वाजिद हुसैन की कहानी
मे आई हैव योर अटेंशन, प्लीज़ (कृपया ध्यान दें) हम पंद्रह मिनट में मास्को हवाई अड्डे पर उतर रहे हैं। कृप्या अपनी सीट- बेल्ट बांध लीजिए, और इलेक्ट्राॅनिक उपकरण बंद कीजिए, धन्यवाद। ... ज़ेबा ने खिड़की से बाहर देखा। वे सफेद रूई की तरह चारों ओर फैले बादलों के बीच उड़ रहे थे। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि कुछ ही मिनट में वह मास्को पहुंच जाएगी। वह मास्को, जिसके बारे में उसने रशियन बुक्स में पढ़ा था, अपने परिचितों से सुना था और जिसके बहुत से चित्र भी देखे थे पर यह कभी नहीं सोचा था कि वह खुद एक दिन वहां जा पहुंचेगी। उसे लगा कि चमत्कारों का युग अभी ख़त्म नहीं हुआ है। महीने भर तक अपने एडमिशन का बेसब्री से इंतिज़ार करके, फिर पासपोर्ट, वीज़ा, विदेशी मुद्रा और इनकम टैक्स वगैरह की मुश्किलों से गुज़रकर तथा सेहत संबंधी सर्टिफिकेट प्राप्त करके अब वह वास्तव में रशिया की भूमि पर पैर रखने जा रही थी। ...उसने जो कुछ पढ़ा- सुना था उसके हिसाब से रशिया सुंदर देश था। परंतु वहां के लोगों के बारे में उसे संदेह था, बहुत संकोची होते हैं। हवाई जहाज़ के झटके से ज़ेबा का दिवास्वप्न भंग हुआ। विमान बादलों के नीचे उतर आया था... कुछ मिनट बाद वह ज़मीन से जा लगा और कस्टम के कमरों की तरह बढ़ने लगा।
हॉस्टल पहुंचकर ज़ेबा काफी देर तक खिड़की से लगी रशिया का अपना पहला नज़ारा देखती रही। शरद ऋतु की हल्की गर्म शाम थी और सामने के पार्क में लोग घूम- फिर रहे थे। ...ज़ेबा ने ख़ुद निकलकर घूमने का फैसला किया। ज़ेबा सोचती थी कि लोग उसकी साड़ी के कारण उसे घूर कर देखेंगे, जैसे बुलंदशहर में देखते थे लेकिन किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया। ... जब वह हाॅस्टल वापस लौटने लगी तो उसे अचानक एक अकेलेपन ने आ घेरा। उसे एहसास हुआ कि आज उसकी ज़िंदगी का शायद यह पहला दिन था, जब किसी ने उससे कोई बात नहीं की थी।...वह ख़ुद से पूछने लगी कि ऐसे मित्रहीन देश में क्यों आ गई है? ...बहुत जल्द उसकी ज़िंदगी एक क्रम में बंध गई, मेडिकल काॅलेज जाकर लेक्चर सुनना, कैफेटेरिया में लंच लेना, फिर और लेक्चर सुनना और घर वापस आना। अगर हॉस्टल को घर कहा जा सके तो, जहां साधारण दुआ- सलाम के अलावा कोई और बात नहीं की जाती...।
फिर एक दिन फ्रेशर्स पार्टी से निकली तो एक हैंणसम लड़के को अपनी ओर बढ़ते हुए देखा। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट थी, 'मैं आपके पास ही आ रहा था।' उसने अपनी बात पूरी की। मिस ज़ेबा, पार्टी में आपकी गज़ल़ बहुत पसंद आई, 'ऐसा लगा, सुनाने वाले के मुंह और सुनने वाले के कानों के बीच रूह का ताल्लुक है। फिर अचानक वह जज़्बाती होकर बोला, 'मुझे इतनी पसंद आई कि मैंने सोचा, अगर मैं ख़ुद जाकर आपकी हौसला अफज़ाई नहीं करता हूं, तो अपनी नज़रों में ही गिर जाऊंगा।' ...मैंने मुस्कुरा कर कहा, 'थैंक यू, पर मैं सोच रही थी कि इस देश में इस ग़ज़ल का कोई क़दरदान नहीं होगा।'
...'आपने ठीक ही सोचा था, पर आपके तरन्नुम और आपकी बेपनाह खूबसूरती ने गज़ल को चार चांद लगा दिए और ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।'
रियासत मेरे लिए मुकम्मल अजनबी था, मगर इस अजनबीपन में एक अजीब- सी जान पहचान थी, जैसे बरसों या शायद सदियों के बाद आज हम दोनों मिले हो।
दूसरी बार कैफेटेरिया में मुलाकात हुई और इस बार भी मुझे उसे बेगानगी के अंदर वही अपनापन हम दोनों को महसूस हो रहा था। यह पहली निगाह वाली मुहब्बत नहीं थी। एक अजीब- सी गहरी जान- पहचान का एहसास था, जो हमारे दिलों में उमड़ रहा था जैसे बहुत पहले वह कहीं मिले हैं, ख़ुशी और ग़म के ताने-बाने पर एक- दूसरे को परखा है। हम दोनों एक- दूसरे की हाथ की गर्मी को जानते हैं।...
हमें एक-दूसरे के करीब आते ज़्यादा देर नहीं लगी। कुछ ऐसा महसूस होता, जैसे बनाने वाले ने हम दोनों को एक- दूसरे के लिए ही था। दोनों स्वाभिमानी, मेहनती और सच बोलने वाले थे। न किसी से दबने वाले न किसी की बेजा खुशामद करने वाले और ऊपर से तुर्रा यह कि मेडिकल काॅलेज के चुने हुए स्कॉलरों में हमारा शुमार होता था। मैं रियासत से मुहब्बत करने लगी थी। वह भी मुझसे, पर उसने कभी इज़हार-ए- मुहब्बत नहीं किया था।
जब उसे पता चल गया कि मैं बुलंदशहर के बड़े फार्मर की बेटी हूं, वह मुझसे कतराने लगा था। जैसे-जैसे पढ़ाई पूरी होने के बाद वतन वापसी का समय करीब आ रहा था, वह मुझसे दूरी बढ़ाने लगा था। एयरपोर्ट पर उसने मुझे यह कहकर चौंका दिया, 'वह वापस नहीं जाएगा।' घर वापस न जाने का कारण पूछने पर उसने मुझे यह कहानी सुनाई।
मेरे पापा मौत के फरिश्ते को चकमा देने में माहिर थे। उनके बारे में बरेली के लोग कहते थे,'यदि मौत के फरिश्ते ने हर्ट अटैक के मरीज़ की रूह निकालने में देरी की और इस बीच नासिर अली मरीज़ को कृत्रिम श्वसन देने लगे, तो उसे खाली हाथ ही लौटना पड़ता था। पापा डॉक्टर सतनाम सिंह के क्लीनिक में कंपाउंडर थे। वह रोगी को आर्टफिशिल रेस्परेशन देते समय उनसे सहयोग लेते थे। इस तरह पापा इस कला में निपुण हो गए थे।
लोग पापा को 'मरो वो का डॉक्टर' कहते थे। वह मन-ही-मन कुढ़ते, 'लोग नीम हकीम डाॅक्टर को भी डाॅक्टर साहब कहते है, जिस कंपाउंडर ने कई जान बचाईं, उसकी खिल्ली उड़ाते हैं।' अत: उन्होंने मुझे डॉक्टर बनाने का निर्णय लिया और मुझ पर डॉक्टरी की एंट्रेंस परीक्षा पास करने के लिए दबाव बनाने लगे। मैं बी.एस.सी पास करने के बाद अपने शोहदे मित्रों के साथ स्कूल जाती लड़कियों को तकने में व्यस्त रहता था, एंट्रेंस परीक्षा कैसे पास करता? पापा बैक फुट पर जाने वालों में से नहीं थे। अतः उन्होंने मुझे डाॅक्टरी की पढ़ाई के लिए रशिया भेजने का मन बनाया। उनके पास विदेश में पढ़ाई करने लायक धन नहीं था। अतः उन्होंने अपना घर गिरवीं रखकर बैंक से रुपया उधार ले लिया और मुझे बाहर पढ़ने भेज दिया। वह जीवन यापन और सेमिस्टर फीस भरने के लिए कठिन परिश्रम करते थे। इस उम्मीद से कि वह डाॅक्टर साहब के वालिद के नाम से से जाने जायेंगे। पापा की उम्मीद पर पानी फिर जाएगा, जब उनका बेटा उस इश्क़ की ख़ुमारी में डूबा रहुंगा, जो कभी परवान नहीं चढ़ेगा...। फिर रूंधे गले से कहा, 'यहां तुम्हारे साथ बिताए पल ज़िंदगी रौशन करने के लिए काफी है।'
उसकी दर्द भरी दास्तान सुनकर मैं बस इतना बोल पाई, 'अभी अलविदा न कहो, न जाने किस मोड़ पर फिर मुलाकात हो।' और हवाई जहाज़ में बैठने चली गई।
एयर होस्टेस ने खाना सर्व किया जो मुझसे खाया नहीं गया। मुझे लगा, मैं उस पक्षी की तरह हूं, जिसका जोड़ीदार बगिया में एक डाल पर बैठा, गीत गाकर उसे लुभा रहा था और पलभर में उसे बहेलिए ने पड़कर पिंजरे में बंद कर दिया।
बुलंदशहर में विलासिता से भरपूर सुसज्जित कोठी में रात को बेड पर करवटें बदलती, मैं सोचती, 'काश ज़ेबा मिडिल क्लास की होती तो अपनी मुहब्बत से महरूम न होती।'
मेरा गुमसुम चेहरा और मेरी आखों के सूजे पपोटे देख मम्मी मेरा हाले- दिल जानने का असफल प्रयास करती थीं। एक दिन मेरी असहनीय पीड़ा देख मेरे सामने आंचल फैला कर खड़ी हो गई, 'तुझे अल्लाह का वास्ता, अपना ग़म दुखियारी मां की झोली में डाल दे। मैं तेरी खुशियों के लिए कुछ भी कर गुज़रूंगी। और मुझे उन्हें सब कुछ बताना पड़ा। मां सोच में पड़ गई, 'ज़ेबा के पापा ने अपनी इकलौती बेटी को लेकर सपने सजोऐ हैं, वह उन्हें एक कंपाउंडर के बेटे से शादी के लिए कैसे मना पाएगी?'
नासिर अली बहुत ख़ुश थे, उनके बेटे ने डॉक्टरी की परीक्षा पास कर ली। वह बेटे से घर लौटने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे पर उसके मैसेज ने उन्हें चौका दिया, 'मेरा इंडिया में कोई फ्यूचर नही, इसलिए यहीं सेटल हो गया हूं।'
नासिर अली की बेबसी ने उन्हें पत्नी की तस्वीर से बातें करने पर मजबूर कर दिया, 'रियासत मुझे अकेला छोड़कर चला गया। तुम होतीं तो ऐसा नहीं करता।' बैंक के नोटिस ने उसकी चिंता और बढ़ा दी थी क्योंकि पढ़ाई के लिए बैंक से उधार लिया रुपया और ब्याज मिलकर घर की कीमत के बराबर हो गया था। उनके सोने- चांदी के आभूषण, तांबे पीतल के बर्तन भी बिक चुके थे।
खाट पर रियासत अली बेचैनी से करवटें बदल रहे थे। जिस घर में उनका जन्म हुआ, पले-बढ़े, अनक़रीब उस घर के दरवाज़े पर डुगडुगी बज रही होगी ओर नीलामी की बोली लग रही होगी। उन्होंने इस हक़ीक़त को समझ लिया था कि वह अपने आप में सीमित हो जाए और आने वाले मुश्किल दौर का इंतिज़ाम कर ले। बुढ़ापे को लेकर उनकी ख़्वाईश कोई बहुत ऊंची नहीं थी। वह तो किसी ऐसी जगह जाना चाहते थे जहां कोई रिश्तेदार या दोस्त न हो। उनकी आत्मा तो काम- धाम करके बुढ़ापा काटने को लालायित रहती थी। उन्हें सुनिश्चित खाना, रिहाईश और ख़ुशगवार संगत के ज़िंदगी के दिन चाहत का मूल दिखाई देते थे। जिसमें वह सुरक्षित रह सकते थे। उन्हें उन व्यवस्थाओं से घृणां थी जो शहर के आश्रितों के लिए दान पुण्य के नाम पर की जाती है। रियासत अली की राय में ऐसे नागरिक और खैराती संस्थाओं का तो अंत ही नहीं था जहां वह जा सकते थे और सादे जीवन के अनुसार रहना-खाना पा सकते थे लेकिन रियासत अली के स्वाभिमानी मन को दान के उपहार बोझ समान लगते थे। वहां परोपकार के हाथों जो लाभ मिलते थे, उसका भुगतान आपको पैसे में नहीं तो शर्मसार होकर करना पड़ता है। दान की हरेक शैया के साथ गुसल होता है और रोटी के हरेक टुकड़े के साथ एक निजी जीवन से संबंधित पूछताछ की भरपाई होती है।
उन्होंने एक झोले में अपना सामान रखा और अनजाने सफर पर निकल पड़े। इस सफर में गली का कुत्ता उनका साथ निभा रहा था, जिसे वह बची-कुची रोटियां खिला देते थे पर अगली गली के कुत्तो ने उसे लहूलुहान करके उनका साथ छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
बस स्टैंड पहुंचकर सामने खड़ी बस में बैठ गए। अल सुबह बस हापुड़ के पास एक ढाबे पर रुकी। किसान आंदोलन चरम पर था। ढाबे के आस-पास ट्रैक्टर ट्रालियां खडी थी, जिसमें मज़दूर तबक़े के आंदोलनकारी बैठे हुए थे। बड़े फार्मर्स और नेता तो लंबी चौड़ी गाड़ियों में थे।
उनकी बस के यात्री ढाबे में चाय- नाश्ता करने चले गए और वह प्रेयर रूम में नमाज़ पढ़ने चले गए। वहां बुलंदशहर के बड़े फार्मर और किसान नेता सफदर यार ख़ां थे। वे अपने क़ाफिले के साथ किसान आंदोलन में शरीक होने जा रहे थे। अचानक अफरा-तफरी का माहौल हो गया। ख़ां साहब गिर पड़े और ख़ुद सांस नहीं ले पा रहे थे।
उनके सिमटम देख नासिर अली समझ गए, 'इन्हें हर्ट अटैक पड़ा है।' उन्होंने खां साहब को फर्श पर सीधा लिटाया। उनके कपड़ों को ढीला करके गर्दन के पीछे कंधों के बीच तकिया लगाया। सिर पीछे को नीचा हो गया तो मुंह से मुंह श्वसन देने लगे। समय रहते उनके फेफड़ों में स्वच्छ एवं ताज़ा वायु का आना-जाना शुरू हो गया और दम घुटने से बच गया। ठीक होने के बाद ख़ां साहब ने घर वापस जाने का मन बनाया और नासिर अली से साथ चलने की रिक्वेस्ट की क्योंकि उन्हें अंदेशा था, हर्ट अटैक रिपीट हो सकता है।
नासिर अली उनके साथ चलने के लिए राज़ी हो गए और बस में अपना बैग लेने गए पर बस जा चुकी थी। बैग चले जाने से उन्हें सदमा पहुंचा। उन्होंने ग़मगीन होकर खां साहब से कहा, 'मेरे कपड़े, दवाईयां और न जाने क्या-क्या बैग में था।'
खां साहब ने उनसे कहा, 'फिक्र मत कीजिए, मेरी बेटी अभी रशिया से डॉक्टरी पढ़कर आई है। वह आपको दवाई दे देगी।
'नासिर अली ने कहा, 'जेबा आपकी बेटी है?'
'आप कैसे कैसे जानते हैं?' ख़ां साहब ने आश्चर्यचकित होकर कहा।
मेरे बेटा रशिया में पढ़ता था। एक बार वह बीमार हो गया था। तब उसने मुझसे कहा था, 'बुलंदशहर की एक लड़की ज़ेबा मेरे साथ पढ़ती है। वह मेरी तीमारदारी करती है और खाने-पीने का भी ख़्याल रखती है।
'रियासत अली आपका बेटा है? ज़ेबा ने ज़िक़्र किया था, बहुत ख़ुद्दार है, शायद इसी वजह से रशिया में सेटल हुआ है।'
बातों ही बातों में ख़ां साहब और नासिर अली को ऐसा लगने लगा, जैसे वर्षों पुरानी जान पहचान है और मुलाक़ात दोस्ती में बदल गई। घर पहुंच कर ख़ां साहब ने ज़ेबा को यह कह कर चौका दिया, 'मैंने तुम्हें फोन पर बताया था, हर्ट अटैक के समय जिस फरिश्ते ने मुझे बचाया था, यह वही हैं। यह इत्तेफाक है कि यह तुम्हारे दोस्त रियासत अली के पापा हैं। यह मानवता की मिसाल है। बस में इनका बैग रखा था, जिसमें रुपया, कपड़े और दवाई थी। यह मेरी जान बचाने में लगे रहे, बैग की परवाह न की जो बस में चला गया। आप इनका चेक अप करके दवाई दीजिए। फिर अपने साथ कपड़े और ज़रूरी चीज़ें दिलवाने ले जाईये।
ज़ेबा की खुशियों का ठिकाना न रहा। उसने फोन पर रियासत को यह खुशखबरी सुनाई। रियासत ने मज़ाक़िया लहजे में कहा, 'किसी फिल्म की स्टोरी सुना रही हो।' और वह ज़ेबा के घर आ गया।
ख़ां साहब और नासिर अली जान चुके थे, उनके बच्चे एक- दूसरे से मुहब्बत करते हैं। उन्होंने मुहब्बत को अंजाम तक पहुंचाने का निर्णय लिया। खुशी के तराने बजने लगे। कुछ दिनों बाद उनके दरवाज़े पर शहनाई बजने लगी और धूम-धाम से ज़ेबा और रियासत की शादी हुई।
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