वैसे तो महाभारत काल में बहुत से महान व्यक्तित्व हुए हैं जो जीवन को दिशा देने में सक्षम हैं, पर दो महत्वपूर्ण व्यक्तियों का संवाद सोचने पर विवश कर देता है | इस संवाद में कर्ण ने कृष्ण जी से कई ऐसे प्रश्न पूछे हैं जिनके कारण उन्हें अपमानित होना पड़ा था | इन सभी परिस्थितियों में कर्ण का कोई दोष नहीं था फिर भी उसका मूल्य उन्हें चुकाना पड़ा था | हम सभी का जीवन चुनौतियों से भरा हुआ है | ये आप पर निर्भर करता है कि आप उन चुनौतियों से हारकर बैठ जाते हैं या उनका सामना करते हुए जीवन को एक नई दिशा प्रदान करते हैं |
और ये संवाद है - श्रीकृष्ण और कर्ण का |
कर्ण ने श्रीकृष्ण से पहली बात पूछी - हे पार्थ ! मेरी माँ ने मुझे जन्म देते ही त्याग दिया था | क्यों ?
क्या ये मेरा अपराध था कि मेरा जन्म एक अवैध बच्चे के रूप में हुआ ?
कर्ण का दूसरा प्रश्न - गुरु दोर्णाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से मना कर दिया था क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय नहीं मानते थे | क्या ये मेरा कसूर था ?
तीसरा प्रश्न जो महाभारत में कर्ण ने श्री कृष्ण से पूछा - द्रौपदी के स्वयंवर में मुझे अपमानित किया गया, क्योंकि मुझे किसी राजघराने का कुलीन व्यक्ति नहीं समझा गया | क्या ये भी मेरा ही दोष था ?
श्रीकृष्ण ने कर्ण के सभी प्रश्नों को शांतिपूर्वक सुना और फिर उन्हें समझाते हुए कहा –
हे कर्ण ! मेरा जन्म जेल में हुआ था | मेरे पैदा होने से पहले ही मेरी मृत्यु मेरा इंतज़ार कर रही थी |
और तो और जिस रात मेरा जन्म हुआ था उसी रात मुझे अपने माता-पिता से अलग होना पड़ा था | मुझे जन्म देने वाले स्वयं मेरे पिता को ही मुझे नंदबाबा को सौंपना पड़ा था | जन्म लेने के बाद से ही मेरे ऊपर अनेक प्राणघातक हमले हुए | वहाँ एक ग्वाले के रूप में मैने गायों को चराया और गायों के गोबर को अपने हाथों से उठाया |
मेरे पास कोई सेना नहीं थी, कोई शिक्षा नहीं थी, कोई गुरुकुल नहीं था, कोई महल नहीं था, फिर भी मेरे मामा ने मुझे अपना सबसे बड़ा शत्रु समझा |
बड़ा होने पर मुझे ऋषि संदीपनी के आश्रम में जाकर शिक्षा का अवसर मिला | मुझे बहुत से विवाह करने पड़े | ये सभी विवाह राजनैतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े, जिन्हें मैंने राक्षसों से छुड़ाया था |
जरासंध के प्रकोप के कारण, मुझे अपने परिवार को यमुना से ले जाकर सुदूर प्रांत समुद्र के किनारे द्वारका में बसना पड़ा |
हे कर्ण ! किसी का भी जीवन चुनौतियों से रहित नहीं है | सबके जीवन में सदैव सब कुछ ठीक नहीं होता |
सत्य क्या है और उचित क्या है ? ये हम अपनी आत्मा की आवाज़ से स्वयं निर्धारित करते हैं |
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितनी बार हमारे साथ अन्याय होता है |
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितनी बार हमारा अपमान होता है | इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि जीवन में कितनी बार हमारे अधिकारों का हनन
होता है |
हे कर्ण ! फ़र्क़ तो केवल इस बात से पड़ता है कि हम उन सबका सामना किस प्रकार कर्मज्ञान के साथ करते हैं |
“कर्मज्ञान और हौंसला है तो ज़िंदगी हर पल मौज़ है,
वरना समस्या तो हर पल सभी के साथ रोज है |”
माननीया महोदया,
ये लेख स्वरचित नहीं है | यह एक कविता थी जो किसी समूह में किसी के द्वारा भेजी गई थी | मुझे अच्छी लगी इसलिए मैंने इसे गद्य में लिख दिया | यदि आप किसी कारण से इसे प्रकाशित नहीं कर सकते हैं तो कोई बात नहीं |
धन्यवाद |