कि निंदिया भारत में ही रह रही है, लेकिन ऐसा उसका सोचना तब गलत हुआ, जब कि लैब में काम करते समय उसे खुद निंदिया के खून की जांच के सारे टेस्ट करने पड़े। वह यह जानकर दंग रह गया कि निंदिया जो कायदे और कानून से अभी भी उसी की पत्नी थी, उसी के अस्पताल में आई. सी. यू. में भर्ती है? यह जानकर कुमारेश फिर एक बार अपनी पत्नी के बारे में सोचे बगैर न रह सका। उसने तुरन्त ही निशा को फोन किया और सारी स्थिति से अवगत् कराया। निशा ने सुना तो वह उसी समय अस्पताल पहुंची। जाकर निंदिया को देखा। फिर जितने दिन भी निंदिया अस्पताल में रही, वह हर दिन उसके पास जाती रही। जी भर के, मन लगाकर निशा ने उसकी सेवा में कोई भी कसर बाकी न रखी। समय मिलने पर कभी-कभी कुमारेश भी निंदिया के पास जाता रहा। उसकी तबियत के बारे में पूछता रहा। बहुत सारी बातें कुमारेश ने निंदिया से करनी चाही, पर उसने अपने मुख से एक भी बात कुमारेश से न कही। कुमारेश जब भी उससे कुछ कहता, उसे समझाता, उसकी बाीमारी के प्रति उसका मनोबल बढ़ाने की कोशिश करता तो निंदिया सिवाय रोने के और कुछ भी न करती। इसलिये वह बार-बार न रोये और अपने को अधिक परेशान न करे, ऐसा सोचकर कुमारेश ने उसके पास जाना ही बंद कर दिया। केवल निशा ही उसका हर तरह से ख्याल रखती रही थी। फिर जब निंदिया ठीक हो गई और जब उसे अस्पताल से छुट्टी मिली तो निशा उसे बहुत समझा बुझाकर घर ले आई थी। हांलाकि निंदिया आना नहीं चाहा रही थी, मगर निशा के बहुत आग्रह करने और समझाने के पश्चात वह घर आ गई थी। स्वंय निशा ही निंदिया की कार चलाकर, उसे अपने यहां ले आई थी . . .।अचानक ही कुमारेश के विचारों को एक झटका सा लगा। वह यादों के बबंडर से निकलकर बाहर आया। अपने आस-पास देखा। निशा के द्वारा बनाया हुआ चाय का प्याला अपनी सारी भाप समाप्त करके ठंडा हो चुका था। यादों की सोच में कुमारेश ने एक घूंट भी चाय नहीं पी थी। कमरे की खिड़की से बाहर सूर्य की कोमल रश्मियां बाहर लॉन की मखमली घास पर रात की शबनम के मोती चमका रही थीं। जब से वह आया था, तब से बैठे हुये वह अपने जीवन की पिछली न जाने कितनी ही घटनाओं को फिर से दोहरा गया था। वह शीघ्र ही उठा। सारे घर में शान्ति तो थी, पर उससे भी कहीं अधिक सन्नाटा पसरा हुआ था। कुमारेश कमरे से निकलकर लिविंग रूम में आया। एक नज़र निशा को तलाशने की कोशिश में चारो तरफ देखा। जब नहीं दिखी तो उसे आवाज़ भी दी। मगर जब कोई भी उत्तर उसे नहीं मिला तो वह उसके कमरे में गया। जाकर देखा तो वह वहां भी नहीं थी। तभी उसकी नज़र उसके बिस्तर के पास रखी हुई छोटी से मेज पर पड़ी। वहां पर रखे हुये एक लिफाफे को देखकर वह सहसा ही चौंक गया। उसने शीघ लिफाफक को उठाया। लिफाफा बंद भी नहीं था। उसने उसके अन्दर रखे हुये कागज़ को निकाला और तुरन्त ही पढ़ने लगा,‘कुमारेश,इंसान का जीवन यदि पानी का बुलबुला बनकर जिये तो जल्दी ही फूट भी जाता है। और पत्थर बनकर जीना चाहे तो वह ना तो फूटता है आर ना ही जी पाता है। मैं यदि यहां रहूंगी तो निंदिया की जि़न्दगी की बची हुई सारी नींदे हराम हो जायेगीं। ऐसी स्थिति में वह ना तो रो सकेगी और ना ही हंस सकेगी। जानती हूं कि मेरे जाने के पश्चात आपकी रातें निशा के समान ही काली हो जायेंगी। लेकिन, अब समय आ गया है़ कि आपको दोनों में से किसी एक को चुनना होगा। और जो चुनना चाहिये, उसी के लिये अपनी जगह खाली करके आपके यहां से सदा के लिये जा रही हूं। आपके दिल में मेरे लिये यदि कभी भी क्षणिक स्नेह का कोई दीप जला हो तो उसकी ज्वाला को सदैव ही जीवित रखने की ख़ातिर मेरी आप से विनती है कि अब कभी भी मुझे ढूंढ़ने की चेष्टा न करना। मैं वायदा करती हूं कि जहां भी रहूंगी, कायदे और शान्ति से रहूंगी। किसी के बसे-बसाये घर की छत के नीचे अपना बसेरा ढूंढ़ने की भूल का एहसास यदि मुझे आज के बजाय बहुत पहले हो चुका होता तो शायद निंदिया आपके पास बहुत पहले आ चुकी होती। एक स्त्री का सोचने का ढंग और उसके ज़जबात बहुत नाज़ुक होते हैं। एक औरत की इन कोमल भावनाओं के प्रति यदि आप गौर करेंगे तो हो सकता है कि आप मुझे मॉफ कर सकें।निशा।’कुमारेश को पढ़ते-पढ़ते पसीना आ गया। आंखें उदास भावनाओं के भार से बोझल ही नहीं बल्कि अन्दर ही अन्दर भर आईं। उसने शीघ ही आस-पास देखा। जब कोई नहीं दिखा तो वह बाहर की तरफ भागा। कारपोर्ट में निशा की कार को नदारद देखकर उसका रहा बचा सन्देह भी जाता रहा। फिर भी जब उससे नहीं रहा गया तो अपनी कार की चाबी उठाई, तुरन्त कार में बैठा और उसे चालू कर निशा की खोज में निकल पड़ा। लगभग एक घंटे तक वह अपनी कार को घुमाता रहा। फिर जब निशा उसे कहीं भी नहीं दिखी तो निराश होकर घर वापस आ गया। बड़े ही उदास और निराश मन से वह कार से नीचे उतरा। थके हुये कदमों के सहारे सीढि़यां चढ़कर, जैसे ही उसने चाबी लगाकर दरवाज़े को खोलना चाहा तुरन्त ही दरवाज़ा खुल गया। सामने निंदिया खड़ी थी। जीवन से थकी हुई, उसके चेहरे को देखते ही लगता था कि इतनी ज्यादा वह अपने बीमार रहने से नहीं थकी थी जितना कि अधिक अपने जीवन के संघर्षों से। कुमारेश उससे कुछ कहता, इससे पहले ही निंदिया उसकी बाहों में किसी कटी हुई टहनी के समान झूल गई। कुमारेश ने उसे सहारा दिया और फिर अपने गले से लगा लिया। कुमारेश से गले लगकर निंदिया फूट-फूटकर रो पड़ी। निंदिया को गले लगाये हुये उसने फायर प्लेस के ऊपर रखी हुई निशा की तस्वीर को एक बार देखा। देखा तो उसे एहसास हुआ कि सचमुच रोशनी के लिये किसी न किसी को तो जलना ही पड़ता है। शाम होते ही लोग चिरागों को जलाया करते हैं, और एक वह है जो शाम होते ही खुद चिरागों की तरह जला करता है। सोचते हुये वह यह निर्णय नहीं कर पाया कि सचमुच उसके घर में रोशनी निंदिया के आने से आई है या फिर निशा के जाने से?

समाप्त.