अस्त होती किरण Sharovan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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अस्त होती किरण

अस्त होती किरण
कहानी / शरोवन

मथुरा की एक डूबती हुई संध्या.
इस ढलती हुई सांझ की लालिमा में जब दूर क्षितिज में सूर्य की अंतिम सुर्खी ने भी अपनी सांस तोड़ दी तो ब्लैक स्टोन कॉलेज की बड़ी इमारत पर बनती हुई अशोक के वृक्षों की लंबी होती हुई परछाईयां भी अपना रहा बचा अस्तित्व समाप्त कर गईं। वृक्षों की इन्हीं काली-काली परछाइंयों को सूरज कॉलेज के बाहर एक एकान्त स्थान से खड़ा-खडा़ बड़ी देर से देखने में तल्लीन था। बहुत मजबूरी के साथ जब इन परछाइंयों ने भी अपना मुख छिपा लिया तो उसने अपने आस-पास एक उचटती सी दृष्टि डाली। कहीं कुछ नहीं था। शाम डूब चुकी थी और रात की कालिमा धुंधलके के रूप में आनेवाली रात्रि की पूर्व सूचना दे रही थी।

सूरज ने खड़े-खड़े कॅालेज की संपूर्ण इमारत को देखा। बड़ी ही गंभीरता से। ख़ामोशी के साथ। वह कालेज की इस इमारत को आंखों से ही काफी दूर तक देखता चला गया। आज वह कितने ढेर सारे अरमानों के काफिले साथ लिये हुए यहां आया था। दिल में उसके कितने ही प्रश्न थे। इन प्रश्नों के सहारे कितनी ही हसरतों के सजाये हुये सपने थे। मगर दिल के सारे सजाये हुये प्रश्न, सौगात में मिले हुये दिल तोड़ने वाले उत्तरों की भरमार देखकर फिर से वे चुभने वाले प्रश्न बन गये थे कि, जिन्हें वह अब फिर कभी भी अपनी जुबान पर लाने का साहस नहीं कर सकेगा। प्यार की ढेरों हसरतों की गुदगुदी से सजाये हुए सारे सपने वास्तविकता की ठोकर खाकर फिर से बे-दर्द कल्पनाओं के गढ़ में समा गये थे। उसके भावी भविष्य की बनी हुई तस्वीरें जमाने की आंधी देखते ही धुंये के बादल बन कर हवा में विलीन हो चुकी थीं। लुट गईं थीं। केवल किरण की ज्योति के पीछे छिपी कालिमा को देख कर। उसकी दृढ़ता को देखकर। उसके विचारों को सुनकर। उसके जीवन का भावी ध्येय जानकर।

किरण।
ये नाम सूरज ने फिर एक बार मन ही मन दोहरा लिया। उसने मन की गहराई से फिर एक बार कहा- किरण। काश: तुम मुझको ज़रा-भी समझ पाती। मेरी भावनाओं को पहचान सकती। मैं एक सूरज बन कर तुम्हारे पास आया था। सोचा था, कि तुमको सचमुच अपने बदन से निकलने वाली अपनी किरण बना लूंगा। बनाकर सदैव अपने साथ लिये-लिए फिरूंगा। परन्तु तुमने नहीं चाहा। तुमको स्वीकार नहीं हुआ। क्या दोष था मुझमें? क्या कमी थी मेरे अंदर? क्या खामियां थीं मेरे जीवन में? मैंने तो तुम्हें दिल की गहराई से प्यार किया था। अपने दिल, अपने मन के किसी कोने में एक विशेष स्थान तुम्हें दिया है। क्या हुआ जो तुम मैली भी थीं। मैली होगी तो केवल जमाने के लिये। समाज के लिये। मैला तो तुम्हारा अतीत था। वह अतीत जिससे मुझे आज भी कोई सरोकार नहीं है। मेरे लिये तो तुम केवल एक पवित्र किरण थीं। फिर भी तुम्हें कुछ समझ नहीं आया। एक दम ही मुझे अकेला छोड़ गईं। कितना भला होता यदि तुम मुझे एक बार अवसर तो देती। यदि देती तो मैं तुम्हें सचमुच ही आकाश में चमकने वाले सूरज की किरण बना देता . . .'

उत्तर प्रदेश राज्य विद्दयुत परिषद की नौकरी करते हुये मुझको यदि तुम्हारे दीपक की रोषनी ने मार्ग नहीं दिखाया होता तो शायद मेरा तुमसे कभी कोई वास्ता भी नहीं पड़ता। मैं तो तुमको जानता भी नहीं था। कभी तुम्हें देखा भी नहीं था। मैं तो खुद ही अपनी राह-ए-गर्दिषों में भटकता फिर रहा था। तुम्हारे ही जीवन के समान ही मेरी भी जि़न्दगी न जाने कहां जा रही थी? किधर भाग जाना चाहती थी? वैसे भी उदासियों से भरी ख़ामोशी मेरे जीवन का अभिन्न अंग बनी हुई थी। और शायद इसी उदासी और तन्हाई के एक मोड़ पर ठहरी हुई मेरी जि़न्दगी के दर्द ने दीपक को मेरी ओर आकर्षित किया है। मुझको चाहा है। मुझको उसने अपना समझा है।

तब एक दिन शायद दीपक को मेरी दर्दभरी ख़ामोशी ने व्याकुल कर दिया था। वह बड़े ही आत्मीयता से मेरे दोनों कंधों पर अपने हाथ रखते हुये बोला था,
‘ सूरज।’
‘?'- मैंने एक प्रश्न भरी निगाहों से उसे देखा तो वह बोला,
'एक बात पूछूँ?'
‘ बोलो?’
‘ अगर मैं गलत नहीं हूं, तो मेरा ख्याल है कि तुम आजकल बहुत उदास दिखाई देने लगे हो?'
‘?'- विषाद की एक साथ कई लकीरों ने मेरे मुख पर अपनी जाली बना दी। मैं पहले से और भी अधिक गंभीर हो गया। सोचने लगा कि उसकी इस बात का मैं क्या उत्तर दूं? यदि मैंने अपना भेद और भेद में छिपा दर्द इसे बता दिया तो पता नहीं इस पर क्या प्रतिक्रिया हो? ना जाने यह मेरे प्रति क्या-से क्या सोचने लगे?
मैं अभी यह सब सोच ही रहा था कि दीपक ने अपनी बात फिर से दोहराई। वह आगे बोला कि,
‘ लगता है कि तुमको मेरी बात से कष्ट हुआ है'
‘ नहीं। ऐसी कोई भी बात नहीं है।’मैंने कहा।
‘ मैं नहीं मानता। तुम्हारा यह हर समय बुझा-बुझा-सा चेहरा, हर समय खोई-खोई-सी इस दुनियां-जहांन में जैसे कुछ-न-कुछ ढूंढ़ती हुई तुम्हारी सूनी आंखें? कुछ तो अवश्य ही है? कोई तो भेद जरूर है? तुम्हारी इस चुप्पी के पीछे कोई तो आवाज़ है जो मुझे सुनाई नहीं देती है?'
वह बड़े ही आत्मविश्वास से बोला था।
‘ मान लो अगर ऐसा है भी तो. . .?' मैंने पूछा।
‘ कोई बात नहीं। हां ! अगर तुम अपनी किसी भी परेशानी को मुझ से कह दोगे, तो हो सकता है कि मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकूं।’
‘ जरूर। तुम मेरे मित्र हो। अगर ऐसी कोई बात हुई, और समय आया तो मैं तुम से अवश्य ही कहूंगा।’

इतना कहकर मैंने बात समाप्त की। उसके पश्चात दीपक भी बहुत दिनों के लिये जैसे जानबूझ कर मौन हो गया था। उसने फिर कभी मुझसे कुछ भी, इस विषय में नहीं कहा.

फिर जब दीपक से मेरा मेल अधिक बढ़ गया और हमारी आपस की मित्रता ने सारी दूरियां और संकोच को समाप्त कर दिया, तब धीरे-धीरे दीपक ने अपने हृदय के सारे भेद मुझसे उगलने आरंभ कर दिये। उसके दिल के सामने के सारे पर्दे, मेरे सामने से उठते चले गये।

और फिर एक दिन।

उन्हीं पर्दों के पीछे तुम्हारी (किरण) की छिपी प्यार की कहानी ने अपना पहला पृष्ठ मेरे सामने खोला था। तब दीपक ने पहली बार मुझको बताया था। बहुत ही प्यारे ढंग से। उसने कहा था कि. . .

. . .बारिश की वह भीगती हुई रात। वृन्दावन के सारे बिगड़े हुए वातावरण को बारिश के तूफान ने अपने बाहुपाश में जकड़ रखा था। धुंआधार वर्षा के थपेड़ों ने आवागमन का भी बुरा हाल कर रखा था। रात्रि की कालिमा और आकाश पर बादलों के झुंड-के-झुंड, काफिलों में बंधे हुए, अपनी गर्जनों के साथ मंडला रहे थे। क्रेटन क्रीमन क्रिश्चियन होस्पीटल की सड़क पर तुम मथुरा जानेवाली किसी बस का इंतज़ार कर रही थीं। रात अंधेरी थी। सड़क वीरान। ऊपर से वर्षा का भयानक शोर और तुम नितान्त अकेली। तब ही तुम्हारी आशा के विपरीत दीपक का प्रकाश तुम्हें अचानक से प्राप्त हुआ था। बस की दो हैडलाइट्स के स्थान पर केवल एक ही हैडलाइट अपनी रोशनी से बारिश की घनी बूदों को चीरती चली आ रही थी। दीपक स्कूटर पर आया था। जीवन में पहली बार। तुम्हारी नज़रों के सामने। तुम्हारे अंधकार में जीवन का शायद प्रकाश भर कर? वीरान सड़क पर एक अकेली युवा नारी को यूँ तन्हा खड़ा देखकर दीपक जैसे एक युवक का रूकना बहुत स्वाभाविक ही था। तुम्हें देखकर उसने अपना स्कूटर रोका। तुम्हें एक पल देखा- उसने तुम्हारी परेशानी और परिस्थिति को समझा- फिर वह तुमसे संबोधित हुआ। बोला,
‘ मैडम। आप शायद बस की प्रतीक्षा कर रही हैं?'
‘ जी हां।’ तुमने उत्तर दिया था।
‘ यदि आपको कोई एतराज़ न हो तो मैं आपको लिफ्ट दे सकता हूं। मैं भी मथुरा ही जा रहा हूं।
'?'- डूबते को तिनके का सहारा। तब तुम तुरन्त ही उसके स्कूटर पर बैठ कर चली गई थीं। फिर दीपक के साथ स्कूटर की वह प्रथम भेंट तुमको और दीपक को आपस में धीरे-धीरे बहुत पास ले आई। इतना पास कि तुम दीपक के प्रकाश में अपने सारे जीवन का उजाला खोजने लगीं। उसके चेहरे पर अपने भावी जीवन का स्वप्न सजा बैठीं। उसकी आंखों की गहराइंयों में बगैर कोई भी आगा-पीछा सोचे डूबती चलीं गईं। उसे दिल से अपना समझ कर प्यार करने लगीं। उसे अपना सब कुछ मानकर, एक नैया बन कर उसे अपना मांझी मान बैठी। उस पर अपना सारा जीवन, सारी इच्छायें और भेंट चढ़ाने का ख्वाब सजा बैठीं।

‘ सूरज।’ मैं अपने विचारों में डूबा हुआ था कि तभी दीपक ने मुझसे कहा था कि,

'?' - मैं चौंक गया था।

‘ मैं एक बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं।’ दीपक ने अपनी परेशानी बतानी शुरू की और कुछेक मिनटों में ही उसने मुझे सब-कुछ बता दिया था. उसकी सारी परेशानी को सुनकर मैंने उससे औपचारिक रूप से कहा था कि,


‘ मुझे बहुत दुख है।’ मैं बोला था।


‘ तुम अगर चाहो तो मुझे इस मुसीबत से मुक्ति दिला सकते हो'


‘ किस तरह से?'


‘ किरण का हाथ थामकर। उसका दिल जीत कर। मैं जानता हूँ कि, तुम भी उसे बहुत प्यार करते हो, परन्तु मार्ग में हूँ, इसलिए आगे नहीं बढ़ पा रहे हो ?'


'?'- जीवन की तमाम खुशियों के ढेर सारे दीप मेरी आंखों के सामने अचानक ही जल उठे थे। मेरे दिल की बात दीपक ने मुझसे कही थी। वह बात और वह आस जिसकी पूर्ति के लिये मैं न जाने कब से प्रतीक्षा कर रहा था। मैं दिल से बहुत ही खुश हो गया था, यह सब सुनकर तब। मैं यह सब सोच ही रहा था कि दीपक ने आगे कहा था कि,


‘ लेकिन इससे पहले तुम्हें एक कठिन परिश्रम करना होगा। किरण का मन जीतना होगा। उसे अपने प्यार के रास्तों पर उसका हाथ थामकर साथ लाना होगा। वह न जाने कहां भटक रही है?'


‘ मैं कोशिश करूंगा, लेकिन वादा नहीं कर सकता। मगर मुझसे पहले तुम्हें भी उससे स्पष्ट कह देना होगा। मैंने दीपक को अपना एक छोटा सा सुझाव दिया था।’


‘मैं आज ही किरण से जाकर बात करता हूं। उसे समझाता हूं।’ कहते हुये दीपक ने अपना स्कूटर चालू किया और फिर दूसरी सुबह आने की बात कह कर चला गया था।


दूसरी सुबह जब दीपक आया था तो बिल्कुल ही जैसे निराश कामनाओं की अर्थी बन कर। बहुत ही उदास और टूटा हुआ। जैसे वह अपने सारे हथियार जलाकर आया था। आकर वह मेरे कमरे में चुपचाप कुर्सी घसीटकर बैठ गया था।


‘ क्या हुआ?' मैंने ही बात आरंभ कर दी थी।


‘ कुछ भी नहीं। उस पर तो कुछ असर ही नहीं होता है। मेरे ऊपर जान दिये फिरती है। मैं यदि एक दिन भी उससे न मिलूं तो रोने लगती है। आंसू बहाती है। सिसकती है। मेरे पैर पकड़ती है।’


‘ बातें क्या हुई थीं?'


तब दीपक ने बताया था। अपने बहुत ही निराश मन से। दुखित होते हुये वह बोला था,


‘इतना अधिक क्यों चाहती हो मुझे, जबकि जानती हो कि मैं तुम्हारा कोई भी भला नहीं कर सकूंगा। तुम मेरी न जाने कौन सी आस करने लगी हो? जब कि मैं एक बाल-बच्चे वाला विवाहित पुरूष हूं। मैं एक पिता हूं। किसी का पति हूं। जानती हो कि मैं तुम्हारे किसी भी काम नहीं आ सकता हूं। मेरे साथ तुम्हारा भविष्य सुरक्षित रहे. ऐसी बात का मेरे साथ कोई भी अर्थ नहीं हो सकता है। खूब अच्छी तरह से जानती हो, फिर भी न जाने क्यों मेरा सहारा तलाश करती हो? एक बिन मंजिल की आंधी बन कर मेरे पीछे भागती जाती हो। किरण, अगर मैं यह पूछूं कि तुम ऐसा क्यों कर रही हो? क्यों, ऐसा चाहती हो? क्यों राख़ बन कर बिख़र जाना चाहती हो?'


‘ इसलिये, कि प्यार अंधा होता है। मैं अंधी हो चुकी हूं। तुम्हारे प्यार में अपने पंख काट चुकी हूं। अब यहां से उड़कर कहीं अन्यत्र नहीं जा सकती हूं। कभी-कभी मैं स्वंय भी सोचा करती हूं कि, सारी दुनियां में एक केवल तुम ही रह गये थे, मेरे लिये प्यार करने को? लेकिन दीपक तुम क्यों चिन्ता करते हो? मैं तुमसे यह तो नहीं कहती कि, तुम मेरे लिये अपनी चन्द्रा को छोड़ दो। अपने दोनों प्यारे बच्चे, तारिका और उल्का को त्याग दो। अपने आकाश से अलग हो जाओ। अगर तुमने कभी भी ऐसा किया या फिर करने की सोची भी तो जानते हो कि, मैं क्या करूंगी . . .?'


‘ क्या करोगी?' दीपक ने आश्चर्य से पूछा तो वह तुरंत ही बोली,


' सूसाइड कर लूंगी।’


‘ पगली ! ऐसी बातें क्या कभी भी सोची जाती हैं?'


‘ तो फिर मेरी एक बात मानोगे?' किरण ने कहा ।


‘ बोलो।’


‘ देखो, बी ए गुड फादर। बी ए गुड हसबेंड एन्ड बी ए गुड लवर।’


' तुम तो मेरे शब्द ही छीन लेती हो. . .?'




दीपक ने अपनी कहानी बताकर कहा था कि,


'अब मेरे बस की बात नहीं है। तुम से जो हो सकता है वह करो।’


कहकर दीपक ने अपने हथियार फेंक दिये थे।


दीपक हताश हो गया। निराश भी हो गया तो फिर मैं किसी न किसी बहाने से तुम्हारे पास आने लगा था। कोई भी अवसर मिलता तो मैं फौरन ही तुम्हारे आस-पास रहने का प्रयत्न करने लगता। तुम दीपक की किसी निश्चित समय पर प्रतीक्षा करती थीं तो उस समय का लाभ उठाकर मैं वहां आ जाता था। केवल एक आस और उम्मीद थी कि किसी भी तरह से तुम्हारा दिल जीत लूं। तुम्हारे हृदय में अपने प्यार के शो ले भड़का दूं। लेकिन अफसोस है कि मेरी इतनी कोशिशें और प्रयास करने के बावजूद भी तुम पर कोई भी असर नहीं पड़ा। कोई भी प्रतिक्रिया तुम्हारी तरफ से देखने में नहीं आई। साथ ही तुम मुझसे कट कर भी रहने लगीं। मेरे प्यार को जी भर के तिरस्कृत करती रहीं। मेरे दिल में एक बार भी तुमने झाँकने की आवश्यकता नहीं समझी। मेरे प्यार का कोई भी मूल्य तुम नहीं आंक सकीं। तब बहुत कुछ सोचने और समझने के पष्चात मैंने अपना अंतिम निर्णय लिया कि, कैसे भी हो तुम से अपनी बात कह देने में ही भलाई है। मैंने सोच लिया था कि, जितना भी शीघ्र होगा मैं तुमसे अपनी बात कहकर ही रहूंगा।


फिर एक दिन। संध्या के पांच बजे होंगे। आकाश पर सूर्य की लाली छिटक उठी थी और तुम प्रतिदिन के समान सजी-संवरी कॉलेज के सामने दीपक के आने की राह देख रही थीं। तब ही दीपक के स्थान पर मुझको देखकर तुम यकायक आश्चर्य से गड़ गई थीं। तुरंत ही मुझे बोलीं कि,


‘ कहो, किसकी तलाश में हो?'


तुमने जैसे तनिक खीजते हुये मुझसे पूछा था।


‘ तुम्हारी ही।’


‘ मेरी?' मेरा उत्तर सुनकर तुम चौंक गई। लेकिन फिर गंभीर होकर बोलीं,


‘ क्यों, मेरी तलाश है? मैं कुछ समझी नहीं?'


‘ हर समय जो बसी रहती हो मेरे दिल में.'


‘ सूरज! जानते हो कि तुम क्या कह रहे हो?' वह जैसे चिढ़ गई थी।


‘ हां।’


‘ यह जानते हुये भी कि मैं तुम्हारे दोस्त दीपक की . . . . .' किरण कहते-कहते थमी।


‘ किरण। मैं एक लंबे समय से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं।’ सूरज ने कहा तो किरण तुरन्त ही बोली,


‘ प्रतीक्षा कर रहे हो, पर किसकी और क्यों?'


‘ तुम्हारी और तुम्हारे प्यार की। तुम्हारे बिना मेरा जीवन अंधकारमय है।’


‘ सूरज ! तुम एक सूर्य हो. रवि हो. आसमान के राजा, रोशनी के सरताज़ दिनकर हो?’


‘ जानता हूं।’


‘ फिर क्यों अंधेरों में भटकते फिर रहे हो?'


‘ अपनी भटकती हुई किरण की तलाश में।’


‘ लेकिन, मैं तुम्हारी किरण नहीं हूं।’


‘ प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। तुम जानती हो कि तुम एक किरण हो।’


‘?'- सूरज के इस प्रकार से कहने पर किरण क्षण भर को चुप हो गई। साथ ही अत्यधिक गंभीर भी। कुछेक पलों में ही उसके चेहरे पर परेशानी के भाव उभर आये। इस प्रकार कि वह सशोपंज में पड़ गई। उसने सूरज को निहारा तो जैसे खुद भी तड़प गई। सूरज की दशा उसे बहुत ही दयनीय लगी। फिर किसी तरह से स्वंय को संभालती हुई वह सूरज से संबोधित होते हुये बोली,


‘सूरज। अच्छा हुआ कि तुमने अपने दिल की बात मुझसे पहले ही कह दी। तुम शायद मेरे बारे में जितना भी जानते हो वह तुम्हारे लिये काफी नहीं है। मैं किरण अवश्य ही हूं, पर अपने सूरज से बिछड़ी हुई एक ऐसी अभागिन रश्मि हूं जो एक दीपक की हल्की ज्योति के सहारे की आस लगाये भटकती फिर रही है। न जाने कहां जा रही हूं मैं? क्यों जा रही हूं? मुझे खुद भी कुछ ज्ञात नहीं है। शायद खो चुकी हूं? स्वंय में और इस दुनियां के अंधकार में भी. तुम मेरे सूरज बनना चाहते हो, लेकिन मैं तुम्हारी किरण नहीं बन सकती। मैं किरण अवश्य हूं, परन्तु एक मैली किरण। मेरा वर्तमान जितना तुमको पवित्र नज़र आता है, उससे कहीं अधिक मेरा अतीत बहुत गंदा भी है। तुम मेरे वर्तमान की स्वच्छता देखकर मेरे अतीत के मैलेपन को सदा के लिये भूल जाओ, ऐसा होना बहुत असंभव है। इसका भी मुख्य कारण है कि, सूरज सदैव ही अपनी किरण को साफ रखने का आदी होता है। आनेवाले कल के दिनों में, मैं तुम्हारी नज़रों में गिर जाऊं, एक गन्दी किरण भी न रह सकूं, अपने एक छोटे से अस्तित्व को भी समाप्त कर डालूं, ऐसा मेरे दिल को कभी भी गवारा नहीं होगा। अच्छा तो यही होगा कि मेरी प्रतीक्षा करना छोड़ दो। मुझसे कहीं बहुत दूर चले जाओ। मेरे मार्ग से हट जाओ। मैं एक ऐसी किरण हूं जो अपने सूरज से बिछुड़ चुकी है। इस संसार के अंधकार में भटकने के लिये। मुझे भटकने दो। खो जाने दो। तुम एक नये चमकते हुये सूरज हो। तुम्हारे पास किरणों की कोई कमी नहीं होनी चाहिये। बहुत मिल जायेंगी। यह संसार बहुत बड़ा है और मैं बहुत छोटी-सी किरण. मेहरबानी करके मेरे मार्ग में बाधा बनकर फिर कभी दोबारा आने की कोशिश न करना, नहीं तो मैं जो कुछ भी हूं, वह भी नहीं रहूंगी। मुझे भटकने दो। इस संसार के अंधियारे में। एक आवारा बनकर. बे-घर के समान. परित्यागी और अजनबी की तरह। मैं कहीं बहुत दूर भाग जाना चाहती हूं। इस दुनियां से। दुनियां की चमक से। स्वंय से और तुमसे भी। जिन मार्गो पर मैं चल रही हूं, मुझे स्वंय भी ज्ञात नहीं है कि उनकी कोई मंजिल भी है। कोई एक छोटा सा पड़ाव या ठहराव भी है या नहीं। मैं जिस स्थान पर ठहरी हुई हूँ, वहां से कोई भी रास्ता, कहीं नहीं जाता है और ना ही कोई मार्ग मेरी तरफ आता है. कोई मेरा नहीं, मैं किसी की नहीं. मैं केवल इतना जानती हूं कि, मेरे इन मार्गों का कोई रूकाव नहीं है, लेकिन भटकाव अवश्य ही हैं.। इसलिये मैं भटक जाना चाहती हूं। भटककर खो जाने के लिये। खोकर सदा को मिट जाने के लिये। बस विलीन हो जाना चाहती हूं। कल को तुम मेरे सूरज बनकर मेरे साथ स्वंय भी भटकते फिरो, ऐसा मेरे दिल और आत्मा को कभी भी स्वीकार नहीं होगा। तुम एक नये उदय होते हुये सूरज हो, और मैं एक अस्त होती हुई किरण। कल को जमाने को तुम्हारी जरूरत होगी, मेरी नहीं। यह संसार तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है, मेरा नहीं. मैं कहां जा रही हूं? मुझे स्वंय भी ज्ञात नहीं है. यदि हो सके तो मुझे क्षमा कर देना।'


कहकर किरण उसके सामने से तुरन्त चली गई। सदा के लिये। उसे अकेला छोड़कर। फिर कभी भी वापस न आने के लिये। उसके प्यार की आरज़ू में ठोकर मारकर। उसके प्रेम की झोली में सैकड़ों छेद करके। उसे तिरस्कृत करके। सूरज ठगा-ठगा सा किरण को जाते हुये देखता रहा। बहुत देर तक। एक ही स्थान पर खड़ा रहा।


दूर क्षितिज में सूर्य की लालिमा ने अपना दम तोड़ दिया था। संध्या सिमटकर रात्रि में परिणित होती जा रही थी। चारों ओर ख़ामोशी थी। एक चुप्पी। इस चुप्पी में भी एक दर्दभरी कराहट और एक आवाज़ थी। सूरज के दिल की आह पर उसके दिल की इस आहट को कौन सुन सकता था? अब शायद कोई भी नहीं? किरण कभी की जा चुकी थी।


इसी ख़ामोशी तथा उदासी-भरे वातावरण का सहारा लेकर सूरज अभी तक खड़ा हुआ अपनी बरबाद मुहब्बत के मजबूरी में खाली हाथ मल रहा था। ब्लैक स्टोन गर्ल्स कॉलेज की चारदीवारी के बाहर। नितान्त अकेला। बहुत ही उदास और हारा हुआ। एक ऐसी हार का सदमा वह झेलने पर विवश था कि जिसमें वह अपने प्यार की लड़ाई में एक फूटी कौड़ी भी नहीं जीत सका था। अपने दिल से प्यार की मृत कामनाओं का कफन ओढ़े हुये उसे अब कहीं कुछ भी पता नहीं था। हर तरफ केवल एक गहरी और मनहूस ख़ामोशी छाई हुई थी। इसी मनहूसियत से भरी ख़ामोशी में सूरज खड़ा-खड़ा न जाने कितनी देर से अपने जीवन की इस दर्द से भरी दुखित और रंजभरी कभी भी न भूलने वाली घटना को फिर एक बार दोहरा गया था। उसके अतीत की हरेक याद एक हकीकत बन कर उसकी नज़रों के सामने आई थी और उसको उसके प्यार का एक कड़वा घोल पिलाकर चली भी गई थी। किरण के समान ही। वह भी अब अकेला था-- नितांत अकेला.
वह एक सूरज बनकर किरण के पास स्वंय चलकर आया था, परन्तु किरण एक दीपक की हल्की रोशनी के सहारे की तलाश में जाने कहां भटकती फिर रही थी? न जाने कहां जा रही थी? जाने कहां? शायद सदा के लिये अस्त होने के लिये? न जाने कहां भाग जाना चाहती थी?

समाप्त.