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आज की अहिल्या

पत्थर बनने से इंकार करती डॉ. इंदु झुनझुनुवाला की 'आज की अहिल्या'

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

सुप्रसिद्ध साहित्यकार रमणिका गुप्ता जी बिहार की कोलियारी के मज़दूरों के लिए काम करतीं थीं। वे एक गाँव में सरपंच के यहाँ गईं तो उनकी बहू घूंघट निकाले एक बच्चे को गोद में लेकर आई तो सरपंच ने परिचय करवाया, ''ये मेरी बहू है इसकी गोद में जो है वह इसका घरवाला है। ''

ज़ाहिर है लेखिका के खुले मुंह को देखकर उसने बताया, ''बेटे की शादी इससे इसलिए कर दी है कि ये हमारे खेतों में काम करेगी।''

मुझे याद आ रही है महाश्वेता जी की कहानी 'वेंकटासानी और नारियों 'जिसमें आंध्र प्रदेश में पुजारी सात दिन तक किशोर लड़कियों को धार्मिक अनुष्ठान के नाम पर शोषित करके लहूलुहान कर देतें हैं, बाद में इन घायल लड़कियों को बाज़ार में बिठा दिया जाता है। वह भी उनके पिता व भाई की मर्ज़ी से। हमारे भारत में स्थान स्थान पर ऐसी ही नृशंस परम्पराएं हैं।

इन्हीं दो लेखिकाओं की तरह या उन सभी प्रखर स्त्री विमर्शकार लेखिकाओं की तरह डॉ. इंदु झुनझुनुवाला जी ने अपने कहानी संग्रह 'आज की अहिल्या 'में ऐसे ही बेहद चौंकाने वाले तथ्यों को उद्घाटित किया है जिसमें से दूसरी कहानी है 'मुझे द्रोपदी नहीं बनना '.जिसमें गाँव के पढ़े लिखे घर में शिक्षित लड़की प्रेम विवाह करके जाती है, उसे पता नहीं है कि उसे तीनों भाईयों के लिए द्रोपदी बनना पड़ेगा । हरयाणा में लड़कियों की कमी के कारण बंगाल से या नेपाल से गरीब घर की लड़कियां लाई जातीं हैं। दिन में वे जी तोड़ घरेलू काम करतीं हैं रात को बिन ब्याही द्रोपदी बनने को मजबूर होतीं हैं लेकिन यहाँ तो एक पढ़ी लिखी लड़की है.

'वो एक रात' में भी गाँव का परिवार बेटियों को मंदिर को सौंप देता है क्योंकि धर्म के नाम पर पुजारी उन्हें बरगलाते रहते हैं कि बेटियों को मंदिर में समर्पित करना पुण्य का काम है।। वहां के पुजारी व पंडे भी उन्हें घायल ही करेंगे।

ये हैं स्त्री के चरम शोषण की कहानियां जिनमें 'आज की अहिल्या 'पत्थर न बनकर अपनी स्थिति से प्रतिकार करती है, विद्रोह करती है। अपने को पत्थर न बनने देकर जीवन तलाशने चल पड़ती है। यही सन्देश भी लेखिका अपनी लेखनी से देना चाहतीं हैं। इसके अतिरिक्त मुझे लगता है इस संग्रह का मुख्य उद्देश्य है भारतीय पत्नी या गृहणी के यथार्थ को चित्रित करना जिसमें लेखिका सफ़ल रहीं हैं।

उन्होंने इस स्त्री का पोस्टमार्टम करके उसके सारे दुःख, सारी निरशा प्रगट कर दी है या उस सजी धजी मांग में सिन्दूर भरे, माथे पर बड़ी सी बिंदी लगाए, बिछुये पहने स्त्री की मुस्कराहट रूपी पर्दे को बेदर्दी से खींचकर भारतीय स्त्री का यथार्थ सामने ला दिया है। । एक स्त्री जो पति में अपना मनमीत ढूँढ़ती रह जाती है, घर में हर समय किसी न किसी काम में उलझे हुए तो ताना सुनती है कि घर पर पड़े पड़े क्या करतीं रहीं ? किसी भी समय लताड़ दी जाती है, अपमानित कर दी जाती है, जब मन हुआ तो प्यार से सहला दी जाती है।अधिकतर ऐसी ही कहानियां हैं, कुछ नाम लिख रहीं हूँ -'खिलौना ', वो संगमरमरी देवी सी ', 'एक नया जाल ', 'सबसे बड़ी भूल ', .''क्या दोष था मेरा ?''फेहरिस्त लम्बी है। 'अहंकार 'की नायिका तो सी ए है फिर भी शादी के बाद अहिल्या बनाकर बौनी बना दी जाती है।

आपको इस पुस्तक में गृहणी के लिए बहुत मज़ेदार [अंदर से दर्दनाक ]उपमाएं पढ़ने को मिलेंगी जो इंदु जी की खोजी व कलात्मक दृष्टि को उद्घाटित करती हैं.पढ़िए ये उपनाम -- 'खिलौना ', 'पायदान ', स्टेपनी ', स्टेटस सिम्बल ', 'चिराग का जिन्न ', अलादीन का चिराग ', एक कहानी में स्त्री और मकड़ी की तुलना की गई है। इन मंड़ एक उपनाम नहीं है जो मैं भारतीय ग्रहणी को कहतीं हूँ -'डस्टबिन '.परिवार का हर व्यक्ति अपनी ज़रुरत, खीज, गुस्से को इस 'डस्टबिन 'में डालता रहता देता है।

उम्र का आधा हिस्सा इस घर पर कुर्बान कर उसे क्या मिलता है ? नए वर्ष के दिन भयानक अकेलापन --पति व बच्चे अपने दोस्तों के साथ जश्न करने निकल पड़े हैं [कहानी -'नया साल'] वैसे भी इनकी कुछ नायिकाओं के पति अक्सर रात को अकेली पत्नी को छोड़, बाहर मुंह मारने निकले होते हैं। घर में शन्ति बनी रहे इसलिए अक्सर स्त्रियां मुंह पर ताला लगाए हुये रहतीं हैं।

भूमिका में उन्होंने लिखा भी है कि कितना ही अच्छा हो कि श्री राम की प्रतीक्षा करे बिना हर स्त्री अपने महत्व को जान सके और बिना किसी सहारे के अपनी शक्ति से स्वयं को पत्थर की होने से बचा सके। इस संग्रह में जो कहा गया है वह सहज शैली में व्यक्त है, इसमें बनावट या बेकार ही शब्दों का आडम्बर या नारेबाज़ी नहीं है। इसमें कुछ ही कहानियाँ हैं, बाकी लघुकथाएं इसलिए समझ में नहीं आता कि इसे कहानी संग्रह कहें या लघुकथा संग्रह। मैं कामना करतीं हूँ की भविष्य में इन छोटी लघुकथाओं को विस्तार देकर इंदु जी एक मुकम्मल संग्रह प्रस्तुत करेंगी।

मैं इन कहानियों के लिए लेखिका को बधाई देतीं हूँ क्योंकि उन्होंने हमारे देश में 'देवी ' कहलाने वाली स्त्री के कटु सत्य को सिर्फ़ दर्शाया ही नहीं है बल्कि उसे भरपूर व सार्थक जीवन जीने को प्रेरित किया है.

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पुस्तक -'आज की अहिल्या '

लेखिका -डॉ.इंदु झुनझुनवाला

प्रकाशक --साहित्य रत्नाकर, कानपुर

मूल्य --195

समीक्षक --नीलम कुलश्रेष्ठ

 

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