फ़िल्मों की महिला संगीतकार ऊषा खन्ना Neelam Kulshreshtha द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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फ़िल्मों की महिला संगीतकार ऊषा खन्ना

[40 वर्ष तक फ़िल्मी गीतों को संगीत बद्ध करने वाली अकेली महिला फ़िल्म संगीतकार ]

नीलम कुलश्रेष्ठ

कहते हैं दुनियाँ में किसी के जाने के बाद कोई जगह नहीं खाली रहती लेकिन ऐसा हो गया है। सन 2003 से बहुत गहरा सन्नाटा है ऊषा खन्ना जी के बाद किसी महिला संगीतकार महिला फ़िल्म संगीतकार के शीर्ष में स्थान बनाने का. फ़िल्म संगीतकार स्नेहा ख़ानविलकर ने सन २०१२ से 'गैंग ऑफ़ वासेपुर 'एक व दो से शुरुआत की थी लेकिन ९ वर्ष के बाद भी वह कोई बड़ी धूम नहीं मचा सकी. परम्परा ठाकुर अपने पति के साथ संगीत दे रहीं हैं इसलिए वे इस श्रेणी में नहीं गिनी जा सकतीं।हालाँकि नित नई गायिकायें अपनी गायकी से धूम मचा रहीं हैं।

'जॉनी मेरा नाम'के इस गीत का 'पल भर के लिये कोई हमें प्यार कर ले 'की बंद होतीं खिड़किया, दरवाज़े -देवानंद व हेमामालिनी की अदायें, इस गीत को फिल्मांकन करने में चरम कला का स्पर्श-- --इस गीत में इस गीत की धुन को "ल --ल --ल 'में उतारती वह प्यारी सी आवाज़ गुम होती चली गई। बहुत से लोग भूल भी गए 'वंस अपॉन अ टाइम 'फ़िल्मी जगत में अपनी धुनों से धूम मचाने वाली, अपनी ही बनाई धुन में इस गीत की 'ल --ल -ल 'गाती फ़िल्मी दुनियां की कोई आख़िरी महिला संगीतकार भी थी -उषा खन्ना।

दरअसल बहुत गहरे बसें हैं उनके गीत दिल में -- ' ज़िंदगी प्यार का गीत है इसको हर दिल को गाना पड़ेगा। ', ' बरखा रानी ज़रा जम के बरसो --मेरा दिलवर जा न पाये ', ' तू इस तरह से मेरी ज़िन्दगी में शामिल है ', 'दिल दिल के टुकड़े टुकड़े करके मुस्करा चल दिये '.दो बिलकुल अलग मूड के गीत -'छोडो कल की बातें, कल की बात पुरानी -- नये दौर में लिक्खेंगे मिलकर नई कहानी, हम हिन्दुस्तानी ' नई पीढ़ी इन सुमधुर गीतों से परिचित न भी हो तो उसे याद होगा ये गीत 'शायद मेरी शादी का ख़याल दिल में आया है इसीलिये मम्मी ने मेरी चाय पे बुलाया है । '

७ अक्टूबर को ऊषाजी ने अपनी जीवन के अस्सी वर्ष पूरे कर लिये हैं। उनके फ़िल्मी संगीत के क्षेत्र में योगदान पर चर्चा ज़रूरी हो जाती है। ऊषा खन्ना अब तक की फ़िल्मों की में धूम मचाने वाली आख़िरी महिला संगीत निदेशक हैं। इस महत्वपूर्ण बात पर मेरा ध्यान दिलाया है अंतर्राष्ट्रीय ख़्यातिप्राप्त संगीत मर्मज्ञ सुप्रसिद्ध श्री के.एल.पांडेय जी के उषा खन्ना पर आयोजित कार्यक्रम के वीडियो ने.

महिला फ़िल्मी संगीतकारों के इतिहास को बता रहें हैं पांडेय जी, " प्रथम संगीतकार महिला संगीतकार सरस्वती देवी का असली नाम ख़ुर्शीद मानेकशा मिनोचेर होमजी था। जो 'अछूत कन्या ' के गीत -मैं वन की चिड़िया बनकर वन वन डोलूँ रे ' से पहचानी जातीं थीं. संगीत निर्देशन का क्षेत्र पुरुष शासित दुनियां रहा है । जद्दन बाई एवं सरस्वती देवी ने ३० एवं ४० के दशक में सफलतापूर्वक संगीत दिया है लेकिन उषा जी १९५९ से २००3 तक मज़बूती से जमी रहने वाली वह एक अकेली महिला संगीतकार हैं । ज़ाहिर है कि प्रतियोगिता के इस दौर में उनका यह सफ़र आसान नहीं रहा है लेकिन वह एक अत्यंत सफल संगीतकार रही हैं जिनकी धुनें आज तक लोगों की ज़ुबान पर हैं । "

"क्या कुछ और महिलायों ने थोड़ा बहुत संगीत दिया है ?"

"जी, गायिका शारदा ने सिर्फ़ एक फ़िल्म-'माँ, बहिन और बीवी ' में संगीत दिया था. सन 1973 में किशोरी अमोनकर ने 'दृष्टि ' फ़िल्म के लिये संगीत दिया था।सुधा मल्होत्रा ने एक फ़िल्म 'दीदी 'के सुप्रसिद्ध गीत 'तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको 'को, लता मंगेशकर ने मराठी फ़िल्म के लिए संगीत दिया था। इनके अलावा आठ और महिलाओं के नाम गिने जा सकते हैं जिन्होंने एक या दो फ़िल्मों में संगीत दिया। लेकिन इनके गीत या इनका नाम लोग याद नहीं रख पाए इसलिए भी उषा जी का फ़िल्मी संगीत के लिए योगदान अभूतपूर्व है। "

ऊषा खन्ना के पिता मनोहर खन्ना, फ़िल्मी गीतकार व गायक ने ग्वालियर में जन्म लिया था। वे ग्वालियर स्टेट के वॉटर वर्क्स विभाग के अधीक्षक थे। 7 अक्तूबर 1941 को उषा खन्ना का जन्म हुआ था. इनके पिता को जद्दन बाई ने किसी कवि सम्मेलन में सुना था। जद्दन बाई के आग्रह पर उनके पिता ने बंबई आकर जद्दन बाई की कम्पनी में लेखक बतौर काम करना आरम्भ कर दिया था। वे जावेद अनवर के नाम से फ़िल्मी गीत लिखने लगे. सन 1946 में वे अपने पिता के साथ जद्दनबाई जी से मिलीं थीं। नि:संदेह इनकी महिला फ़िल्मी संगीतकार रोल मॉडल जद्दन बाई ही होंगी ।

शौकिया ऊषा जी भी मुखड़े लिखा करतीं थीं । इनके पिता प्रसिद्द गीतकार इंदीवर के मित्र थे। ये तीनों शशधर मुखर्जी, जो कि एक सफ़ल निर्माता और फ़िलिमिस्तान स्टूडियो के सह संस्थापक थे व जॉय मुखर्जी के पिता, के पास गये। उन्होंने इनका गाना सुनकर कह दिया कि तुम गायिका तो नहीं बन सकतीं। इनके पिता ने बताया भी कि जो इसने गाया है, वह संगीतबद्ध भी इसी ने किया है। उन्होंने कहा था, "तुम संगीतकार क्यों नहीं बन जातीं ?"

उस समय ये काफ़ी चौंकाने वाली बात थी क्योंकि इनके पिता ने इन्हें हारमोनियम पर सिर्फ़ सरगम सिखाई थी। पांडेय जी एक महत्वपूर्ण बात बताते हैं, "इन्होंने कभी बाकायदा शास्त्रीय संगीत नहीं सीखा सिर्फ़ हारमोनियम बजाकर धुनें बनातीं रहीं। मनोहर खन्ना जी ने सिर्फ़ एक फ़िल्म ' पंपोश 'में संगीत दिया था और कहतें हैं उषा जी ने सिर्फ़ चौदह वर्ष की उम्र में इस फ़िल्म की धुनें बनाईं थीं। "

इन्होंने पहली फ़िल्म 'दिल दे के देखो' में गीतों के संगीत की सरंचना १७ बरस की आयु में की थी, जिसके गीतों ने धूम मचा दी थी फिर भी वे कुछ वर्ष बिना काम के बैठीं रहीं क्योंकि लोग समझते थे कि ओ.पी. नैयर ने उनके लिए धुन बना दीं हैं। आखिर वे टीन एजर थीं, लोग कैसे विश्वास करते ?

मेरा ये उत्सुक प्रश्न है, "क्या आपको उषा जी की 'दिल देके देखो' के गीत सुनकर ऐसा लगता है कि ओ. पी.नैयर जी व उषा जी इन दोनों की धुनों में कोई साम्य है ?"

पांडेय जी प्रकाश डालतें हैं, " यह बात सही है ओ. पी. नैयर उषा खन्ना जी के पिता मनोहर खन्ना जी के अच्छे मित्र थे और उषा जी को अपनी बेटी मानते थे लेकिन उन्होंने कभी उषा जी को धुनें बनाकर नहीं दीं. हो सकता है इनकी उम्र देखकर निर्माता इन पर विश्वास न कर पा रहे हों। सन 1959 में ओ. पी. नैयर ऊँचाइयों पर थे, यहाँ तक कि कई बड़े संगीतकारों ने भी उन्हीं की शैली में संगीत देना प्रारम्भ कर दिया था लेकिन उषा खन्ना जी की अपनी अलग स्टाइल थी, अच्छे पाश्चात्य संगीत का प्रयोग अपनी पहली ही फ़िल्म से प्रारम्भ कर दिया था । "

"ऊषा जी की सफ़लता में क्या उनके किसी असिस्टेंट का योगदान रहा है ?"

"हाँ, उनके असिस्टेंट एक बड़े गुणी संगीतकार थे - मास्टर सोनिक जो बाद में ओमी के साथ सोनिक - ओमी के रूप में आए । इसीलिए उषा जी का संगीत उनकी पहली फ़िल्म से ही बहुत परिपक्व था ।मास्टर सोनिक जन्मान्ध थे लेकिन म्यूज़िक अरेंजमेंट में लाजवाब थे और एस.डी. बर्मन, मदन मोहन, हेमन्त कुमार तथा रोशन के असिस्टेंट एवं अरेंजर रह चुके थे."

"इनके प्रथम रिकॉर्ड किये गीत कौन से थे ?"

' 'इन्होने जुड़वाँ गीतों को एक साथ रिकॉर्ड किया था। ये गीत थे ' मेघा रे बोले, मेघा रे बोले 'व 'बड़े हैं दिल के काले, ये नीली सी आँखों वाले। ' "

पूरे पांच वर्ष बाद सन १९६४ में 'शबनम 'में उन्हें दूसरा मौका मिला ---'तेरी निगाहों पे मर मर गए हम, बांकी अदाओं पे मर मर गए हम ', व ' मैंने रक्खा है मुहब्बत अपने अफ़साने का नाम, तुम भी कुछ अच्छा सा रख दो अपने दीवाने का नाम.' इन दो गीतों ने धूम मचा दी थी।

बाद में 'निशान', 'लाल बंगला 'के गीतों ने उन्हें बुलंदियों पर पहुंचाया चाहे ये फ़िल्म हिट नहीं हुईं थीं। उनकी संगीत प्रतिभा को दो छोर पर व्याख्यायित किया जा सकता है जैसे संगीत की परिष्कृत रूचि वालों के इस तरह के गीत हैं 'मधुबन ख़ुशबू देता है 'या, 'हम तुमसे जुदा होकर मर जाएंगे रो रो रोकर ' आँखों पे पलकों की घूँघट', 'आज तुमसे दूर होकर, ऐसे रोया मेरा प्यार। चाँद रोया साथ मेरे, रात रोई बार बार। ' आदि

उधर हलके फुल्के गीत ' तेरी अदाओं पे मर मर गए हम, बांकी अदाओं पे मर मर गए हम '.व 'शायद मेरी शादी का ख़याल ---'आम जनता में धूम मचाते रहे हैं।

" ऊषा जी ने किन रागों का प्रयोग अधिक किया है ?"

"उषा खन्ना जी ने कभी शास्त्रीय संगीत की ट्रेनिंग नहीं ली इसलिए उनका कोई विशेष प्रिय राग नहीं था लेकिन उनके बहुत से गीत पहाड़ी एवं भैरवी में बने हैं. हाँ उन्होंने फ़िल्म ‘स्वीकार किया मैंने’(१९८३) में शास्त्रीय गायिका हेमंती शुक्ला द्वारा एक अद्भुत लक्षण गीत के रूप में रागमालिका ‘भोर भई भैरव गुन गाओ’अवश्य गवाई जो ११ रागों पर आधारित है।इसमें इन रागों का परिचय देते हुए गायन है जो शास्त्रीय संगीत के विद्यार्थियों के लिए बहुत उपयोगी है ।"

" आपको उनके कौन सी रागों में स्वरबद्ध किये गीत पसंद हैं ?"

" उषा जी के गीतों में रागों की बहुत अलग किस्म की विविधता है और यही मुझे बहुत पसन्द है ।"

ऊषा खन्ना, मुहम्मद रफ़ी व आशा भोसले की तिकड़ी ने बहुत से हिट गीत दिए हैं। सावन कुमार टाक उस समय के मशहूर निर्माता, नर्देशक व गीतकार थे। इनकी बनाई ग्यारह फ़िल्मों में उषा जी ने संगीत दिया है। इनसे उनका विवाह भी हुआ लेकिन ये विवाह दूर तक चल नहीं पाया।

"रफ़ी साहब को भी इनके संगीतबद्ध किये किस गीत पर फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला था ?"

"जी हाँ, उन्हें फ़िल्म 'बृह्मचारी 'के गीत 'मैं गाउँ और तू सो जा 'के बाद उषा जी द्वारा संगीत बद्ध किये 'हवस 'के गीत 'तेरी गलियों में न रक्खेंगे कदम, आज के बाद। 'को छः वर्ष बाद फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। आप कह सकतीं हैं कि उषा जी के फ़िल्मी संगीत ने बुलंदियों छूआ है। "

"इन्होंने नशीले सुमधुर एरेबियन म्यूज़िक का प्रयोग जो गीतों की धुन बनाने में किया है उसके विषय में कृपया बताएं। "

" पहले भी कुछ संगीतकारों ने फ़िल्मी गीतों को अरेबियन धुनों में ढाला है। ऊषा जी ने फ़िल्म शबनम (१९६४) के एक गीत में अद्भुत अरेबियन संगीत दिया । मुहम्मद रफ़ी साहब का गाया वह गीत है ‘मैंने रखा है मोहब्बत अपने अफ़साने का नाम’ । इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘मैं हूँ अलादीन’(१९६५), ‘अलीबाबा एंड ४० थीव्ज़’ (१९६६) एवं अलीबाबा मरजीना (१९७७) में भी एरेबियन म्यूज़िक का प्रयोग किया ।"

"ऊषा जी स्वयं भी एक अच्छी गायिका हैं। इस विषय में आपका क्या अभिमत है ? "

"उन्होंने स्वयं के संगीत में तथा अन्य संगीतकारों के निर्देशन में अनेक गीत गाए हैं । उनके गाए हुए कुछ गीत हैं- आ जा ज़रा - मैं वही हूँ (१९६६), अल्लाह मेरी झोली में शबनम (१९६४), ऐ जान ए वफ़ा मैंने - निशान (१९६५), देखिए यूँ न शर्माइएगा - बिन्दिया (१९६०), दिल का लड़कपन शुरू - एक रात (१९६५), झुके जो तेरे नैना - कंगन (१९७२), लागे न मोरा - हम हिंदुस्तानी (१९६०), ख़ाक में मिला तो क्या - sagai (१९६६), मेरा छैला बाबू आया - फ़ैसला (१९६६), न कोई रहा है - जौहर महमूद इन गोवा (१९६५), शाम देखो ढल रही है - अनजान है कोई (१९६९), शबनम भी देखी - शबनम (१९६४), सुनो यह क्या कहता है मौसम - बहके कदम (१९७१), तेरा मेरा प्यार कोई - दादा (१९६६), तेरी ज़ात पाक है - मैं हूँ अलादीन (१९६५) आदि । दो गीत ऐसे भी हैं जिनमें उन्होंने केवल थोड़ी देर के लिए गुनगुनाया है - पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले - जॉनी मेरा नाम (१९७०) किशोर कुमार के साथ और फिर' आने लगा याद वही प्यार का आलम '- 'यह दिल किसको दूँ '(१९६३), रफ़ी साहब के साथ ।"

"उनके समकालीन संगीतकारों की तुलना में आप उन्हें संगीत रचना करने के लिए कौन सा ग्रेड देना चाहेंगे ?"

" उषा जी की फ़िल्में भले ही बी और सी ग्रेड रही हों पर उनका म्यूज़िक सदैव ए ग्रेड रहा है ।"

पाँच छः महीने की कोशिश के बाद मैं ऊषा जी से फ़ोन पर साक्षात्कार ले पातीं हूँ. मैं उषा जी से फ़ोन पर पूछतीं हूँ, "आपको बचपन से ही गाने का शौक होगा ? "

"जी बिलकुल, पापा बताते थे जब मैं तीन चार साल की थी तो वे रियाज़ कर रहे होते थे तो मैं भी उनके साथ सा रे ग म गाने बैठ जाती थी। वो कहते थे तू ने तो मेरी गोदी से ही अलाप लेना आरम्भ कर दिया था।"

"'आपने बाकायदा शास्त्रीय संगीत सीखा था ?"

" अलग से नहीं। मुझे पढ़ने का शौक नहीं था । मैं क्लास में गीत की किताब खोलकर गाना याद करती थी। यदि टीचर की नज़र पड़ जाए तो वे क्लास से बाहर कर देतीं। संगीत कक्षा में कुमुदनी मैडम कोई गीत सिखातीं तो मैं उनसे आगे की लाइन गाती जाती. वे नाराज़ होकर मुझे क्लास से बाहर कर देतीं थीं। "उनकी मधुर सी हंसी गूँज जाती है।

" आपकी पहली फ़िल्म 'दिल देके देखो 'के गीतों ने धूम मचा दी थी। उसके बाद आपको उम्मीद हुई होगी कि आपके सामने संगीत देने के लिए फिल्मों की लाइन लग जाएगी। हुआ विपरीत कि आपको कुछ वर्ष तक फिल्में नहीं मिलीं। वे वर्ष कैसे गुज़ारे ?"

वे बहुत जानदार ख़ुशनुमा आवाज़ में बतातीं हैं, "मेरे लिए भी ये बात बहुत शॉकिंग थी। मैं डिप्रेस्ड भी बहुत हो गई थी। मेरे पापा या मेरी फ़ितरत में नहीं था की किसी के दरवाज़े काम मांगने जाएँ। लोग विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि ऐसी प्यारी धुनें इतनी छोटी लड़की बना सकती है। तब मेरे पापा ने मुझसे कहा कि तुम गीतों की धुन बनाना नहीं छोड़ो, अपनी संगीत साधना में लगी रहो। ख़ैर, संगीत में डूबकर अवसाद ख़त्म हो गया। "

"आप जब धुन बनातीं थीं तो बहुत से वाद्यकार आपके साथ बैठते थे? "

"नहीं, मैं तो एक दो वाद्यकार के साथ गीतों को अपनी बनाई धुनों से सजाती थी । "

"आपको पुरुषों की दुनियां में एक स्त्री के बतौर संघर्ष करना पड़ा होगा ?"

"नहीं क्योंकि आरम्भ में तो मेरे पापा की मेरे ऊपर छत्रछाया थी। बाद में अकेली महिला संगीतकार होने के कारण मुझे लोग बहुत इज़्ज़त देते थे। '

"क्यों नहीं महिलायें फिल्मों में संगीतकार बनने का साहस कर पा र ही हैं या फिर आपकी तरह धूम मचा पा रहीं हैं ?"

"मैं स्पष्ट रूप से कारण नहीं बता सकती फिर भी ये क्षेत्र बहुत कड़ी मेहनत मांगता है। पहले घंटों बैठकर धुन बनाओ, कभी कभी छः सात घंटे खड़े होकर रिकोर्डिंग करवानी होती है। फिर प्रोडूसर्स से रुपयों के विषय में बातचीत आदि। सबसे मुख्य संगीतकार बनने की धुन व अनेक वाद्धकारों में सामजस्य बिठाने का हुनूर व उनकी नाराज़गी को सम्भाभालने का हुनूर। बहुत कठिन है इस क्षेत्र में काम करना। लड़कियां हीरोइन बनना पसंद करतीं हैं। बढ़िया कपड़े पहने, मेक अप किया व डाइरेक्टर के हिसाब से एक्टिंग कर दी। "

"आप अपने स्वास्थ्य की देख रेख कैसे करतीं हैं ? "

"मैं पहले एक घंटा घूमती थी लेकिन कोरोना के कारण वह बंद हो गया.मैं बहुत आलसी हूँ लेकिन भगवान की दुआ से मुझे कोई गंभीर बीमारी नहीं है। हां, थोड़ा पैरों में दर्द रहता है। "

ऊषा जी के विषय में एक और महत्पूर्ण जानकारी श्री के. एल पांडेय जी देते हैं, "किसी फ़िल्मी गीत में सिर्फ़ एक ताल हो ऐसे गीत बहुत कम बने हैं '.उषा जी ने वो भी कमाल करके दिखा दिया इस गीत को संगीतबद्ध करके -'गोरी तेरे चलने पर मेरा दिल कुरबां '.

सन 1998 'ख़ौफ़नाक महल ' सन 2003 – ' दिल परदेसी हो गया ' उनकी आखिरी फ़िल्में थीं जिनमें उन्होंने संगीत गीतों को संगीत दिया था। ये तय है कि पुरुष संगीतकार बिना समय की परवाह किये किसी भी समय प्रोड्यूसर्स से मिल सकते हैं लेकिन महिला होने की अपनी कुछ बंदिशें होतीं ही हैं फिर भी ऊषा जी इतने संगीतकारों के बीच स्त्री होते हुए भी फ़िल्मी गीतों की धुनें बनातीं रहीं। उनके विषय में सुना जाता है कि वे कम से कम दो गीतों की नियमित रूप से प्रतिदिन धुन बनातीं थीं । उनकी सफ़लता का यही राज़ हो।हिंदी, मलयालम, तमिल, तेलुगु, गुजराती फ़िल्म मिलाकर २५० फ़िल्मों के उन्होंने गीत संगीतबद्ध किये हैं ।

'मधुबन ख़ुशबू देता है, सागर सावन देता है 'येसुदास ने ये गीत गाया था। सभी जानते हैं ऊषा जी की बनाई इस धुन की सौंधी ख़ुशबू बहुत दूर तलक फैल गई थी. येसुदास के साथ उन्होंने पहली बार अनुपमा देशपांडे, सोनू निगम, हेमलता को फिल्मों में गीत गाने मौका दिया था। जिन्होंने बहुत लोगों का कैरियर बनाया है, वे बहुत विनम्रता से कहतीं हैं, "मुझे भी तो किसी ने बनाया है तो मैंने भी वही लौटाने की कोशिश की है। "

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श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail –kneeli@rediffmail.com