संस्मरण (मेरे जीवन का अविस्मरणीय क्षण) उषा जरवाल द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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संस्मरण (मेरे जीवन का अविस्मरणीय क्षण)

 शीर्षक – गलतफ़हमी बनी सीख

 

बात उन दिनों की है जब मैं पाँचवी कक्षा में पढ़ती थी | मेरे गाँव का प्राथमिक विद्यालय नदी के पार था | नदी पर एक छोटा – सा पुल बना हुआ था जिसे पार करके हम अपनी मंजिल तक पहुँचते थे | जब मन करता तो विद्यालय से आते समय हम कभी – कभी उस नदी में गोते भी लगा लिया करते थे | इसके लिए घर पहुँचने पर हमारी अच्छी – खासी धुनाई भी हो जाती थी | कक्षा में शुरु से ही मेधावी होने के कारण ‘मास्टरजी’ ने मुझे ही मॉनिटर बनाया था | मॉनिटर भी ऐसा जो कि किसी प्रकार के अनुचित व्यवहार को पसंद नहीं करता था या ये कहें कि कक्षा के सभी सहपाठियों के  लिए मैं ‘हिटलर’ से कम न थी | इसी कारण ‘मास्टरजी’ मुझसे ख़ासा प्रभावित रहते थे |

एक दिन किसी काम से ‘मास्टरजी’ को हैडमास्टर साहब ने बुला लिया था तो वे कक्षा की जिम्मेदारी मुझे सौंपकर चले गए और चेतावनी देकर गए कि यदि कक्षा से शोर आया तो सजा मुझे ही मिलेगी | मेरी कक्षा में कुलदीप नाम का एक लड़का था जो बहुत शरारती था | कई कोशिशों के बाद भी वह लड़का नहीं माना तो मैनें उसे पीठ पर ज़ोर से दो मुक्के जड़ दिए | मेरे पंच मारने के कारण उसकी पीठ हुआ फोड़ा फूट गया (जिसके विषय में मुझे कोई जानकारी नहीं थी |) और वह ज़ोर – ज़ोर से चिल्लाने लगा | एक तो ‘मास्टरजी’ से मेरी अच्छी – खासी धुलाई हुई, ऊपर से वो लड़का अपनी माँ को बुलाने की धमकी देकर वहाँ से रोता हुआ चला गया |

मैं ये सोचकर बुरी तरह सहम गई थी कि अभी तो मेरे गाल पर छपा हाथ भी नहीं मिटा है और अब इसकी माँ तो मेरा कचूमर ही निकाल देगी | मेरी सहेली ने बताया कि कालिया की माँ (कुलदीप का घर का नाम) रस्सी और दराँती (एक धारदार औजार) लिए स्कूल की तरफ ही आ रही है | मैंने खिड़की से झाँककर देखा तो मेरे होश फ़ाख्ता हो गए | उसकी माँ को देखकर मेरी सारी ‘हिटलरगिरी’ निकल चुकी थी | डर के मारे मैं आँख बंद करके ‘हनुमान चालीसा’ पढ़े जा रही थी | कब छुट्टी की घंटी बजी ? मुझे खबर ही नहीं थी |

मेरे खबरी दोस्तों ने घर पहुँचते ही सारी रामकहानी मेरी दादी को सुना दी | मेरी दादी ने आव देखा ना ताव  बस अपना लट्ठ उठाकर दनदनाते हुए घर से निकल पड़ी | सबसे पहले मुझे स्कूल से लिया तो मेरी जान में जान आई | घायल शेरनी की तरह मैं कालिया के खिलाफ दादी के कान भरे जा रही थी | पास के खेत में ही कालिया की माँ उसी रस्सी और दराँती के साथ मिली पर ......... इससे पहले कि मेरी दादी कुछ बोलती उसने मुस्कुराते हुए ‘दादी राम – राम !’ कहकर दादी को खाट पर बैठने के लिए कहा और बताया कि वो रोज सवेरे खेत में पशुओं का चारा लेने आती है आज भरी दोपहर में आना पड़ा | उनकी बातें सुनकर मैं खुद से ही नज़रें नहीं मिला पा रही थी | मैनें बिना सोचे – समझे गलतफ़हमी पाल ली |

ये मेरे जीवन का एक ऐसा अविस्मरणीय क्षण था जिसने मुझे पहली बार डराने के साथ – साथ एक अनमोल सीख भी दी कि हमें बिना सोचे – समझे किसी के बारे में अपनी धारणा नहीं बनानी चाहिए |