नागफनी के कांटे 'जीवन और इसके दंश
[ नीलम कुलश्रेष्ठ व तृप्ति अय्यर ]
[डॉ .सुधा श्रीवास्तव जी को मैं अहमदाबाद रहने आने से बरसों पूर्व से जानती थी क्योंकि इनकी कुछ रचनाएं साहित्य की मुख्यधारा से जुड़कर चर्चित हो चुकीं थीं। डॉ अंजना संधीर ने जो 'स्वर्ण कलश गुजरात 'गुजरात की 41 महिला कथाकारों की कहानियों का संग्रह सम्पादित किया है उसमें गुजरात की की तीन वरिष्ठतम कहानीकारों आशा टंडन, कांति अय्यर में सबसे अधिक साहित्यिक योगदान सुधा जी का है। सुधा जी अस्मिता, महिला बहुभाषी साहित्यिक मंच की अध्यक्ष हैं।
सन 2018 में हम मुम्बई जाकर बस गए थे। सन 2018 में मुझे मुम्बई से अहमदाबाद आना था गुजरात हिंदी साहित्य अकादमी के तीन पुरस्कर लेने। सुबह स्टेशन से मैं सीधे सुधा जी के घर पहुँच गई थी। उन्होंने पहुँचते ही प्याले में काढ़ा पकड़ा दिया, ''बारिश के दिन हैं, बीमारी का डर रहता है। इसे तुरंत पी जाओ। ''
कार्यक्रम के बाद हॉल से लौटते समय इतनी बारिश थी कि गाड़ी ड्राइव करना सबके बस की बात नहीं होती है। वो ऐसे मौसम में, घनघोर बरसते पानी में गाड़ी ड्राइव करती निशा चंद्रा व मुझे लेकर सही सलामत घर आ गईं थीं।
और एक दिल को छूने वाली याद है- जब हम लोग मुम्बई से पूना रहने चले गए थे, मैं वहां से सन 2019 में अहमदाबाद में आयोजित जूही मेले में वक्ता की तरह आमंत्रित थी। तब बुखार में भी सुधा जी मुझे गुजरात विद्द्यापीठ में अपने नई पुस्तकें भेंट करने चलीं आईं थीं। मैंने भावविह्वल हो उनका हाथ चूम लिया था, बस ये शब्द बमुश्किल मेरे मुंह से निकले थे, ''आप बुखार में क्यों चलीं आईं ?''
ऊपरवाले की असीम मेहरबानी हुई कि हम इसी वर्ष अहमदाबाद वापिस आ गये थे । उन्होंने कभी आग्रह नहीं किया कि मैं इनकी पुस्तकों की समीक्षा करुं, न मैंने कभी इस बात पर ध्यान दिया।
हुआ ये कि डॉ. प्रभा मुजुमदार के घर सन 2023 की अंतिम गोष्ठी में सुधा जी ने अपनी पुस्तक 'नागफनी के कांटे 'का अनौपचारिक विमोचन किया था और बताया कि वे कुछ पुराने कागज़ छांटकर, पुरानी रचनाओं का ढेर लेकर उन्हें फेंकने जा रहीं थीं क्योंकि उन्हें लगा ये बहुत पहले लिखी बेकार रचनाएं हैं. राहुल प्रकाशन के प्रकाशक राकेश त्रिपाठी जी उनके घर बैठे थे उन्होंने कहा आप इन्हें क्यों फेंक रहीं हैं, मैं इन्हें पुस्तक रुप में प्रकाशित करुंगा। और इस तरह प्रकाशित हुई ये किताब। मैंने ये वाक्या सुना तो फिर मेरा दिल भर आया कि किसी रचनाकार का अपनी रचनाओं को फेंकने का मन कैसे बन गया ?क्या उनकी 83 की उम्र होने के कारण ?
इसकी प्रस्तावना लिखी है एच. के. आर्ट्स कॉलेज के हिंदी विभागाध्यक्ष है डॉ. गोवर्धन बंजारा जी ने.
इस उम्र में जो हमारी प्रेरणा हैं, मैंने सोचा कि इस पुस्तक की तीन कहानियों की समीक्षा मैं लिखूँ व कविताओं की तृप्ति अय्यर लिखेंगी। इस समीक्षा को लिखने में मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे मैं अभिलेगार में कोई कृति की जानकारी सरंक्षित कर रहीं हूँ।समीक्षा मेल करने के लिए मैंने पत्रिका चुनी 'अभिनव इमरोज़ 'क्योंकि आदरणीय देवेंद्र बहल जी वयोवृद्ध साहित्यकारों को उतना ही सम्मान देते हैं जितना नवांकुर या युवा रचनाकारों को . --नीलम कुलश्रेष्ठ ]
भाग --1 [तीन कहानियां ]
नीलम कुलश्रेष्ठ
इस पुस्तक में तीन कहानियां हैं -- 'नागफनी के कांटे, ''शब्द 'और' प्रतिज्ञा 'हैं। तीन कहानियां जिसे किसी भी औरत के सम्पूर्ण जीवन का कोलाज यानी एक साधारण गृहणी से लेकर एक चेतन मनुष्य बनने की यात्रा। ये गृहणी हर भारतीय घर में मिलती है। जैसे प्रथम कहानी की नायिका --
''मैं गेंहू बीनना छोड़कर उठ गई। एक हाथ में गेंहूँ से निकली दो चार कंकड़ियां दबीं थीं और मैं अपने गाउन को देख रही थी। थोड़ा मैला हो गया था। पर ठीक है कपड़े बदलने बैठी तो अतिथि का अनादर होगा। ''
अब गृहणी चाहे प्रोफ़ेसर हो, अफ़सर हो या अध्यापिका हो या क्लर्क।मैं मानतीं हूँ कि गेंहू बीनने का ज़माना अब नहीं रहा लेकिन घर के कामों की कोई सीमा नहीं होती।
ये विवाहित स्त्री के जीवन का प्रथम चरण है जिस पर पति के दोस्त, उसके कार्यस्थल के सहयोगी या पड़ौसी भी लाइन मारते रहते हैं, शायद वो मछली फंस ही जाये। यहाँ मामला इसलिए गंभीर है कि वो और कोई नहीं पति के बॉस हैं मिस्टर शर्मा जो अपनी पत्नी के साथ घर आकर घुसपैठ करतें हैं और पति की पोस्टिंग कहीं और है। नायिका संशय में झूलती है कि वह इनका अकेले होटल में चाय पीने का प्रस्ताव ठुकराए या नहीं। यदि ठुकराती है तो कहीं ये नाराज़ होकर पति का प्रमोशन न रोक दें। बॉस धीरे धीरे केंचुल छोड़कर बाहर आते हैं और बताते हैं कि सिस्टम है अपनी पत्नी द्वारा अपने बॉसेज़ को खुश रखने का । प्रोफ़ेसर नायिका का उत्तर क्या होगा
दूसरा चरण हैं --वह आरम्भिक विवाहित वर्षों में उसे बच्चों के लालन पालन में सिर उठाने की फ़ुरसत नहीं होती।बच्चों को थोड़ा बड़ा करने पर अक्सर 19 -२० वर्ष बाद जब उसे होश आता है तो पता लगता है कि पतिदेव एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं --[ ये संख्या अलग लोगों के लिए अलग हो सकती है ] स्त्रियों से प्रेम की पींगें बढ़ा रहे हैं। तब उसे समझ में आता है जब पति ने उससे 19 -२० वर्ष पहले प्रणय निवेदन किया था उसके अवचेतन ने पति प्रणय निवेदन का नकलीपन पहचान लिया था ? और क्यों उसका दिल आनंद विभोर नहीं हुआ था?क्यों उसे ये पति का पौरुष आन्दोलित नहीं कर कर गया था ? आँखें खुलने की इस तकलीफ़ को कोई 'शब्द 'बयान नहीं कर सकता, मेरे ख्याल से।
जो नौकरीपेशा होतीं हैं, उनके पास तो कोई लक्ष्य होता है लेकिन जो कुछ अपना कार्य नहीं करतीं उन्हें ये बात जानकर जीवन निरर्थक लगने लगता है।
स्त्री जीवन का तीसरा पड़ाव है कि जब वह पूरी तरह चेतन प्राणी बन जाती है या कहना चाहिए मनुष्य की तरह जीने का निर्णय करती है। जब उसे समझ आता है कि वह घर पड़ी कोई फ़ालतू चीज़ नहीं है। होता ये है कि पति गुस्से में खाने की थाली फेंकते है तो वह दीवार से टकरा जाती है। उसे भी समझ में आता है कि बरसों से वह थाली कटोरी की तरह थिरक रही है। पति के दोस्तों के लिए, रिश्तेदारों के लिए, उसके लिए सिर्फ़ उसका अस्तित्व थाली कटोरी के बीच झूल रहा है।
शादी के बाद जितने भी वर्षों बाद भी जिस स्त्री की आँखें खुलती है कि वे सबके नखरे सहते सहते क्या से क्या हो गई है ?तो रात में दब्बू जीने वाली नायिका एक मालकिन की तरह नौकर को तरह हिदायत देती है ---''देखो रात के दस बजे तक साहब आएं तो मैं सो जाउंगी, मुझे मत जगाना। खाना, जो सुबह बना था, वही रक्खा है।दूसरा नहीं बनेगा। साहब खाने को कहें तो परोस देना, वरना तुम भी खाकर सो जाना। ''
धन्यावद प्रकाशक राकेश त्रिपाठी जी को जिन्होंने इन सशक्त कहानियों को कचरा बनने से रोक लिया। सुधा जी को बधाई। कभी उनसे पूछूँगी कि साहित्य की मुख्य धारा से कुछ जुड़कर। वह उससे क्यों दूर होती चलीं गईं ?
भाग --2 [कवितायें ]
तृप्ति अय्यर
ईश्वर कि बनाईं गई इस सुंदर और अद्भुत दुनिया मे, ऐसे तो हर जीव का अपना एक अलग ही महत्व है। किन्तु, इस महत्वपूर्ण स्पर्धा में मनुष्य कुछ विशिष्ट भावनाओं, खासियतों और सभ्यताओं कि वजह से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। आसान नहीं है मनुष्य जीवन का निर्वहन करना। सुख दुःख, आशा निराशा, सफलता असफलता जैसी अनेक अनिश्चिताओं से भरा हुआ है मनुष्य जीवन। संक्षिप्त में, मनुष्य जीवन में कभी फूल है तो कभी काँटे........ इसी फिलोसॉफी को अपने सृजन में समाविष्ट किया है आदरणीय लेखिका डॉ. सुधा श्रीवास्तव जी ने।
इस संग्रह में आदरणीय लेखिका डॉ. सुधा श्रीवास्तव जी ने अपनी पुस्तक में कविताओं के सफर को क्षुधित मन शीर्षक वाली कविता से शुरू किया है ।
लड़खड़ाता उदास मन,
गिरते पड़ते न जाने
कितनी ही गहराइयों और ऊंचाईयों पर
आशा और आस्था का दामन थामे
कभी हवा के पंख लगाकर गगन विहार
तो कभी उसी विहार को अवरूद्ध करतीं
विरुप हवाएं सांय सांय से अट्टहास करतीं....!
कुण्ठित मन की इस दिशाहीन भटकन का उत्तरदाई कौन है??? के यक्षप्रश्न से जो मन का सफर गुज़रता है, वह ... ओ मन क्या हुआ है?? किसकी तपन ने आ छुआ है कि प्रश्न श्रृंखला से होता हुआ मानो मनुष्य और तथाकथित समाज के हर पहलू को आईना दिखाने का कार्य करता है।
'शुष्क नीरव, भ्रमित मेरे भाव सारे,
जा पड़े किसके दुआरें,
किस ग्रहण ने छू लिया है?
किस तपन ने आ छुआ है....' जैसी अनेक पंक्तिओं ने, सचमुच मेरे मन को छू लिया।
'वेदना' लघु काव्य, जिसमें कम से कम शब्दों में.....
'ठोक गया कील तीखी, गहराई मापकर... ', जैसा गुढार्थ भर कथन हो या फिर,
अजानी थाप लघु काव्य में भावुक हृदय कि, सेमल के गद्दे के साथ तुलना..... हर भाव जैसे कि, हम सबने हमारे जीवन में कभी न कभी तो महसूस किया ही होगा.....
''कैसे लिखूं बौराया गीत...?.. एक प्रश्न के उत्तर में, कई प्रश्नो से यथार्थ करता हुआ गीत...
' क्षीण घ्राण शक्ति, दम घोंटती हवाएं,
रोमांच शून्य जड़ शरीर,
सोमरस विचुम्बित, बहका हुआ पागल संगीत......'
जैसे की शब्द संयोजन पाठकों को विचार करने के लिये बाध्य कर देंगे।
जहां, 'रक्षा कर एकता की' और 'आशादीप' जैसी रचनाएं मन मस्तिष्क को शौर्य रस से भर देती है...... वहीं, बाहर के द्वार पर बैठो मनमीत ---'जैसे गीत में आपने भग्न ह्रदय कि भावनाओं को जो शाब्दिक रूप दिया है वह मन को अति भावुक कर देता है।
अंग्रेजी भाषा की कटाक्षपूर्ण महिमा हो या समानता जैसे बहुचर्चित विषय पर रचना... या आधुनिक कुंड'लियां जैसी अनोखी रचना में आपने जो सांप्रत समाज में फैली हुई विषमताओं को काव्य में ढाला है.... वह पढ़ते ही बनता है।
''अहम से भरा हुआ यह मनुष्य जीवन.... 'ओफ्फ !कितना सही आंकलन किया है आपने अहम् का...! और वह अहम से जो प्रश्न पुछा है आपने...' दूसरों को दग्ध करके, क्या नहीं हम दग्ध होते? ओ अभागे हठी अहम्..!'.... वाकई सोचने पर मजबूर करता है।
अभिशप्त दर्द का वह दर्जी, शायद हम सबको चाहिए हमारे जीवन में......
और पुस्तक की आख़िरी रचना-एक ग़ज़ल जिसमें प्रेम भरे दिल कि गुजारिश है'....
'प्यार के मौसम में तुम आओ तो करें कुछ मनमानी,
ये हदबंदी हटा लो.
करो खामोश कुछ बातें
ज़िन्दगी का क्या भरोसा?
वह नजदीकियों की गुज़ारिश और वह खामोश बातें.'
इश्क की इंतेहा दर्शातें है।
पुस्तक:- ''नागफनी के काँटे ( कहानियां एवं कविताएं)
लेखिका:- डॉ. सुधा श्रीवास्तव
प्रकाशक :- राहुल प्रकाशन, अहमदाबाद
मुल्य २००/-
समीक्षक
नीलम कुलश्रेष्ठ
मो न. ---9925534694
तृप्ति अय्यर
मो न. ---9825006983