मेरे पथ का राही Sharovan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मेरे पथ का राही

मेरे पथ का राही


***

'जिस वाल्टर को अपने जीवन पथ का हमसफर बनाने की खातिर रूही ने अपना घर, अपनी मां तथा समस्त परिवार का कहना नहीं माना था, उसी वाल्टर का एक दिन साथ पाने पर उसने उसे ठुकरा क्यों दिया? जीवन पथ के मार्गों पर चलते हुये अपने हमकदम से ठोकर लगने पर इंसान संभल जरूर जाता है, पर ऐसी ठोकर लगने से मनुष्य के दिल और दिमाग पर जो घाव लग जाते हैं, क्या उनकी कटु स्मृतियां उसको जीवन भर नहीं सताती हैं?'


***

'वाल्टर,

कल रात तुमने जो एक बेहूदेपन का व्यवहार मेरे साथ किया, उसके कारण अब मुझे तुमसे नफ़रत हो गई है। मैं तो सोचती थी कि, तुम एक बहुत ही ऐसे भले इंसान हो कि जिसकी झोली में अपना सब कुछ आने के पश्चात भी कुछ नहीं ठहर सका है। मैंने सोचा था कि, तुम्हारी अपनी राहों का पथिक साथ न मिलने के कारण तुम्हारे जीवन में जो तन्हापन भर चुका है, उसे मैं अपने जीवन का साथ देकर पूरा कर देती, मगर मुझे दुख है कि, तुम ऐसे भी नहीं निकले; इतना ही नहीं, एक समझदार व्यक्ति होते हुये भी मुझे तुम्हारी नियत में जब खोट नज़र आई तो मैंने तुम्हारे प्रति वर्षो से किया हुआ फैसला तो बदला ही साथ ही तुम्हारे प्रति मन में बसी हुईं सारी धारणायें भी बदल दीं..........”


मैं ये भी सोचती थी कि, तुम जब भी मुझसे विवाह करने को कहोगे तो मैं इसे सहर्ष ही स्वीकार कर लूंगी मगर नहीं, तुम तो मुझे कहीं अन्यत्र ही ऐसे पथ पर ले जाकर तन्हा छोड़ देना चाहते थे, कि जिसकी मंजिल तो क्या, पल भर के पड़ाव का भी ठिकाना नहीं था। तुम्हारी ऐसी घृणित हरकत देख कर मैंने आज ही अपनी सारी छुट्टियां रद्द कर दीं हैं और मैं अपने काम पर जा रही हूं। फिर वहां से सीधी अपनी मां के घर पर चली जाऊंगीं और वही करूंगी जो मुझे बहुत पहले कर लेना चाहिये था। इसलिये मेरे लौटने से पूर्व बेहतर होगा कि तुम वापस चले जाना। जसिया को मैंने घर में ताला डाल देने को बोल दिया है।

रूही।’


पत्र पढ़ कर वाल्टर ने पहले तो चारों तरफ देखा, फिर अपने सिर पर हाथ रख कर उसने जसिया को बुलाना चाहा, मगर वह भी जैसे उसी के उत्तर की कोई प्रतीक्षा कर रही थी। तब वाल्टर जसिया को देख कर उससे बोला कि,


“ये पत्र देते समय तुम्हारी मालकिन ने कुछ कहा भी था तुमसे ?”


“जी नहीं।“


“तो फिर मेरा सामान बांध दो़।”


ये कह कर वाल्टर फिर से अपने विचारों में डूब गया।जसिया ने तो पहले ही से उसका सारा सामान समेट दिया था, सो वह उससे बोली,


“सामान तो आपका पहले ही से मैंने तैयार कर दिया था।”


“तो ठीक है, मैं अब चलता हूं।”


ये कह कर वह बाहर निकलने की तैयारी करने लगा।


फिर जब वह वापस अपने घर जा रहा था तो गाड़ी के पहियों की भागती हुई रफ्तार के साथ ही उसका भी दिमाग जैसे घूमता जा रहा था।दिल में उसके सैकड़ों विचार थे।भूले बिसरे अतीत के वे ढेर सारे चित्र थे जो आज समय की वास्तविकता देख कर उसके अफसाने तो क्या जिन्दगी के कड़वे और कठोर सच की दास्तां का एक अधूरा रंग भी दिखाने लायक नहीं रहे थे।लेकिन फिर भी उसकी यादों में वे सब ही जिये हुये पल थे कि जिनको कभी उसने अपना समझ कर अपनी झोली में भर लेने की भरपूर कोशिश की थी। पर ये और बात थी कि उसकी झोली पहले खाली थी और आज भी जैसे सदा के लिये खाली हो चुकी थी।आज उसके दामन में ना तो जीवन का उद्देश्य ही बाकी बचा था और ना ही उसकी जमा की हुई हसरतों का कोई आस्तित्व ही।वह सदा से अपने जीवन पथ के एक ऐसे पथिक को साथ लेकर चलने की कोशिश करता रहा था जो उसका हमदम तो था पर हमसफ़र नहीं बन सका।किसी के खोखले वादों की नींव पर बनाये हुये प्यार के महल जमाने की कठोरता का एक प्रहार भी सहन नहीं कर सकेंगे; जीवन की ये वास्तविकता उसे आज अच्छी तरह से ज्ञात हो चुकी थी। सदा ही वह जीवन की वास्तविकता का दामन छोड़ कर एक परछाई के पीछे भागता रहा था।प्यार की दीवानगी में मानसिक मूर्खता का सहारा लेकर उसने आज सब कुछ ही खो दिया था।जो उसका अपना था उसकी उसने कद्र नहीं की थी और जो किसी अन्य का था उसकी राहों में जबरन चलने की अपनी जि़्ाद में अड़ा रहा था।दो राहों के दो पथिक उसके सफ़र में आये थे और दोनों ही को उसने खो दिया था। एक ने उसकी कद्र नहीं की थी तो दूसरे की उसने परवा नहीं की थी।


गाड़ी भागती जा रही थी।यादों के उलझे हुये ख्यालों के जंगल में भटकते हुये मन ही मन वह कितनी दूर तक आ चुका था? उसे तो ये भी ज्ञात नहीं हो सका था कि बलियापुर न जाने कहां पीछे छूट चुका है? मुसाफि़रों को लाने और ले जाने वाली गाड़ी अब उसको उस तरफ ले जा रही थी कि जिसकी हवाओं तक से बचने की खातिर वह यहां तक आया था।उसके अपने घर और शहर की वे हवायें जो उसको कभी बहुत अच्छी लगती थीं, आज जैसे उसका अंग अंग नोच लेना चाहती थीं।


सोचत सोचते यादों की धूमिल पटिया पर वाल्टर के जिये हुये दिन स्वत ही एक एक कर के साकार होने लगे........’


बात उन दिनों से आरंभ होती है,जब कि वह बलियापुर जिले के एक कालेज में पढ़ने के लिये गया था।बलियापुर जाने और वहां पर पढ़ने का मुख्य कारण उसके अपने घर के छोटे से कस्बे में कोई भी स्नातकोत्तर कालेज का न होना ही था। छोटा सा कस्बा होने के कारण यहां के रहने वाले लोग प्राय ही अपनी खरीदारी करने के लिये बलियापुर आते जाते रहते थे।कालेज में पढ़ने वाले छात्र भी आस पास की तहसीलों व कस्बों से इस शहर में आकर पढ़ा करते थे।सो वाल्टर भी अपना कस्बा छोड़ कर बलियापुर इण्टर की कक्षा पास करने के पश्चात आया था।रहने के लिये उसका हॉस्टल में प्रबन्ध हो गया था।स्नातकोत्तर की शिक्षा के प्रथम वर्ष में ही उसकी भेंट तब रूही से हो गई थी।छरहरे बदन की भोली भाली, मगर समझदार और सुंदर एक ईसाई युवती रूही ने जब पहली बार ही वाल्टर का हॉकी का खेल देखा तो वह भी बगैर कुछ भी सोचे हुये उस पर मोहित हो गई थी।वाल्टर तब ये बात उसी समय समझ गया था जब कि रूही सारे लड़कों के मध्य में बगैर किसी भी बात की परवा किये हुये उसके खेल के अच्छे प्रदर्शन के लिये उसे बधाई देने आई थी।तब रूही को ये जानकर और भी प्रसन्नता हुई थी कि, वाल्टर भी एक मसीही लड़का है, और उसके पिता के साथ साथ उसके परिवार के लगभग सब ही लोग स्थान स्थान पर अन्य मसीही संस्थाओं में सेवारत् थे। रूही और वाल्टर दोनों ही स्नातक कक्षा के छात्र थे, अंतर केवल इतना ही भर था कि, रूही कला में स्नातक कर रही थी, तो वाल्टर सांइस में।मगर कालेज का समय एक ही होने के कारण प्राय रूही वाल्टर से अपनी ओर से अवश्य ही मिल लिया करती थी।हांलाकि, वाल्टर ने अपनी तरफ से रूही में कोई भी विशेष रूचि नहीं दिखाई थी। वह अक्सर ही रूही के सामने सामान्य बना रहता था।ये केवल रूही पर ही निर्भर था कि, जब वह उससे मिलती थी तो वह कभी भी उसे निराश नहीं करता था।वह जब कभी भी उसे विशेष अवसरों पर अपने घर बुलाती थी तो वह अवश्य ही चला जाता था।मगर फिर भी उसने कभी भी अपनी तरफ से कोई भी विशेष प्रदर्शन रूही के प्रति आकर्षण का नहीं होने दिया था।इस प्रकार से जहां वाल्टर का नज़्ारिया रूही के प्रति एक सामान्य युवकों जैसा था, वहीं रूही की आंखों में उसके प्रति भविष्य के सपने अपना रंग भरने लगे थे।


रूही के इस प्रकार के व्यवहार को देख कर वाल्टर इतना तो समझ चुका था कि, रूही के मन में उसकी एक विशेष तस्वीर बन चुकी है, मगर फिर भी उसने अपनी तरफ से इस तस्वीर पर कोई भी रंग नहीं ठहरने दिया था।इसका भी मुख्य कारण उसके अपने ही कस्बे की रहने वाली और इण्टर की कक्षा तक साथ साथ पढ़ने वाली उसकी बचपन की सहेली महलत थी, जिसको लेकर वाल्टर अपने दिल और दिमाग में अपने भविष्य के महल खड़े कर रहा था। मगर भोली भाली रूही को ये सब कुछ नहीं मालुम था।वाल्टर भी कभी भी उसको चाहते हुये भी नहीं बता सका था।इसका भी मुख्य कारण यही था कि, वह किसी भी तरह से रूही के मन में बसी हुई उसकी प्यार की कोमल भावनाओं पर कोई भी आघात् नहीं करना चाहता था।वाल्टर जानता था कि, रूही एक बहुत ही अच्छी और प्यारी सी भोली लड़की है।वह लड़की ही नहीं, वरन् एक सचमुच की मानवी है।ऐसी मानवी कि जिसके शरीर में कल्पनाओं की मधुर स्मृतियों से भरा हुआ एक निस्वार्थ दिल भी है।वह अपने परमेश्वर से निहायत ही प्यार करने वाली एक ऐसी लड़की है कि, जो बगैर दुआ प्रार्थना के अपना कोई भी कार्य आरंभ नहीं करती है।ऐसी परिस्थिति में वह किस प्रकार उसके मन और आत्मा को ठेस पहुंचा सकता था।वह जानता था कि रूही उसको इसकदर मन ही मन आत्मा से चाहने लगी है कि उसकी मनाही सुनकर वह तो कभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकेगी।यदि उसने साफ साफ बता दिया तो ये सब सुन कर उसका दिल तो टूटेगा ही साथ ही उसकी पढ़ाई पर भी प्रभाव पड़ सकता था।फिर यूं वैसे भी रूही का उसकी मां के सिवाय इस भरे संसार में और कोई था भी नहीं।वह अपने घर से ही पढ़ने आया करती थी।इसके साथ ही रूही ने वाल्टर का परिचय अपनी मां से अपने जन्म दिवस की एक पार्टी के समय करा दिया था।वाल्टर ये भी समझ गया था कि रूही ने उसके बारे में अपने भविष्य के चुनाव के लिये अपनी मां को भी एक संकेत दे रखा है।ये बात वाल्टर ने रूही की मां के आचार व्यवहार को देख कर ही जान पाई थी क्योंकि रूही के समान उसकी मां का भी व्यवहार वाल्टर के प्रति बड़ा ही आत्मीय बन चुका था।


परन्तु ये शायद रूही की किस्मत और उसके हाथ की बनी हुई लकीरों का ही दोष था कि उपरोक्त समस्त बातें वाल्टर के पक्ष में होने के उपरान्त भी उसका दृष्टिकोण रूही के पक्ष में नहीं बन सका था।इसलिये जब भी कालेज की कोई छुी होती तो वाल्टर खुशी खुशी अपने घर चला जाता मगर रूही के लिये उसके बगैर एक दिन भी काटना मुश्किल हो जाता था।वाल्टर जब देखो तब ही अपनी छुट्टियों के पास आने के दिन ही गिनता था तो रूही कालेज बंद होने के नाम से कभी भी प्रसन्न नहीं हो पाती थी।तौभी जब कभी भी वाल्टर छुट्टियों में अपने घर जाता था तो वह बाकायदा उसको विदा कहने आती थी और स्टेशन तक छोड़ने भी चली जाती थी।उसके घर पर अपनी तरफ से उसके परिवार वालों को अपना सलाम तक भेजने को कहती थी।


इस प्रकार होते होते प्रथम वर्ष बीत गया।दूसरा वर्ष आया और वह भी धीरे धीरे समाप्ति के छोर पर आ गया।रूही प्रतीक्षा करती रही।सोचती रही कि कैसे वह अपने मन की छिपी हुई बात वाल्टर को कह दे? प्रेम की उपज की बात एक बार को पुरूष तो कह भी देता है परन्तु किसी स्त्री के लिये ये समस्या उस समय और भी अधिक जटिल हो जाती है जब कि लाज और शर्म का साया उसके चारों ओर अपनी सीमा बांध देता है।ऐसी ही परिस्थिति का शिकार रूही हो चुकी थी।वह प्रतीक्षा करती रही कि शायद कभी वाल्टर उसके मन की बात को समझ कर स्वंय ही इस बात को आगे बढ़ाये? वह सोचे बैठी थी कि यदि कभी भी वाल्टर ने इस प्रकार का संकेत भी किया तो वह पहले ही से तैयार भी थी मगर वाल्टर ने जानते और समझते हुये भी कभी भी इस बात का जि़क तक नहीं किया था तथा अपनी ओर से इस बात को कहने का साहस रूही बहुत चाहकर भी नहीं कर सकी थी।वह केवल अपने हाव भाव और आचार व्यवहार के द्वारा ही अपनी भरपूर चाहतों का प्रदर्शन करती रही थी।ऐसा प्रदर्शन कि ्र जिसको वाल्टर समझते हुये भी कोई प्रत्योत्तर नहीं दे सका था।सो अपने प्यार की इन्हीं चाहतों-भरी हसरतों के बोझ तले रूही की उम्मीदों भरे दिन धीरे धीरे सरकते जा रहे थे।जैसे जैसे कालेज बंद होने और अंतिम परीक्षाओं के दिन करीब आते जाते थे वैसे वैसे रूही के मन में सजाये हुये उसके भविष्य के सुंदर सपनों के महलों की नींव में भी थिरकन हो जाती थी।वाल्टर की अनुपस्थिति और उसकी विरक्ति की कल्पना मात्र से ही उसका सारा शरीर जैसे शलथ पड़ जाता था।अपनी यादों के सिलसिले में अचानक ही किसी रूकावट मात्र के एहसास भर से ही वह अपने को सारी दुनियां में अकेला और तन्हा महसूस करने लगती थी।प्यार की पहली पहली पनपी हुई कोमल भावनाओं की कोपलें शायद इसकदर भावुक होती ही हैं कि उन पर ज़रा सी भी कठोरता का प्रभाव सहन नहीं हो पाता है।फिर ये तो रूही के प्यार की एक ऐसी बाज़ी थी कि जो शायद उसके द्वारा खेली तो जा रही थी और बलियापुर के सारे कालेज में कोई भी उसका प्रतिद्वन्दी भी नहीं था मगर फिर भी वह इसे जीतने में सक्षम नहीं हो पा रही थी।शायद वह भी इसलिये कि दिल की सारी भावनाओं का निर्णय बगैर कोई भी सलाह लिये हुये दिल के पर्दे की उस उतरन से होता है कि जिस पर जब चाहे तब कोई भी अपने प्यार की दास्तां लिख देता है।वाल्टर के प्रति लिया गया निर्णय रूही का अपना था।उसने इस बारे में किसी से भी कोई भी सलाह मशवरा नहीं लिया था।यहां तक इसमें वह डूब गई थी कि जिसको अपने जीवन की नैया का मांझी बना लिया था, खुद उससे भी अपने दिल का रिश्ता जाहिर नही कर सकी थी।पिछले दो वर्षों के कालेज के दिनों से उसने वाल्टर को हरेक दृष्टिकोण से देखा और परखा था।हर पल उसके रूप की तस्वीर उसने बना कर अपने दिल के कैदखाने में छुपा ली थी।हर रोज़ उसको चाहा था।उसके प्यार में उसकी आरती तो क्या एक पूरी इबादत वह कर रही थी वह।कदम कदम पर वह वाल्टर के साथ साथ रही थी।कालेज में पढ़ते-लिखते, उठते-बैठते और खाली समय में भी उसने अधिक से अधिक समय वाल्टर के साथ व्यतीत किया था।एक प्रकार से उसके प्यार की तपस्या में वह लौलीन हो गई थी, मगर उसके प्यार का पुजारी, जिसको साथ लेकर वह अपने प्यार को एक मंदिर सा सजा लेने का ख्वाब देख रही थी, वह जब भी लापरवाहियों और गैर जुम्मेदारियों का एक हल्का सा प्रदर्शन कर देता था तो रूही की जमा की हुई सारी आस्थायें पल भर में बिखर कर गायब होने लगती थीं।


फिर एक दिन होली की भी छुट्टियां हो गईं।वाल्टर अपनी आदत के अनुसार अपने घर चला गया।रूही फिर से एक बार अपनी किस्मत की तन्हाईयों में डूब गई।फिर जब छुयिां समाप्त हुईं तो वर्ष की अंतिम परीक्षायें आरंभ हो गईं।सारे के सारे छात्र और छात्रायें अपनी अपनी परीक्षाओं की तैयारियों में लग गये।सो इन दिनों रूही की वाल्टर से जब भी भेंट होती थी तो क्षणिक ही।सिर पर परीक्षाओं का बोझ था, इसलिये यूं भी घूमना फिरना और लापरवाही से रहने का जमाना अब जा चुका था।परीक्षाओं के दिनों में हांलाकि रूही वाल्टर से हर रोज़ ही मिलती तो थी, मगर फिर भी वह उसे अधिक समय नहीं दे पाती थी।बहुत हुआ तो परचा समाप्त होने के पश्चात वह जबरन ही वाल्टर को किसी भी रेस्तरां में चाय पिलाने के बहाने अपने साथ ले जाती थी।ऐसे में तब दोनों चुपचाप चाय पीते, दो-चार औपचारिक बातें करते और फिर दूसरे दिन के परचे की तैयारी के कारण एक दूसरे से अगले दिन मिलने की आशा में अलग हो जाते थे।


तब वह दिन भी आ गया जब कि, रूही और वाल्टर की परीक्षाओं का अंतिम परचा हुआ।इस अंतिम परचे के पश्चात फिर दोनों में से किसी को भी अब कालेज नहीं आना था।कालेज बंद और परीक्षायें समाप्त होने के पश्चात अब परीक्षाओं के परिणाम की ही चिन्ता होनी थी तथा साथ ही अपने अपने भविष्य का आधार ठोस बनाने के लिये किसी नौकरी इत्यादि की तलाश भर करना।साथ- साथ उठते-बैठते और चलते रहने के पश्चात अब साथ छोड़ देने का समय आ चुका था और समय भी ऐसा कि जिसमें भविष्य का कोई भी निर्णय लिये बगैर अब फिर से दुबारा साथ मिल जाने की तनिक भी गुंजाईश नहीं थी।यात्रा समाप्त, पथिक अलग, मगर ये रूही की किस्मत ही थी कि उसकी मंजिल का वह बसेरा कि जिसके वह ख्वाब सजाये बैठी थी, उसके बहुत करीब आकर भी वह उससे कोसों दूर थी।


फिर जिस दिन रूही और वाल्टर का अंतिम परचा था, उससे एक दिन पहले ही से रूही का मन अत्यधिक उदास था।पढ़ने का मन नहीं था, मगर फिर भी उसे पढ़ना पड़ा था।उसकी उदासी का कारण भी स्पष्ट था।वाल्टर की तरफ से उसे अब कोई भी उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी।वह जानती थी कि वाल्टर को पाने और उसका मन जीतने के लिये उसने पिछले पूरे दो वर्षों तक अथक परिश्रम किया था।हरेक उचित व भले दृष्टिकोण से उसने उसे अपने पास लाने के सारे प्रयत्न किये थे।कालेज के समस्त दिनों तक वह अधिक से अधिक उसके आस-पास ही मंड़राती रही थी, मगर फिर भी वह सफल नहीं हो सकी थी।वह जानती थी कि, वाल्टर का मन उसकी तरफ से पहले सामान्य था और आज कालेज के अंतिम दिनों तक भी वह सामान्य ही था।वह कभी भी उसकी तरफ से गंभीर नहीं बन सका था।हमेशा से ही उसने रूही के सारे कार्य कलाप और आपसी मधुर संबन्धों को साधारण तरीके की सीमा तक ही रखा था।वाल्टर के इस प्रकार के रवैये से साफ जाहिर था कि उसको रूही में कोई भी रूचि नहीं थी।वह उसे पसंद तो करता था, मगर एक प्रेमी के नज़रिये से नहीं।पसंद और प्यार में बहुत ही अंतर होता है।यूं भी इंसान की पसंदें तो कई हो सकती हैं, मगर जीवन साथी के रूप का प्यार तो केवल एक से ही किया जा सकता है।क्या पता कि वाल्टर का मन किसी अन्य पर मोहित हो चुका हो? सो ऐसी ही तमाम बातों के सोच विचारों से रूही सारे समय उदास ही बनी रही।वह जानती थी कि, उसने वाल्टर को चाहा था।उसे प्यार किया था।अपना समझ कर सदैव उसके प्रेम की जैसे उसने आराधना की थी, पर वहां से प्यार पाने की अब कोई भी आशा उसे नज़र नहीं आती थी।सब कुछ समाप्त ही नहीं बल्कि बंद होने की कगार पर आकर टिक चुका था।कालेज बंद होते ही कोई नहीं जानेगा कि, कौन वाल्टर था और कौन रूही? केवल इसके कि दिल के किसी कोने में अपने छूटे हुये अधूरे प्यार के अफ़साने को वह खुद ही सुने और खुद ही दोहराती रहे।


फिर जब परीक्षा का अंतिम परचा समाप्त हुआ तो रूही अपने मन पर टूटी हुई आस्थाओं का भारी पत्थर रखे हुये कालेज से सीधी वाल्टर के साध उसके हॉस्टल तक चली आई।यही सोच कर कि चलो एक बार फिर अंतिम रूप से वह उसको विदा कर दे।वाल्टर के कदमों में तेजी थी।वह रूही के साथ तो चल रहा था मगर फिर भी उसका ध्यान जैसे कहीं अन्यत्र ही था।रूही उससे बात करती थी तो वह उत्तर दे देता था वरना उसे तो जैसे उससे कोई मतलब ही नहीं था।


अपने हॉस्टल के कमरे में आकर वाल्टर जल्दी-जल्दी अपना सारा बिखरा हुआ सामान बांधने लगा।वह कालेज से आते ही अपने घर वापस जाने की तैयारी करने लगा था।शाम की तीन बजे वाली गाड़ी से वह जाने वाला था।रूही चुपचाप उसकी शीघ्रता और घर जाने की ललक को निहारे जा रही थी और वाल्टर उसकी तरफ से अनभिज्ञ बना अपने कमरे की बिखरी हुई वस्तुओं को उल्टा सीधा अपने सूटकेस में भरता जा रहा था।


फिर जब वाल्टर को अपने काम में अधिक देर हो गई तो सहसा ही उसे रूही की उपस्थिति का ख्याल आया।तब उसने रूही को एक पल निहार कर उससे कहा कि,


“इतनी देर से खड़ी हो? बैठ क्यों नहीं जाती हो?”


तब रूही चुपचाप वहीं पास में पड़ी हुई एक कुर्सी पर बैठ गई तथा वाल्टर उसके बैठते ही पुन अपने काम में व्यस्त हो गया।


इसी बीच कुछेक क्षण और बीते होंगे कि वाल्टर कुछ सोचता हुआ एक दम से अपने कमरे से बाहर निकल गया और हॉस्टल के नौकर को उसके कमरे में चाय लाने को कह दिया।अंदर आते ही उसने एक हल्की सी दृष्टि रूही पर डाली, वह अभी तक गंभीर मुद्रा में बैठी हुई वाल्टर की अपने घर जाने की जिज्ञासा और शीघ्रता में सारा सामान बटोरने की कार्य विधि को निहारे जा रही थी।वह ये अच्छी तरह से जान गई थी कि वाल्टर के काम करने की लौ और लगन इसकदर तीव्र थी कि वह जैसे शीघ्र ही अपने घर भाग जाना चाहता था।इतना अधिक वह उतावला हो चुका था कि उसको अब किसी भी प्रकार से रोका नहीं जा सकता था।उसके न रूकने का सबसे बड़ा कारण यही था कि उसको अब बलियापुर, कालेज और यहां की अन्य कोई भी वस्तु उसे प्रभावित कर पाने में सक्षम नहीं हो सकी थी।ये बात यहां तक आगे बढ़ गई थी कि स्वंय रूही भी वाल्टर को किसी भी तरह से पिछले दो वर्षों से प्रभावित नहीं कर पाई थी।


इसी बीच हॉस्टल का नौकर चाय की टिरे लाकर रखने लगा तो वाल्टर ने उसे अपनी जेब से पैसे देकर विदा कर दिया।नौकर ने चाय वहीं कमरे में पड़ी मेज पर लाकर रख दी थी, परन्तु वाल्टर को अति शीघ्रता थी सो उसने जल्दी ही अपना थोड़ा सा सामान और भरा फिर जैसे चारों तरफ कमरे में एक उचटती सी दृष्टि डालते हुये वह मेज के सामने आकर चाय बनाने लगा।


रूही ने जब उसको चाय बनाते हुये देखा तो तुरन्त ही वह अपनी कुर्सी छोड़ कर आई और चाय का प्याला तथा चम्मच वाल्टर के हाथ से लेते हुये बोली कि,


“लाओ, चाय मैं बनाती हूं।”


“!!”


तब वाल्टर बगैर कुछ भी बोले हुये रूही की तरफ आश्चर्य से देखने लगा।


“ऐसे देख कर आश्चर्य मत करो।तुम नहीं जानते होगे कि, पुरूष यदि स्त्री के सामने रसोई के काम करे तो उसे अच्छा महसूस नहीं होता है।”


तब वाल्टर फिर उससे कुछ भी कहे हुये वहीं दूसरी कुर्सी घसीट कर बैठ गया।इस बीच रूही ने पहले तो उसको चाय बनाकर दी, फिर अपने लिये भी बनाने लगी।तब अपने लिये चाय बनाते हुये रूही ने आपस के मध्य ठहरी हुई खामोशी की दीवार को तोड़ा।वह बोली,


“वाल्टर, तुम्हें क्या आज ही जाना जरूरी है?”


“यहां ठहर कर भी क्या करूंगा?”


“क्यों, बलियापुर क्या रास नहीं आया तुम्हें ?”


रूही ने पूछा तो वाल्टर जैसे चौंक गया।वह तब जैसे सकुचाते हुये उससे बोला कि,


“नहीं, ऐसी बात तो नहीं है, मगर फिर भी अधिक आकर्षित भी नहीं कर सका है मुझे।”


“बलियापुर एक पूरा जिला है, और आश्चर्य की बात है कि तुम्हें यहां की कोई एक चीज़ भी कतई पसंद नहीं आ सकी?”


रूही की इस बात पर वाल्टर फिर से चुप हो गया।अब तक रूही ने अपने लिये चाय बना ली थी और वह उसका घूंट भरने के पश्चात वाल्टर से पुन बोली,


“मैं चाहती थी कि तुम दो एक दिन और ठहर जाते तो मैं तुमको एक अच्छी सी पार्टी देकर विदा करती।”


“नहीं, पार्टी बगैरह रहने दो।मुझे तो आज ही जाना है।फिर इतने वर्षों से हम दोनों साथ-साथ पढ़े, एक साथ रहे, एक दूसरे को जाना और पहचाना, क्या मानवीय मित्रता के लिये इतना काफी नहीं रहा?”


वाल्टर ने उत्तर दिया तो रूही के मुख से सहसा ही निकल गया,


“शायद?”


“शायद?” वाल्टर ने चौंक कर कहा तो रूही बोली,


“मनुष्य अपने परमेश्वर की आराधना करता है।उसकी इबादत के गीत गाता है।यदि परमेश्वर के यहां उसकी दुआयें कबूल कर ली जाती हैं तो वह वरदान का सहभागी होता है।नहीं तो......”


“नहीं तो क्या?”


“उसकी इबादत में कहीं न कहीं तो कमी रह ही जाती है।”


“!!”


रूही के इस उत्तर पर वाल्टर फिर से चुप हो गया।वह कुछ भी बोले बगैर जब फिर से चाय पीने लगा तो कुछेक क्षणों के पश्चात रूही ने चुपचाप अपने प्याले की ठहरी हुई चाय में झांकते हुये उससे कहा कि,


“वाल्टर, एक बात पूछूं?”


“हां?”


“पक्षी जब सुबह अपने घोंसले से बाहर निकलता है तो उसे भोजन वस्तु की तलाश तो रहती है, परन्तु वह नहीं जानता है कि वह कहां जा रहा है।मगर जब वह लौटता है तो उसको अपने बसेरे का सारा मार्ग याद रहता है।मैं जानती हूं कि तुम अपने घर जा रहे हो।वह तुम्हारा पैत्रिक घर है। निश्चित बात है कि तुमको वहां अच्छा तो लगेगा ही, परन्तु फिर भी यदि तुम्हारा वहां पर मन भर जाये और कोई वस्तु भली न लगे तो बलियापुर वापस आने का मार्ग भूलना नहीं।”


“तुमने कहा है तो याद तो रखूंगा ही। जिस प्रकार से कुछेक बातें भुलाई नहीं जा सकती हैं, उसी तरह से जीवन की कुछ परिस्थितियों को नकारा भी तो नहीं जा सकता है।”


वाल्टर की इस बात के पश्चात रूही कुछ भी नहीं बोली थी।दोनों की बातें समाप्त हो चुकी थीं।यहां तक आने के पश्चात दोनों का कालेज का सफ़र भी समाप्त हो चुका था।रूही ने अपनी पसंद और चाहतों के वशीभूत एक नाउम्मीदों का भारी पत्थर छाती पर रख कर वाल्टर को अंतिम रूप से विदा किया।फिर वाल्टर अपने घर को रवाना हो गया और रूही अपनी उन आशाओं पर मजबूरियों की चादर डाल कर मायूसी के साथ अपने घर लौट आई जिनको उसने कभी दिल की सारी हसरतों से सजा लिया था।

वाल्टर घर आया तो अपने शहर, घर और उसके बचपन की सारी मधुर हवाओं ने उसका भरपूर स्वागत किया।इस सबका प्रभाव इसकदर हुआ कि रूही की रही बची स्मृतियां भी वाल्टर के मानसपटल से स्वत ही धुलने लगीं।आरंभ में हांलाकि उसे बलियापुर की यादों ने परेशान तो किया। रूही का चेहरा और उसके अनकहे प्यार का निमंत्रण उसकी नज़रों के सामने से कई कई बार गुज़रा भी मगर जब महलत का चेहरा उसके सामने आया तो वह रूही के बारे में बिल्कुल ही भूल गया।

उसके घर वापस आते ही उसकी बचपन की सहेली महलत ने उसको अपने प्यार के आगोश में इसकदर छिपाना चाहा कि सारे समाज में उसकी खुशबू बिखरते देर नहीं लगी।हांलाकि उनकी चाहतों के हल्के फुल्के चर्चे वहां के माहौल में पहले ही से तैर भी रहे थे। लोगों की जुबानों पर चुप-चुप बातें तो थीं हीं, मगर फिर भी अभी तक कोई भी फसाना नहीं बन सका था।लेकिन जब वाल्टर बलियापुर से अपनी कालेज की शिक्षा समाप्त करके सम्पूर्ण रूप से अपने घर पर आकर रहने लगा और प्राय ही उसका महलत से मिलना जुलना होने लगा तो बहुत से लोगों को ये सब देख कर सहन करना कठिन भी हो गया।सबसे अधिक परेशानी महलत के परिवारी जनों को होने लगी।उनकी इस परेशानी का सबसे बड़ा कारण महलत और वाल्टर के परिवारों में वर्षों से चला आ रहा वह आपसी मन मुटाव और वैमनस्य था जो बाहर से देखने पर नज़र तो नहीं आता था, पर उसकी जड़ें अन्दरूनी तौर पर काफी मजबूत हो चुकी थीं।सो ऐसी दशा में दोनों परिवारों में ब्याह जैसे सम्बंधों की कल्पना करना ही व्यर्थ था।एक ओर कन्यादान करके अपने को छोटा साबित करने की बात थी तो दूसरी ओर अपने रिवाजों की डोर कट जाने का प्रश्न; बजाय इसके कि दोनों परिवार मिलकर इंसानियत का एक अच्छा स्वरूप प्रस्तुत करते, अपने अंह की अग्नि में खुद तो जले ही, साथ में दो युवा प्रेमियों की कोमल भावनाओं की भी अर्थी निकाल बैठे।फलस्वरूप महलत पर पाबंदी लग गई।उसके बाहर निकलने और उठने-बैठने पर निगरानी लगने लगी।अब जब भी महलत बाहर निकलती तो कोई न कोई उसके साथ उसके अंगरक्षक के समान लगा ही रहता।अब वह वाल्टर से खुल कर बात भी नहीं कर सकती थी और ना ही वाल्टर उससे।अब दोनों की मुलाकात केवल आंखों तक ही सीमित थी।सो महलत और वाल्टर दोनों ही एक दूसरे को दूर से देखते, पास आते, मगर समुचित बात कभी भी नहीं कर पाते थे।


वाल्टर परीक्षा देने के पश्चात अभी तक अपने घर पर ही था।परीक्षा का परिणाम अभी तक घोषित नहीं हुआ था और कोई नौकरी भी वह अभी तक ढूंढ़ नहीं सका था।इसके साथ-साथ महलत ने भी स्नातक की परीक्षा दी थी, मगर उसके बारे में सुनने में आ रहा था कि उसके विवाह का अतिशीघ्र कार्यकम बनाया जा रहा था।महलत के परिवार वाले चाहते थे कि अतिशीघ्र ही उसका विवाह करके वे अपने उत्तरदायित्व को तो पूरा करेगें ही, साथ ही भविष्य में आने वाली बदनामी के चर्चों से भी वे सुरक्षित हो जायेंगे।


तब एक दिन महलत का विवाह हो गया।विवाह भी ऐसा जो उसके घर से न होकर उसकी मौसी के घर से सम्पन्न किया गया था।प्यार की कोमल अनुभूतियों को बेरहम़ी से नष्ट करने के नाम पर फिर एक बार सामाजिक हत्कंडे और आंकड़े काम में लिये गये।वे नियम और दस्तूर जिन्हें पूरा करके आज का मनुष्य अपने आपको उत्कृष्ट तो ज़ाहिर करता ही है, साथ ही अपनी मानसिक व्याधि का भी प्रदर्शन कर देता है।


विवाह के पश्चात महलत अपने पति के साथ अपने घर चली गई और वाल्टर अपने असफल प्यार की तन्हाईंयों के अंधेरों में डूबने लगा।रूही को वह अपना नहीं सका था और महलत समाज की संकीर्ण रूढि़यों का शिकार बन कर उसके हाथों से निकल चुकी थी।अब संसार में वह कहीं का भी नहीं रहा था।ऐसी थी उसके प्यार की नैया कि किनारा उसको मिल नहीं सका था और सागर की लहरों ने भी उसे दबोचने से इंकार कर दिया था।वह ना तो डूब ही सका था और ना ही किनारे आ सका था।


जब वाल्टर से कुछ भी नहीं बन सका तो वह उदास ही नहीं बल्कि अपने आपसे खामोश भी हो गया।मित्रों और परिचितों के सामने उठने-बैठने से वह जी चुराने लगा।घर में भी उसने सबसे बात करना स्वत ही बंद कर दिया।ना तो वह कहीं जाता और ना ही उसका किसी भी कार्य में मन ही लगता।सारे सारे दिन वह अपने कमरे में ही पड़ा रहता।चुप तो वह था ही, अब अपने माता-पिता के सामने भी आने से वह कतराने लगा था।ना तो अब उसका उठने का कोई समय रहा था और ना ही सोने का।यूं भी वह अब कहीं भी नहीं निकलता था और यदि चला भी गया तो वापस आने का उसका कोई समय भी नहीं था।महलत के जाते ही उसकी तो सारी दिनचर्या ही अस्त-व्यस्त हो गई थी।फिर जब घर में उसके माता-पिता ने उसका ऐसा बदला हुआ हाल देखा तो वे स्वत ही समझ भी गये।कारण उनको ज्ञात ही था, सो वे उससे पूछने का साहस भी नहीं कर सके।वे जानते थे कि, आपसी लड़ाई-झगड़ों ने एक जोड़े को साथ मिलने से पहले ही अलग कर दिया था।इसका प्रभाव तो सब पर पड़ना ही था।सबसे अधिक चिन्ता वाल्टर की मां को हो गई।लड़के के चेहरे की सारी रंगत चली गई थी।स्वास्थ्य दिन व दिन गिरता जा रहा था।ऐसे में चिन्ता तो मां को होनी ही थी।सो उन्होंने वाल्टर के पिता से एक दिन कहा भी कि,


“देखो तो सही। लड़के का कैसा हाल हो गया है? कुछ तो करो, कहीं हाथों से निकल गया तो फिर?”


तब एक दिन, वाल्टर के पिता ने स्वंय ही उससे बात की।उसे अपने गले से लगाया।अपने पैतृत्व का वास्ता दिया।जी भर के समझाया और जीवन में आने वाली हरेक कठिनाईंयों से सामना करने का हौसला दिया।उन्होंने वाल्टर से यही कहा कि,


“जीवन में उतार चढ़ाव तो आते ही रहते हैं।मनुष्य जो भी सोचता है, वह उसे सदा मिल तो नहीं जाता है।जो कुछ भी खो गया है, उसकी चिन्ता करने से क्या लाभ? बेहतर है कि जो कुछ बच कर रह गया है, उसको सुरक्षित रखना ही समझदारी है।”


इसके साथ-साथ उन्होंने वाल्टर को ये भी सलाह दी कि,


“यदि यहां पर मन नहीं लगता है तो कुछ दिनों के लिये कहीं भी घूमने चले जाओ।हो सकता है कि, नये शहर का बदला हुआ वातावरण तुम्हारे दर्द को समेटने में सक्षम हो सके?”


सो उन्होंने उसे बलियापुर जाने की राय दी और कहा कि वहां पर उनके एक मित्र हैं, वे उसका ठहरने का सारा प्रबंध भी कर देंगे।यूं वैसे भी बलियापुर उसका देखा हुआ भी है।हो सकता है कि, कुछेक मित्र भी उसके वहां पर मिल जायें ?


तब वाल्टर को ये बात समझ में आ गई।तुरन्त ही उसे ध्यान आया कि महलत भी तो अपने विवाह के पश्चात बलियापुर ही गई है।रूही तो पहले ही से वहां पर है।इस बीच रूही के तीन पत्र भी उसके पास आ चुके थे।इन पत्रों में उसने लिखा था कि अब वह वहीं के एक इण्टर कालेज में पढ़ा रही है और अपनी मां से अलग होकर अपने पिता के पुराने मकान में जाकर रहने लगी है, क्योंकि उसकी मां उसका रिश्ता किसी ऐसे लड़के से करा देना चाहती थीं, जो उसे पसंद नहीं था।


तब एक दिन वाल्टर महलत के प्यार की ठोकर का दर्द अपने सीने में छुपा कर एक निराधार आशा का दामन थाम कर फिर से बलियापुर आ गया।उसके पिता के मित्र ने उसका रहने का प्रबन्ध पहले ही से कर दिया था, सो ठहरने की उसे कोई भी कठिनाई नहीं हो सकी थी।


तब बलियापुर आने के पश्चात एक बार फिर से उसकी भूली बिसरी यादों ने करवट ली।उसकी स्मृतियों ने उसे फिर से कुरेदना आरंभ किया तो उसके अतीत के दिनों के बीते हुये पल एक-एक कडि़यों के समान फिर से श्रंखला का रूप लेने लगे।वह जानता था कि, वही बलियापुर था।बलियापुर का वही कालेज जहां पर वह कुछ समय पहले एक विद्यार्थी के रूप में घूमा-फिरा था।उसे ये भी मालुम था कि महलत भी कहीं इसी शहर में रह रही है। मगर कहां पर? ये वह नहीं जानता था।परन्तु महलत से एक बार उसकी मिलने की इच्छा अवश्य ही थी।अपने घर पर रह कर तो वह उससे मिल नहीं सका था।सो किसी प्रकार उसने महलत का पता लगा लिया और एक दिन सुबह के समय वह उसके घर पर पहुंच गया।


प्रात का समय था ।सूर्य की कोमल किरणों में अब तक कठोरता आ चुकी थी।मनुष्यों का दैनिक कार्यक्रम आरंभ हो चुका था।वाल्टर ने पता लगा लिया था कि महलत का पति किसी फैक्टरी में कार्य करता था, सो इस समय तक उसका घर पर रहने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।वह अपने काम पर जा चुका होगा और घर पर केवल इस समय महलत ही होनी चाहिये, ऐसा उसने सोचा था।


फिर जब वाल्टर ने महलत के घर का द्वार खटखटाया तो तुरन्त ही उसे घर के अंदर किसी के चलने-फिरने की आवाज सुनाई दी।उसे लगा कि जैसे कोई दरवाजे तक आया हो और फिर उसे चुपके से देख कर तुरन्त ही घर में पीछे लौट गया है।वाल्टर चुपचाप दरवाजे पर ही खड़ा रहा। फिर थोड़ी देर बाद जब दरवाजा खुला तो महलत उसके सामने खड़ी थी। साड़ी पहने हुये। वाल्टर ने सोचा कि घर के अंदर वह शायद अपने दूसरे अस्त- व्यस्त वस्त्रों में रही होगी, इसी कारण उसको देख कर उसे कपड़े बदलने में देर लगी थी।


महलत ने जब वाल्टर को यूं सामने खड़े पाया तो उसे कतई आश्चर्य नहीं हुआ।इसका कारण शायद वह पहले ही उसको अंदर से चुपचाप झांक कर देख चुकी थी।मगर वाल्टर महलत को देख कर अवश्य ही जैसे ठिठक गया था।विवाह के पूर्व और विवाह के पश्चात अचानक ही स्त्री में कितना अधिक परिवर्तन आ जाता है, ये वह अपनी आंखों से देख रहा था।जिस महलत के साथ उसने अपनी जि़न्दगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा मिल बैठ कर गुजारा था और जिसके साथ कभी जीवन भर एक साथ मरने-जीने की कसमें खाईं थीं, वह अब विवाह के बंधन में पड़ने के बाद एक अजनबी के समान उसे निहार रही थी।


वाल्टर अभी भी उसको देख कर अपने ख्यालों में ही था कि, तभी महलत ने उससे कहा कि,


“तुम.....और यहां?”


“!!”


“अब यहां क्या लेने आये हो?”


“!!”


वाल्टर ने जब महलत के दूसरे प्रश्न पर भी कोई उत्तर नहीं दिया तो उसने गंभीर होकर जैसे उससे शिकायत सी की।वह बोली,


“जब अपने द्वार पर मुझे लाने का साहस तुम नहीं जुटा सके तो फिर पराई दहलीज़ पर कदम रखने का ख्याल तुमने कैसे कर लिया? मेरे और तुम्हारे सम्बन्धों की डोर तो उसी दिन कट गई थी, जब कि विवाह की डोली के नाम पर मेरे प्यार की अर्थी उठी थी।मुझे आश्चर्य है कि तुम मेरे कैसे प्रेमी थे जो मेरे प्यार की मैय्यत पर क्षण भर को कंधा देने भी नहीं आ सके? यदि तुम थोड़े से भी समझदार इंसान हो तो अब यहां पर कभी भी मत आना।मेरे पति को यदि तुम्हारे बारे में ज़रा भी पता चल गया तो मैं कहीं की भी नहीं रहूंगी।”


ये कह कर महलत ने दरवाजा बंद कर लिया तो वाल्टर वहां खड़ा रह कर अपना सा मुंह लेकर रह गया।किंकर्तव्यविमूढ़ सा।क्षण भर को उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्या करे और क्या नहीं? महलत से ऐसे तिरस्कृत व्यवहार की आशा उसने तो कभी नहीं थी। ये कैसी बिडम्वना थी कि उसकी वह प्रेयसी जो कभी किसी की भी परवा न किये हुये उसे देखते ही उससे लिपट जाती थी, आज उसकी तरफ देख भी नहीं सकी थी?


फिर जब कई एक पल यूं ही व्यतीत हो गये तो वह वहां से एक तिरस्कृत भावनाओं के बोझ को उठाये हुये चुपचाप खिसक आया।उसके प्यार की राहों का एक मार्ग कभी उसने स्वंय बंद किया था तो दूसरा आज अपने आप समाप्त हो चुका था।


तब महलत के पास से आने के पश्चात वाल्टर दो तीन दिनों तक यूं ही शहर में भटकता सा रहा।बिना किसी भी उद्देश्य के वह कभी कहीं जाता तो कभी कहीं।जहां पर वह ठहरा हुआ था, उस स्थान पर भी उसका ना तो कोई आने का समय था और ना ही निकलने का।इसके अतिरिक्त अब ना ही उसका कोई उद्देश्य रहा था और ना ही कोई मार्ग ही।तब ऐसे में अपनी तन्हाईयों के अंधेरे में भटकते हुये उसे एक दिन अचानक ही ख्याल आया कि रूही भी तो इसी शहर में ही रह रही है।उसने जब वह अपने घर पर था, तब तीन पत्र भी उसको लिखे थे।वह भी अब कहीं इसी शहर में ही किसी लड़कियों के इण्टर कालेज में पढ़ाने लगी थी।तब यही सब सोच कर वाल्टर ने न जाने क्यों रूही से मिलने का निश्चय कर लिया।चूंकि रूही लड़कियों के कालेज में पढ़ा रही थी, इसलिये उसे उसका पता लगाने में कोई विशेष कठिनाई नहीं आ सकी, क्योंकि बलियापुर में लड़कियों के केवल दो ही इण्टर कालेज थे।सो कालेज से रूही के घर का पता लगा कर, वह ढूंढ़ता हुआ एक दिन सुबह-सुबह के समय उसके घर पर जा पहुंचा।


गर्मी के दिन थे।सुबह की धूप में अभी तक कोमलता ठहरी हुई थी ।नये दिन की नई ऊषा में रात्रि की ठंडक अभी तक व्याप्त थी।


वाल्टर ने जैसे ही रूही के घर का दरवाजा खटखटाया तो थोड़ी देर के पश्चात जैसे ही रूही ने दरवाजा खोला तो वह वाल्टर को अचानक देख कर सहसा ही चौंक गई।उसे देख कर तुरन्त ही उसका चेहरा फूल सा खिल पड़ा।वह अभी तक अपनी सोने वाले कपड़ों में मैक्सी जैसा गाऊन ही पहने हुये थी।मगर किसी भी बात की परवाह किये बगैर तुरन्त ही उसके मुख से अचानक ही निकल पड़ा,


“अरे तुम?”


“!!”


वाल्टर जब कुछ भी नहीं बोला तो वह शीघ्र ही उससे बोली कि,


“आओ। अंदर आओ।बाहर क्यों खड़े हो?”


फिर बड़ी ही प्रसन्नता के साथ वह वाल्टर को घर के अंदर ले आई और शीघ्र ही उसका सामान एक मेज पर रखते हुये उसे सोफे पर बैठाते हुये उससे बोली कि,


“अब बोलो। कैसे हो? घर में सब ठीक तो है। मैंने तुम्हें तीन पत्र लिखे थे, कम से कम किसी एक का तो उत्तर दे दिया होता?”


रूही के शब्दों में अपने प्रति शिकायत भी पाकर जब वाल्टर ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया तो रूही को आश्चर्य तो हुआ, परन्तु उसने इसे अन्यथा नहीं लिया।वह उसकी मनोस्थिति को महसूस करते हुई बोली,


“लगता है कि रात भर के सफ़र में तुम थक गये हो? मैं भी कितनी मूर्ख हूं कि बजाय इसके कि,चाय आदि के पूछने के तुम्हें कुरेदने पहले लगी हूं।ठीक है, तुम ज़रा आराम करो, तब तक मैं तुम्हारे नहाने-धोने तथा चाय नाश्ते आदि का प्रबंध करती हूं।”


ये कह कर रूही शीघ्र ही रसोई में चली गई।फिर अपनी खाना पकाने वाली नौकरानी को कुछ निर्देश देकर वह अपने कमरे में आई और जल्दी से छुट्टी की अर्जी लिखी तथा उसे दे दी।फिर जब उसकी नौकरानी जिसका नाम जसिया था, चली गई तब उसने तुरन्त ही वाल्टर के लिये चाय का पानी चढ़ा दिया और शीघ्र ही अंडे बनाये, साथ ही पराठे भी।फिर जब सब कुछ तैयार हो गया तो नाश्ते को खाने की मेज पर सजा कर वाल्टर के पास आई, मगर वाल्टर इतनी सी देर में सोफ़े पर ही सो गया था।


बाद में थोड़ी देर सोचने के पश्चात उसने वाल्टर को जगा कर पहले तो उसने उसे नाश्ता कराया, फिर नहाने का पानी उसके लिये गर्म किया और फिर उसको नहाने को कह कर वह उसके लिये खाना पकाने लगी।वाल्टर के आने की खुशी में उसने आज जसिया को छुी दे दी थी।सोचा था कि वह आज उसके लिये खुद ही खाना बनायेगी।सचमुच ही वाल्टर को अपने घर पर आया देख उसकी खुशियों का ठिकाना नहीं था।वह उसकी मन पसंद का खाना बनाते हुये सोच रही थी कि, अब उसे किसी बात की चिन्ता नहीं होनी चाहिये।परमेश्वर ने उसकी दुआओं को सुन लिया था।उसका वाल्टर खुद ही उसके द्वार पर चल कर आया था।इसके अतिरिक्त उसे अब और क्या लेना-देना था।पिछले वर्षों की उसकी तपस्या आज जैसे पूरी हो चुकी थी।वह जानती थी कि, जिस वाल्टर की खातिर उसने अपनी मां का कहना नहीं माना था और उसकी पसंद के लड़के से विवाह करने से इंकार कर दिया था उसी वाल्टर को पाकर हो सकता है कि उसकी मां अब उसे क्षमा भी कर दे?अपने प्यार के रास्ते उसने स्वंय ही चुने थे, स्वंय ही उस पर एक आस लगा कर चलती आई थी, और आज जब मंजिल स्वंय उसके द्वार पर दस्तक देने लगी थी तो रूही को खुश तो होना ही था।आज तो जैसे उसकी वंदना के सारे दिये खुद व खुद ही प्रज्वलित होने लगे थे।


सो उसी दिन रूही सारे समय अपने घर में ही रही।जसिया से उसने वाल्टर के ठहरने के लिये दूसरा कमरा भी साफ करा दिया था।उसका तीन कमरों का मकान था, सो वाल्टर के ठहरने के लिये कोई कठिनाई भी नहीं हुई थी।सारे समय वह वाल्टर की हरेक सुविधा के लिये ही तत्पर बनी रही।इस बीच उसने वाल्टर से ढेरों ढेर बातें भी कर ली थीं ।वाल्टर से बहुत कुछ पूछ लिया था ।स्वंय वाल्टर ने भी अपनी प्यार की जबरन छिनी हुई बाजी के बारे में उसे बता दिया था ।महलत के असफल प्यार ने उसे जि़न्दगी की तन्हाईंयों में कहां तक धकेल दिया था, ये बात भी उसने रूही से नहीं छिपाई थी।हांलाकि, रूही को महलत के बारे में सुनकर कोई अच्छा तो नहीं लगा था, मगर फिर भी वाल्टर को पुन पाकर उसने इसे सहज ही ले भी लिया था।उसने सोच लिया था कि उसको वाल्टर के पिछले जिये हुये दिनों से सरोकार भी क्या? सम्बन्ध तो उसका उसके साथ आने वाले भावी दिनों से रहेगा।वाल्टर का पिछला गुज़ारा हुआ जीवन कैसा था? वह किसके लिये जिया गया था? ऐसी बातों के लिये सोचना और नाहक ही अपने मन को खराब करना, इन सब बातों से लाभ भी क्या था? ये ठीक है कि, महलत के असफल प्यार के कारण वाल्टर का दिल दुखी तो रहेगा।उसके जीवन में एक अधूरापन तो है, फिर भी प्यार की अधूरी कहानी का दर्द यदि बना भी रहा तो वह उसको अपने अपार प्यार की बाहों में लपेटकर उसके जीवन के समस्त खालीपन को भर भी देगी।जो प्यार की कहानी महलत के कारण अधूरी रह गई है, उसको अब वह अपने प्रेम और अनुराग की कलम से पूरा भी कर देगी।यही सोच कर रूही ने अपने आपको समझा लिया था। खुद को संतोष दे लिया था। इसलिये कि उसके प्यार के पथ का राही हर तरफ से भटक कर आखिरकार उसके पास लौट तो आया था।क्या इतना ही उसके लिये काफी नहीं था?


फिर इस तरह होते होते कई एक दिन बीत गये।एक और सप्ताह हो गया और रूही की छुट्टियां भी समाप्त होने को आईं तो उसने अपनी छुट्टियां और बढ़ा लीं।इस बीच रूही ने वाल्टर को बलियापुर की कई एक प्रसिद्ध जगाहें भी दिखला दी थीं।रूही ने इन दिनों यही चाहा था कि, वाल्टर का मन प्रसन्न रहे।वह अपनी पुरानी बातें भूल जाये और उसके दिल से महलत के दर्द का ज़ख्म साफ हो जाये। फिर हुआ भी यही, वाल्टर पहले से अधिक खुशनज़र आने भी लगा था।अब प्राय ही वह रूही से बातें करता था।उसकी बातों में संसार के कितने ही विषय होते थे, मगर जिस विषय पर रूही बात करना चाहती थी, उसके बारे में वाल्टर अभी भी जैसे अनभिज्ञ सा दिखता था।


तब एक दिन, वाल्टर ने शाम की चाय के समय बातों-बातों में रूही से अपने घर वापस लौटने की बात कही तो रूही जैसे उदास हो गई।उसका उदास हो जाना बहुत स्वभाविक भी था।जिस पथ पर वह चली जा रही थी, उसकी मंजिल सामने पाकर भी वह प्राप्त नहीं कर पा रही थी।ऐसी दशा में वह वाल्टर को किस प्रकार जाने को कह सकती थी?


तब बातों के मध्य ही रूही ने वाल्टर को दूसरे विषय में एम. ए. करने की या फिर बलियापुर में ही नौकरी ढूंढ़ने की सलाह दी, क्योंकि वह तो यही चाहती थी कि किसी भी प्रकार से वह वाल्टर के करीब ही बनी रहे।मगर वाल्टर ने जब उसके सुझाव को टाल दिया तो वह खामोश हो गई।उसने कुछ भी नहीं कहा।वह यही सोच कर चुप हो गई कि यदि उसका परमेश्वर चाहेगा तो वह वाल्टर का मन जीत लेगी और वह उसका जीवन साथी बन जायेगा, अन्यथा अपनी किस्मत का निर्णय तो उसने पहले ही से अपने खुदा के हाथों में छोड़ रखा है।वह चाहेगा तो वाल्टर उसके जीवन में आ जायेगा, अन्यथा अपनी किस्मत का निर्णय, जैसा भी उसके सामने आयेगा, उसे पाकर उसे संतोष तो करना ही पड़ेगा।यही संसार का चलन है, विधि है, और मानव जीवन का निचोड़ भी। क्योंकि मनुष्य जो सोचता है, चाहता है, वह हो नहीं पाता है, और जिसकी कभी कल्पना भी नहीं करता है, जीवन का वही कठोर सत्य उसके सामने आ जाता है । वह भी शायद इसलिये कि, मनुष्य अपने बसेरे अपनी इच्छा से अपनी तरह बनाने की भरसक कोशिश करता है, जबकि दुनिया का विश्वास है कि जोड़े आसमान से ही बनकर आते हैं।


फिर रूही के कुछेक दिन और इसी उहापोह में व्यतीत हो गये।इस बीच ना तो वाल्टर ने ही उसके मन की बात कही, और ना ही अपने दिल की बात वह उससे कह सकी।बजाय इसके कि, वाल्टर बाकायदा रूही के साथ विवाह का प्रस्ताव रखता, उसने एक रात वह शैतानी हरकत करनी चाही कि जिसका वर्णन करना इस कहानी का उद्देश्य नहीं है, क्योंकि ऐसी बातों की हॉमी ईश्वर और समाज के नियम विवाह पूर्व नहीं देते हैं।जो कुछ भी हुआ उसके कारण रूही के मन में वाल्टर के प्रति वर्षों से बसी हुई समस्त पवित्र भावनायें गर्म मोम के समान एक पल में ही बह गईं।वाल्टर का वह रूप कि जिसकी इबादत में रूही वर्षों से अपना सिर झुकाये रही, जब जीवन के वास्तविक दर्पण के सामने अपनी हकीकत का प्रदर्शन करने लगा तो उसके मन की पवित्र भावनाओं के सारे पुष्प मुरझाते देर भी नहीं लगी।तुरन्त ही रूही का सारा रवैया वाल्टर के प्रति बदल गया।फिर दूसरे दिन सुबह के समय वाल्टर के उठने से पूर्व ही उसने एक पत्र लिखा और जसिया के द्वारा वाल्टर को देने को कह कर वह अपने काम पर चली गई थी..........’।


........सोचते-सोचते वाल्टर ने अपनी पैंट की जेब से रूही का लिखा हुआ पत्र फिर से निकाला और उसे दुबारा पढ़ने लगा।पढ़ते-पढ़ते उसने पत्र का अंतिम हिस्सा फिर से पढ़ा।जहां पर रूही ने उसे लिखा था कि,


‘मेरे जीवन मार्ग में साथ-साथ चलने वाला जो पथिक मुझे मंजिल तक पहुंचने से पूर्व ही पथभ्रष्ट करना चाहे, वह मेरे पथ का राही कभी भी नहीं हो सकता है।’


शाम डूब कर रात्रि में परिणित हो चुकी थी।अमावस्या की रात थी और आकाश में तारे इठलाने लगे थे।गाड़ी अपनी रफ्तार से भागी जा रही थी।वाल्टर के घर तक का मार्ग केवल बीच के दो स्टेशन भर और रह गया था।इन दो स्टेशनों के पश्चात ही उसका भी घर आ जाना था।रात्रि के अंधकार में रेलगाड़ी के साथ पीछे भागते हुये टेलीफोन के तारों के खंभे और रेंगते हुये प्रकृति के सारे पेड़-पौधों के समान ही वाल्टर की भी यादों के चित्र कहीं तेजी से पीछे भाग गये थे।बलियापुर उसकी बिसरी हुई स्मृतियों के समान ही अतीत के धुंधलके में कहीं दूर जाकर लुप्त हो चुका था।बलियापुर से रवाना होने के समय से लेकर अब तक इतनी देर में वह बैठा-बैठा अपने जीवन की ना जाने कितनी यादों को फिर से दोहरा गया था।रूही के प्यार की आरज़ुओं के साथ गुजारे हुये मोहक दिन और महलत के प्यार की लालसा में लौटे हुये उसके खाली सूने हाथ, अब उसकी जि़न्दगी के उस मोड़ पर आकर ठहर चुके थे कि, जहां पर जीने का कोई मकसद शेष नहीं रह जाता है।मानव जीवन का एक ऐसा ठिकाना कि, जिसकी दहलीज़ पर कदम रखते ही इंसान की सारी लालसायें खामोशी का कफ़न ओढ़ने पर मजबूर हो जाती हैं।रूही और महलत; दोनों ही को आज उसने खो दिया था। एक की वह कद्र नहीं कर सका था, तो दूसरी को उससे छीन लिया गया था।


सहसा ही गाड़ी की रफतार कम होने लगी तो अन्य यात्रियों के समान वाल्टर का ध्यान भी भंग हो गया।वह खिड़की से बाहर देखने लगा। कोई छोटा स्टेशन था, मगर लाल बत्ती होने के कारण गाड़ी को रूकना पड़ रहा था।ऐसा लगता था कि किसी अन्य तेज रफ्तार वाली गाड़ी को पहले निकाला जाना था।


गाड़ी जब पूर्णत रूक गई तो बाहर के वातावरण की ठंडी महीन, कोमल हवाओं ने डिब्बे में आना आरंभ कर दिया।कुछेक यात्री गाड़ी से नीचे भी उतर चुके थे।पास के छोटे से शहर की विद्युत बत्तियां दूर से ही मुस्करा रही थीं।


वाल्टर अभी भी बैठा हुआ था।उसका सूटकेस ऊपर वाली सीट पर पड़ा हुआ था।इस समय वाल्टर का मन ऐसा था कि, ना तो उसे अपने घर लौटने की कोई उमंग थी और ना ही बलियापुर से वापस आने की कोई खुशी ही। उसको वापस आना था, सो वह आ गया था।अब कोई अन्य दूसरा ठिकाना भी नहीं था, इसलिये घर तो आना ही था।जीवन का कोई उद्देश्य बाकी नहीं बचा था।किसके लिये जीना था? और क्यों जीना था? इस प्रकार के प्रश्न पूछने का अधिकार अब शायद किसी के भी पास शेष नहीं था।गाड़ी अब तक इस प्रकार से पूरी तरह से खड़ी हो चुकी थी कि, जैसे उसे अब कहीं और जाना ही नहीं था।


वाल्टर ने जब अन्य यात्रियों को गाड़ी से बाहर नीचे टहलते हुये देखा तो वह भी गाड़ी के डिब्बे से बाहर आ गया।बगैर किसी भी मतलब के और यूं ही बाहर के ख़ामोश पर चेतन्य वातावरण को निहारने लगा।रात्रि पड़ने लगी थी सो आस-पास की घास और वनस्पति में छिपे हुये कीड़े-मकोड़ों का अलाप यूं ही सारे वातावरण की निस्तब्धता को भंग करने का भरसक प्रयत्न कर रहा था।


तभी अचानक से गाड़ी ने सीटी दी तो बाहर खड़े हुये सारे यात्री जल्दी-जल्दी अपने-अपने डिब्बों में चढ़ने लगे।हरी बत्ती हो चुकी थी।गाड़ी को आगे बढ़ने का मार्ग मिल गया था।वाल्टर अभी भी खड़ा हुआ था।तभी गाड़ी धीरे-धीरे आगे की ओर सरकने लगी।मगर वाल्टर वहीं खड़ा रहा।अपने ही स्थान पर। उसका गाड़ी में दुबारा बैठने का मन ही नहीं हुआ।अब उसको जाना भी कहां था? फिर जाकर वह करता भी क्या? थोड़े से पलों के मध्य ही गाड़ी अपनी पूरी रफ्तार पकड़ कर उसको पीछे अकेला खड़ा छोड़ कर बहुत आगे निकल गई।


फिर जब सब कुछ समाप्त हो गया और वहां पर सूनी रेल की पटरियों के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचा तो वाल्टर चुपचाप रेल की पटरियों की ढलान से नीचे उतरा और सूने, खामोश खेतों की ओर चल पड़ा।कहां? किस ओर? और किस उद्देश्य से? उसे नहीं मालुम था। वह केवल चला जा रहा था। ये सोचे बगैर कि, प्यार की बाजी हारने का मतलब जीवन की हरेक क्षेत्र की असफलता ना होकर अपनी गलतियों को सुधारने की चेतावनी भी हो सकती है।

समाप्त।