मन के उस पार Neelam Kulshreshtha द्वारा कल्पित-विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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मन के उस पार

नीलम कुलश्रेष्ठ

 उनके दिल की धड़कन अचानक तेज हो गयी। सारे शरीर में अजीब-सी झनझनाहट होने लगी । माथे पर उत्तेजना के कारण कुछ बूंदें उभर आयीं थीं। प्रसन्नता के आवेग को वे अपने में समो नहीं पा रहे थे । रातें जाग-जाग कर बिताये गये तमाम क्षण सजीव हो उठे थे। अख़बारों के मुखपृष्ठ पर छपे उनके चित्र, इंटरव्यू, प्रेस कॉन्फ़्रेंन्स और भी न जाने कितना सम्मान और यश । अब यह सब दूर नहीं था।

 कहीं कोई कमी तो नहीं रह गयी ? वे एक बार सिहर उठे। नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है, उठकर उन्होंने एक बार फिर अवचेतनावस्था में कुर्सी पर बैठे हुए दस वर्षीय पुत्र के सिर पर नई मशीन के तार ,हेलमेट जैसा कुछ फिट कर दिया। कुछ देर उन्हें बिजली के कनेक्शन करने में लगी। पास ही एक मेज़  रखी थी जिस पर और एक यंत्र रखा था। सिर पर फिट किये यंत्र से इस यंत्र में संकेत आते थे। दोनों यंत्रों में तारों द्वारा परस्पर संबंध था। मेज़  के पास एक और कुर्सी रखी हुई थी। वे उस पर आकर बैठ गये। मेज़  पर रखे यंत्र में कई सार स्विच और नॉब लगे हुए थे। स्विच ऑन करते ही सामने की दीवार पर लाइट पड़ने लगी। दीवार का प्रयोग वे पर्दे की तरह कर रहे थे। वास्तव में मेज़  पर रखे यंत्र के साथ एक प्रोजेक्टर भी जुड़ा हुआ था, यह लाइट उसमें से ही निकल रही थी।

 दीवार पर आड़ी-तिरछी रेखाएं आ-जा रही थीं। उन्होंने, उठकर दो-तीन नॉबों को एडजस्ट किया। दीवार पर अब स्पष्ट होकर चित्र उभरने लगे थे। वे कागज़ पेंसिल से गणनाएं करते जाते और यंत्र में लगी घुंडियों को घुमाते जाते। बोलते हुए चित्र उनकी आँखों के सामने से गुज़रते जा रहे थे। उनके चेहरे पर संतोष की झलक स्पष्ट दिख रही थी। 

कुछ देर बाद उन्होंने स्विच बंद किये और अपने पुत्र के सिर से यंत्र को उतार लिया। पास ही एक काँच के गिलास में पानी रखा था। पानी की कुछ बूँदें पुत्र के चेहरे पर डालीं । कुछ पलों में वह होश में आ गया। उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा, जाओ बेटे, तुम्हारा काम खत्म!”

" डैडी, आपने इस यंत्र से क्या देखा?” पंकज अपनी सहज उत्सुकता को दबा नहीं पाया।

उनका मन हुआ कि पुत्र को बता दें, लेकिन कुछ सोचकर चुप रह गये, पंकज जवाब न पाकर बाहर चला गया। उसके जाने के बाद उन्होंने अपनी इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष को पत्र लिखना शुरू किया-‘`मैं अपने प्रयोग में सफल हो गया हूँ। सबसे पहले यह चमत्कार आपको दिखाना चाहता हूँ। आज सायंकाल छः बजे यहाँ पधारने का कष्ट करें।’ `अपने नौकर को बुलाकर यह पत्र अध्यक्ष श्री कालेकर को दे आने को कहा।

उन्हें पूरा विश्वास था कि उनका पत्र पाकर कालेकर महोदय अवश्य चौंक पड़ेंगे, एकदम शायद विश्वास भी  न कर पायें। अब तक वे अप्रत्यक्ष रूप में कई बार कह चुके थे कि वे एक बेवकूफ़ी के लिये समय नष्ट कर रहे हैं, लेकिन उन्हें अपनी ऊपर, अपने काम के ऊपर विश्वास था।

शुरू से उनका विचार था कि जिस प्रकार चेतनावस्था में आदमी का दिमाग बीती हुई अनेक बातों को सोचता है। उसी प्रकार अवचेतनावस्था में भी पुरानी घटनाएँ मस्तिष्क को आंदोलित करती हैं । आज वे एक ऐसे यंत्र का आविष्कार करने में सफल हो गये थे जिसकी परिकल्पना सालों पहले उन्होंने की थी। उनका यंत्र मस्तिष्क में एक विशेष तरह की तरंगें भेजता था, और ये तरंगें वापस परावर्तित होने पर मस्तिष्क की सारी जानकारी देती थीं । यह जानकारी दूसरे यंत्र के द्वारा चलचित्र में बदल जाती और पर्दे पर देखी जा सकती थीं ।

वे खुशी की लहकों में डूब-उतर रहे थे कि दरवाजे पर दस्तक हुई। उन्होंने निगाह उठाकर देखा । रोज़ की तरह उनका बड़ा पुत्र हर सन्डे की तरह अरूण हाथ में रैकेट लिये खड़ा था, “डैडी ! आज बैडमिन्टन खेलने नहीं चलेंगे?”

“भाई, आज तो मैं नहीं जा सकूंगा। अगर तुम्हें कोई परेशानी न हो तो आओ, कुछ देर मेरे पास बैठो।” अरूण ने गौर किया कि आज  पापा जी बहुत ही खुश है। वह रूकना नहीं चाहता था। फिर भी पापा  के आग्रह को टाल नहीं सका। बेमन से कमरे में चला आया।

वे अरूण के ऊपर प्रयोग करने के लोभ को संवरण न कर सके। उन्होंने कहा, “देखो, अरूण, मैं तुम्हारे ऊपर एक प्रयोग करना चाहता हूँ। तुम्हें कोई कष्ट न होगा, बस थोड़ी देर इस कुर्सी पर बैठना होगा।”

अरूण अच्छा कहकर कुर्सी पर आ बैठा। उसके चेहरे पर खेलने न जा पाने के कारण थोड़ा-सा खिंचाव आ गया था।

उन्होंने चुपचाप उठकर उसी तरह मशीन को  अरूण के सिर पर  फ़िट कर दिया। अरूण पर धीरे-धीरे अवचेतना छाती चली गयी, और उसकी पलकें मुंद गयीं। उन्होंने उसके मस्तिष्क को दस वर्ष पीछे भेज दिया और जल्दी जल्दी गणनाएं करने लगे। चलचित्र के माध्यम से मस्तिष्क के ताने-बाने खुलने से पूर्व यंत्र प्रयोग के लिये चुने गये आदमी के आचरण आदि की पूरी जानकारी संख्याओं के द्वारा दिया करता था जिनको डिकोड करके सब कुछ जाना जा सकता था। उनको ज्ञात हुआ कि पंकज की तरह ही अरूण भी अपनी माँ का अंधभक्त था।

अचानक, उन्हें यह जानने की उत्सुकता हुई कि उनका अरूण आजकल क्या सोचता है। वे फिर कुछ जोड़-बाकी करने लगे। उहोंने गणनाओं के अनुसार यंत्र की घुंडियों को घुमाया, सामने दीवार पर उन्होंने जो कुछ देखा उससे उनका मन खिन्न हो आया। चेहरे पर पीड़ा उभर आयी। थके हाथों में अरूण के सिर से यंत्र हटा दिया। वे चुपचाप अपनी कुर्सी पर आ बैठे।

थोड़ी देर बाद अरूण को अपने आप होश आ गया। उसने सिर को झटका दिया और उठ खड़ा हुआ। अरूण ने पूछा, “डैडी, यह आपका कैसा एक्सपेरिमेंट था? मुझे तो कुछ पता ही नहीं लगा।”

“कुछ नहीं। तुम्हें बाद में बताऊँगा।” बिना अरूण की ओर देखे ही उन्होंने कहा। अरूण जब पापा  को बुलाने आया था वे बड़े प्रसन्न लग रहे थे। लेकिन अब उसे लगा कि वे कुछ उदास हो आये हैं। वह उन्हें उलझी नज़रों से देखता हुआ बाहर निकल गया।

अरूण के चले जाने के बाद वे आकर कुर्सी पर बैठ गये। उन्हें लगा कि अचानक वे बहुत कमज़ोर हो गये हैं। उन्होंने अपने प्रयोग के इस पक्ष को नहीं सोचा था। कुछ देर पहले का अरूण का स्वलाप उन्हें बार-बार याद आ रहा था-‘बुढ्ढ़े का दिमाग सठिया गया है...जब देखो अपनी लैब में घुसे रहेंगे..ऊंह यह भी क्या हर समय टोकना, यह फटी जींस न पहना करो, यह क्या भालू जैसे बाल बना रखे हैं, हिप्पी बना फिरता है...यह करो, वह नहीं। लो, आज तो ये बैडमिन्टन खेलने को मना कर रहे हैं। बैडमिन्टन के बहाने किटी को उसके लॉन  में  देखते रहने का चान्स भी मारा गया। कहीं इन्हें शक तो नहीं हो गया कि मैं खेलते समय किटी के घर तांक-झांक करता हूं... अपने जमाने में मिनी स्कर्ट नहीं देखी तभी तो दूसरों से जलते हैं... नौकरी मिलते ही  इस सबसे पीछा छूटेगा -- इंटेलीजेंट तो हैं। इनके कितने जनरल्स फ़ॉरेन  में छपते रहते हैं ---  इनका बैंक बैलेन्स तो  ख़ूब हो गया है.. लेकिन हैं पूरे कंजूस --पार्टीज़ ,आउटिंग्स के लिए पैसा  नहीं देना चाहते।.’`

नहीं, वे कुछ भी याद करना नहीं चाहते। यह बहुत पीड़ादायक है। उन्होंने सोचा कि यह प्रयोग वे पत्नी के ऊपर नहीं करेंगे। वह कुछ देर बेमन कोई नया साइंस जनरल पलटते रहे। तभी पत्नी ने उनकी तन्द्रा भंग की क्योंकि उन्हें सख्त हिदायत है कि आधा घंटे पहले खाना टेबल पर लगने की बात बता  दिया करें, "मुन्नी से कह दिया है कि रोटी बनाये। आधे घंटे में खाना लग जाएगा। "

   वह उन्हें एकटक घूरने लगे कि  क्या वह सच में उन्हें इतना प्यार करती है कि जब तब उनके गले में बाँहें डालकर जताती रहती है। कहीं उन्हें उसके दिल में छिपी  बात जानकार फिर से चोट न पहुँच जाए ,वे चुप रहे।  जैस ही वह   दरवाज़े से निकलने लगी तो वे उसे अपने को आवाज़ देने से न रोक सके ,"सुनो मैं तुम पर एक एक्सपेरीमेंट करना चाहता हूँ। `

 वह दरवाज़े से वापिस लौट आई व इठलाकर उनके गले में  बांहें डालकर बोली ,"क्या मैं तुम्हें गिनी पिग दिखाई देती हूँ ?"

 वे हंस पड़े ,"ऐसी बात नहीं है। मैं बस मनुष्य के दिमाग का  अध्ययन  कर रहा हूँ। प्लीज़ !यहाँ बैठ जाओ। "

  वे कुर्सी पर बैठ गईं। उन्होंने अपनी  बनाई नई मशीन के तार ,हेलमेट जैसा कुछ उनके सिर पर फ़िट कर दिया। वह थोड़ा डर गई ,"कहीं करेंट तो नहीं लग जाएगा ?"

वे मुस्करा दिए ,"मैं क्या तुम्हेँ करेंट लगाऊँगा ?"  

 वे फिर कुछ जोड़-बाकी करने लगे। उहोंने गणनाओं के अनुसार यंत्र की घुंडियों को घुमाया, पर्दे पर जो साइन आ रहे थे ,वे उनसे कुछ गणनायें करने लगे। उन बातों को समझकर उनके मस्तिष्क पर कुछ पसीने की बूँदें चुहचुहा उठीं। सामने दीवार पर उन्होंने जो कुछ देखा उससे उनका मन खिन्न हो आया। चेहरे पर पीड़ा उभर आयी।

 पत्नी ने उनका चेहरा देखा तो घबरा उठी ,"आप ऐसे क्यों घबराये लग रहे हैं ?क्या कुछ प्रयोग में गड़बड़ निकल आई है ?"

      उन्होंने उसे टाल  दिया ,"लगता तो कुछ ऐसा ही है। "

       "मेरे साथ डाइनिंग रुम में चलिये। मैं आपको कुछ कोल्ड दे दूंगी। "

       "नहीं अभी नहीं ,तुम खाना लगवाओ ,मैं थोड़ी देर में आता  हूँ। "

      पत्नी के जाने के बाद उनकी गर्दन कुर्सी के पीछे टिक गई। उनकी सांस ज़ोर ज़ोर से चल रही थी जैसे मीलों दौड़कर आ रहे हों। अपनी गणनाओं के अर्थ से वे सिहर रहे थे। काश !ये मशीन बनाने का सपना नहीं देखते जिससे मन ,मस्तिष्क में चल रहे किसी के भी विचारों को भी पढ़ा जा सके। कितना दुखद होता है किसी अपने निकट के अंतर्मन के अपने लिए विचारों को जानना। कितना तकलीफ़  देता है अपने प्रिय नज़दीक के लोगों के मन को पढ़कर उनकी नज़रों से खुद को तलाशना । क्या ये वही है जो जब तब उनके गले में बाँहें डालकर अपना प्यार दिखती रहती है। हर समय उनका कितना ध्यान रखती है। बार बार जताती रहती है कि उसने पिछले जन्म में कुछ पुन्य  किया होगा जिससे इस जन्म में ऐसा बुद्धिमान पति पाया है । 

मशीन की गणनायें तो कुछ और कह रहीं हैं --पत्नी मन में बड़बड़ा रही थी ---` किस बोर के साथ मैं जा फँसी  ---जिसे न सोशल लाइफ़ का ---न पार्टीज़ का शौक है -- न फ़िल्म जाने का शौक --न म्युज़िक सुनने का ---न ओ ओ टी पर कुछ देखना चाहता है। बस अपने साइंस इंस्टीट्यूट व  घर की लैब में घुसा रहता है। कैसे बेवकूफ़ थी जो असिस्टेंट प्रोफ़ेसर राजुल  के रिश्ते को मैंने ठुकरा दिया था -ख़ैर, मुझे भी क्या पता था, वो दो साल बाद आई ए एस बन जाएगा। काश !उससे शादी हो जाती तो जाने कितने समारोह में रिबन काट रही होती  --लोग बुके लिए मेरे पीछे दौड़ रहे होते --लेकिन मेरे हाथ में जीते जी मरना तो इस घर में  लिखा था। `

    उनकी तन्द्रा टूटती है। मुन्नी कह रही है ,"साब !खाना लग  गया है। "

    वे बमुश्किल भारी आवाज़ में कहते हैं ,"तुम चलो ,मैं एक फ़ोन करके आता हूँ। "

     उनकी उंगलियाँ  मोबाइल पर चलने  लगतीं हैं ,उधर उनके डाइरेक्टर की आवाज़ है ,"हेलो। "

     "आपको ख़बर करनी थी कि लास्ट स्टेज में मेरा एक्सपेरीमेंट फ़ेल हो  गया है। "

    "ओ नो। मैं  तो कल इंस्टीट्यूट में प्रेस को बुलाने वाला था। "

     "आई  एम सॉरी। "

      उनकी डूबी हुई आवाज़ सुनकर, वे चिंतातुर हो उठे ,"टेक  केयर। "

       बिना जवाब दिए उन्होंने कॉल काट कर दी और झुंझलाये ,खिसयाये ,द्रवित ,आंसुओं को पीते हुए वे मशीन के तारों को खींच खींच उसे तोड़ते चले गए जब तक उन्हें विश्वास नहीं हो गया कि वह पूरी तरह नष्ट हो गई है और इस तरह पैरों को जबरन घसीटते डाइनिंग रुम की तरफ़  चल दिए कि  जाएँ तो और कहाँ जा सकते हैं ?

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नीलम कुलश्रेष्ठ  

e-mail—kneeli@rediffmail.com