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लिव-इन - रिलेशनशिप

फ्रेंडशिप कॉन्ट्रेक्ट व विवाह में क्या अन्तर है

नीलम कुलश्रेष्ठ

13 अप्रैल 2015 को जस्टिस एम. वाय. इक़बाल और जस्टिस अमिताभ रॉय की बेंच ने 'लिव इन रिलेशनशिप' में रहने वाले परिवार में हो रहे विवादों को देखकर ये फैसला सुनाया कि अगर कोई भी अविवाहित जोड़ा लम्बे समय तक एक साथ यानि लिव इन में रहता है तो सुप्रीम कोर्ट उसे शादीशुदा जोड़े की मान्यता दे देगा। यही नहीं, अपने साथी की मौत के बाद महिला उसकी संपत्ति की भी कानूनी हकदार होगी। बेंच के मुताबिक, ‘स्त्री-पुरुष के लंबे समय तक साथ रहते हैं तो महिला को उसकी रखैल नहीं, बल्कि पत्नी माना जाएगा। इसमें परिवार के सदस्यों ने अपने दादा की संपत्ति में उनके साथ बीस साल तक रहने वाली महिला को दावेदार मानने से इनकार कर दिया था। जरूरत पड़ने पर कानूनी रूप से अविवाहित साबित करने की ज़िम्मेदारी प्रतिवादी पक्ष की होगी। सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला चौंकाने वाला व सही था. शायद अब ये बात अभी तक स्पष्ट नही है कि राजेश खन्ना के साथ लंबे समय तक रह रही महिला अडवानी को उनकी संपत्ति में क्यों नही हक मिला. 

व दूसरे प्रदेशों में भी मैत्री करार होने लगे थे. लोग आज भी इसमे व लिव -इन- रिलेशनशिप में कोई ख़ास बहुत से लोगो को ये भ्रांति है कि मैत्री करार व लिव- इन -रिलेशनशिप एक ही बात है. बीसवीं सदी के आठवें दशक के अंत में अहमदाबाद में " फ़्रेंडशिप कॉन्ट्रेक्ट '[मैत्री करार]का बोलबाला था. जो इस शहर से दूसरे शहरों तक फैल रहा था फ़र्क नहीं समझते. ये सच है विवाह भारत में क्या विदेशों में भी एक धार्मिक अनुष्ठान है. इसमे भी स्त्री सुरक्षित नहीं थी तो कड़े क़ानून बनाए गए. विवाह क्या है ये सब जानते हैं. ज़रूरत है कि बाकी दोनों रिश्तों की विस्तृत चर्चा की जाए. 

सन् 1981 में अहमदाबाद में ही साढ़े तीन हज़ार मैत्री करार करने वालों की संख्या थी तो गुजरात में ऎसे जोड़ों की संख्या कितनी होगी. ये अनुमान ही लगाया जा सकता है. वैसे भी कुछ लोग 'गंधर्भ विवाह' की तर्ज पर 'सौगंधनामा' करके साथ रहते चले आ रहे थे. कहना ये चाहिए कि ये अवैध रिश्ता मैत्री करार, 10 रुपये के स्टैंप पेपर पर हस्ताक्षर करके एक कानूनी ढाल के रुप में शहर के रजिस्ट्रार के ऑफ़िस से मिलता था. रजिस्ट्रेशन एक्ट 1908 के अनुसार दो व्यक्तियों के बीच मित्रता प्रामाणिक है चाहे वह् स्त्री या पुरुष के बीच हो. इस शपथपत्र पर लिखना पड़ता था कि पुरुष या स्री विवाहित है या अविवाहित व उनके कितने बच्चे हैं. इसमे ये लिखना भी आवश्यक होता था कि ये दोनों कितने महीने या कितने वर्षो तक साथ रहना चाहते हैं. 

ये करार अलग अलग विवाहित या एक विवाहित, दूसरा अविवाहित आपस में करार कर रहे थे. गुजरात के एक विधायक ने विधान सभा में इसके विरुद्ध मोर्चा खोला कि यहाँ दिन ब दिन मैत्री करार बद्ते जा रहे हैं. हिंदू मैरिज एक्ट के अनुसार मैत्री करार गैर कानूनी माना गया. जब पुरुषों ने इन स्त्रियों को छोड़ा और संतान उत्पन्न हो गई जिन्हें कोई वैधानिक अधिकार नही था तब स्त्री संस्थाओं के शोर मचाने पर इस पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया. 

मैत्री करार के सम्बन्ध में पुरुषों का ये कहना था कि कोई स्त्री अपनी मर्ज़ी से हमारे साथ रहने आ जाती है फिर एक दो वर्ष होते ही हमसे दो तीन लाख रुपया अलग होने का माँगने लगती है इसलिए अहमदाबाद के वकीलों ने ये कानूनी रास्ता निकाला था कि हम प्रमाणित कर सके कि ये स्त्री अपनी मर्ज़ी से हमारे साथ रहने आई है. मैत्री करार पर प्रतिबंध लगते ही विवाहेतर सम्बन्ध रखने की चाहत वाले पुरुषों ने 'सेवा करार '[सर्विस कॉन्ट्रेक्ट ]का रास्ता निकाल लिया जिसमे दर्शाया जाता था कि स्त्री नौकर की हैसियत से साथ में रह रही है. 

कानून स्नातक इन्दु मित्तल व उनके पिता श्री अहमदाबाद हाई कोर्ट के वकील व प्राइवेट डिटेक्टिव श्री पी. आर. अग्रवाल जी के अनुसार, " अभी तक हमारे देश में लिव- इन- रिलेशनशिप के लिए कोई भी कानून नहीं बना है. समय समय पर कोर्ट्स ने जो अपने निर्णय सुनाये है उन्ही के आधार पर कुछ बातें की जा सकती हैं. क़ानून के अनुसार जो जोड़े विवाह के लिये सक्षम हैं लेकिन फिर भी बिना विवाह के साथ रह रहे हैं इसे ही 'लिव -इन -रिलेशनशिप कहा जाता है. बस वे वयस्क हों, मानसिक रुप से अस्थिर ना हों, ना किसी और से विवाहित हों, ना तलाकशुदा हों. केप्ट या अनैतिक संबंधों को इस रिश्ते में नहीं गिना जाता. जब ये दोनों अनेक वर्षो तक एक दूसरे के साथ रहते हैं तभी इसे लिव –इन- रिलेशनशीप माना जाता है ना कि एक दो वर्ष साथ रहे, फिर अलग हो गए. 

ये जीवन शैली बरसो से नैतिक व अनैतिक के विवाद के घेरे में है फिर भी लोग, अधिकतर महानगरों में ऎसे रह रहे हैं. जो लोग शादी का बोझ नही ढोना चाहते वे बंधनों से मुक्त ये जीवन चुनते हैं. लंबे समय तक साथ रहने के बाद कोई साथी अपने दूसरे साथी की मुसीबत में जब साथ नहीं देता तो कोर्ट उसे न्याय दिलवाता है. 

-सब से पहले १९७८में बद्रीप्रसाद के केस में सुप्रीम कोर्ट ने लिव -इन -रिलेशन को मान्यता दी ।

-फिर १९८५में आँध्र हाईकोर्ट ने अंबिका प्रसाद के केस में इसे बहाल किया।

-२००१में पायल शर्मा के केस में सुप्रीम कोर्ट ने बहाली दी।

-सन २००३में जस्टिस मल्लिकानाथ की कमेटी ने लिव -इन रिलेशन को शादी जैसा दर्ज़ा देने की सिफ़ारिश की

-ये बात और है कि अभी तक इस को कोई क़ानूनी दर्ज़ा मिला नहीं है।

-२००६ में घरेलु हिंसा का जो क़ानून बना उस में लिव -इन रिलेशन में रहने वालीऔरतों को भी क़ानूनी पत्नी को मिलने वाले सुरक्षा के अधिकार दिए गये।

-२००८ में सुप्रीम कोर्ट ने लिव -इन रिलेशन शिप से जन्म लेने वाले बच्चों को क़ानूनी शादी से जन्म लेने वाले बच्चों जैसे अधिकार दिए. 

-जैसे कि गुज़ारा भत्ता-पिता की मिलकियत में हक़, हिस्सा लिव इन रिलेशन को कोर्ट्स के फ़ैसलों के तहत जो बहाली मिली, उसके चलते -घरेलू हिंसा के क़ानून के तहत औरतों को -  जीवन निर्वाह भत्ता पाने का हक, शारीरिक, मानसिक, अन्य त्रासदी से मुक्ति एवम् सुरक्षा का हक़, घर में निवास का हक़ आदि मिले ।

-क्रिमिनल प्रोसिजर कोड की धारा १२३के तहत परिणित पत्नी को जो मेन्टेनन्स का हक़ मिलता है, ऐसा हक़ लिव –इन- रिलेशन शिप में नहीं मिलता क्योंकि लिव इन रिलेशन में कोई क़ानूनी बंधन नहीं होता, इस लिए लिव इन के साथियों को अलग होने के लिए तलाक़ जैसी कार्यवाही नहीं करनी होती ।

-एक ऐसी चर्चा भी है कि लिव इन सिस्टम बहु पत्‍‌नी प्रथा को बढ़ावा देती है, जिस से इसे क़ानूनी बहाली नहीं देनी चाहिये पर ये बात सही नहीं है, क्योंकि कि लिव इन रिलेशन को क़ानूनी मान्यता तभी मिलती है जब क़ानूनन पति-पत्नी बनने की क़ाबिलियत रखने वाला युगल अविवाहित हो लिव -इन रिलेशनशिप में हो और तभी क़ानून उनकी सहायता करता है ।

लंबे समय तक समर्पित रुप से साथ रहने वाले लोगों को अन्याय से बचाने के लिए ही इसे क़ानूनन मान्यता दी गई है।

सबसे महत्वपूर्ण मुददा ये है कि इस तरह लिव इन रिलेशनशिप को बहाली दे कर क़ानून बायगेमी या एडल्टरी को प्रोत्साहन नहीं देता है।"

कवयित्री व एजी ऑफिस की अकाउंट ऑफिसर मल्लिका मुखर्जी बहुत अच्छी तरह विवाह व लिव इन रिलेशनशिप का विश्लेषण करती हैं, "कुछ आदिवासी समाज में पहले से ये रिलेशन चला आ रहा है. आबूरोड और आसपास के गुजरात क्षेत्र में बसे आदिवासी अंचल में यह परंपरा सैकड़ों वर्ष पुरानी है। यहाँ सियावा में युवा एक-दूसरे को पसंद करते हैं और भाग जाते हैं। इसकी सूचना अपने परिजनों को भेज देते हैं। यदि परिजन सहमत होते हैं तो 15-20 दिन में उनकी शादी करवा दी जाती है। यदि असहमति हुई तो उन्हें गाँव के बाहर ही रहना पड़ता है। वे साथ-साथ रहते हैं। उनकी संतानें होती हैं। उनकी संतान बड़ी होकर खुद विवाह योग्य होती है तब वह पहले अपने माता-पिता की शादी करवाते हैं। इसके बाद उनके रिश्ते को समाज भी स्वीकार कर लेता है।

व्यक्तिगत रूप से मैं ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ के पक्ष में नहीं हूँ फिर भी मैं सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत करती हूँ और इस के पक्ष में अपने तर्क रखना चाहती हूँ।

• बदलती परिस्थियों के साथ ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ को रोक नहीं सकते। महानगरों में इस तरह के रिलेशनशिप सामान्य इसलिए है कि बड़ी तादाद में लड़के-लडकियाँ पढ़ने या काम करने यहाँ आते हैं। रहने की असुविधा एवं आर्थिक मुश्किलों से निपटने के लिए यह रास्ता चुनते हैं। फिर धीरे धीरे आपसी सहमति से सेक्स एवं अन्य जरूरतों को पूरा करने में लग जाते हैं। लम्बे समय तक साथ रहें तो प्रेम के साथ विवाह कि संभावना पैदा होती है।

• कोई महिला जब ऐसे रिश्ते में बँधती है तब उसका अंतिम लक्ष्य विवाह ही होता है। ऐसे रिश्तों में सामाजिक सुरक्षा नहीं होने के कारण इस तरह के संबंध टूटने पर या साथी की मौत हो जाने पर महिला को कष्ट उठाना पड़ता है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लिव-इन को 'वैवाहिक संबंधों की प्रकृति' के दायरे में लाने के लिए और उनसे जन्मे बच्चों की रक्षा के लिए कानून बनाए जाने की जरूरत है।

• सुप्रीम कोर्ट इस रिश्ते को बढ़ावा देने के पक्ष में नहीं है पर ऐसे रिश्तों में रह रही महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा के पक्ष में है। -इन को भारत में स्वीकार नहीं किया गया जबकि कई देशों में इसे मान्यता हासिल है।यह फैसला उन पुरुषों के लिए एक झटका है जो सिर्फ महिलाओं की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना चाहते हैं।

वैसे सुप्रीम कोर्ट साल 2010 से ही इस कानून के समर्थन में है। सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में अपने फैसले में ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ में रहने वाले कपल के मामलों में महिला को पत्नी का अधिकार दिया है।" कहकर मल्लिका ने अपनी बात समाप्त की. 

कोर्ट का ये निर्णय स्वागत योग्य है कि एक युवक के साथ इस रिश्ते में रहने वाली लड़की ने अपने साथी पर रेप का आरोप लगाया लेकिन कोर्ट ने उस लड़के को बरी कर दिया. ये तो लड़की को स्वतंत्र रुप से उसके साथ रहने से पहले सोचना चाहिये. कहने का अर्थ है कि कोई कानून ना होने से हर केस में ये जज की मानसिकता की मेहरबानी है कि वह् किसके पक्ष में निर्णय दे. यदि इनकी अधिकता बढ़ती गई तो हो सकता है कि गे के लिए धारा 277 लाने की तरह कानून कोई धारा बनाकर लिव -इन को सीधे ही कानूनी सुरक्षा दे. 

समय समय पर इन रिश्तों की चर्चा साहित्य में होती रही है जैसे कि शरद सिंह ने अपने उपन्यास 'कस्बाई सिमोन 'में एक छोटे शहर में लंबे समय से रह रहे एक जोड़े पर लिखा है. जयंती की इस विषय की कहानी में लड़के का मित्र आकर लड़की की ज़ुल्फों से खेलने लगता है जैसे कि वह् कोई साझा प्रॉपर्टी हो. कांकरोली[राजस्थान ] से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ' संबोधन '[संपादक -कमर मेवादी ]ने भी लिव -इन -रिलेशनशिप पर विशेशांक निकाला था कि युवा इसके सब पहलुओं को समझ सकें. 

जो उत्साही युवा इस रिश्ते में रहना चाहते हैं वे साहित्य के इन आँकलन को पढ़ें कि क्यो शादी दो लोगों के साथ रहने की सर्वोत्तम व्यवस्था है जिसमे व्यक्ति पीढ़ी दर पीढ़ी स्नेह् के बंधनों की डोरियों में बंधा रहता है. उनके सामने उदाहरण है अमेरिका के हॉलीवुड के सितारे ब्रेड पिट व अंजेला जौली का जो बरसों से लिव इन में साथ रह रहे है. . उनके छ;; बच्चे है फिर भी इतने वर्षो बाद वे शादी के बंधन में बंध गए क्या नहीं था उनके पास धन दौलत --शोहरत --सच्चा प्यार. ?फिर समाज के बनाए नियमों की वो कौन सी मानसिक सुरक्षा थी जो उन्हें विवाह के बंधन में बंधने को प्रेरित कर रही थी. ये बात और है कि ना जाने क्यों उन्होंने तलाक ले लिया. 

ऋग वेद के अनुसार सबसे पहला विवाह शिव पार्वती का था. मनीषियों ने बहुत सोच समझकर एक पुरुष व एक स्त्री के साथ रहने की व्यवस्था को धार्मिक अनुष्ठान करके विवाह के रुप में प्रस्तुत किया था. बाद में इसे और कानूनी सुरक्षा दी गई. सोचने की बात है जब भी लिव -इन -रिलेशनशिप की बात चलती है तो कोर्ट हमेशा इसे शादी का दर्ज़ा देने की बात करता है तो युवा क्यों इस उलझी हुई रहने के व्यवस्था को अपनाना चाहते हैं जहाँ कानूनी रुप से लौट फिरकर कोर्ट को शादी के क़ानून खंगालने पड़ें और जिसमे हर समय स्त्री या पुरुष अपने को असुरक्षित महसूस करे. 

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नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail. com

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