निमिता
कहानी/ Sharovan
***
'परमेश्वर की आदत यदि बच्चों समान न होती तो वह क्यों इंसानी खिलौनों को बनाता, तोड़ता, फिर बनाता और फिर तोड़ता— उनसे खेलने के पश्चात किसी को कहीं फेंक देता, कोई कहीं पड़ा होता है, तो कोई कहीं . . . कितना अच्छा होता यदि परमेश्वर के पास भी हम सब की जैसी मां भी होती तो कम से कम हम टूटे और फेंके हुये खिलौनों को कोई सही स्थान पर रखनेवाला, उनको संभालने वाला और उनके टूटे हुये हाथपैरों को फिर से जोड़ने वाला तो होता। बच्चों के खेलने के बाद टूटे और फेंके हुये खिलौनों के समान हमारी बेकद्री तो नही हुआ करती।' मानव जीवन के सच को झकझोरती हुई कहानीकार शरोवन की एक नई तरोताज़ा कहानी।
***
सारे घर की पहली बहू और खुद की भाभी को बारात लेकर जब वापस आई तो समस्त परिवार में तो यूं भी खुशियों के तार हर जगह झिलमिला ही रहे थे, पर उससे भी अधिक खुशी निमिता को अपनी भाभी मिलने की थी। उसकी भाभी बनी भी वह लड़की थी जो आरंभ से ही उसके साथ खेलीपढ़ी थी। सारे रास्ते की थकान और बस की यात्रा से थकीथकाई उत्तरा को निमिता ने अन्दर ले जाकर बिस्तर पर बैठाया और आराम करने को बोल दिया। फिर जल्दी से मेहमानों के खाने और अन्य सुविधाओं को जुटाने आदि के प्रबन्ध में लग गई। निमिता की खुशी उसके अन्य कामों में हाथ बंटाने के तौरतरीकों से ही जाहिर हो जाती थी। लगता था कि जैसे आज उसने अपने जीवन का बहुत बड़ा तीर मार लिया है — अपनी दोस्त को अपनी भाभी बना लिया। इससे बड़ी और बात क्या हो सकती थी। अपने हिस्से का कोई जैसे बहुत ही महत्वपूर्ण काम कर डाला है। यह सोचे बगैर कि जिस किसी को वह अपनी दुनियां में जीत कर लाई थी वहीं किसी को उसने अपनी दुनियां से बहुत ही मामूली तौर पर निकाल भी दिया था। आज का अनोखा दिन देखने की खातिर निमिता ने पिछले कई महिनों से कितना कुछ गुणाभाग किया था, इस भेद को कोई जाने न जाने पर जो जानता था वह अब कहां है? इस बात को सोचने की भी फुर्सत अब निमिता को कहां रही होगी। हसरतों के एहसास से बेखबर प्यार की दुनियां में किये गये अपने वादों का मूल्य स्वार्थ की चौखट का स्पर्श पाते ही कितनी जल्दी बदल जाया करता है— किताबों में लिखे गये ऐसे किस्से बहुत पुराने हो चुके हैं।
ख्यालों में ही गुनगुनाती हुई निमिता ने चाय का प्याला उठाया और उसको अन्य शादी के पकवानों की थाली में सजाकर जैसे ही उठाकर वह उत्तरा के कमरे की तरफ जाने को हुई कि तभी शादी की बारात में गया हुआ उसके मुहल्ले का रहनेवाला लड़का ईंमान अचानक ही उसके सामने आ गया। उसे देखते ही निमिता के पैर अचानक ही ठिठक गये। ठिठक इसलिये गये, क्योंकि ईमान का इस प्रकार से उसके सामने आने का कारण कोई छोटामोटा नहीं हुआ करता था। ईमान निमिता और उसके प्रेमी के बीच सन्देशवाहक का कार्य किया करता था। आज से नहीं बल्कि वर्षों से वह ये कार्य करता आ रहा था।
'कैसे आना हुआ?'
निमिता ने चारों तरफ निहारते हुये एक भेदभरी दृष्टि से ईमान को देखते हुये पूछा।
“आपके लिये पत्र है। निर्मेश भैय्या ने दिया है। स्टेशन पर मैं उन्हें छोड़ने गया था, तभी जाने से पहले उन्होंने ये आपके लिये दिया था।” कहते हुये ईमान ने पत्र का लिफाफा निमिता को पकड़ाया तो उसने तुरन्त ही उसे चाय की ट्रे के नीचे छुपा लिया। तुरन्त ही बोली,
“स्टेशन पर . . . लेकिन क्यों . . .?”
“अब ये तो मुझे नहीं मालुम।” ईमान ने कहा तो निमिता ने उसे जाने की अनुमति दे दी। बोली,
“ठीक है, मैं देख लूंगी। थैंक्यू।”
जल्दी से निमिता ने चाय की ट्रे उत्तरा के सामने रखी और फिर अपने भाई को भी उत्तरा के साथ चाय पीने की कह कर अतिशीघ्र ही अपने कमरे में आई। कमरा अन्दर से बन्द किया और लिफाफा खोलते हुये सोचने लगी; अभी पिछले दिनों जैसेतैसे तो किसी प्रकार बीमारी से ठीक हुआ है निर्मेश . . .आज ही बहन की विदा भी की है उसने, लेकिन . . .अब कहां चल दिया . . .? सोचते हुये उसने लिफाफा खोल दिया। अन्दर सचमुच पत्र था, पर ना किसी हिदायत का, ना ही किसी मिलनेजुलने के कार्यक्रम आदि का। बगैर उसके नाम को संबोधित किये हुये निर्मेश ने पत्र लिखा था। निमिता ने फौरन ही पत्र को निकाल लिया और पढ़ने लगी,
‘आसमान से जब कोई तारा निढाल होकर टूटता है तो उसे देखना शुभ नहीं माना जाता है। मैं तो यूं भी हर रात को कितने ही तारों को टूटते हुये देखा करता हूं। फिर इन टूटते हुये तारों को तो वही देख सकता है जो रातों को सोये नहीं। मेरा भी तारा, चाहे मेरी किस्मत का, चाहे मेरे जीवन का ही क्यों न हो, जब भी टूटेगा तो विशेषकर तुम न देख सको, इसीलिये तुम्हारा देश, तुम्हारा शहर और तुम्हारा संसार छोड़ कर यहां से कहां जा रहा हूं. ये मुझे अभी भी नहीं मालुम है। और अपने साथ लेकर वही जा रहा हूं, जो तुमने मुझे नज़रानों के रूप में दिया है। प्यार की कहानी यदि पत्थर पर लिखी जाये तो मजबूत हो जाती है— लेकिन जब कोमल मन की भावनाओं पर वही तहरीर पत्थर की कलम से लिखी जाये तो बेबसी के दर्द में सने हुये आंखों से जो मोती निकलते हैं वे चट्टानों पर गिर कर भी नहीं फूटते हैं। हम दोनों, बचपन से अपनी आधी उम्रों की दालान तक साथसाथ चले. इन दिनों में हमने बहुत कुछ सोचा, बहुत कुछ सोचकर करने को विचार किया, बहुत सारे सपने बनाये, एक कहानी बनाकर उसको अंजाम तक लाने की कोशिश की, पर कितनी जल्दी पटाक्षेप हुआ और हमारी कहानी का सबक ही बदल गया। हाथ थाम कर साथ चलते हुये अचानक ही बादलों की एक झील सी हमारे सामने आई और धुंआ छंटते ही जब देखा तो तुम झील के उस पार थी और मैं इस पार। इस झील को पार करने के लिये तुमने बीच में उत्तरा का बदन रख दिया था। ज़रा सोचो एक भाई अपनी प्यार की हसरतों को पूरा करने के लिये अपनी बहन की लाश पर चल कर जा सकेगा क्या? प्यार के बन्धनों को सहज ही कतरने के लिये तुमको ये सब करने की क्या आवश्यकता थी? मेरी बहन को हथियार बना कर तुमने अपने भाई के प्यार की बाज़ी मार ली और धन्य हो लीं? अरे, केवल एक बार मुझसे कह कर तो देखतीं। मैं तो खुद ही अपने आपको तुम्हारी ख़ातिर सदा के लिये विलीन कर लेता। मैं जानता हूं कि मेरी ला-इलाज बीमारी तो मेरे प्रति तुम्हारे अलगाव का मात्र एक बहाना भर थी, सही बात तो बारात की थी। मैं बारात लेकर आता या फिर उत्तरा की बारात तुम्हारे भाई की तरफ से मेरे घर पर आती? यह फैसला कितनी आसानी से तुमने कर डाला। घोर आश्चर्य ही नहीं हुआ, पर साथ ही तुम्हारे कहे हुये प्यार के वादे भरे शब्दों ने बनावट के उसूलों का चलन भी दिखा दिया है मुझको। काश: तुम्हारे स्थान पर किसी पागल लड़की ने मेरा हाथ पकड़ लिया होता . . . .तो शायद आज अपनी दम तोड़ती, सिसकती हुई मन की आस्थाओं का ज़नाजा यूं तैयार न कर रहा होता। पागल ही सही, पर जानबूझ कर, जानतीसमझती हुई मेरे दिल पर तुम्हारे समान बेदर्दी के आरे तो नहीं चलाती होती . . . .’
पढ़तेपढ़ते निमिता की आंखों में आंसू झलक आये। कितना दर्द भरा, टूटे हुये दिल की कतरनों के साथ निर्मेश ने ये पत्र लिखा था उसको। पत्र क्या था, जैसे उसने अपना ज़ख्मी कलेजा ही निकाल कर भेज दिया था। इतना अधिक प्यार करता था उसका निर्मेश केवल अपनी निमिता को? दिल की नाज़ुक पसीज़ी भावनाओं को मौसमी बादलों की महज़ एक बौछार समझने वाली निमिता जब खुद को संभाल नहीं सकी तो फूटफूटकर रो पड़ी। रो पड़ी, इसलिये कि निर्मेश के जिन हसीन प्यार के इशारों को उसने पानी के बुलबुले बनाकर कभी फोड़ दिया था, वही एक दिन पूरे सैलाब के साथ उसके संसार को यूं ले डूबेंगे! वह कभी सोचती भी नहीं थी। मात्र अपने भाई का घरसंसार बसाने की ख़ातिर उसने अपने प्यार के कोमल बदन पर कितनी बेदर्दी से मोथरी छुरी चला दी है . . .? सोचते हुये जब निमिता से नहीं रहा गया तो वह बिस्तर में ही अपना सिर छुपा कर फिर से रोने लगी।
रात के भयावह वातावरण में, अंधकार का सीना चीरती हुई, गंगाजमुना एक्सप्रेस धड़धड़ाती हुई अपने गन्तव्य की ओर चली जाती थी तो अपने ख्यालों में गुम ट्रेन के डिब्बे के सारे वातावरण से जैसे अनभिज्ञ बना निर्मेश अपने ही में खो गया था। ज़िन्दगी के कठोर तमाचों की मार से दुखता हुआ उसके बदन का पोरपोर, गाड़ी की पूरी बर्थ मिलने के बावजूद भी उसको पल भर चैन से बैठने भी नहीं दे रहा था। यक्ष्मा रोग की लम्बी बीमारी से थका हुआ कमज़ोर और क्षीण होता बदन, प्यार के जज़बातों पर पड़े हुये किसी की निर्लिप्तता के निशान और अतीत की कहानी में कभी भी न भुलाई जानेवाली बदहज़मी के शब्दों का दर्द, इन सबने जब एक साथ आकर निर्मेश को दबोचा तो अपनी कनपटी के नीचे उल्टा हाथ रखते हुये लेटकर दूसरे हाथ से उसने अपनी आंखें बंद कर लीं। सोने की कोशिश की पर मजबूर यात्रा का दुख, गाड़ी का शोर और अपने आसपास बैठे हुये कुछेक यात्रियों की बातचीत का स्वर, इन सब का प्रभाव कुछ ऐसा हुआ कि वह चाहते हुये भी नहीं सो सका। गाड़ी में बैठने के पश्चात भी वह नहीं जानता था कि वह जा कहां रहा है? पिता के मरने के पश्चात यदि उनके स्थान पर बड़े भाई और पिता समान का फर्ज़, उत्तरदायित्व और कर्तव्य का मार्ग उसके सामने नहीं आता तो वह आज शायद जीवित भी नहीं होता। उसने सोचा कि, उत्तरा को उसने डोली में बैठाकर वहीं विदा कर दिया, जहां पर वह जाना भी चाहती थी। उसका कायदे से विवाह कर दिया, अपना कर्तव्य पूरा कर दिया, बस और उसे करना भी क्या था। बहन की शादी वाली बात यदि न होती तो वह क्यों दोबारा अपने इस पैत्रिक शहर की सरहदों में प्रविष्ट हुआ होता और अब वह जहां भी जा रहा है, वहां से क्या वह कभी भी वापस आ भी सकेगा? अपने उस शहर और स्थान में जहां पर कभी उसके प्यार की हसरतों ने सपनों की दुनियां में अंगड़ाइयां लेना आरंभ की थीं। फिर अब वह यहां दोबारा आकर करेगा भी क्या? जिस शहर में उसके अरमानों के सूरज ने कभी सहर न देखी हो, जिस स्थान पर उसका प्यार धूंधूं करके खाक हो चुका हो, उस जगह पर फिर से आने की उसे आवश्यकता भी क्या? कौन जानता था कि वक्त का कुल्हाड़ा कितनी बेदर्दी से दिल की संजोई हुई हसरतों को काट देता है। पलक झपकने की देर भी नहीं होती है और कहानी का विषय ही बदल जाता है। प्रेमप्रीत के मामलों में हाथ थाम कर चलने वाला साथी कितनी आसानी से गुम हो सकता है, ज़िन्दगी के इस कड़वे और कठोर सच को अपने सामने पाकर निर्मश का बदन जैसे अन्दर ही अन्दर हिल सा गया। प्रेम की किताबों में साथसाथ मरनेजीने वाले प्रेमियों के किस्सों से शब्द भरे पड़े हैं, पर हकीकत की दुनियां में स्वार्थ की बलिवेदी पर बलि चढ़ाने वालों के लिये कितना लिखा गया है, इसमें अवश्य ही सन्देह के प्रश्न लगे हुये हैं।
गाड़ी की कठोर और पथरीली जैसी बर्थ पर पड़े हुये निर्मेश ने सोचा कि कालेज के दिन, स्वतन्त्र ख्याल, ना कोई चिन्ता, ना कोई जिम्मेदारी, खाओपियो, कालेज जाओ, खेलोकूदो और बस। हवाओं में कलाबाजियां खाने वाली चिड़ियांओं जैसा निश्चिन्त जीवन— जैसा चाहा वैसा ही गुज़ार दिया। यह जीवन और भी बेहतर बन जाता है यदि कोई मानसिक और शारीरिक रोग न लगे— लेकिन रोग तो वह लगा ही चुका था। शारीरिक न सही, मानसिक ही, पर रोग तो रोग ही होता है। उसके अपने इस रोग की शुरूआत भी जिस प्रकार से हुई थी, वह दिन और वह पल निर्मश आज भी नहीं भुला सका था। और आज का दिन वह दिन था कि उसकी प्रीत की कहानी का तो पर्दा गिर चुका था पर समाप्त होने के बजाय कहानी अधूरी रह गई थी . . .’
“जब बिंदी लगानी नहीं आती है तो टेढ़ी क्यों लगाती हो?'
निर्मेश को अचानक ही ध्यान आया तो वह सोचने लगा।
'बगैर शीशा देखे हुये लगाई है। कितनी बार कहा होगा कि तुम ही लगा दिया करो तो तुम बड़ी आसानी से टाल जाते हो।' निमिता ने उससे शिकायत की तो निर्मेश आश्चर्य से उसका मुख देखने लगा।
'ऐसे घूर कर क्यों देखते हो? मैंने कोई गलत तो नहीं बोला है?” निमिता बोली तो निर्मेश ने पहले तो उसे निहारा। बड़े गौर से उसके चेहरे के भाव पढ़ने चाहे, फिर बोला कि,
'मैं तुम्हारे बिंदिया लगाऊं? मतलब जानती हो इसका?”
'खूब जानती और समझती हूं। तुम्हारे अन्दर हिम्मत है, मेरे माथे पर बिंदी लगाने की?'
‘?’— निमिता की बात पर निर्मेश निरूत्तर हो गया। निमिता उसके पास आई। पास आकर उसकी आंखों में झांकने की उसने कोशिश की, फिर उसका मुंह अपने हाथ से ऊपर उठाते हुये बोली,
'बोलो! है हिम्मत . . .है ना?
'अरे ! कोई देखता होगा तो क्या कहेगा? मेरा तो कुछ भी नहीं होगा. नाहक तुम ही बदनाम हो जाओगी।'
निर्मेश ने निमिता का हाथ झटकते हुये कहा तो वह ऐसे बिफ़री जैसे कि उसे अचानक ही किसी चींटी ने काट लिया हो। उससे ताने से बोली,
'बस जबाब दे गई तुम्हारी सारी हिम्मत?'
'ये बात नहीं है।'
'तो फिर?'
'हम दोनों रोज़ाना मिलतेजुलते हैं। एक साथ कॉलेज जाते हैं। बातें करते हैं. क्या लोग नहीं देखते होंगे? और जब वे देखते हैं तो क्या समझते होंगे? तुम नहीं जानते हो क्या?” निमिता ने निर्मेश पर दोष लगाते हुये फिर शिकायत की तो वह सहजता से बोला कि,
'अच्छा अब नाराज़गी मत दिखाओ। मैं किसी समय पूरा सिन्दूर ही तुम्हारी मांग में भर दूंगा। पर ये होगा सब कायदे से। हर रीति और रिवाज़ के साथ.'
निमिता ने सुना तो पल भर में ही उसके सारे मुखड़े पर लाली फैल गई। इस प्रकार कि वह लाज के कारण दूसरी तरफ देखने लगी। काफी देर तक जब देखती रही तो निर्मेश अपने स्थान से उठा और उसकी तरफ आया। सामने आकर देखा तो आश्चर्य से भर गया। निमिता की झील जैसी भरी आंखों में मोती भर आये थे।
'अरे ! तुम तो रोने भी लगीं। अभी तो शेरनी जैसी गरज़ रही थीं। बस इसी हिम्मत की बात कर रही थीं तुम?' 'निर्मेश . . .! कहते हुये निमिता ने अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया।
. . .सोचते हुये अचानक ही निर्मेश का हाथ अपनी आंखों पर गया। आज निमिता के स्थान पर खुद उसकी आंखों में आंसू थे। पर कौन जानता था कि उसकी आंखों में आये हुये ये आंसू उसके प्यार की हारी हुई बाज़ी के ग़म के थे या फिर बहन को उसके सुहाग की डोली में बैठाने की खुशी में?
अचानक ही गाड़ी ने ज़ोर के साथ लंबी सीटी देना आरंभ कर दी और धड़धड़ करके भागने लगी। वह किसी पुल के ऊपर से गुज़र रही थी . . .’
समय का पंछी उड़ता रहा। निमिता और निर्मेश की मुलाकातों में कोई कमी न आई। कॉलेज होता या फिर अपनी बस्ती का ही कोई स्थान या फिर सामाजिक कार्यक्रम, दोनों ही को लोग संग देखा करते। साथ तो पढ़ते ही थे, अब ज्यादातर साथ भी रहने लगे थे। दोनों ने ही सोच लिया था कि कॉलेज समाप्त होने के पश्चात अच्छी नौकरी मिलते ही वे दोनों सदा के लिये एक हो लेंगे। एक ही मुहल्ले, एक ही समाज, एक ही देश और एक ही तरह का धार्मिक विश्वास होने के कारण कोई बज़ह ऐसी नहीं दिखती थी कि दोनों के मिलन में सामाजिक या कोई अन्य बाधा भी आती। प्रीत की राहों में विश्वास के साथ जब सारी परिस्थितियां भी साथ हो जायें तो मिलन की दीवारें पहले से और भी अधिक दृढ़ हो जाती हैं। यही सोच और विचारधारायें निमिता और निर्मेश की भी बन चुकी थीं। लेकिन प्राय: लोग अपने मन के इरादों को अपनी खुद की वसियत समझ लेते हैं, मगर जब समय की अचानक मार से उनके ये इरादे अचानक ही टकराते हैं तो दिल की हसरतों के सारे बनाये हुये महल शीशों के समान जब चटकते हैं तब इंसान को महसूस होता है कि जो कुछ उसने सोचा था वह तो सब झूठ था, वास्तव में सच तो वह है जो वह अपने सामने देख रहा है।
निमिता अपनी कालेज की पढ़ाई के पश्चात नर्स के प्रशिक्षण में जाने की तैयारी करने लगी और निर्मेश को उसकी किस्मत से अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई तो उसने आगे पढ़ने का इरादा छोड़ दिया। फिर एक दिन जब सारी तैयारियां पूरी हो चुकी तो निमिता अपने नर्सिंग के प्रशिक्षण के लिये दूसरे शहर चली गई। जाने से पहले उसने अपने आख़िरी के दो दिन पूरे निर्मश को ही दिये। यही सोच कर कि पता नहीं अब वह कब उससे फिर से मिले। यूं भी किस्मत से जो भी पल अपने महबूब के साथ बैठने को मिल जायें, उसके लिये इंसान को शुक्रगुज़ारी अदा करनी ही चाहिये। सारे दिन निमिता निर्मेश के साथ ही रही। ढेरोंढेर उससे बातें करती रही। निर्मेश भी उस दिन उदास था। बहुत कम वह उससे बातें कर रहा था। निमिता ने उसके मन की भावना को जब भांपा तो उसे समझाया ही। फिर सब तरह से यह सब अच्छा ही था। ज़िन्दगी के जिन लुभावने लम्हों से वे दोनों गुज़र रहे थे उनको मुकम्मिल बनाने के लिये ये कुछ दिनों की दूरियां बहुत ही अहम थीं। परन्तु अचानक से जो अजीब ही घटना निर्मेश के साथ हो गई, किसे क्या पता था कि उसके कारण उन दोनों के जीवनों का अध्याय ही बदल जायेगा। बैठे हुये निर्मेश को अचानक ही खांसी सी आई और वह रक्त की उल्टियां करने लगा। निमिता ने जो यह सब देखा तो वह भी घबरा गई। ना जाने यूं अचानक से निर्मेश को क्या हो गया था। इससे पहले तो उसके साथ कभी कुछ ऐसा हुआ नहीं था। निमिता ने शीघ्र ही निर्मेश के घर बताया और उसको अस्पताल ले जाकर दिखाने की सलाह दी। साथ में वह खुद भी उसके साथ अस्पताल गई। निर्मेश का डाक्टर ने पूरा परीक्षण किया। पर ऐसा कुछ भी पता नहीं चला जैसा कि सब सोचे बैठे थे। निर्मेश के शरीर में तपैदिक के एक भी लक्षण नहीं थे। सीनियर डाक्टर को जब दिखाया गया और उसने जब अपनी रिपोर्ट दी तो सब ही जैसे सकते में आ गये। डाक्टर ने निर्मेश के गुर्दे भविष्य में कभी भी फेल हो जाने की चेतावनी दे दी थी। उसका कहना था कि गुर्दो की कमज़ोरी और उन पर अधिक भार पड़ने के कारण शरीर का रक्तचाप बढ़ गया था। इस कारण उसके गले की कोई क्षीण धमनी फट जाने से रक्त आया था। निमिता ने सुना तो सुन कर ही रह गई। इस प्रकार कि क्षण भर में ही उसको अपने सपनों का महल टूटता नज़र आने लगा। अपने बसने वाले नीड़ के तिनके बिखरते नज़र आये तो वह अपना सिर पकड़ कर ही बैठ गई। किस्मत की मारी ऐसी दशा में वह ना तो रो ही सकती थी और ना ही किसी को दोष लगा सकती थी। उसके भविष्य के आने वाले दिनों के साथ ईश्वर ने अच्छा किया है या बुरा? — कोई भी ठोस निर्णय न लेते हुये, वह निर्मेश को समझाबुझाकर, मन मार कर अपने प्रशिक्षण में चली गई। वहां जाकर उसने अपने पहुंचने का पत्र निर्मेश को लिख दिया। पत्र में उसके स्वास्थ्य के लिये ढेर सारी हिदायतें भी लिख दीं। फिर इसके बाद काफी दिन यूं ही गुज़र गये। निमिता निर्मेश को पत्र लिखती रही। निर्मेश भी उसको उत्तर देता रहा।
छुट्टियों में जब निमिता अपने घर आई और जब निर्मेश से मिली तो उसे निर्मेश पहले से और भी दुबला दिखाई दिया। वह खुद भी नर्स का प्रशिक्षण ले रही थी, सो उसने निर्मेश से कहा कि वह एक दिन समय निकाल कर उसके शहर में आये और उसके ही अस्पताल में दिखाये। वहां पर उसके जानपहचान के बहुत से डाक्टर हैं, वह उनसे उसको सही ढंग से दिखा देगी। इसके साथ ही वह उससे पहले ही समान मिली भी। लेकिन इन सब बातों के बाबजूद भी वह निर्मेश को पहले के समान हंसताखेलता नहीं देख सकी। अपने चेहरे के हरेक हाव-भाव से वह उसे फ़ीकाफ़ीका, टूटा हुआ, निराश तथा कुछ न कुछ जैसे सोचता ही नज़र आया। तब ऐसी दशा देखकर निमिता से जब नहीं रहा गया तो वह उससे पूछ बैठी। बोली,
'सुनो!'
'?' - निर्मेश ने उसकी तरफ देखा तो वह बोली,
'हर समय यह क्या, कुछ न कुछ जैसे सोचने की आदत तुमने डाल ली है?'
तब निर्मेश ने उसके प्रश्न का तो कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि दूसरे विषय पर उससे बोला कि,
'निमिता।'
'हां? निमिता ने उसको आश्चर्य से देखा तो उसने कहा कि,
'लगता है कि हमारा और तुम्हारा जो परमेश्वर है, वह कोई बहुत बड़ा शिल्पकार है?'
'ये भी कोई कहने वाली बात है। सारा खुबसूरत संसार ही उसने बनाया है। हम सब ही उसकी बनाई हुई रचना की सुन्दर कृतियां हैं।' कहते हुये निमिता उसको एक भेदभरी दृष्टि के साथ आश्चर्य से निहारने लगी।
'परमेश्वर एक बहुत ही बड़ा शिल्पकार है, लेकिन उसकी आदत बच्चों जैसी तो नहीं है क्या?'
'क्या मतलब . . .?' निर्मेश के मुख से दार्शनिकों जैसी बात सुन कर निमिता के जैसे कान खड़े हो गये।
'परमेश्वर की आदत यदि बच्चों समान न होती तो वह क्यों इंसानी खिलौनों को बनाता, तोड़ता, फिर बनाता और फिर तोड़ता —— उनसे खेलने के पश्चात किसी को कहीं फेंक देता, कोई कहीं पड़ा होता है तो कोई कहीं . . . कितना अच्छा होता यदि परमेश्वर के पास भी हम सब की भी जैसी मां होती तो कम से कम हम टूटे और फेंके हुये खिलौनों को कोई सही स्थान पर रखनेवाला, उनको संभालने वाला और उनके टूटे हुये हाथपैरों को फिर से जोड़ने वाला तो होता। बच्चों के खेलने के बाद, टूटे और फेंके हुये खिलौनों के समान हमारी बेकद्री तो नही हुआ करती?'
'मैं कुछ दिनों के लिये आई हूं और तुम हो कि कैसी नीरस, उदास, थकीथकाई और रूलानेवाली बातें करने लगे हो। आख़िर तुम मुझसे कहना क्या चाहते हो?' निमिता जैसे परेशान हो गई।
'मैं भी तो एक खिलौना हूं।'
“ हां. . . सो . . .?'
'अगर अचानक से कभी टूट गया तो . . .?'
'!!' निमिता की छाती पर जैसे अचानक ही धमाका हो गया। जिस बात से वह सदा डरती आई थी और जिस बात को जानते और समझते हुये भी वह अपनी जुबान पर नहीं लाना चाहती थी, उसी को निर्मेश ने कितनी सहजता से कह दिया था। सोचने मात्र से ही निमिता की झील सी गहरी आंखों में बेबसी की कागज़ी किश्तियां तैरने लगीं। वह किश्तियां जिनमें बैठ कर वह ना तो अपनी ज़िन्दगी का किनारा पा सकती थी और ना ही उनसे खेल सकती थी। बड़ी देर तक चुप्पी साधे वह निर्मेश को ताकती रही। फिर एक लंबी मौनता के बाद, जैसे गहरी सांस खींचते हुये वह गंभीर होकर बोली,
'सभी को एक न एक दिन टूट जाना है निर्मेश। लेकिन इस टूटने का ग़म और मलाल कोई अपने पैदा होते ही तो नहीं मनाने लगता है। ज़िन्दगी तो एक नियामत है। लेकिन इस ज़िन्दगी का साथी खुदा की तरफ से दिया हुआ वह वरदान है कि जिसके साये में बैठने का अवसर हर किसी को आसानी से नहीं मिला करता है। मेरी तो यही तमन्ना है कि जो पल और दिन हमको मिले हैं उन्हें हंसतेमुस्कराते हुये उस उम्मीद पर व्यतीत कर देने चाहिये कि जिसमें हो सकता है कभी परमेश्वर को हमारी मजबूरियों पर रहम भी आ जाये।'
निर्मेश ने निमिता को कुछ भी जबाब नहीं दिया। वह चुप ही बैठा रहा तो निमिता ने ही बात आगे बढ़ाई। वह उससे बोली कि,
'मेरी समझ में ये नहीं आता है कि तुम इतना निराश अभी से क्यों होने लगे हो। मैं तो मेडिकल लाइन में ही हूं. सब तरह से पता लगाकर तुम्हारा इलाज करवाऊंगी। अगर आवश्यकता भी पड़ी तो मैं अपना भी गुर्दा तुमको दे दूंगी।'
'उधार की ज़िन्दगी पर जीवित रह कर ये शरीर तुमको जीवन की कौन सी महान खुशियां दे सकेगा?'
'मैं तुम से अभी बात नहीं कर सकती। सारी दुनियां में क्या तुम ही अकेले बीमार इंसान हो?' निमिता ने झुंझलाते हुये कहा और बात समाप्त कर दी।
छुट्टियां समाप्त होने के पश्चात निमिता अत्यन्त प्यार से निर्मेश को समझाबुझाकर फिर अपने प्रशिक्षण के शहर को लौट गई। लौट गई और निर्मेश फिर से अकेला, तन्हा होकर अपनी हर पल कमज़ोर होती ज़िन्दगी पर कोई मलाल तो नहीं कर सका पर हां, अपने पैदा होने की बात पर लानत जरूर देने लगा। सोचने लगा कि किसने की थी मिन्नतें और आरज़ुयें अपने परवरदिगार से इस दुनियां में जन्म लेने के लिये? क्या फर्क पड़ने वाला था, यदि वह इस संसार में नहीं आता। यूं भी इस संसार में अतिरिक्त लोगों की भीड़ कम है क्या? उस जैसे तो न जाने कितने ही अभागे हर रोज़ मौसमी हवा की आंधियों में उड़ कर विलीन हो जाते होंगे?
निमिता के जाने के पश्चात, दो सप्ताह के अंदर ही निर्मेश को उसका पत्र मिल गया। बड़े प्यार से समझाबुझाकर, हिम्मत और साहस दिलाते हुये उसने पत्र लिखा था। खुद को संभालने को कहा था। समय पर दवाई लेने की हिदायतों के साथ उसने लिखा था कि वह फौरन ही समय निकाल कर उसके अस्पताल आये। उसने कई डाक्टरों से बात कर ली है। चूंकि वह स्वंय ही वहां पर प्रशिक्षण ले रही है सो बहुत ही कम धन में उसका सारा चैक अप हो जायेगा। सारे डाक्टर और नर्सें उसकी जान पहचान के हैं। इसके साथ उसने उम्मीद भी दिलाई थी कि उसके ठीक होने के चांस नब्बे प्रतिशत से अधिक हैं। इन तमाम बातों के साथ जो विशेष बात उसने निर्मेश से कही थी, वह यह कि, ‘यदि वह ठीक नहीं हुआ तो फिर वह भी कभी अपना विवाह नहीं करेगी। सारी उम्र वह अपने निर्मेश की सेवा और तीमारदारी में ही व्यतीत कर देगी।’ निर्मेश ने पत्र पढ़ा तो स्वत: ही उसकी आंखों से आंसू टपकते हुये पत्र पर गिर पड़े। इस प्रकार कि उनके कारण पत्र के कुछेक अक्षर भी फैल गये। कितना प्यार करती है निमिता उसको। और एक वह है जो किसी को जीवन का एक पल का भी सुख नहीं दे सकता है। कितना मजबूर किया है उसको उसकी ढीठ किस्मत ने। मजबूरी में अपने दोनों हाथ मलती हुई बेबस मुहब्बतों की आस कहां जायें और किससे भीख मांगती फिरें? निर्मेश की समझ में कुछ भी नहीं आ सका। नहीं आ सका तो वह कोई निर्णय भी नहीं ले पाया। निमिता ने कुछेक सप्ताह इंतजार किया, लेकिन जब निर्मेश की तरफ से कोई भी सूचना नहीं मिली तो उसने दूसरा पत्र लिख दिया। मगर जब निर्मश फिर भी नहीं गया तो निमिता एक दिन अवसर मिलते ही आई और निर्मेश को जबरन पकड़कर अपने साथ ले गई। पत्नि का अधिकार नहीं मिल सका था तो क्या, प्रीत का रिवाज़ तो था ही। सारा मुहल्ला जानता था उन दोनों के प्रेम के रिश्तों की बाबत।
फिर निमिता की निगरानी में निर्मेश के शरीर का परीक्षण हुआ। गुर्दे कमज़ोर तो थे ही साथ में फेफड़ों में भी यक्ष्मा के निशान दिखाई दिये तो निमिता सुन कर ही हैरान रह गई। अपनी लापरवाही और दिनरात सोचने जैसी बीमारी के कारण निर्मेश ने अपनी क्या दशा बना ली थी। कई दिनों तक निमिता ने निर्मेश को अपने ही शहर में रहने दिया। इलाज हुआ, निमिता का संगसाथ और देखरेख मिली तो निर्मेश के चेहरे पर रौनक झलकने लगी। बदन मजबूत होने लगा। शरीर में रक्त दौड़ने लगा तो निर्मेश के मन में फिर से जीने की लालसायें जाग उठीं। वह हंसने और मुस्कराने लगा। निमिता देखती तो अपनी कामयाबी पर मन ही मन चुपचाप अपने परमेश्वर को धन्यवाद दिया करती। उसका परमेश्वर उसकी दुआओं का जबाब देने लगा था। लेकिन फिर भी उसने निर्मेश पर अपनी ये खुशी जाहिर नहीं होने दी। जानती थी कि बेदर्द सागर की जिन लहरों को रोकने के लिये उसने जो बाड़ लगाई है वह अभी मात्र मिट्टी की ही है, पत्थर जमा करने में उसे अभी बहुत परिश्रम करना है। निर्मेश का जीवन अभी भी ख़तरे से बाहर नहीं था। मंजिल तो बहुत दूर है ही और रास्ते भी कठिन नहीं तो आसान भी नहीं हैं।
बड़े दिन की लंबी छुट्टियां हुई तो निमिता हंसतीमुस्कराती घर आई। निर्मेश के चेहरे और बदन में सफलता के चिन्ह दिखाई दिये तो उसका मुख पू्र्णमासी के पूरे चांद के समान दमकने लगा। बात भी सही थी‚ उसके अरमानों का राजकुमार मौत की घाटी से निकल कर जीवन के हंसतेमुस्कराते, चहकते हुये पुष्पों की बगिया में आ गया था — अब उसे हंसने से कौन रोक सकता था। लेकिन निमिता की ये खुशी दूसरी एक विशेष बात में तब्दील हो गई। बात क्या थी, एक अन्य कहानी उसकी कहानी में जोड़ी जा रही थी। हर दिन निर्मेश से मिलने और उसके आसपास ही बने रहने के कारण एक दिन निमिता की मां ने उसे टोक दिया। चिढ़ कर बोलीं,
'अब भी तेरा उस बीमार लड़के से मिलनाजुलना बंद नहीं हुआ है। तुझे आंखें रखते हुये भी कुछ दिखाई नहीं देता है क्या?'
'क्यों, उसमें क्या कमी आ गई है?” निमिता से जब नहीं सुना गया तो उसने भी कह दिया।
मां अपनी बेटी निमिता के मुख से ऐसी बात सुनकर जैसे उछल पड़ी। आश्चर्य से उसकी तरफ देखती हुई जैसे चिढ़ते हुये बोलीं,
'तुझे उसमें ज़रा भी कमी नहीं दिखाई देती है क्या?'
'बीमारीहाली को आप कमी की दृष्टि से देखा करती हैं। निर्मेश के स्थान पर यदि मैं बीमार पड़ जाती तब?'
'आंख देखे मक्खी कोई नहीं निगलता है। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। सोचसमझकर फैसला करना, वरना सारी ज़िन्दगी रोयेगी, पछतायेगी— कोई आंसू पोंछनेवाला भी नहीं मिलेगा।'
बड़बड़ाती हुई मां दूसरे काम में उलझ गई तो निमिता अपना सिर पकड़कर बैठ गई। निर्मेश के जीवन में शारीरिक बीमारी क्या आई कि अब उस पर पारिवारिक निगरानियों के साथसाथ अंगुलियां भी उठने लगीं थीं।
अपनी ज़िन्दगी का वह महत्वपूर्ण फैसला करने के लिये जो वह बचपन से ही कर चुकी थी, उसकी मां ने उसे चेतावनी दे दी थी। निमिता ने ध्यान दिया. बहुत सोचा और निर्णय लिया कि अपने जीवनसाथी के चुनाव को आख़िरी मुकाम देने के लिये तो जैसे एक पूरा युग ही पड़ा हुआ है। उसका नर्सिंग का चार साल का प्रशिक्षण, एक साल का बोंड, साथ में निर्मेश की बीमारी, उसका पूर्ण इलाज, फिर सुरक्षित नौकरी —— वह किस्मती दिन और समय किसने देखा है . . .? उसके जीवन की यात्रा लंबी ही नहीं बल्कि अत्यन्त कठिन और अनिश्चित भी है। क्या पता उसके स्वर्ग जैसे घर की मंजिल उसे मिले और नहीं भी मिले? मिल भी गई तो कितने दिन उसकी घरबगिया में खुशियों के फूल खिल सकेंगे। और फिर जब इतना समय और अनिश्चिंतता है तो इस बारे में सोचने से लाभ भी क्या। वह तो नाहक ही अपनी मां से उलझ पड़ी। फिर हरेक मांबाप अपने बच्चों का भविष्य सुन्दर और सुखी बनाना चाहते हैं। वह तो लड़की है. मां को तो चिंता होनी ही है। अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह परेशान सी भाग कर गई और अपनी मां से लिपट कर फूटफूटकर रोने लगी।
चौबीस दिसंबर की रात आई। सर्दी और ठंड के कारण चांद भी बारबार बादलों के लिहाफ में छुपता फिर रहा था। तारे तो पहले ही से दुबक चुके थे। सारी मसीही बस्ती में अपने उद्धारकत्र्ता के जन्म की तैयारियों की खुशी में सजावटें हो रही थीं। लोग जाग रहे थे। घरों को अपनेअपने तरीके से सुन्दर और आकर्षित बना रहे थे। हर कोई अपने कामों में व्यस्त और उत्साहित दिखता था। निमिता को अवसर मिला तो वह निर्मेश के घर की तरफ चल दी। दरवाज़ा पहले ही से खुला हुआ था। उसने बगैर खटखटाये दरवाज़ा खोला और अन्दर घुस गई। जैसे ही घुसी सामने बरामदे पर निर्मेश की बहन उत्तरा हाथ में रसोई का कोई सामान पकड़े हुये आने वाले को देखना चाहती थी। शायद घर का दरवाज़ा खुलने की आहट से वह पहले ही से होशियार हो चुकी थी।
उत्तरा ने जैसे ही निमिता को देखा तो हल्के से मुस्कराई। बोली,
'आइये! आपके लाटसाहब जी अपने कमरे में बैठे हुये, विचारों में लीन, व्यस्त से कुछ लिखापढ़ी कर रहे हैं शायद . . ?'
निमिता समझ गई कि उत्तरा ने उसे छेड़ा था। वह उसे नटेरते हुये, निर्मेश के कमरे में घुस गई। अन्दर देखा तो सचमुच निर्मेश अपने पढ़ने की मेज के सामने बैठा हुआ किसी लड़के की तस्वीरें बनाता था और फिर उन्हें खराब भी कर देता था। इसके साथ ही टेप रिकॉडर पर अभिनेत्री तनूजा की फिल्म पवित्र पापी का निराशाजनक गीत गायक किशोर कुमार की आवाज़ में हल्केहल्के स्वर में बज रहा था। इस प्रकार कि उस गीत को केवल कमरे में रहने वाला ही सुन सके। गीत के बोल थे, ‘तेरी दुनियां से होकर मजबूर चला।’
निमिता कमरे का तन्हा जैसा, मनहूस सा माहौल देखते हुये निर्मेश की मनोस्थिति काफी सीमा तक समझ चुकी थी। वह उसकी कुर्सी के पीछे खड़े होकर, उसके कन्धों पर अपने दोनों हाथ रखते हुये बोली,
'जब भी मैं तुम्हारे कमरे में आती हूं तो हमेशा यही एक अकेला गीत बजते हुये सुनती हूं। और ये तस्वीरें, बनाईं और बिगाड़ दीं . . .मतलब क्या है तुम्हारा?'
'?'- निर्मेश ने गर्दन घुमाकर अपने पीछे खड़ी निमिता को देखना चाहा तो निमिता ने उसकी आंखों पर अपने हाथ की हथेलियां रख दीं। बोली,
'आंखें बंद किये हुये ही मेरी बात का उत्तर दो।'
'हां देता हूं, लेकिन अपने ये लंबे बाल तो हटा लो मेरे चेहरे पर से। खुजली मचती है इनसे। इन्हें बांध कर नहीं रख सकती हो क्या?'
निमिता ने तुरन्त ही निर्मेश के चेहरे पर से अपने हाथ हटा लिये और सामने आकर मेज पर ही बैठ गई। उससे शिकायत की और बोली,
'तुम्हारी बात का कोई भरोसा भी है क्या? हमेशा कहते हो कि लंबे बाल हैं, इन्हें वायु में खुला रखा करो। अच्छे लगते हैं। और अब कहते हो कि इनसे परेशानी होती है? ज्यादा टोकोगे तो सारे कटवा दूंगी।'
'?'- निर्मेश आश्चर्य से निमिता का मुख देखने लगा तो वह तुरन्त ही बात बदलते हुये आगे बोली,
'अच्छा छोड़ो इस बात को। ये सब क्या करते रहते हो? निमिता ने बिगाड़ी हुई तस्वीरों को देखते हुये पूछा तो निर्मेश बोला,
'ये तस्वीरें मेरे वर्तमान की स्थिति है।'
'और वह गीत जो अक्सर ही बजता रहता है तुम्हारे कमरे में?'
'वह आने वाले भविष्य का सन्देश है।'
'सन्देश . . .लेकिन किसके लिये . . .?'
'!!' - निर्मेश ने चुपचाप अपना सिर झुका लिया। निमिता भी एक गहरी सांस खींच कर ही रह गई। तब निर्मेश अपना सिर झुकाये हुये ही उससे बोला,
'जब जानती ही हो तो क्यों पूछा करती हो?'
'निर्मेश, मैं तुम्हारी परिस्थिति को देखते हुये तुमसे कोई भी बहस नहीं करना चाहती हूं। बस एक बात कह सकती हूं कि, हम मसीहियों का जीवन आशा की उस आधारशिला पर टिका हुआ है, जिसमें हम विश्वास किया करते हैं कि इस संसार से जाने के पश्चात हम सब एक दिन अपने प्रभु यीशु मसीह के साथ हमेशाहमेशा के लिये जीवित रहेंगे। और तब कोई अन्य दुखमुसीबत वहां पर नहीं होगी। मरने के पश्चात भी मानव का अनन्त जीवन है, ये विश्वास केवल मसीहियों में ही पाया जाता है।'
'और यह शारीरिक मानव जीवन जो उम्र पूरी होने से पहले ही बिगड़ चुका है, उसका क्या होगा?
'उसके लिये हम केवल उम्मीद ही कर सकते हैं। ईश्वर के यहां कोई भी चीज़ असंभव नहीं होती है। मैं कल बड़े दिन की पूरी इबादत में केवल तुम्हारी ही सलामती और शिफ़ा के लिये ही प्रार्थना करती रहूंगी।'
'जब कोई भी बात असंभव नहीं है तो फिर संभव को असंभव बनाने की क्या आवश्यकता थी हमारे परमेश्वर को?'
'ये हमारे पूर्व कर्मों का भी फल हो सकता है.'
'ये कौन से विश्वास पर आधारित है?'
'यह सनातन धर्म का विश्वास है.'
'?'-
निमिता ने फिर कुछ भी निर्मेश से नहीं कहा। दूसरी अन्य बातों में वह उसे उलझाये रही। उत्तरा ने चाय लाकर दी तो वह उसे पीकर बाद में अपने घर चली गई। फिर बाद में बड़ा दिन समाप्त हुआ। नया वर्ष आया और वह भी पहली तारीख गुज़रने के बाद पुराना लगने लगा। सबसे मिलनेमिलाने के बाद निमिता अपने कॉलेज को पूरा करने के लिये वापस अपने शहर चली गई। चली गई तो निर्मेश का जीवन फिर एक बार अंधेरों से दोस्ती करने पर मजबूर हो गया। इसके पश्चात फिर कोई दूसरी छुट्टियां नहीं आई। एक लंबे अर्से के लिये निमिता निर्मेश से मिल नहीं सकी। केवल एक दो पत्रों के अलावा कोई दूसरा संपर्क भी नहीं हो सका। निमिता के प्रथम वर्ष की परीक्षायें हुई। वह उनमें व्यस्त रही। परीक्षाओं के बाद जो छुट्टियां आईं तो निमिता अपने घर आई। उसके घर आने की खुशी और निर्मेश से मिलने का उत्साह, एक नई खबर सुनकर अचानक ही ठंडा पड़ गया——उत्तरा की शादी निमिता के भाई से लगभग तय हो चुकी थी और दोनों पक्षों की तरफ से इस विवाह की तैयारियां भी होने लगीं थीं। निमिता ने सुना तो सुनकर एक बार फिर से अपना माथा पीट लिया। दो प्यार के कमज़ोर पक्षियों को एक ही नीड़ में न आने के लिये उसके परिवार ने कितना अच्छा और समझदारी का खेल खेला था। एक ही तीर में दो निशाने मारे थे। उसके मार्ग से निर्मेश को सदा के लिये हटा देने का इससे अच्छा कोई दूसरा उपाय और क्या हो सकता था। बीच मझधार में ही उसकी नैया डूबी, पतवार टूटी, मांझी छूटा, अब नाहक ही हाथपैर मारने से हो भी क्या सकता था। निमिता ने चुपचाप हथियार डाल दिये और मन ही मन निर्मेश के प्रति बसे अपने मन के प्यार को आदर की भावनाओं में बदल दिया। यही सोचकर कि शायद परमेश्वर को उसका रिश्ता निर्मेश से स्वीकार न हो। सोच लिया कि अब वह निर्मेश को चाहेगी तो जरूर पर उसकी इस चाहत में एक मानसम्मान और आदर होगा। वह उसके करीब तो आयेगी लेकिन उसको छूने का अधिकार उसको कभी भी नहीं होगा। रिश्तों की कतार में निर्मेश से उसका कोई भी रिश्ता जोड़ा जा सकता है लेकिन शारीरिक रिश्ते की मान्यता कभी भी नहीं दी जा सकेगी। दो परिवारों में एक-दूसरे के भाई-बहन की शादी मान्य तो हो सकती है लेकिन सामाजिक नजरिये से कुरूप कहलाती है.
अवसर निकाल कर निमिता निर्मेश से मिलने आई। उसे देखकर वह ऐसे चहक गई जैसे कि किसान अपने खेतों को लहलहाता हुआ देखकर चहकता है। सचमुच निर्मेश पर दवाइयों का अच्छा प्रभाव हो रहा था। वह पहले से काफी तन्दुरूस्त और स्वस्थ दिखाई दे रहा था। उसके चेहरे पर रौनक थी।
'कैसे हो।' निमिता ने उसे देखते ही पूछा।
'जिन्दा हूं और मेरा ज़नाज़ा कुछ दिनों के लिये स्थगित कर दिया गया है।' निर्मेश ने निर्लिप्त भाव से कहा तो निमिता सुन कर दंग ही रह गई। आश्चर्य से बोली,
'मैं इतने दिनों के पश्चात आई हूं और तुम . . .?'
'बहुत जल्दी आ गईं। तुम्हारे घर से जो बारात मेरी बहन की आने वाली है उसके स्वागत की तैयारियां मैं अभी पूरी नहीं कर सका हूं। ज़रा देर से आतीं तो बेहतर होता।'
'निर्मेश! ये कैसी अजीबअजीब बातें तुम मुझसे अब कर रहे हो? इतने दिनों के बाद मैं आती हूं. इसी आस पर कि कुछेक पल जीवन के मुस्कराते हुये ही बीत जायेंगे?'
'अजीब बातें नहीं हैं. सच्ची और कड़वी बातें हैं। इनको तो मुझे तुमसे बहुत पहले ही कह देना चाहिये था।' निर्मेश के चेहरे के भाव बदलते प्रतीत हुये तो निमिता ने उससे आगे कुछ भी नहीं कहा। वह समझ गई कि बीमार आदमी, दवाइयों का मोहताज, कब तक अपने स्वभाव पर नियंत्रण रख सकेगा। वह उठी और निर्मेश से यह कहती हुई कि,
'अभी तुम्हारा मूंड ठीक नहीं है. मैं बाद में बात करूंगी।' चुपचाप उल्टे कदम चली गई। उत्तरा से मिली और निर्मेश के लिये पूछा तो उसने भी यही बताया कि जब से उसका रिश्ता तय हुआ है, उसके भाई के मिजाज में एक अजीब ही बदलाव और चिड़चिड़ापन आ गया है।'
नया साल का भी पहला दिन निकल गया। छुट्टियों के बाद निमिता वापस अपने कॉलेज चली गई। फिर कॉफी दिनों तक वह भी चुप रही। काफी दिनों तक उसने ना तो कोई पत्र ही निर्मेश को लिखा और ना ही कोई फोन आदि ही किया। निर्मेश, निमिता का पत्र आने का इंतजार करता रहा। उसका इंतजार भी क्या था, केवल एक झूठी आस भर थी कि निमिता का पत्र तो आयेगा ही। लेकिन इस आस में भी भविष्य के सपनों का पूरा होने का कोई विश्वास न था। फिर सपने भी वे जो देखे तो बड़ी हसरतों के साथ, मगर जब टूटे थे तो उनके टुकड़े चटके हुये कांच की किरचियों के समान उसके बदन के हर हिस्से से चिपक भी गये थे। फिर बाद में निर्मेश को एक दिन निमिता का पत्र मिला। कोई बहुत बड़ा सा पत्र भी उसने इस बार नहीं लिखा था, जैसा कि वह अक्सर ही लिखा करती थी। पत्र क्या था, निमिता की तरफ से निर्मेश को उसका आखिरी सलाम था। निर्मेश ने पत्र खोला और पढ़ा। लिखा था,
‘निर्मेश,
समझ में नहीं आता है कि तुमको अब क्या लिखूं और क्या कहूं? ऐसा लगता है कि जैसे सब कुछ एक ही स्थान पर आकर हमेशा के लिये ठहर चुका है। इस ‘सब कुछ’ में हम दोनों के हताहत प्यार से लेकर हमारीतुम्हारी बचपन की चाहतें, मिन्नतेंआरज़ुयें, हमारी आस्थाओं के दीप और हमारे कुम्हलाहे हुये सपनों के फूल; जैसे एक जगह पर आकर बेबस और बेदम हो चुके हैं। सामाजिक चलन और कुदरत की गवाही, दोनों ही ने हमको ये अच्छी तरह से बता दिया है कि हम अब चाहे कितना ही क्यों न कोशिश कर लें पर एक नहीं हो सकते हैं। कहने का मतलब है कि हम दोनों में से एक को भी जीवनसाथी के रूप में कोई भी नहीं मिलने वाला है। इसलिये बेहतर यही होगा कि हम अपने इस पवित्र रिश्ते को यहीं एक हसीन मोड़ पर लाकर समाप्त कर दें। मैं तुम्हें चाहूंगी, प्यार करूंगी और तुम्हारा आदरमान अपने सारे मन से जीवन भर करूंगी पर तुमसे लिपट नहीं सकूंगी। उत्तरा और मेरे भाई की शादी हो जाने में ही शायद मेरा और तुम्हारा भला है। अपने को संभालने की बहुत ही भरसक कोशिश करना। अपना ध्यान रखे रहना और बाकायदा दवाइयां लेते रहना। भावावेश में आकर कोई भी ऐसावैसा कार्य मत कर बैठना कि जिसके कारण मैं सारे जीवन भर खुद को मॉफ भी न कर सकूं। मैं तुम्हारे लिये हमेशा दुआ करती रहूंगी कि खुदा तुमको एक नई ज़िन्दगी जरूर ही दे। परमेश्वर सदा तुम्हारी हिफाजत करता रहे। मेरा अपना विश्वास है कि तुम एक दिन बिल्कुल ठीक हो जाओगे।
निमिता।’
. . . . सोचते हुये निर्मेश को लगा कि जिस गाड़ी में वह बैठा हुआ है, वह उसी के सीने पर से होकर गुज़र गई है। आंखों की कोर पर सूख़े हुये आंसू न जाने कब से आकर अपनी बेबसी का रोना रो चुके थे . . .’
निमिता के इस पत्र को पाकर निर्मेश पहले से भी अधिक टूट गया था। मन में बसी हुई जीने की रहीबची आस भी जाती रही। निमिता ने शायद सच ही तो लिखा था। वह तो एक ऐसा बीमार आदमी है कि जिसके जीने और इलाज का भरोसा कम से कम उसके अपने देश में तो नहीं है। फिर कौन बेवकूफ ऐसा होगा जो एक बीमार आदमी से विवाह करके अपने जीवन का भविष्य अंधकारमय बनाता। फिर आज के युग में अब ना तो कोई हीर नदी में डूबती है और ना ही कोई लैला जान देती है— वह किसका मजनूं और रांझा होने का दावा करेगा?
घर का अकेला लड़का। पिता भी हैं नहीं, बहन के हाथ तो उसे ही पीले करने होंगे। निर्मेश ने खुद को समझाया, कुछ दिनों के लिये अपने को संभाला। ऊत्तरा की शादी की सब तैयारियां की। सोचा कि अपने जीवन का यह अंतिम फर्ज़ भी वह पूरा कर दे। फिर कर्तव्य की बलिवेदी पर खुद को स्वाहा करके प्रेम की इस नगरी से कहीं बहुत दूर उस स्थान पर चला जाये कि जहां से वह कभी भी लौट कर दोबारा न आ सके। बहुत ही अच्छा होगा कि वह उन सबसे बच कर चुपचाप निकल जाये जिनके मध्य प्रीतप्रेम के किस्से तो बहुत चर्चित हैं, पर करता प्रेम किसी से कोई भी नहीं है। सो उत्तरा की शादी संपूर्ण की। उसे डोली में बैठाकर विदा किया और निमिता को एक पत्र लिखकर वह चला आया था। चला आया था, इसलिये कि उस शहर और उस स्थान पर ठहर कर वह करता भी किया जिसमें रह कर उसके प्यार की हसरतें मजबूर होकर ख़ाक हो चुकी थीं। जहां की लापरवाह हवाओं में सिहरसिहर कर उसका बदन रिसरिसकर मरने के लिये बेदम हो चुका था . . .’
जीवन की पिछली बातें सोचतेसोचते निर्मेश को लगा कि जैसे उसके दिल की धड़कनें ही बढ़ गई हैं। सांसे गहरी और परेशान होने लगी हैं। हाथपैर जैसे बेदम होते जा रहे हैं। जब उससे और अधिक नहीं सहा गया तो वह अपनी दोनों आंखें बंद करके वहीं गाड़ी की बर्थ की दूसरी तरफ मुंह करके लेट गया। पता नहीं फिर उसे सपने आये या गहरी नींद, उसे लगा कि जैसे धीरेधीरे उसकी सारी तकलीफें कहीं दूसरी दुनियां के अंधकारों में विलीन होती जा रही हैं। इन तकलीफों में उसके वे पुराने दिन भी थे जिनकी फिज़ाओं में बैठ कर कभी उसने निमिता के साथ बड़े ही अरमानों के साथ अपने प्रेम के कभी भी न पूरे होने वाले गीत गुनगुनाये थे। पर कौन जानता था कि आज को वही गीत उसकी ज़िन्दगी के वे दर्द भरे अफ़साने बन गये थे कि जिनको अब कोई भी दोहराने वाला नहीं था। कितनी प्यार की उम्मीदों को तिनकों के समान जमा करके उसने अपनी बेपनाह मुहब्बतों के फूल चुने थे, लेकिन किस्मत का सिला था कि उसके प्रेम के यही फूल निमिता के आंचल में भरने से पहले उसकी ज़िन्दगी के मनहूस कांटे बन गये थे।
घर में दुल्हन लेकर आई हुई बारात की गहमागहमी अब काफी कुछ कुछ शान्त पड़ गई थी। थकेथकाये लोग, बढ़ती हुई रात, किसी ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि कौन कहां सो गया है। निमिता भी निर्मेश के पत्र को पढ़ने के बाद रोतीबिलखती और सोचती हुई कब सो गई थी‚ किसी को कुछ भी नहीं मालुम था। जब वह सोकर उठी तो पौ फट रही थी और सबेरा होने वाला था। लेकिन सारे घर में सन्नाटा छाया हुआ था। वह बिस्तर पर ही उठी और वहीं बैठ भी गई। सोचा क्या करे? उठ कर भी वह क्या करेगी। सारे लोग तो सोये पड़े हैं। उठ कर उसने मेज पर रखे हुये टी. वी. को ऑन कर दिया। टी. वी. के पर्दे पर सुबह के समाचार आ रहे थे। एक समाचार को देखकर वह सहसा ही चौंक गई। समाचार देने वाली लड़की बता रही थी कि,
‘रात्रि की गंगाजमुना एक्सपे्रस में एक नवयुवक की लाश मृत पाई गई है। पहचान के तौर पर नवयुवक के पास से कुछेक रूपयों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पाया गया है। पहचान के नाम पर केवल उसके दाहिने हाथ की कलाई पर किसी लड़की का नाम ‘निमिता’ लिखा हुआ है। संबन्धित जन पुलिस कार्यालय में आकर अतिरिक्त जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। मृत व्यक्ति का शरीर तीन दिनों तक सुरक्षित रखा जायेगा। कोई सूचना प्राप्त न होने की दशा में मृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार सरकारी खर्च पर नियमानुसार हिन्दू रीति से कर दिया जायेगा।’
निमिता ने सुना तो सिर पकड़ कर बैठ गई और फिर बिलखबिलखकर रो पड़ी। हथेलियों में आये हुये प्यार के मोती जब लापरवाही से सरक कर नीचे गिर जाते हैं तो बेदर्दी के पैरों से किस प्रकार रौंद भी दिये जाते हैं — जीवन की इस वास्तविकता को वह जब तक समझ पाई थी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसके सपनों का राजकुमार उन सपनों की गहरी नींद में सो चुका था, जिनको वह कभी भी नहीं तोड़ सकती थी।
-समाप्त.