राजनर्तकी सुजान व कवि घनानंद Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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राजनर्तकी सुजान व कवि घनानंद

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

“हौंस हौंस फूलन के सारे सिंगार सजौं

आँगन में फूलन कौ चदरा बिछाऊँगी।

जा दिन सनेही घर आवै घन आनंद जू

घर द्वार गली गली दियरा जलाऊँगी।”

बृजभाषा में पंक्तिबद्ध ये भावनायें घन आनंद की प्रेयसी सुजान की ही है लेकिन इन्हें अभिव्यक्ति दी है गुजरात की प्रथम हिन्दी कवयित्री कुमारी मधुमालती चौकसी ने। कवि घन आनंद ने सुजान से अपने प्रेम की अभिव्यक्ति राधाकृष्ण को प्रतीक मानकर की है। उनके छन्दों में बार-बार सुजान शब्द आता है। सुजान भी तो गायिका कवयित्री थीं। क्या उन्होंने भी विरह में छंद नहीं लिखे होंगे? यही सोचकर मधु जी ने बृजभाषा में ‘सुजान की पाती’ लिखी। बृजभाषा के छंदों की ये पुस्तक नहीं सुजान के विरह की तड़प मधुजी के शब्दों में हैः

‘मेरी पीर देखि पीर सुबक सुबक रोवे

तरफै सुजान तौन आहैं न भरत है।’

एक-डेढ़ वर्ष पूर्व जब मैं इस पुस्तक की गहनता में डूब चुकी थी जो इधर-उधर फोन करके इस पुस्तक पर कुछ लिखने का अनुरोध करती रही । उत्तर यही मिलता था कि पुस्तक बृजभाषा में है। इधर एक फ़िल्म -`भूल भुलैया `[प्रथम] की नर्तकी अंजलिका शास्त्रीय संगीत पर घुँघरू छनकाती, नृत्य करती हुई मेरी रुह में कुछ इस तरह समा गई कि लगा कि हर राज-नर्तकी, हर राजगायिका के प्रेम का अंत यही है? अंजलिका का प्रेमी साथी नर्तक व कवि था। अंजलिका पर आसक्त राजा ने कवि की गर्दन उड़ा कर उनके प्रेम का अंत कर दिया। अंजलिका के चेहरे पर पड़े प्रेमी के खून के छींटो व उसकी तड़पती चीख में लगा सुजान की तड़पती चीख घुलमिल गई है।

मंजुलिका या सुजान की क्यों राज दरबार से जुड़ी ऐसी कलाकारों की नियति यही रही है चाहे वह सलीम की अनारकली हो, नगरवधु चित्रलेखा हो, बीजगुप्त के दरबार की नर्तकी आम्रपाली का बौद्ध धर्म अपनाना हो या सुमधुर गायिका रूपमती राजा बाज बहादुर से माँडु में रानी का दर्जा पाकर भी षड्यंत्र की शिकार बनीं। माँडु के किले में घूमते हुए रानी रूपमती बुर्ज़ की ऊँचाई को देखकर राजा बाज बहादुर के गगनचुम्बी प्रेम की थाह दिल को छू लेती है। कहते हैं बाज बहादुर ने ये बुर्ज़ इसलिए बनवाया था कि रानी रूपमती प्रतिदिन अपने गाँव तेजपुर में नर्मदा नदी की सुबह पूजा करके अन्न ग्रहण करतीं थीं। इस बुर्ज़ से वह नदी दिखाई देती थी इसलिये सुबह रानी अपने महल से पूजा करने इस बुर्ज़ पर चढ़ती थीं। दीवाने बाज बहादुर ने अपना संगीत कक्ष पास में ही बनवाया था जिससे सुबह-सुबह अपनी प्रिया के दर्शन कर सकें। इन दो संगीत कलाकारों के मिलन का समय भी षड्यंत्र के कारण दीर्घकालीन न हो सका। लेकिन उस उद्दाम प्रेम की शिद्दत ने भारत जैसे दकियानूसी देश में मांडु के किले में बोर्ड लगवा लिया, ‘रानी रूपमती की प्रणय नगरी।’

सुजान के प्रेम की भावाभिव्यक्ति वाली इस पुस्तक में मधु जी के निवेदन में ही इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि मिल जाती है। आनंद विक्रम की सत्रहवीं सदी के सर्वप्रथम कवि घन आनंद हैं। ये मुगल सम्राट मुहम्मदशाह रंगीले के मुंशी थे। बादशाह गान विद्या और काव्य रचना में प्रवीण थे, इस बादशाह के दरबार में एक अत्यंत खूबसूरत वेश्या गायिका थी सुजान। घन आनंद इस सुजान पर आसक्त थे। दोनों के प्रेम का एक बड़ा कारण था कविता। बादशाह भी उनके व्यक्तित्व और कवित्व से प्रभावित थे इसलिये दरबारी उनसे जलते थे। इस पर सुजान की भी कवि के लिये प्रेमदृष्टि उनसे छिपी नहीं थी। दरबारी घन आनंद को दरबार से निष्कासित करवाना चाहते थे इसलिये उन्होंने बादशाह को कहा कि वे उनसे गाना सुने। घन आनंद गाना सुनाने में संकोच करते रहे तो दरबारियों ने कहा, “ये ऐसे गीत नहीं गायेंगे, इनकी प्रेरणा सुजान को बुलाया जाये।”

सुजान को बादशाह ने बुलवा लिया। उन्हें देखकर ऐसे तन्मय हो गये कि उन्होंने उसकी तरफ़ उन्मुख होकर आत्मा से आलाप लेकर ऐसा सुंदर गाया कि सब स्तब्ध रह गये। बादशाह मुहम्मदशाह जब स्वरों के तरन्नुम से जागे तो ये देखकर क्रोधित हो गये कि घन आनंद उनकी तरफ़ पीठ करके गा रहे थे। उन्होंने तुंरत ही उन्हें देश निष्कासन का आदेश सुना दिया।

राज सम्मान की आशा करने वाले घन आनंद पर गुजरी होगी ये सोचा ही जा सकता है। वे दिल्ली से जाने से पूर्व सुजान के पास गये और उससे साथ चलने का अनुरोध किया। सुजान ने दृढ़ता से इंकार कर दिया व समझाया, “मैं तो इस राज की बंधक हूँ। मैं तुमसे अत्यधिक प्रेम करती हूँ। लेकिन तुम्हारे साथ मैं चल दी तो बादशाह के सिपाही हमें कहीं से भी ढूँढ़कर कत्ल कर देंगे। मुझे अपनी मौत की परवाह नहीं है लेकिन तुम्हारी जान मेरे लिये अनमोल है।”

हताश घन आनंद वृंदावन चले गये और वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित होकर कृष्ण भक्ति में लीन हो गये लेकिन सुजान के नाम को ये कभी अपने हृदय से मिटा नहीं सके न अपने छंदों से। मधुजी के अनुसार सुजान से घन आनंद का प्रेम परकीयत्व की ओर जाने का आग्रह करता है-

“सुने घर गैल हाट बाट सब सूने भयै

सूनो मन बिलाखे बिलखि भयो अनौ है।”

“मेरौ घन आनंद सुजान परदेश गयो

याही तौ ये सौ मुख मोरि कतराति है।”

दिल के निपट सूनेपन से जूझती नायिका हो या ये उलाहना देती व बताती कि वह किस तरह घन आनंद के छंदों के छल भरे मधुर शब्दों के कारण प्रेमपाश में फँस गई थी।

“हौं तो मतिमंद छल छंद सो फँसाई मोहि

प्यार भरे नैनन की सैन ते बुलाइबे।”

इन छंदों में जैसे एक प्रेयसी की मनुहार चित्रित है-

“साँच कौ जु आँच नाहि होति घन आनंद जू

याही तै तो उर माँहि आसनु बिछायौंगी।

कहौ जू निहोरौ कहि आवौ वेगि आवे यहाँ

आँखिन के द्वारे ताहि उर मैं बिठाऊँगी।”

सुजान के दिल में तड़प की ऐसी आग लगी है कि वह गाँव तक के जल जाने की बात करती है-

“आज उर दाह तैं उठति ज्वाला आनंद जू

मोहि तो लगे है सारो गाँव जरि जावैगो।”

सुजान की गहरी प्रीत की तड़प से मधुबेन ने जैसे एक-एक अक्षर सींचा है-

“एक एक आखर में एक एक बूँद भरी

याही तै तो कहौं तायें टीसें भरी प्रान की

बाँचि लीजो एक एक पाँति छू सुजान प्यारे

फारिं फेंकि दीजौ नाही पाती या सुजान की।”

दरबार में घन आनंद के सुजान को देखकर तन्मय होकर गाने की बात आग की तरह पूरे राज्य में फैल गई थी। घन आनंद तो वृंदावन चले गये थे। बदनामी का बोझ गायिका सुजान को भोगना पड़ा होगा, तभी वे शिकायत करती हैं-

“तुम सौ सनेह करि गई बदनाम घन

मोहि बतलावै लोग आँगुरी बताइ कै।”

सुजान बादशाहों के बार-बार कसते शिकंजो से अपने को बचा लेती है। वह हेकड़ी से कहती हैं-

“बड़े बड़े भूप और अनूप रूप देखि लीन्हें

जानति हौ जग माँहि लागी छाप राहु की

काहू की जिवायै नाहि जीवौ घन आनंद जू

प्यासी नाहि रूप की, दासी नाही काहू की।”

सुजान के हृदय में कोई और क्यों नहीं जगह बना पाता उन्हीं से सुनिए-

“मन के हुलास माँहि मोद की लहरि उठै

तासौ हियरा में कोऊ चोर घुस पावै ना।”

जब वे बिरहा की आग में मर जाने की धमकी दे डालती हैं-

“और काहिं दीजै दौस भाग में लिख्यौ है तातै

विरहा की आग में अकेली जरि जाऔंगी।”

.......................

“कौने विरभागै अजहू न तुम आये तातैं

दियरा जरावौं नाहि हियरा जराओगी।”

एक राज दरबार की गायिका हमेशा आभूषणों, चमकदार वस्त्रों से व फूलों के महकते गजरों से सजी रहती है। वह मधु जी के शब्दों में क्या कह रही हैं-

“फूलन में बैठि बैठि शूलन सौं बातैं करौं

ऐसी अनहोनी रीति कबौं ना निहारी है।”

या

“प्रीतम नेह सो विदेस में विदेह भयौ

वाकौ उर सौंपि सौंपि भूली अनजाने में।”

या

“काहू सौं कहोगी नाहि गोइ राखौ हिय माँझ

घन मन ले गयो छाँड़िके सुजान को।”

सुजान अंत में इतनी निराश हो जाती है कि सोच लेती है उसका प्रेम असफल ही रहेगा, वह बिना प्यार किये मर जायेगी इसलिये मधु जी लिखती हैं-

“हौं तो मर जाऊँगी न रच अफसोस मोहि,

बिरह बिचारौं रोइ रोइ मरि जावेगो।”

................................

“आवै घन आनंद बताइ दीजो अँगुरी सौ

सोई है सुजान यहाँ थाती लै विजोग की।”

मधु जी ने गुजराती भाषी होते हुए भी जिस तरह व्याकरण का ध्यान रखते हुए बृजभाषा के छंद लिखे हैं उन्हें देखकर अचम्भा होता है। ये ज्ञान उन्हें अपने गुरु व मुँहबोले अग्रज पंडित राधेश्याम शर्मा जी से प्राप्त हुआ था।

उत्कट प्रेम से बरसते, लरजते शब्दों वाली इस पुस्तक के प्रकाशन में बैंक ऑफ बड़ौदा के एक वरिष्ठ अधिकारी श्री रोशनलाल जी ने रुचि ली व बात की तब इसका प्रकाशन संभव हो सका।

गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉ. अम्बाशंकर जी ने एक कार्यक्रम में बताया था, “कच्छ में प्राचीन बृजभाषा संस्थान होने के कारण गुजरात में बृजभाषा साहित्य इतना लिखा गया है कि यहाँ से ट्रक में भर-भर कर ले जाया जा सकता है।”

सुजान की पाती की भूमिका लिखते हुए डॉ. विष्णु विराट, सुप्रसिद्ध कवि व महाराजा सयाजी राव विश्वविद्यालय, वडोदरा के हिन्दी विभाग के भूतपूर्व विभागाध्यक्ष ने लिखा है, “गुजरात में हुए बृजभाषा साहित्य सृजन की शृंखला में कवि दयाराम गोविंद गिल्लभाई, महिरावण सिंह जैसे महान कवियों की ओजस्वी श्रेणी में यह बृज काव्यकृति ‘सुजान की पाती’ भी पूर्ण सम्मान और साहित्यिक ऊँचाइयों के साथ प्रतिष्ठित होगी। घन आनंद का छंद विधान और भाषा की प्रकृति उनके समग्र काव्य सृजन पर हावी रही है। आश्चर्य तो तब होता है जब कुमारी मधुमालती की कविता भी उसी तेवर और कविता के उसी मिजाज को आगे बढ़ाती है। कहीं लगता ही नहीं ये कवितायें घन आनंद की कविताओं से अलग हैं।”

 

समीक्षा -- सुजान की पाती` -[बृजभाषा का खंड काव्य ]

लेखिका --- स्वर्गीय मधुमालती चौकसी ]

प्रकाशक -नमन प्रकाशन,देल्ही