नीलम कुलश्रेष्ठ
तब उसे समझ नहीं थी कि जिंदगी का नाम सुव्यवस्था हो सकता है। उसे जब चाहे, जो कपड़ा मिला पहन लिया या नहीं भी पहना। चाहे कोई फल या कच्चा शिकार का टुकड़ा खा लिया, जब चाहे, जहां चाहे गुफा या पेड़ पर सो गया। जब दो पत्थरों के आपस में रगड़ जाने से पहली चिंगारी निकली होगी, शायद वही नागरिक सभ्यता की पहली आधारशिला बनी ।
भारत में 1911 से पहले कोई जानता भी नहीं था कि यहाँ के प्राचीनतम शहर कैसे रहे होंगे। सिंध के लरकाना जिले में मोहनजोदड़ो व हड़प्पा के अंदर 1911 में जमीन के अंदर दबे पड़े पांच हजार वर्ष पूर्व के नगरों के अवशेष मिले, तब हमें पता लगा कि हजारों वर्ष पूर्व भी मानव शहरों में सुव्यवस्थित ढंग से रहता था। यह बात और है कि समय की प्रचंड आंधी ने पर्त दर पर्त उन पर धूल बिछा, उन्हें धरती के आगोश में सुला दिया।
समय बीतने पर इसी सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेष मिलते चले गये। यह सभ्यता हिमालय के नीचे से उत्तरी बलूचिस्तान, पंजाब, हरियाणा, जम्मू, गुजरात व उत्तरी महाराष्ट्र तक फैली हुई थी, जिनमें भावलपुर का गंवेरीवाल भी महत्त्वपूर्ण स्थल है। इस समय भारत के दो बड़े प्राचीन स्थल हैं जहां सबसे अधिक अवशेष, मिले हैं। एक गुजरात के कच्छ में धौलावीरा व हरियाणा में राखीगढ़ी। धौलावीरा में तो उत्खनन जनवरी 1990 में रवीन्द्र सिंह बिष्ट के निर्देशन में आरंभ हुआ। वह केंद्र के पुरातत्त्व विभाग की उत्खनन शाखा, बड़ौदा के अधीक्षक थे । धौलावीरा में जिस तरह की नगर विन्यास योजना, लिपि, हड़प्पन मुद्रा व मनके मिले हैं, उससे धौलावीरा का महत्त्व बढ़ गया है। उन्हीं दिनों मैंने बिष्ट जी का साक्षात्कार लेकर धौलावीरा के विषय में जानकारी ली थी। अब जब ये गुजरात में नवम्बर से फ़रवरी तक चलने वाले कच्छ रनोत्सव के एक विशिष्ट पर्यटन स्थल में शामिल हो गया है। भुज व धौलावीरा के बीच के रास्ते का कुछ हिस्सा इतना सुंदर है कि उसे `वे ऑफ़ हैवन `कहा जाता है। ऐसे में क्यों न आप इसके विषय में जानें। दिनों मैंने बिष्ट जी का साक्षात्कार लेकर धौलावीरा के विषय में जानकारी ली थी।
वैसे तो 1967-68 में जगतपति जोशी ने कच्छ के रेगिस्तान में धौलावीरा के प्रागैतिहासिक टीलों की तरफ दुनिया भर के पुरातत्त्ववेत्ताओं का ध्यान आकृष्ट कर लिया था, जहां किसी नगर के अवशेष मिलने की पूरी-पूरी संभावना थी। बाद में लगभग दो दशक बाद ही रवीन्द्र सिंह बिष्ट व उनकी टीम ने बाकायादा इस स्थान का सर्वेक्षण किया व उसमें दबे नगर की संरचना की कल्पना की। अब उस नगर को योजनाबद्ध तरीके से उत्खनन करके निकालना शेष था और उत्खनन का काम आसान नहीं होता। चाकू व खुरपी से बहुत सावधानी से खुदाई की जाती है, जिससे अवशेषों को क्षति न पहुँचे। कभी कभी वेक्यूम क्लीनर भी प्रयोग में लाना पड़ता है।
उस समय लिया साक्षात्कार अब पढ़ें ----
रवीन्द्र सिंह बिष्ट बताते हैं, “पिछले वर्ष जुलाई में पेरिस में हुए एक सम्मेलन में मैंने अपने सर्वे के बारे में एक लेख पढ़ा था। साथ ही धौलावीरा में दबे हड़प्पन नगर की पूरी परिकल्पना की डिजाइन भी प्रस्तुत की थी। बाद में उत्खनन में नगर के अवशेष हू-ब-हू वैसे ही मिले।”
धौलावीरा कच्छ के भचाऊ तालुका का एक छोटा सा गांव है। यह खडीर नाम के एक द्वीप या स्थानीय भाषा में कहे तो “बेट” के उत्तरी-पश्चिमी कोने पर बसा है। इसके चारों ओर कच्छ का रेगिस्तान फैला हुआ है। मानसर व मनहर यहाँ की बरसाती नदियाँ हैं। इससे कुछ दूरी पर दो प्रागैतिहासिक टीले हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में `कोटड़ा`व `बाजार `कहा जाता है। कोटड़ा के उत्खनन के बाद ही अवशेष मिले हैं।
धौलावीरा नाम कुछ अजीब सा लगता है । धौला का अर्थ होता है सफेद वीरा का अर्थ है कुआँ। यहाँ पर मिले हड़प्पन नगर की संरचना अनुपात में की गई थी व अपने समय में यह उत्कृष्ट स्थापत्य का नमूना रहा होगा। सुरक्षा की दृष्टि से इसके चारों ओर मजबूत किलेबंदी की गई होगी। पानी के निकास के लिये गलियों की निकास व्यवस्था को एक मुख्य रस्ते से जोड़कर गंदा पानी शहर से बाहर निकाल दिया जाता था। यहां कम से कम 600 वर्ष (2500 ई.पू./1900 ई.पू.) तक हड़प्पन संस्कृति के लोगरहेहोंगे।
धौला वीरा के उत्खनन का विशिष्ट स्थान इसलिए भी हो गया है कि यहाँ पर हड़प्पन लिपि के नौ अक्षर ज्यों के त्यों पाए गए हैं, जगतपति जोशी ने अपने सर्वेक्षण में रेत की पहाड़ी ढूँढ़ी थी।
“क्या यहाँ भी पहले जैसे मिले हड़प्पन नगरों जैसा नगर विन्यास है?”
मैं रवीन्द्र सिंह बिष्ट से पूछती हूँ ।
“उत्खनन में हड़प्पन नगर विन्यास योजना हू-ब-हू वैसी ही आयताकार मिली है, जैसी कि वह अपनी बनावट के लिये जानी जाती है। इसकी किलेबंदी 48 हेक्टेयर में करके नगर को बसाया गया है। पत्थर चिनकर की गई किलेबंदी के अंदर तीन अलग-अलग स्थापत्य नजर आते हैं। एक किला, मध्य नगर व अवम नगर। इन तीनों में अपने अलग द्वार, रक्षण पंक्ति, गलियों का विन्यास, कुएं व कक्षों की बहुलता है। एक विशेष बात यह है कि तीनों स्थानों में अपने-अपने खुले मैदान हैं।
“किले के बाहर के हिस्से में भी कुछ बड़े-बड़े अवशेष मिले हैं जो कि किले के अंदर की सभ्यता के नजदीक व उससे जुड़े हुए प्रतीत होते हैं। इन दोनों अवशेषों के स्थान का क्षेत्र लगभग 100 हेक्टेयर होगा, जो कि बहुत आश्चर्यजनक तथ्य है।
“शहर को बहुत कड़ी सुरक्षा में रखा गया था। बाहर की किलेबंदी तीन दीवारें बनाकर की गई थी। ये दीवारें मिट्टी की ईंटे या पत्थर चिनकर बनाई गई थीं । इन तीनों दीवारों के अवशेष टूटी-फूटी अवस्था में मिले हैं। ये दीवारें 90 डिग्री के कोण पर मुड़ती हैं। किले के अंदर भी 60 मीटर से 140 मीटर तक और इससे भी अधिक बड़ा मैदान है। अंदरूनी छोटी दीवारें हों या बाहर की किलेबंदी की दीवारें, जहाँ भी ये दीवारें मुड़ती हैं, उन्हीं कोनों पर इन दीवारों के नीचे डमरूनुमा आधारस्तंभ मिले हैं।”
रवींद्र सिंह बिष्ट आगे बताते हैं, “धौलावीरा की यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है कि हमने इन डमरूनुमा आधार स्तंभों को बहुत सावधानीपूर्वक खोद निकाला है। पहले के हुए उत्खनन में ये टूटी-फूटी अवस्था में मिले थे, जिससे सब पुरातत्त्ववेत्ता अनुमान ही लगा रहे थे कि ये या तो खेती के काम आने वाला कोई औजार है या किसी चक्की का टुकड़ा। इस सभ्यता की कारीगरी की मैं दाद देता हूँ। ये आधार स्तंभ जमीन के अंदर प्रयुक्त हुए हैं, फिर भी हजारों वर्ष बाद भी ये चिकने के चिकने ही निकले हैं।किले के अंदर शहर को तीन भागों में विभक्त किया हुआ था, जिनमें दो की तो मजबूत किलेबंदी की हुई थी। ये दोनों पत्थर की दीवारें चिनकर आयताकार रूप में बनाए गए थे। दुर्ग और बाहर की दीवार के बीच लगभग 45 मीटर खुली जगह छोड़ी गई थी।”
“दुर्ग या महल की बनावट पर आप कुछ प्रकाश डालेंगे?”
“दुर्ग या महल के चारों ओर खुली जगह छोड़कर उसके बाद उसकी सुरक्षा के लिये अलग से दीवार बनाई गई थी। इसकी संरचना कुछ-कुछ यूरोपीय महलों जैसी रही होगी। इसमें जुड़े हुए व अच्छी तरह दीवारों से सुरक्षित दो जुड़े भाग थे, जिस में राज्य या नगर का प्रमुख अपने परिवार व रक्षकों के साथ रहता था। प्रत्येक दीवार का अपना निजी द्वार था, जो कि दीवार के केंद्र में बना हुआ था ।
“महल के बाहर मध्य नगर के अवशेष यहां-वहां फैले मिले हैं। इसकी भी चारदीवारों से किलेबंदी की गई थी। इसके चारों ओर भी खुली जगह है। बस, उत्तरी हिस्से में इसकी दीवार अवम नगर से जुड़ी हुई है। दोनों को जोड़ने वाली दीवार महल तक जाती है। दीवारों के अंदर भी खुली जगह है। बाद में छोटे-छोटे घर बनाए गए होंगे। अन्य स्थानों के उत्खनन पर जो सुव्यवस्थित गलियों की व्यवस्था मिली है, वैसी यहां दृष्टिगोचर नहीं होती या फिर नष्ट हो गई है। सुरक्षा की दृष्टि से थोड़े-थोड़े अंतराल पर छोटे-छोटे बुर्ज या छोटे द्वारा बनाए गए थे।”
इस विभाग के छायाकार रवींद्र कुमार के अनुसार, “बारिश के समय इस स्थान पर मिट्टी व घास डालकर खुदाई रोक दी जाती है। इस मौसम के गुजरने के बाद ही काम आरंभ होता है।”
“धौलावीरा में आप लोगों के पानी की आपूर्ति कैसे होती है?”
“एक प्राचीनतम कुएं को साफ करके ही हम उसके पानी को काम में ला रहे थे। वहाँ के कुओं में उतरकर मैंने चित्र खींचे थे। यह देखकर मैं हैरान रह गया कि कुएं की दीवारों में भी छोटे-छोटे गहरे छेद थे, जिनमें से पानी आता होगा।
“बाहर की दीवार से व मध्य नगर के बीच लगभग 300 मीटर में अवम नगर फैला हुआ है। इसके उत्तरी व पश्चिमी भाग में कुछ खुली जगह है। इसमें हड़प्पन घर बने हुए हैं। कुछ वर्ष पूर्व मनहर नदी के पानी को इकट्ठा करने के लिये पानी का एक कुंड बनाया गया है, जिससे अवम नगर के बहुत से घर नष्ट हो गये हैं। हो सकता है, कुछ बहुमूल्य स्मृतिचिह्न भी नष्ट हो गये हों।
“किलेबंदी के उत्तर-पश्चिमी कोने में अंदर से उत्तरी दीवार से जुड़ा एक टूटा-फूटा स्थान मिला है। शायद यह द्वार से जुड़ी इमारत रही होगी। बीच के खुले स्थान में ऐसी ही द्वार से जुड़ी इमारत मिली है, जिसमें रक्षक कक्ष, सीढ़ियां, एक जाने का गलियारा व कुआं मिला है। कहने का अर्थ है कि किले के अंदर भी खुले स्थानों पर सुरक्षा का कड़ा प्रबंध रहता होगा। शहर के अंदर जाने वाला पूर्वी द्वार पर भी इसी तरह के द्वार के बने होने की पूरी संभावना है।
“महल के दक्षिण में भी किलेबंदी किया हुआ एक छोटा सा स्थान है, जिस में कक्षों की बनावट बेहद घनी है। ऐसा लगता है, इस में शासकीय सेवक रहते होंगे। महल की उत्तरी दीवार के साथ एक दीवार बनी हुई है जो समकोण से बड़ा कोण बनती हुई शहर की अंतिम दीवार पार कर के दक्षिण की तरफ घूमकर मनहर नदी के समानांतर चलती एक वर्गाकार बनावट में समाप्त होती है।”
“क्या सिंधु घाटी की सभ्यता के समय शहर सिर्फ किलेबंदी के अंदर ही बने होते थे?”
रवीन्द्र कुमार बताते हैं, “ऐसा नहीं है। शहर के बाहर पश्चिमी व उत्तरी-पश्चिमी मनसर नदी के पास भी इमारतों और घरों के अवशेष मिले हैं। ऐसा लगता है ये किले की सभ्यता से किसी न किसी रूप से जुड़े गांवों के अवशेष हैं। इस बात की पुष्टि के लिए बहुत कम प्रमाण मिले हैं।”
“इस उत्खनन की कोई अन्य महत्त्वपूर्ण उपलब्धि?”
“हमें एक बरसाती पानी का प्राकृतिक रूप से कटा हुआ नाला पृथ्वी के तल तक किले की दीवार से सटा हुआ मिला है। हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि दीवार की नींव की बिलकुल अलग-अलग तरह की बंद परतें थीं। हम कह सकते हैं कि अनायास हमें स्तरीय उपक्रम संरचना प्राप्त हो गई है। अभी अध्ययन चल रहा है। फिर भी ऐसा लग रहा है कि सिंधु घाटी की सभ्यता से पूर्व भी कोई सभ्यता यहाँ रही है क्योंकि एक परत की बनावट हड़प्पन बनावट से भिन्न है। इन परतों से हड़प्पन सभ्यता के विभिन्न पीढ़ियों में हुए क्रमिक विकास का भी पता लगेगा। जो अलग तरह की परत मिली है, उसकी ईंटे हाथ से बनाई हुई हैं। उनकी बनावट में सफाई नहीं है, आकार भी एक सा नहीं है।”
“क्या यहाँ मिट्टी के बरतन भी प्राप्त हुए हैं?”
“हां, इन बरतनों के टुकड़े मिले हैं, जिन्हें लाल रंग या गुलाबी रंग में रंगा है। खास बात यह है कि ये एक ही तरह के मानकीकरण करके बनाए हुए प्रतीत होते हैं। इन्हें पकाकर ही इन पर चित्रकारी की गई होगी। तांबे के हथियार व टुकड़े भी काफी मात्रा में मिले हैं। सील, विभिन्न प्रकार के मोती, चूड़ियां, अंगूठी, सोने के जेवरात, तांबे, जस्ते व विभिन्न पत्थरों व शैल के टुकड़े मिले हैं, जिनसे लगता है कि ये उत्कृष्ट पुरातत्त्व कृतियां रही होंगी।
“यहाँ पर मिट्टी के कंधे भी मिले हैं। यह बात अवश्य है कि यहां टेराकोटा से बने आदमी व जानवरों की आकृतियां नहीं मिली हैं, जैसे कि अन्य स्थानों पर पाई गई हैं। इस स्थान की ऊपरी खुदाई में ही हड़प्पन सभ्यता के दो अलग-अलग प्रमाण मिले हैं। प्राचीन सभ्यता की उपरोक्त सभी वस्तुओं की रचनाएं परिष्कृत हैं, जबकि बाद की सभ्यता की चीजों में वह सुघड़ता नहीं है।
“इस अंतर को देखकर ऐसा लगता है कि इस नगर ने किसी प्राकृतिक आपदा व किसी अन्य कारण से अपनी चमक-दमक खो दी होगी। इस कारण यहां से राजा व अमीर लोग कहीं और चले गये होंगे। शेष रहे होंगे कुछ गरीब कामगार लोग। उन लोगों ने जहां चाहा दीवार खड़ी कर दी और आयताकार मकानों के स्थान पर अपनी पसंद के अनुसार गोल घर पत्थर चिनकर बना लिए। उनके बरतनों से ही पता लगता है कि वे हड़प्पन सभ्यता के ही व्यक्ति रहे होंगे। लेकिन ऐसा भी लगता है कि यहां स्थायी रूप से नहीं रहते होंगे, कभी-कभी यहां आते होंगे।”
“इस नगर में लोगों की पानी की जरूरतें कैसे पूरी होती थीं?”
“उन लोगों ने पानी की आपूर्ति की सुव्यवस्था की हुई थी। उत्तरी दरवाजे के पीछे महल के केंद्रीय मंडल में पानी इकट्ठा करने का लगभग 12 मीटर गहरा पानी का जलाशय बनाया गया था, जिससे जुड़ी 24 मीटर लंबी नहर थी, जो कि बरसाती पानी को आगे ले जाने का काम करती थी। कच्छ जैसे रेगिस्तान में तो यह एक प्राकृतिक उपहार की तरह थी।”
“धौलावीरा में हड़प्पन लिपि के जो कुछ अक्षर मिले हैं, उनके बारे में बताइए।”
रवींद्र बिष्ट बताते हैं, “डॉ. वी.ए. मिश्रा के शब्दों में, पुरातत्त्व के क्षेत्र में वास्तव में यह इस दशक की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इन अक्षरों के पास कुछ ऐसे निशान मिले हैं, जिनसे पता लगता है इन्हें लकड़ी के टुकड़ो पर खोदकर उन्हें चट्टान, खनिज या किसी पेस्ट के टुकड़ों से बनाया गया था। एक अक्षर लगभग 36 सें.मी. ऊंचा व 25 सें.मी. चौड़ा है। जिस तरह से अक्षर अन्य स्थानों पर मिले हैं, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि यह उनका कोई सूक्ति वाक्य ही रहा होगा।
“पुराने अवशेषों की रमणीयता और सौंदर्य की कल्पना मुझे आकृष्ट करती है। महल या प्रासाद के बीच जलाशय का मिलना मेरे लिये एक सुखद अनुभव है। अन्य स्थानों पर मिले अवशेषों ने प्रमाणित कर ही दीया है कि हड़प्पन लोग हमारी तरह गेहूं, बाजरा, मटर, दूध, मछली व फल खाते थे। वे कपड़ा बुनना जानते थे। वे लोग एशिया के अनेक देशों से व्यापार करते थे। इसका प्रमाण है, उन देशों में मिलने वाली हड़प्पा सील व अन्य वस्तुएं।
“जिस तरह से मिस्र देश की प्राचीनतम सभ्यता नील नदी के तट पर, चीन की हंघाओ व यांगत्सेक्यांग नदी पर नष्ट होती हुई विलुप्त हो गई थी, वैसे ही हड़प्पन सभ्यता भी पंजाब, जम्मू, राजस्थान व गुजरात की नदियों के तट परनष्ट हो गई।”
साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व जब आर्य भारत आये, तब तक यह सभ्यता नष्ट हो गई थी। आज तक यह नहीं पता लग सका है कि इस विशाल सभ्यता के नष्ट होने के क्या कारण थे। सिंधु घाटी की सभ्यता से पहले की सभ्यता के बारे में प्रमाणपूर्वक कुछ कहा गया तो वह इस उत्खनन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी।