वैदिक काल में स्त्री पुरुष का सामाजिक स्तर समान था ? Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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वैदिक काल में स्त्री पुरुष का सामाजिक स्तर समान था ?

डॉ. उमा देशपांडे

[ अनुवाद :नीलम कुलश्रेष्ठ]

[हम एक थियोरी लेकर चलते हैं की वैदिक काल में स्त्री-पुरुष को समान अधिकार थे। वड़ोदरा की एन जी ओ “सहियर” व अहमदाबाद की एन जीओ “उन्नति” सं 2011 के लगभग एक पुस्तक श्रृंखला प्रकाशित की है “नारी आंदोलन का इतिहास”. इस एक पुस्तक में बहुत बौद्धिक विश्लेषण है। सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में सेंकड़ों पुरुष रचित एक हज़ार ऋचाएं हैं जबकि महिलाओं की लिखी ऋचाएं नगण्य हैं। इसलिये सभी स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार मिलता था ये बात सही नहीं है। वैदिक काल के बाद रामायण व महाभारत काल में तो स्त्रियों की दशा और बिगड़ती चली गई थी। प्रस्तुत लेख डॉ. उमा देशपांडे की पुस्तक ' ऑवर इंडियन हेरिटेज ' से अनुवादित किया गया है। स्वर्गीय डॉ. उमा देशपांडे वड़ोदरा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग की अस्मिता, महिला बहुभाषी साहित्यिक मंच की अध्यक्ष थीं. उनका नाम देश के सौ विद्वानों में शुमार था ]]

प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में 27 विद्वान स्त्रियों, जिनको ब्रह्मवादिनी कहते थे, की लिखी ऋचायें हैं। इन ऋचाओं को पढ़ना अपने आप में एक अनुभूति है क्योंकि इस में सामाजिक संरचना, साहित्य का समाज में स्थान व उन दिनों की शिक्षित स्त्रियों के दृष्टिकोण के विषय में पता लगता है। स्त्रियों ने जो लालित्यपूर्ण शब्दावली का प्रयोग किया है वह अपने आप में आकर्षक व अनूठी है। यह मानव के जीवन की दार्शनिकता से परिचय करवाते हुए समाज को कुछ उपयोगी संदेश देती है। अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बात ये है कि ये ऋचायें हर काल के विश्व के सार्वभौमिक सत्य से जुड़ी हुई हैं। वे आधुनिक स्त्री के लिये भी उपयोगी हैं। एक विचित्र बात यह है कि बाइबिल या कुरान में एक भी पंक्ति किसी स्त्री की लिखी नहीं है।

ऋग्वेद की स्त्रियों ने धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थिति प्राप्त किये हुए थी । जो स्त्रियाँ जीवन भर थिओलोजी व दर्शन का अध्ययन करती थीं, वो ब्रह्मवादिनी कहलाती थीं। जो विवाह होने तक पढ़ती थीं वह मद्योद्वारा कहलाती थीं। वेद उपनिषद, व वेदांश का अलग-अलग अध्ययन कमतर स्तर की शिक्षा मानी जाती थी लेकिन जो इनका समग्र अध्ययन करता था वह ही उच्चशिक्षित व्यक्ति माना जाता था स्त्रियाँ ब्रह्मवादिनी मानी जाती थीं।

उस काल की ब्रह्मवादिनीयों के ये नाम थे- घोषा, गोधा, विश्वतारा, अपाला, उपनिस्त, निश्चत, जुहू, अगस्तास्य, स्वसा, अदिति, इन्द्राणी, स्वसा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा, श्री, सर्पराज्ञी लाक्षा, श्रधा, मेधा, दक्षिणा, इन्द्रमता, रवि, सूर्य, शाश्वती, नध व यमी। विद्वान इनकी बुद्धिमता से चमत्कृत हो जाते थे व उसको मान्यता देते थे। वे पुजारियों का साथ दिशा को ओर मंत्रोच्चार करते हुए अग्नि की पूजा करती थीं। इस पूजा में वे प्रार्थना करती थी कि उनके दुश्मनों की शक्तियाँ कम हों जो जंगलियों की तरह उनके घर को नुकसान पहुँचाना चाहते हैं। वे यही चाहती थीं कि इन प्रार्थनाओं से स्त्री-पुरुष संबंध मज़बूत हो।

अपाला एक चिरपरिचित नाम है जिसने अत्री ऋषि के परिवार में जन्म लिया था व शिक्षा ग्रहण की। उनका शारीरिक व मानसिक विकास ठीक से हो रहा था की उन्हें कोढ़ हो गया था। उनकी विद्वता के बावजूद उनके चर्मरोग के कारण उनके पति को उनसे विरक्ति हो गई थी । इस रोग के कारण उनका शारीरिक विकास ठीक से नहीं हो पाया था। अपाला के लिये अपने पति से विद्रोह असह्य था इसलिये उन्होंने उस समय के सबसे शक्तिशाली देवता इन्द्र की वंदना में ऋचाओं की रचना की जिससे उन्हें पति व पारिवारिक सुख वापिस मिल सके। वह उन्हें सोमरस, पुरोदशा व धन अर्पित करती थीं।

उनकी ऋचाओं को पढ़ा जाये तो पता लगता है कि आज की स्त्री जो प्रार्थना करती है कि उसे शक्ति मिले, उसका परिवार व बच्चे समृद्धि व विकास के रास्ते पर चलते रहे-यही अपाला भी इन्द्र से वह प्रार्थना करती थी कि उनके पिता के सर पर बाल उगे। उनकी उसर ज़मीन पर खेती हो। उनके दोषपूर्ण जननांग के कारण उनके पति उसे पसंद नहीं करते थे और न ही उनके बच्चा होता था।

कहते हैं इन्द्र भी उनकी साहित्यिक क्षमता व दुःख देखकर आंदोलित हो गये थे। उन्होंने उन्हें शारीरिक शक्ति प्रदान की व सूरज की तरह दमकता रंग दिया। अपने धीरज व घोर प्रार्थना के कारण अपाला अपने जीवन के अपार दुःख को जीत सकी थी।

काशीवर के एक प्रतिष्ठित परिवार में पैदा होने वाली घोषा एक ब्रह्मवादिनी थीं। वह भी एक रोग की चपेट में थीं। उन्होंने अपनी आँखों से कुछ लोगों को अश्विन देव की आराधना कर अपने दुःखों को समाप्त करते देखा था इसलिये वे ऋचा लिखती थीं। उनकी प्रार्थना का आशय ये था कि उनका विवाह ऐसे व्यक्ति से हो जो शारीरिक रूप से ऋषभ जैसा शक्तिशाली हो।

आज ये बात पढ़ने में विचित्र लगती है कि उनकी ऐसी प्रार्थना से प्रसन्न होकर अश्विन ने उन्हें रोगमुक्त किया था, उन्हें अमर बना दिया था। उनका विवाह हुआ व सुहासटी जैसा पुत्र उन्हें प्राप्त हुआ। बाद में घोषा व उनका पुत्र अश्विन की आराधना में ऋचायें लिखने लगे। घोषा के रचे मंत्रो में एक परिपक्व स्त्री की पीड़ा का सुंदर चित्रण है। उनकी लाचारी व कष्टों का बहुत सजीव चित्रण है। ये एक उदाहरण है कि वैदिक काल भी एक पुरुषशासित काल था लेकिन स्त्रियों को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी। स्त्री पूजा विधि करवा सकती थी, किसी सभा में भाषण दे सकती थी।

अपाला, घोषा और विश्वतारा के जीवन के विषय में पढ़ें तो पता लगता है, उनकी विद्वता, उनका ऋचा लेखन पारिवारिक जीवन की प्रसन्नता से बढ़कर नहीं था। विश्वरा तो अग्नि से प्रार्थना करती थी की उनके पति उनसे प्यार के धागे से बँधे रहे। ये सभी विदुषी नारियाँ समझती थी कि मानव जीवन को जीने का सही मूलभूत आधार एक परिवार ही है। इन ऋचाओं में उनकी साहित्यिक क्षमता, अर्थपूर्ण शब्द व उनका अद्भुत संयोजन क्षमता चमत्कृत करती है।

उपनिषद में दार्शनिक चर्चा अधिक है इसमें उसे समाज की सामाजिक संरचना व स्त्रियों के व्यक्तित्व की नामालूम सी बातें हैं। उपनिषद के आरंभिक काल तक स्त्रियों की स्थिति के विषय में पता लगता है। तब भी आज जैसी सामाजिक संरचना थी। लोग पुत्री की अपेक्षा पुत्र होने पर अधिक खुश होते हैं। कुछ सुसंस्कृत लोग विद्वान बेटी के पैदा होने की कामना करते थे।

उस समय के कुछ विचारकों ने भी इंगित किया है कि प्रतिभा सम्पन्न, सदव्यवहार वाली बेटी बेटे के बराबर होती है। मनुस्मृति के चाहे कुछ तालिबानी नियम हो लेकिन इसमें भी यही लिखा है। गनीमत है उन दिनों स्त्री भ्रूण हत्या नहीं की जाती थी। थोडे से अवसाद के बाद माँ-बाप लड़की को बेटे की तरह पालते थे।

तीसरी शताब्दी तक लड़कियाँ सोलह वर्ष तक पढ़ती थी। उसके बाद उसकी शादी की जाती थी। वैदिक अध्ययन आरंभ करने से पहले उपनयन संस्कार विधि लड़के व लड़कियों की समान रूप से की जाती थी। इस विधि के बाद शिक्षा ग्रहण करते हुए अनुशासन से रहना पड़ता था। अथर्ववेद में स्पष्ट लिखा है कि शादी के पहले ब्रह्मचर्य की पालन करने वाली लड़की ही (लड़के?) विवाहित जीवन में सुखी हो सकती है ऐसे ही वातावरण में सुलभा, मैत्रेयी व गार्गी ने परवरिश पाई थी इसलिये वे परम विद्वानों से शास्त्रार्थ कर सकती थीं। आज भी ब्रह्मज्ञ के समय उन्हें याद किया जाता है। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र का विस्तार किया था।

उपनिषद काल भारतीय संस्कृति का सर्वोत्तम रचनात्मक काल है। इस समय साहित्य, काल व विज्ञान की प्रगति चरम पर थी। ये ही स्वर्णिम काल है जो कि भारतीय संस्कृति की आधारशिला बना था। याज्ञवल्क्य ऋषि की पत्नी मैत्रेयी दर्शन की गंभीर समस्याओं का अध्ययन करना पसंद करती थी न कि गहने पहनना। ब्रह्मवादिनी गार्गी ने भी विद्वानों की सभा में शांत स्वर व आत्मविश्वास से ऋषि याज्ञवल्क्य से कहा था, “एक अनुभवी तीरंदाज़ जैसे दो तीरों को लेकर दुश्मनों पर वार करता है उसी तरह मैं आपके ज्ञान के परीक्षण के लिये दो प्रश्न आपके सामने रख रही हूँ, यदि उत्तर दे पाएं तो दीजियें।”

याज्ञवल्क्य भरी सभा में गार्गी के प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाये थे। उन्होंने क्रोधित होकर गार्गी को धमकी दी थी कि यदि उन्होंने बोलना बंद नहीं किया तो उनकी मौत हो जायेगी लेकिन गार्गी के ज्ञान को देखकर उन्हें मजबूर होना पड़ा था कि वह उनके बताये संशोधन के प्रस्ताव को मान्यता दें।

उन दिनों की शिक्षा पद्धति चरित्र निर्माण, ज्ञान प्राप्ति व विरासत में मिले ज्ञान को संरक्षित करने में सक्षम थी। इसी से स्त्री-पुरुष की समानता, प्रसन्नता व आत्मिक संतोष बना हुआ था। हिन्दू धर्म के बृहदारण्यक (ब्रिहदारंक्लमा) उपनिषद् की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात ये थी स्त्री को आत्मा या सर्वोच्च शक्ति ने पुरुष के बराबर उसके अर्धभाग की तरह बनाया है । स्त्री-पुरुष बराबर तो हैं बल्कि स्त्री अपनी मातृत्व शक्ति के कारण पुरुष से उत्तम भी है। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। इसी उपनिषद् में यह इंगित किया है कि पत्नी का दर्ज़ा ऊँचा होता है क्योंकि वह मन को प्रफुल्ल रखने वाली व विश्वस्त साथी होती है। उन दिनों प्रेमविवाह भी परिवार वाले करते थे। उन दिनों बाल विवाह की प्रथा नहीं थी और न ही अपना जीवनसाथी चुनने में कोई बंधन था और न ही अलग जाति की शादी में कोई रुकावट डालता था। चंदोज्ञय उपनिषद में ब्राह्मण व शूद्र के बीच शादी की कथा मिलती है।

स्त्री एक सुख देने वाली वस्तु के रूप में नहीं देखी जाती थी बल्कि समान स्तर के साथी के रूप में देखी जाती थी इसलिये याज्ञवल्क्य ने तपस्या में जाने से पूर्व पत्नी से अनुमती ली व उनके जीवन निर्वाह का प्रबंध किया।

उपनिषद् आर्म्नस में विवाह को स्त्री-पुरुष के बीच एक मजबूत बंधन के रूप में माना गया है जिससे जीवन की जिम्मेदारियों व परेशानियों को साथ-साथ झेला जा सके। सभी देवताओं के साथ सरस्वती की पूजा की जाती थी उस समय सती प्रथा, न ही तलाक जैसी कोई प्रथा थी। पत्नी अपने पति के साथ घरेलू, पारिवारिक व धार्मिक गतिविधियों में हिस्सा लेती थी। उपनिषदं से ही यह शब्द प्रचलित हुआ है “मातृ देवो भवः” माँ के बाद पिता, गुरु व मेहमानों का दर्ज़ा है। आत्रेय ऋषि की माँ ने उन्हें एक जागरूक व सुदृढ़ व्यक्तित्व वाली माँ की तरह पाला था इसलिये वे अपनी माँ के बेटे के रूप में प्रसिद्ध हैं, उनके पिता का कहीं कोई उल्लेख नहीं है ऐसी ही तीस माओं का उल्लेख मिलता है जो सुप्रसिद्ध थीं जिन के बेटों ने समाज में प्रतिष्ठित स्थान बनाया जैसे जबाला व सत्यकाम, उपकोसला, कमलनयना।

सत्यकाम तो एक परिचारिका जबाला के बेटे थे जिन्हें उसके पिता का नाम भी याद नहीं था फिर भी उन्होंने गुरुकुल के गुरु को ये बात बताईं। इसी साहस से प्रभावित होकर गुरु ने उनके बेटे सत्यकाम को शिक्षा देना स्वीकार किया था।

ये बात मैं पुन लिख रहीं हूँ कि सभी स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार मिलता था ये बात सही नहीं है। वैदिक काल के बाद रामायण व महाभारत काल में तो स्त्रियों की दशा और बिगड़ती चली गई थी।

 

नीलम कुलश्रेष्ठ

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