अमृत या विष ? उषा जरवाल द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अमृत या विष ?

अमृत या विष ?

आज सुबह जल्दी ही घर का सारा काम निपटा लिया था क्योंकि स्कूल से आते ही तीन बजे की ट्रेन से मुझे दिल्ली के लिए निकलना था |  नेहा मेरी दोस्त है जो एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती है | आज उसे ‘विशिष्ट प्रबंधक’ का अवार्ड मिलने जा रहा है | हम दोनों ही बचपन से साथ – साथ पढ़े हैं | ग्रेज़ुएशन के बाद दोनों की दिशाएँ अलग हो गई | मुझे मेरे पापा की तरह शिक्षक बनना था और उसे किसी बड़ी ब्रांड का मैनेजर | लोगों के अनुसार उसमें एक कमी थी कि वह किसी के जी – हजूरी नहीं कर सकती थी | मेरी नज़र में यही उसकी खासियत थी पर उसके साथ काम करने वाले अन्य साथी भी इसे उसकी कमी बताते थे | पिछले संस्थान में जब उसे एक नए प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए कहा गया तो उसने उस प्रोजेक्ट में अपना दिन – रात एक कर दिया था पर उसकी सीनियर ने उसके काम को दरकिनार करके उसके बाद आए उसके सहकर्मी का नाम  प्रमोशन के लिए नोमिनेट किया तो वह काफी आहत हुई | मुझसे प्रतिदिन बात करके अपने मन की सारी भड़ास निकाल लेती थी | हमेशा कहती थी कि सब जगह पर मक्खन खाने और लगाने वालों की भीड़ लगी हुई है |

इस बार कंपनी के उच्च अधिकारियों के द्वारा ही ये कार्य नेहा को दिया गया था | हालांकि इससे भी उसके सीनियर को समस्या हो गई थी क्योंकि इस बार उसने बिचौलिया का काम जो नहीं किया था | हर बार उसके माध्यम से कार्य बाकी सदस्यों तक पहुँचता था | काम सब करते थे परंतु उसका श्रेय वह देवीजी स्वयं तो ले नहीं सकती थी सो अपनी ख़ास को दे देती थी | खैर आज नेहा को उसकी मेहनत का फल मिलने ही वाला है |

हम दोनों एक ही नाव में सवार थे | कहीं न कहीं मेरे साथ भी यही हो रहा था | अगर मैं कहूँ कि हर जगह पर यही कहानी है तो कुछ गलत नहीं होगा क्योंकि ये तो सब चाहते हैं कि हम बेहतर करें पर ये कोई नहीं चाहता कि हम उनसे बेहतर करें या फिर उनके किसी ख़ास से बेहतर करें | हमारे बेहतर करने से उनके चहेते की तरक्की में बाधा आ सकती है | मेरे विद्यालय में भी सभी शिक्षकगण अपने – अपने विषय में माहिर हैं और सभी अपना काम पूरी निष्ठां एवं लगन से करते हैं | पर कहते हैं ना कि एक हीरे को केवल एक पारखी ही पहचान सकता है | और शायद मुझे वह पारखी जौहरी नहीं मिल पा रहा था जो मेरी प्रतिभा को पहचानकर उसकी उड़ान में एक नया रंग भर सके |

हमारे विद्यालय में सत्र के आरंभ में ही सभी विभागों में साल भर होने वाले संपूर्ण काम का बँटवारा कर दिया जाता था | विभागाध्यक्ष जी के द्वारा हमारे विभाग में भी कहने को तो काम सभी में बराबर बाँटकर दिया जाता था पर किसी विशेष को विशेष छूट अक्सर मिल ही जाती थी | जहाँ सभी के लिए प्रश्नपत्र जमा करने की तारीख ‘करो या मरो’ जैसी थी तो किसी के लिए घर की खिचड़ी, जब मर्ज़ी तब पका लो | पता नहीं क्यों ? इस बात से विभाग के किसी भी सदस्य को कोई परेशानी नहीं होती थी या फिर वे सब्र का घूँट पीने में माहिर थे जो कुछ कहते ही नहीं थे | पर मैं ऐसी नहीं हूँ सो जो गलत लगता उसे बेधड़क बोल देती | आखिर मेरे काम ने धीरे – धीरे सबसे दोस्ती करा ही दी | जब भी कोई संशय होता तो हम सब आपस में

विचार – विमर्श करके अपने संशय को दूर कर लेते थे | अंतरविद्यालयी प्रतिस्पर्धाओं में प्रत्येक शिक्षिका को अलग – अलग कार्यभार सौंपा जाता था | सब दिन – रात एक करके तैयारी कराते थे इसलिए पुरस्कार भी खूब मिलते थे |

इस बार हमारे विद्यालय द्वारा ही मेजबानी की जा रही थी | कुल बारह विद्यालयों ने हिस्सा लिया था जिसमें बच्चों को स्वरचित कहानी को प्रस्तुत करना था | ये कार्य मुझे सौंपा गया | मैंने कहानी लिखी और जोर – शोर से तैयारी करने में लग गए | हमने जमकर तैयारी की थी | 2 दिन के बाद प्रतिस्पर्धा होनी थी सो बच्चे की तैयारी देखकर मैं आश्वस्त थी कि कोई एक पुरस्कार तो जरुर मिलेगा | सब बच्चों ने अपनी – अपनी प्रस्तुति पूरे जोश और आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत की | अब परिणाम की बारी थी | और मेरे विद्यालय की छात्रा ने प्रथम स्थान प्राप्त किया | सभी ने छात्रा की जमकर प्रशंसा की | इतने में ही हमारी विभागाध्यक्षा ने घोषणा की कि हम ‘अतिथि देवो भवः’ में विश्वास रखते हैं अतः हम ये पुरस्कार नहीं ले सकते | दूसरे विद्यालय से आए हुए सभी शिक्षकों ने इस फैसले का सम्मान किया पर कहा कि छात्रा इस पुरस्कार की असली हकदार है | वह काफी देर से खुद को सँभाले हुए थी पर जैसे ही मैंने उसे गले से लगाकर शाबासी दी तो उसकी आँखें छलक पड़ी | खैर मैंने समझा – बुझाकर उसके दिल को तसल्ली दी | सभी प्रतिभागियों के जाने के बाद  थोड़ी देर बाद प्रधानाचार्या जी ने सफल आयोजन की बधाई देने एवं छात्रा का उत्साहवर्धन हेतु हमारी टीम को बुलाया था | हमारे विभाग के वरिष्ठ सदस्य ने एक शिक्षिका (अपनी प्रिय) के साथ जाकर सारी प्रशंसा बटोर ली | मैं अवाक – सी उन्हें देखती ही रह गई | मेरे चेहरे पर प्रश्नचिह्न देखकर उन्होंने स्वयं ही कहा कि प्रधानाचार्या जी जल्दी में थे और आप सब व्यस्त थे इसलिए मैं जो सामने दिखा उसी को लेकर चली गई |

यह एक टीमवर्क था जिसमें उनके विभाग के हर सदस्य ने किसी न किसी रूप में अपना योगदान दिया था | हमारे आसपास ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिल जाएँगे जहाँ मेहनत तो सब करते हैं परंतु श्रेय किसी और को दे दिया जाता है | यहाँ हम सभी ने बेहतर परिणाम की लालसा में अपने फ्री पीरियड बलिदान कर दिए थे | सबसे बड़ा त्याग तो उस छात्रा ने किया था जिसने जी – जान लगाकर अपनी सर्वोत्तम प्रस्तुति प्रदान की थी | मैंने कुछ समय पहले ही जॉइन किया था इसलिए बिना कुछ कहे सब समझने का प्रयास कर रही थी | मैंने अक्सर महसूस किया कि जिस काम को करने में सभी का योगदान रहता था तो भी प्रशंसा का पात्र किसी एक को ही बना दिया जाता था | विभागीय सभा में बाकी सभी की कमियाँ गिनाई जाती तो किसी के मात्र औपचारिकता निभाने पर भी ख़ास तवज्जो दे दी जाती थी | मैं कभी – कभी इस मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया देती थी तो उन्हें बुरा लग जाता था |

मेरा तो यही मानना है कि सफलता की सीढ़ी चढ़ने के लिए चाटुकारिता छोटा एवं आसान रास्ता भले ही हो पर स्थायी नहीं होता | आपका काम स्वयं बोलने लगता है | चाटुकारिता से प्राप्त की गई सफलता क्षणभंगुर होती है | मेहनत के दम पर मिली सफलता अंत तक साथ निभाती है |

मेरे पति के तबादले के कारण मुझे अनेक स्थानों पर अनेक विद्यालय बदलने पड़े | राज्य बदले, स्कूल बदले, सहकर्मी भी बदले बस एक चीज कहीं पर भी नहीं बदली – चाटुकारिता | वास्तव में जो मेहनत करना नहीं जानते वही ये तरीका अपनाते हैं | मेरे ख़याल से ये एकमात्र ऐसा ओहदा है जिसे बिना वेतन मिले भी लोग पूरी निष्ठा से करते हैं । अपने से वरिष्ठ अधिकारी के सामने तो ये मक्खियों की तरह मँडराते रहते हैं । काम कुछ ख़ास नहीं करते पर दिनभर चक्कर इतने लगाते हैं कि मानो इनसे ज़्यादा काम कोई करता ही नहीं है । वैसे इसके अप्रतिम फ़ायदे हैं , शायद इसीलिए लोग इस काम को इतनी तन्मयता से करते हैं । बिना योग्यता ही शीर्ष स्थान पर विराजमान हो जाते हैं ।

मैंने कभी ये रास्ता नहीं अपनाया शायद इसीलिए मैं अपने काम के कारण शीर्ष पर तो रही पर किसी की प्रिय कभी नहीं रही | विद्यालय प्रशासन के उच्चतम अधिकारी सदैव काम की प्रशंसा करते थे | कभी – कभी तो जिनकी प्रिय नहीं थी वे जब मेरे काम की प्रशंसा करते तो और अच्छा करने का मन करता | हालांकि ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो परिश्रम का महत्त्व समझते हैं |

इस विषय मेरा मानना है कि हमें निंदा करने वालों की कद्र करनी चाहिए क्योंकि इससे हम अपनी कमियों को दूर कर सकते हैं । परंतु झूठी प्रशंसा करने वाले चाटुकारों से सावधान रहना चाहिए । फिर भी लोग चाटुकारों से झूठी प्रशंसा पाकर गौरवान्वित अनुभव करते हैं ।