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अजंता भित्तिचित्रों पर उकेरी प्रेम की अद्भुत कहानी

(डॉ. नूतन पांडेय)

नीलम कुलश्रेष्ठ का उपन्यास `पारू के लिये काला गुलाब’ पाठक को पहली दृष्टि में एक रोमानी प्रेम कहानी सा लग सकता है लेकिन जैसे-जैसे पाठक इस उपन्यास के विविध पक्षों को गंभीरता से देखेंगे तो महसूस करेंगे कि ये सिर्फ एक सामान्य सी प्रेम कहानी नहीं है, जिसमें दो प्रेम करने वाले एक दूसरे को बेहद, बेइंतेहा प्रेम करते हैं बल्कि कई सन्दर्भों में यह अलग है, इन खास सन्दर्भों की चर्चा बाद में, लेकिन उससे पहले उपन्यास का एक अंश देखें - बड़ा ब्रश लिए फिर उन्होंने सामने बुद्ध की विशाल प्रतिमा को नजर भरकर देखा, कैसे गहन शांति उनके चेहरे पर फैली हुई थी | गिल की दृष्टि वहां से फिसलती हुई बुद्ध के चरणों के पास बैठी पारु पर पड़ी | वह अचरज से अपनी ठोड़ी पर हाथ रखे यहाँ से वहां तक आँखें फैलाये, उत्सुकता लिए इन्हें पेंटिंग करते देख रही थी | गिल को लगा कि जिस शांति को वे अपनी पेंटिंग में उतार नहीं पा रहे थे, वही कोमल सा कुछ जीवंत उनके सामने था, उनकी आत्मा को गहरा सुकून देता, उसके अन्दर उतरता हुआ, बुद्धं शरणम् गच्छामि ....कहता हुआ` |पेटिंग पूरी करके वह खुश हो पारू के पास पहुँच गए, वह सकपका कर खड़ी हो गई, वे उसका हाथ अपने हाथों में लेकर उसे हिलाते हुए गर्मजोशी से कहने लगे, `थैंक यू वेरी मच पारु ! वह बुरी तरह शर्मा गई, इस बलिष्ठ पुरुष के स्पर्श से उसके गाल दहकने लगे, मेजर अचरज से भर उठे, उन्होंने कितनी लेडीज़ से हाथ मिलाया है लेकिन इस स्पर्श से झनझनाता एक कोमल कौन सा तंतु है जो हाथों से सिहरता, रपटता सारे शरीर को झनझनाए दे रहा है |

देखा जाए तो यही अंश उपन्यास की कथा का मूल बिंदु है, जहाँ से कथा प्रारंभ होकर अपना वास्तविक विस्तार पाती है अपना उत्कर्ष भी और अपना चरम भी | हिंदी साहित्य में प्रेम पर उपन्यास लिखने की प्राचीन परम्परा रही है, और कई मायनों में नीलम जी का यह उपन्यास उसी कड़ी को आगे बढ़ाता है | कहानी को पढ़ते हुए अज्ञेय की उन पंक्तियों का स्मरण हो आया, जहां वे प्रेम भाव को विवेचित करते हुए कहते हैं कि 'प्रेम का कोई भी स्तर मूल्यवान है प्रेम में एक स्तर वह आता है, जहाँ दिख जाता है कि यह प्रेम तो इस और उस दो मानव इकाइयों के बीच नहीं, यह तो ईश्वर के एक अंश और ईश्वर के दूसरे अंश के बीच का आकर्षण है जिसकी ये दो मानव इकाइयाँ साक्षी हैं, पर कितना बड़ा सौभाग्य है ये, यों साक्षी होना, ईश्वर के साक्षात्कार से कुछ कम थोड़े ही है उसके दो अंशों के मिलन का साक्षात्कार |

नीलम जी ने अपने उपन्यास में एक ऐसी प्रेम कथा की सृष्टि की है, जिसे पढ़ते-पढ़ते पाठक उस उदात्त लोक में पहुँच जाता है, जहाँ से वह वापिस लौटना नहीं चाहता या ये कहें कि चाहकर भी लौट नहीं पाता। उपन्यास की कथा दो प्रमुख पात्रों- मेजर रॉबर्ट गिल और भील लड़की पारू के इर्द-गिर्द बुनी गई है, जिनका व्यक्तित्व परस्पर विरोधाभासी है, देश अलग है, रंग अलग है, सामाजिक स्तर और परिवेश भिन्न हैं, नस्ल भिन्न है, यहाँ तक कि दोनों की भाषाएँ अलग हैं, लेकिन इन सबके बावजूद दोनों के मध्य आकर्षण का एक ऐसा तंतु बुनता है जिससे दोनों की आत्माएं आपस में घुलकर जीवन भर के लिए बंध जाती हैं | काली भील लड़की का अनुपम सौन्दर्य एक फ़ौजी लेकिन कलाकार ह्रदय के अंग्रेज को इस कदर अपना बना लेता है कि इस चाहत और आकर्षण में बंधकर मेजर रॉबर्ट आगे बढ़ता जाता है और पीछे छूटते जाते हैं उसके अपने लोग, अपना परिवार, अपना देश, अपनी कला | उपन्यास में नीलम जी ने शाश्वत प्रेम की अद्भुत, अद्वितीय कहानी को शब्द दिए हैं जिसमें दिल की उस गहराई की अभिव्यंजना है, जिसे अक्सर लोग महसूस तो करते हैं, लेकिन व्यक्त नहीं कर पाते और कई बार न कुछ कह पाते हैं और न ही कुछ समझ पाते हैं, यही प्रेम की ख़ूबसूरती है, और प्रेम के इस डायनेमिक्स को जिस सादगी, सुंदरता और कुशलता से नीलम जी ने अभिव्यक्त किया है, वैसा हुनर हर किसी के पास नहीं होता | रॉबर्ट और पारू के प्रेम की यह गाथा सृष्टि के परम सात्विक मनोभाव की वह चरम अभिव्यक्ति है, जहाँ दोनों प्रेम में छिपे अध्यात्म जैसे एक दूसरे में समाहित हो जाते हैं और अजंता की सारी पेंटिंग्स उन्हें मुस्कुरा कर आशीर्वाद देने लगती हैं मानो वे समझ गई हों कि बौद्ध धर्म हो या कोई और, जीवन से पलायन मिथ्या है, सच है तो सिर्फ यही प्रेम |

उपन्यास का नायक रॉबर्ट गिल अंग्रेजी सेना में मेजर होने के साथ ही एक चित्रकार भी है जिसे ब्रिटिश सरकार ने अजंता की गुफाओं के चित्रों की अनुकृति बनाने के लिए नियुक्त किया है |मेजर चित्र तो बना लेता है लेकिन उसमें हूबहू वे रंग नहीं भर पाता जो अजंता के चित्रों में भरे गए हैं | दूसरी ओर पारू प्राकृतिक रंग बनाने में कुशल है, पूरे गाँव में उस जैसा रंग बनाने की दक्षता किसी और के पास नहीं है |लेखिका ने पारू के माध्यम से भारत में सदियों से छिपी उस प्रतिभा को सामने लाने का प्रयास किया है जो देश भर की उत्कृष्ट कलाकृतियों में प्रयोग में लाई जाती रही है | नईम, गिल और पारू के वार्तालाप के माध्यम से पाठकों को न केवल प्रकृति के विविध उपादानों से तैयार इन महान कलाकृतियों के अपूर्व रंग संयोजन और निर्माण की जानकारी मिलती है बल्कि लेखिका के रंगों के बारे में ज्ञान और कलात्मक रुचि का भी पता चलता है - नईम बोला दीज आर सैंड स्टोंस, अजंता की पेंटिंग्स यहाँ के पहाड़ों पर मिलने वाले अलग-अलग रंग के खनिजों को पीसकर बनाई गई हैं, अब देखिये पत्थरों का चमत्कार, पारू उन पत्थरों को एक मिटटी के खाली बर्तन के ऊपर आपस में घिसने लगी, नीचे पाउडर गिर रहा था, जब थोड़ा चूरा इकठ्ठा हो गया तब वह उसे एक लकड़ी की डंडी से हिलाते हुए उस पर पानी डालने लगी जब उसका पेस्ट बन गया तब उसने रंग में डूबे उस लकड़ी के सिरे से पास रक्खे कपडे पर एक लाइन खींच दी, उस कपडे पर चटख रंग की गेरुए रंग की लाइन उभर आई | रॉबर्ट खुशी से उत्तेजित हो गए और बोले –मुझे बुद्ध के शरीर पर रंग के लिए यही शेड चाहिए था, पारू नईम को समझाने लगी कि वह गन्ने के रस को जमीन में गाढ देती है और कुछ दिनों बाद जो रस बनता है उस रस में थोड़ा नमक और हल्दी पाउडर मिलाकर पीला रंग बनाती है, प्योधी याने पीले रंग के पत्थर से पीला रंग, सफ़ेद रंग के लिए चूने का प्रयोग, इन सबको पीसकर इसमें सिरका और नमक डालकर जिस रंग का शेड चाहिए वह बन सकता है |इसके अतिरिक्त काले अंगूर, टेसू तथा विभिन्न जंगली फूलों से भी रंग बनाये जा सकते हैं लेकिन फूलों से बने रंग कुछ दिन बाद अपनी चमक खो देते हैं | प्राकृतिक तरीके से बनाये गए रंगों के इन अद्भुत तरीकों से न केवल प्राचीन भारतीय कला की अकल्पनीय उत्कृष्टता की जानकारी मिलती है बल्कि उन कलाकारों की दक्षता और मौलिकता के समक्ष नतमस्तक होने का भी जी चाहता है जिसके कारण सदियों पूर्व निर्मित अजन्ता की गुफाएं विश्व प्रसिद्ध हुईं |

उपन्यास लिखने के लिए मिली प्रेरणा के विविध स्रोतों के बारे में नीलम जी ने अपनी भूमिका में विस्तृत उल्लेख किया है कि किस तरह उन्होंने 30 मई 1982 को धर्मयुग में लिखे कैलाश नारद का लेख 'पारू के लिए काला गुलाब’ पढ़ा और उससे उन्हें मेजर रॉबर्ट गिल और पारो के बारे में और अधिक जानने तथा उस पर लिखने की प्रेरणा मिली, लेखिका अपनी कम उम्र से ही इस कहानी से भावनात्मक रूप से इस कदर जुड़ चुकी थी कि एक लम्बे समय तक समय के विभिन्न अंतरालों में लेखिका ने विभिन्न स्रोतों से सामग्री एकत्र की फिर उसे उपन्यास का रूप दिया | लेखिका इस लेख से इतना प्रभावित हुई कि उसने अपने उपन्यास का नाम भी लेख के नाम पर रख दिया | इस उपन्यास के लिए लेखिका ने काफी मेहनत की है और इसके मूल स्वरुप को बचाए रखने में वे काफी सफल भी हुई हैं| यह भी सत्य है किपारू के जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों में अपनी कल्पना का प्रयोग करके उन्होंने कुछ परिवर्तन अवश्य किये हैं, लेकिन इस कल्पना से उपन्यास की मूल आत्मा को निश्चित ही नुकसान नहीं पहुंचता |

गूगल में जब आप रॉबर्ट और पारू के प्रेम के बारे में सर्च करेंगे तो पाएंगे कि वहां पारू को मेजर की रखैल के रूप में दिखाया गया है, जिसके दो बच्चे भी हैं, और इस बात को खुद लेखिका ने भी स्वीकारा है कि पारु के लिए मिस्ट्रेस शब्द उन्हें गाली सा लगा | प्यार की अनन्य ऊँचाइयों को छूने वाली इस कथा के यथार्थ को सिद्ध करने के लिए लेखिका के पास और भी बहुत सारी सामग्री है, जिससे उपन्यास की विश्वसनीयता बढ़ती है |लेखिका ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है- अपने पाठकों को ये बताते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है कि नेट पर उपलब्ध सामग्री और मराठी फिल्म से अधिक प्रामाणिक इस कहानी का खजाना मेरे पास है , इस लेख के रूप में | यह लेख सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफ़ेसर प्रकाश ताम्बरकर के गहन शोध के आधार पर कैलाश जी ने लिखा है जिससे मैं प्रमाणिक रूप से लिख रही हूँ कि गूगल में मेजर के जीवन के विषय में बहुत झूठ लिखा हुआ है | मेजर गिल के जीवन पर प्रमाणिक रूप से कोई भारत का इतिहासकार ही शोध कर सकता था क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग यहीं व्यतीत किया था |मराठी फिल्म अजंता की गुफाओं की जिस खोज से शुरू होती है उससे पहले भी ब्रिटिश फौजियों ने इनकी खोज कर ली थी | मेरे उपन्यास में प्रोफ़ेसर प्रकाश के शोध के आधार पर ये उल्लेख भी है | उपन्यास में वर्णित विविध प्रसंग और ऐतिहासिक तथ्य सिद्ध करते हैं कि लेखिका बहुत शोध करने के पश्चात् ही उपन्यास को पाठकों के सामने लाई हैं | उपन्यास की कई घटनाओं को तिथियों और साक्ष्यों के साथ प्रस्तुत किया गया है जिससे उपन्यास की ऐतिहासिकता स्वयं सिद्ध हो जाती है |

उपन्यास में रॉबर्ट और पारू का प्रेम आलम्बन रूप में है, लेकिन रॉबर्ट गिल के चरित्र को अपना प्रेम साबित करने के लिए लेखिका ने अधिक अवकाश दिया है और इसी वज़ह से रॉबर्ट प्रेम के पन्नों पर पारू से कहीं आगे निकलकर त्याग, बलिदान और समर्पण की नई परिभाषा गढ़ता है | रॉबर्ट गिल के लिए उसका 'प्रेम खाला का घर नहीं’ सिद्ध होता है | प्रिय से एकात्म होकर रॉबर्ट प्रेम की मुश्किल भरी पगडंडियों पर चलते हुए उस पराकाष्ठा तक जा पहुंचता है जहाँ प्रिय का वियोग न उसे जीने देता है न मरने, जीवन की लालसा से विहीन होकर वह निष्प्रयोजन जीवन जीने लगता है| पारू से अलग होने के बाद अपना समस्त जीवन पारू को समर्पित करके वह ये सिद्ध कर देता है कि प्रेम के ढाई आखर प्रेमी से बिछड़ने के बाद ही पढ़े जा सकते हैं | रॉबर्ट और पारू के प्रेम से गुजरने के बाद पाठकों को प्रेम की परिभाषा को नए सिरे से समझने का अवसर मिलता है और विचार करने पर विवश होना पड़ता है कि प्रेम के इन ढाई आखर में कौन समाया हुआ है ? ज़ाहिर है एक है प्रेम करने वाला और दूसरा वह जिससे प्रेम किया जाए , अब बचता है आधा जो सामान्य समझ से परे है, इस आधे को व्याख्यायित करते हुए ओशो कहते हैं कि दोनों के बीच में जो अज्ञात है वही आधा है लेकिन यह आधा इसलिए है क्योंकि वह आधा कभी पूरा नहीं होता, प्रेम करने वाला कभी तृप्त नहीं होता और इसीलिए उसका प्रेम पूर्ण से पूर्णतर होता जाता है | इसी आधे से राधा निकलती है, इसी आधे से मीरा, इसी से सोहनी महिवाल, हीर रांझा, लैला मजनू, गुलेरी के लहना या फिर रॉबर्ट और पारू निकलते हैं जो अजंता की भित्तियों पर प्रेम का अमर इतिहास रचते हैं | खास बात यह है कि रॉबर्ट और पारू का प्रेम अधूरा होने पर भी हमेशा के लिए जिन्दा रहता है, क्योंकि अधूरेपन में ही उसकी वास्तविक पूर्णता है, उसकी शाश्वतता है और पूर्णता में उसकी असल मृत्यु है | इसीलिए इन दोनों का प्रेम जितना पहले दिन था उतना ही अंतिम दिन भी बना रहता है क्योंकि आत्मा से जिसका संबंध है उसका कोई अंत नहीं |

उपन्यास में रॉबर्ट और पारू के प्रणय-प्रेम के चित्र बहुत ही भाव प्रवण हैं |नीलम कुलश्रेष्ठ जी इन प्रसंगों के माध्यम से रोमानियत का ऐसा कोमल वातावरण उत्पन्न किया है जिसकी छुअन को सिर्फ महसूस किया जा सकता है, पारू के निसर्ग सौंदर्य में खोया रॉबर्ट और रॉबर्ट के प्रेम में बिसरी पारू, दोनों के जीवन का सर्वस्व यही है, इससे आगे कोई जहान और नहीं – मशाल की पीली रोशनी में उसकी मादक आँखों में तैरते लाल डोरे गिल की आँखों से छिपे न रह सके | क्या था उन आँखों में- मादकता, आमंत्रण, समर्पण की अपरिमित चाह या यहाँ से वहां तक खुला आकाश ? अपनी बांहों में उन्होंने उस कोमल शरीर को घेर लिया| पारू का अपने हाथों से बनाया अनगढ़ जूडा खुल गया, जूड़े में लगा काला गुलाब दोनों के बीच महक रहा था |

परमात्मा की इस सृष्टि में प्रेम का एक चेहरा प्लेटोनिक क़िस्म का भी रहा है। दुनिया-भर का शाश्वत प्रेम साहित्य अपने प्लेटोनिक स्वभाव के कारण ही लोक की स्मृति में आज तक जीवित है। उपन्यास में प्रेम की अभिव्यक्ति किस हद तक प्लेटोनिक है, यह विश्लेषण का विषय हो सकता है क्योंकि एक तरफ तो उपन्यास की कहानी निस्वार्थ प्रेम के उस धरातल पर लिखी गई है जहाँ प्रेम अपनी अनंत ऊंचाइयों पर पहुँचकर प्रतिदान की कामना नहीं करता, लेकिन उपन्यास में एकाध प्रसंग ऐसे भी हैं जो प्रेम की निस्स्वार्थता पर प्रश्न चिह्न लगा सकते हैं, जैसे पारु खुद को मेजर को पूरी तरह समर्पित कर देती है सिर्फ इसलिए कि मेजर की पत्नी ने 'देसी ब्लैक नेटिव गर्ल’ कहकर उसका अपमान किया था | शायद इसीलिए पारू 'इस प्रेम को एक एक घूंट पीते हुए प्रेम की संतुष्टि का अहसास करती है और दिल ही दिल में अट्टहास करती है कि ...`गोरी मेम ! देखो, कहाँ हो, तुम्हारा गिल साहब इस काली लड़की के लिए पागल हुआ जा रहा है|’

उपन्यास प्रारंभ से अंत तक अजंता की मूर्तियों, कलात्मक रंगों, कूँची-कैनवस के मध्य इधर से उधर आवाजाही करता रहता है | नीलम जी ने उपन्यास में प्रेम कहानी लिखी नहीं बुनी है और अनुपम कारीगरी से कागज़ पर उतेरा है | शिल्प की बात करें तो संपूर्ण उपन्यास में भाव और भाषा की कसी हुई बुनावट देखने को मिलती है जो औपन्यासिक कला का उत्कर्ष कही जा सकती है| नीलम जी उपन्यास में स्थान –स्थान पर भारत की सदियों पुरानी विरासत, अतीत के गौरव, ज्ञान की लम्बी परंपरा और संस्कृति की श्रेष्ठता को सिद्ध करती चलती हैं जिससे उपन्यास का महत्त्व द्विगुणित हो जाता है | उपन्यास की एक और विशेषता ध्यान आकर्षित करती है कि यह उपन्यास मात्र शुद्ध प्रेम कथा नहीं है बल्कि उन्नीसवीं सदी की संस्कृति का दस्तावेज भी है जिसमें बिट्रिश सत्ता के दौरान घटित घटनाओं की सप्रमाण ऐतिहासिक झलक भी देखने को मिलती है । उपन्यास इन ऐतिहासिक घटनाओं के चित्रण में कहीं ज़रा भी सत्य से इधर उधर नहीं हुआ है, यह नीलम जी की सफलता कही जाएगी । नीलम जी ने उपन्यास में लार्ड मैकाले द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट में 2 फरवरी 1835 में दिए गए भाषण के अंश को उद्दृत किया है जो वर्तमान में भी बहुत ही चर्चित और विवादस्पद रहा है -मैंने सारा भारत भ्रमण किया, मुझे न एक चोर दिखाई दिया न एक भिखारी, यहाँ के लोग बहुत कर्मठ और महान मूल्यों वाले हैं |मुझे नहीं लगता कि हम इस देश को अपने कब्जे में कर सकते हैं, बस एक ही रास्ता है हम उनकी रीढ़ की हड्डी, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक सभ्यता व प्राचीन शिक्षा प्रणाली को तोड़ कर उनमें भ्रम पैदा कर दें कि ब्रिटिश सभ्यता उनकी सभ्यता से महान व बहुत ऊंची है तब ये अपना आत्म विश्वास खो बैठेंगे और हम लोग आसानी से इस देश को अपना गुलाम बना लेंगे |

यह नीलम जी की लेखनी की उपलब्धि ही कही जाएगी कि अजंता की पेंटिंग्स में रची बसी इस खोई सी ऐतिहासिक प्रेम कथा को उन्होंने पन्नों पर जीवंत कर दिया है और अपनी लेखनी के चमत्कार से मंत्रमुग्ध पाठक को डूबने के लिए छोड़ दिया है रॉबर्ट के अलौकिक प्रेम में, काली भीलनी के अप्रतिम सौन्दर्य में, प्रेम की आध्यात्मिकता में, अजंता की गुफाओं में, पारू के बनाये रंगों में, रॉबर्ट की बनी पेंटिंग्स में, गुफाओं के इतिहास में, भारत के अतीत में और प्रेम के प्रतीक काले गुलाब की भीनी सुगंध में | नीलम जी के उपन्यास को पढ़कर महसूस किया जा सकता है कि प्रेम की गली चाहे जितनी भी संकरी हो लेकिन उसको अनुभूत करने, उसे अभिव्यक्ति देने के लिए संपूर्ण आकाश खुला पड़ा है ।

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समीक्षा -`पारू के लिए काला गुलाब `[उपन्यास ]

लेखिका - नीलम कुलश्रेष्ठ

प्रकाशक -प्रलेक प्रकाशन, मुम्बई

पृष्ठ -142, मूल्य-हार्ड कवर - 495 रु, पेपर बैक -249 रु

समीक्षक –डॉ. नूतन पांडेय

सहायक निदेशक -केंद्रीय हिंदी निदेशालय, 

शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार

नई दिल्ली --110066

मो. न. –7303112607

e-mail –pandeynutan91@gmail.com

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