पानी के लिये चिंतित जल नाद : पानी हाट बिकाये Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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पानी के लिये चिंतित जल नाद : पानी हाट बिकाये

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

‘जल’ फ़िल्म [सन -२०१३] आरम्भ ही होती है गुजरात के कच्छ के रन की फटी हुई धरती पर चलते कैमरे से व पानी मिल जाने की आस की छटपटाहट से. हीरो बक्का धूल से लतपथ कुदाल से कुँआ खोद रहा है नीचे बहुत नीचे गड्ढे में. उसकी गर्भवती पत्नी केसर नौ महीने का गर्भ लिए कुछ दूर ज़मीन पर धूल में पड़ी प्यास से बुरी तरह  तड़पकर छटपटा रही है, "बक्का ! पानी दे ----- बक्का !पानी दे ---- बक्का !मेरे बच्चे को बचा ले".----बक्का अपनी पत्नी के उदर में पलती अपनी संतान को लेकर चिंतित है, तनाव में दिग्भ्रमित हो रहा है ---उसे लगता है वह चला जा रहा है और सामने नदी का पानी उमड़ रहा है. बक्का यानि कच्छ का `जल का देवता `.यानि कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी छठी इन्द्रिय से ज़मीन को ठोककर बता देते है कि यहाँ खुदाई करो तो जल निकलेगा।इन्हें लोकभाषा में `जल का देवता `कहा जाता है।

इस फ़िल्म को देखते ही मैंने देल्ही आदरणीय अनुपम मिश्र जी को फोन लगा दिया, मैंने कहा था, मेरा बस चले तो इस फ़िल्म को नेशनल अवार्ड दे दूँ। "

उन्होंने मज़ाकिया लहज़े में कहा था, "जाइये दे दीजिये। लेकिन मैंने कच्छ में मैंने ऐसा स्कूल देखा है जिसके प्राचार्य ने छत पर बरसात में पानी इकठ्ठा करने की व्यवस्था की हुई है। "

पानी सरंक्षण की चिंता करने वाले पितामह अनुपम जी अब नहीं रहे।प्रतिष्ठित व लोकप्रिय लेखिका सुषमा मुनींद्र व डॉ.नीलाभ कुमार द्वारा सम्पादित कहानी संग्रह `पानी हाट बिकाय `में अनुपम जी का ज़िक्र है इसलिए इस घटना को लिखा है। जी हाँ, मै अनुपम जी से कुछ थोड़ा ग़लत कह गई थी. इस फ़िल्म को सन् 2014 में राष्ट्रीय पुरस्कार तो मिला लेकिन ये फ़िल्म `एक्सोडस `जैसी भव्य व महंगी फ़िल्म के समकक्ष बेस्ट फ़िल्म व ओरिजनल स्कोर यानि कि ऑस्कर अवॉर्ड दो केटेगरीज़ के लिये नामांकित की गई.इतना ही नहीं इसकी कहानी को ऑस्कर के अभिलेखागार में भी संरक्षित कर लिया गया है.तो मै ग़लत कह गई थी ऐसी फिल्में राष्ट्रीय नहीं विश्व की धरोहर होती है जिससे हम जान सकें जिस भूखंड पर हम रहते हैं, लापरवाही से पानी का उपयोग करते हैं, उसी भूखंड पर कुछ ऎसे स्थान भी है जहाँ पानी ना मिल पाने से जान भी चली जाती है.

बीसवीं सदी के उत्तर्रार्ध से विश्व के वैज्ञानिकों ने पृथ्वी में पानी के कम हो जाने की तरफ़ संकेत किया था। बीसवीं सदी के अंत में व इक्कीसवीं सदी तक आते आते ये चिंता साहित्य में दिखाई देने लगी सम्पादक गिरधर राठी जी, लीलाधर मंडलोई जी के `नया ज्ञानोदय `के माध्यम से व अन्य सम्पादकों के प्रयास से। मुझे इस संग्रह की हर कहानी में कच्छ का वही बक्का पानी की चिंता के लिए कुदाल नहीं कलम चलाता दिखाई दे रहा है या संजीव जी की कहानी `प्रेतमुक्ति `का जगेसर जो कलम के अपने प्रयासों से तालाबों में पानी छलछला देगा, अनुपम मिश्र जी की तरह अपरोक्ष रूप से संदेश देगा `आज भी खरे हैं तालाब `.वैज्ञानिकों के व कलमकार द्वारा जगाई चेतना से काश !पानी के लिए पानी के लिए संभावित तीसरा युद्ध टल जाये ।

ऐसे देश में जिसमें औरतें एक लोटे पानी ख़र्च करने पर बच्चों को पीट देतीं हों फिर भी हमारे हमारे  देश में स्मार्ट सिटी बनाने का मुहिम ज़ारी है. सुषमा जी `अपनी कहानी `जल के लिए जालसाज़ी `में सन्देश देतीं हैं कि देश को स्मार्ट सिटी नहीं पानी चाहिए। कहानी के ये ये दृश्य हम शहर में आते जाते या मीडिया में देखते रहते हैं कि गरीब बस्तियों में या गाँवों में टैंकर आया तो किस तरह औरतें बच्चे लोटे, बाल्टी, कलस व पीपे लिए इसे घेर लेते हैं। जब इनका सब्र ख़त्म होने लगता है तो शुरू हो जाता है आपस का झगड़ा। इस कहानी से ही इन पानी के टैंकर से जुड़ी कथायें पता लगतीं हैं मसलन ग़लती से किसी सेक्टर के स्थान पर पानी दूसरी जगह पहुँच दिया जाता है, बाइक पर सवार लड़के आकर पानी चोरी कर लेते हैं या इन टैंकर वालों पर ही चोरी का इलज़ाम लगा दिया जाता है। इस पर करारा व्यंग है कि पानी से भरे ट्रेक्टर की चोरी की एफ़ आई आर करने जाना पड़ता है और विद्रूप ये है कि अब तक ऐसी चोरी के लिए कानून नहीं बना है।

मैंने एक कहानी पढ़ी थी लेखक व उसका नाम याद नहीं लेकिन ट्रेन को कुछ हथियार बंद लोग रोक लेते हैं, सब डर रहे हैं। बाद में पता लगता है कि न सोना, न धन बस उनकी पानी की बोतलों की चोरी हुई है।

एस.आर. हरनोट जी `एक नदी तड़पती है `को पढ़कर मुझे केरल की प्रोफ़ेसर के वनजा, जो अपनी थियोरी इको -फेमिनिज़्म के लिए विख़्यात हैं, की बात याद आ गई कि ये व्यवस्था पर्यावरण व स्त्री को नोंच खसोट डालती है। पर्यावरण में नदी भी शामिल है। हरनोट जी विलुप्त होती नदी के कारण गिनाते चलते हैं सुनमा के माध्यम से । पति के मर जाने पर सुनमा को अपना अस्तित्व बचाना ही मुश्किल हो जाता है पंचायत के एक सदस्य से लेकिन मक्का पिसाने आये उस दानव को लात जमाकर उसकी आँखों में आटा  भरकर उसकी अक्ल तो ठीक करनी पड़ेगी, जिस तरह जब नदी में वेग आता है तो वह सब कुछ तहस नहस करने पर आमदा हो जाती है। कुछ उम्र होने पर जैसे स्त्री में धीरज आ जाता है वैसे ही नदी पर बाँध बन जाता है। बहुत से लोगों की ज़मीन ख़रीद ली जाती है। अब तक सुनमा, सुनमा दादी बन गई है लेकिन उसका मन उजाड़ रहता है जैसे कि गाँव के लोगों से बाँध ने उनका बहुत कुछ छीन लिया है। बहुत से लोग गाँव से पलायन कर गये थे । धीरे धीरे नदी की एक एक बूँद का सौदा हो गया।  गाँव के इन विस्थापितों को शहर में पूरी तरह पनाह मिली ? वे कुछ वर्ष बाद ही कोरोनाकाल में शहर से चिलचिलाती धूप में, जलती सड़क पर पैदल चलते अपना सामान, बच्चों को कंधे पर लटकाये कन्धों वे अपने घरोंदों की तरफ लौटने लगे -- जहाँ सुनमा दादी जैसी औरतें उन्हें ख़ुशी ख़ुशी पनाह देने तत्पर बैठीं थीं। एक गुजराती फ़िल्म`भव नी भवाई ` यानि दुनियां का नाटक का यही सत्य है कि राज व्यवस्था किसी की भी हो या किसी युग की आमजन तो अपने जीवन का बोझ ढोता ऐसे ही मारा मारा फिरेगा।

कमलेश जी ने पानी की समस्या का एक बिलकुल ही नया कोण प्रस्तुत किया है अपनी कहानी `गंगई महारानी `में, जो चमत्कृत करता है। हर नदी से मल्लाहों का जीवन जुड़ा होता है। ये नदी ही उनकी रोज़ी रोटी होती है। वे इस घाट से उस घाट लोगों को पहुंचाते हैं लेकिन फेरी का ठेका भी सरकार देती है रघुनाथ मिश्र जी जैसे किसी दबंग के हाथों। एक मल्लाह की पत्नी दबंग ललिता को अपने नेतृत्व में सभी औरतों को लेकर नाव चलाने उतरना पड़ता है। मिश्र के नाव खेने वाले बदमाश उसे नदी में डुबोने की धमकी देते हैं। तो उनमें से एक देवंती बुआ के उत्तर का अंश है, "मलाहिन की दूसरी माँ होती है नदी। डुबोने वाले को ही जल समाधि दे देंगें हम। "

मलाहिनों को अपनी पतवार हाथ में लेकर उसे हथियार जैसे प्रयोग करना पड़ता है, उधर शहर की स्त्रियों को व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपने दिमाग़ को हथियार बनाना पड़ता है।

अनुपम मिश्र जी बरसों पहले से कहते रहे कि भारतीयों को नदियों की उपासना के साथ उन का सम्मान व सरंक्षण करना पडेगा। अपना अनुभव बता रहीं हूँ मैं सात आठ वर्ष पहले बैंगलौर की बेलंदूर लेक की उछाल मारती, उस पर फ़ैली हुई प्रदूषण के कारण बर्फ़ जैसी सफ़ेद गन्दगी को देखकर बेहद चौंक उठी थी कि अरे ये क्या है ?बीच के वर्षों में दूरदर्शन पर देखा कि बेलंदूर लेक का सफ़ाई अभियान शुरु हो गया है. गत वर्ष देखा उसका वही हाल है। कहने का मतलब ये है कि सरकार से एक लेक नहीं सम्भलती तो नदियाँ क्या सम्भलेंगी ? नदियों से खिलवाड़ का नतीजा है इस सन दो हज़ार बाईस की बेमौसम बारिश --शहर दर शहर पानी का भराव --परेशान होते लाखों लोग।

मनोज कुमार पांडेय की कहानी `पानी `शहरवालों के लिए एक पाठ है कि किस तरह पानी से छलछलाते गाँव के पानी को अपने पैसे व शक्ति के दम पर बर्बाद किया जाता है।उस साफ़ स्वच्छ पानी को बना दिया जाता है मौत का सौदागर या बीमारी का अजगर। हम इस बात को इस तरह भी कह सकते हैं -`कैसे सूखते हैं तालाब `या बोरिंग के बाद पानी का क्या बुरा हाल होता है। तालाब को पाटने वाले गाँव के धनी मगन भाई जैसे लोग कैसी साज़िश रचकर उन आठ लोगों को पुलिस से पकड़वा देते हैं जो तालाब पाटने का विरोध करते हैं।

इसके अत्याचारों से डरकर जमुना कुर्मी के बेटे आशाराम के अलावा सब माफ़ी मांग लेते हैं। हम कह सकते हैं कि हर दुर्दांत व्यवस्था में आशाराम जैसा विद्रोही पैदा हो ही जाता है जो गाँव की बर्बादी की कल्पना करके विद्रोह करना नहीं छोड़ता और बार बार किसी न किसी आरोप में जेल में डाल दिया जाता है। ऊपर से तुर्रा ये कि तालाब के पानी को निगल जाने वाले ही पानी बेचकर अपने वारे के न्यारे कर लेते  हैं। गाँव में जो चारों तरफ़ से पानी आता था वह तालाब के रास्ते ही आता था लेकिन जब तालाब मृत होता है तो अतिरिक्त पानी आने के सारे रास्ते बंद। इन्हीं लोगों को बदमाश मगन की शरण में आना ही पड़ेगा। जमुना जो इसकी शरण में नहीं आता उसे गाँव से जाना पड़ जाता है। गाँव से बहुत से लोग प्राकृतिक आपदा के कारण ही पलायन नहीं करते, इन दबंगों की करतूत भी उन्हें ऐसा करने को मजबूर करती है।

पम्प से पानी खींचे जाने के दुष्परिणाम गाँवों में ये होते हैं कि कुँओं में पानी का तल नीचे जाने लगता है, फसलें सूखने लगतीं हैं, लोग खाने को तरसते हैं तो इसी लुटेरे मगन के यहाँ ज़मीन, ज़ेवर रहन रखने को या बेचने को मजबूर होते हैं। पानी की इस कमी का असर जंगलों के जानवरों पर भी पड़ रहा है जैसे सियार, नीलगाय, लोमड़ी, और ख़रगोश। सियार अपना गुस्सा किसी को काटकर निकालता है, उसे रेबीज़ हो जाती है। कुओं का पानी सड़ रहा है। कुछ लोग फिर भी उसे लेने नीचे उतरते है और ज़हरीली गैस से मर जाते हैं। इस कहानी में दिल दहलाने वाले दृश्य बहुत से है। यदि रोम रोम सिहराती दर्दीली सच्चाइयों से आँख मिलाने की हिम्मत हो तभी ये कहानी पढ़िए।

एस आर हरनोट जी विलुप्त होती नदी के कारण गिनाते चलते हैं। मनीष जी ने सूखते तालाबों के कारण गिनाये हैं, संजीव जी अलोप होती [की जाती] नदियों की तरफ़ इशारा करते हैं। ये अलोप हो रहीं हैं नदी पर बने बांधों के कारण। उन बांधों पर कब्ज़ा कर लेते हैं ये दबंग लोग, सारा इलाका पानी  का मोहताज हो जाता है या फिर लोगों को पानी ऐसे मिलता है जैसे कृपा की जा रही हो. यहाँ आइंस्टाइन की थियोरी प्रतिपादित हो रही है कोई भी समस्या एकांगी नहीं होती -हर चीज़, दूसरे से जुड़ी होती है। पानी की कमी का असर बाघों पर भी पड़ रहा है संजीव जी की कहानी `प्रेतमुक्ति `में. जब जंगल में जानवर मर रहे हैं तो फिर उन्हें तो मरियल होना ही है। उस पर पोचर्स उनकी खाल के लिए उन्हें मारे दे रहे हैं। ये कहानी ऐसे सुदूर गाँवों में ले जाती है जहाँ किसी न किसी दबंग मुखिया उसके कुत्ते जैसे चमचों के कारण कोई अनुमान नहीं लगा सकता  उनकी कितनी ज़मीनें हैं, कितनी औरतें अगवा कर लीं हैं। असली बाघ है इस मुखिया का बेटा सुरिन्दर जो किसी प्रेत की तरह गाँव को जकड़कर बैठा है। इस गाँव से कैसे होती है प्रेतमुक्ति ? ये दो बेह्तरीन कहानियां हैं जो गहरे ऐसे परिवेश में डूबकर गाँव की उस घिनौनी व्यवस्था को रचतीं हैं, जो हम शहरी लोगों से अनजानी है। इस व्यवस्था में बिना डरे ज़रूर कोई न कोई जगेसर इन बदमाशों का विद्रोह करने अड़ जाता है जो सनकी करार कर दिया जता है या सच ही इनसे टकराते टकराते सनकी हो जाता है। मुझे ये ऐसी लगीं कि जैसे स्मार्ट बनते जाते शहर, मंदिरों के भव्य पुनर्निर्माण के बीच शहरों की सड़ी गली बस्तियां।  शहर ही नहीं गाँवों में भी तेज़ी से इन्हीं अभावों के कारण हर तीसरे चौथे [पांचवा छटा भी हो सकता है ] घर में चकलाघर खुल रहा है।

इन सब सच्चाइयों में है मीनाक्षी स्वामी की कहानी `धरती की डिबिया `, मोती सी चमचमाती व राहत देती है कि कोई तो है जो अपने स्वार्थों से हटकर तालाब खुदवाने व कुँए खोदने में लगा है बिलकुल अनुपम मिश्र जी की तरह। यदि वे जीवित होते तो हम सब पूछते कि क्या आप भी बचपन में बरसते पानी की तार पर लाइन बनाती बूंदों से आकर्षित होकर उसे किसी माचिस की डिबिया में बंद करने की कोशिश करते थे? अनुपम जी इस नायक से अलग हैं क्योंकि वे अपने पानी के समर्पण को राजनिति में जाकर एनकैश नहीं करते बल्कि गांधी प्रतिष्ठान से जुड़ गए थे ।

भारत की प्रथम पर्यावरण सरंक्षण के लिए वड़ोदरा में स्थापित संस्था इंटरनेशनल सोसायटी ऑफ़ नेचुरलिस्ट यानि के स्थापक डॉ जी.एम. ओझा की अवधरणा थी कि भारत में वैसे कोई अच्छी बात नहीं मानता लेकिन यदि उसे धर्म से जोड़ दिया जाए तो श्रद्धा से उस नियम का पालन करते हैं। पेड़ काटे नहीं जाएँ इसलिए ये कहा जाने लगा कि पेड़ों में भगवान का वास होता है। स्वाति तिवारी भी अपनी कहानी `पानी `से सन्देश देती है कि यदि पानी से भरा जलाशय नहीं होगा तो पिता की आत्मा की शांति के लिए तर्पण कैसे होगा ?

सम्पादक द्वय की तारीफ़ ज़रूरी है क्योंकि इन्होंने पानी से जुड़े हर पहलू पर कहानियां सम्मिलित कीं हैं। `कुईयांजान `की लेखिका नासिरा शर्मा ने अपनी कहानी `हथेली में पोखर `द्वारा गहरी पड़ताल की है कि किस तरह पानी की कमी संबंधों पर प्रभाव डालती हैं। लोग मिलने से, संबंध बनाने से कतराते हैं कि कहीं कोई एक बाल्टी पानी न मांग ले। शहरों में पानी गायब होता जा रहा है, जैसे बहुमंज़िली इमारतों में कुछ वर्ष बाद स्वीमिंग पूल से पानी। इसमें शहर को सन्देश देता एक सन्देश भी है कि लोग अवकाश प्राप्ति के बाद यदि गाँवों में लौटें, उसके विकास की तरफ ध्यान दें तो वहां कैसे पानी नहीं छलछला सकता या गाँवों का विकास कैसे नहीं हो सकता।

` बिन पानी डॉट कौम `में पंकज मित्र जी ने कल्पना की है कि वे दिन दूर नहीं हैं कि लोग झरनों व इठलाती नदियों की फ़ोटो देखकर दिल बहलायेंगे।बाज़ार में पानी बेचती कम्पनियाँ कैसे ललचायेंगी कि उनका पानी सबसे शुद्ध है। ये ज़माना तो आ ही चुका है लेकिन बैंगलौर जैसे शहरों में चौराहों पर लगे प्रदूषण सूचकों को देखकर लगता है वह दिन भी दूर नहीं जब शुद्ध हवा के लिए `हवा हवाई डॉट कॉम `भी शुरू हो जाएंगे ।

ये अंश अनुपम जी की पुस्तक से हैं --` दिल्ली में अंग्रेजों के आने से पूर्व 350 तालाब थे.इन्होंने वॉटर वर्क्स बनवाया, तालाब भरकर नल लगवाये गए.गुस्से में स्त्रियां लोक गीतो में गाली गाती, "फिरंगी नल मत लगवा दियो `लेकिन बरसों बाद गलती समझ में भी आई तो क्या ?क्योंकि पाइप बिछाने व नल लगाने से शहर को पानी नही दिया जा सकता क्योंकि तालाबों पर मोहल्ले, बाज़ार, स्टेडियम खड़े हो चुके थे. `

पंकज जी ने भी यही लिखा है कि तालाब व कुंए भरवा दिए जाएँगे.हेंड पम्प उखड़वा दिये जायेंगे तब पानी कब तक पृथ्वी पर सुरक्षित रह पायेगा ?

ऋषिकेश सुलभ जी की कहानी सच ही अपनी आंचलिकता से, अपने सौंधेपन से मन को गुदगुदाती है जैसे इस कहानी में दादी के तलवे एक काल्पनिक नदी की लहरें गुदगुदातीं हैं । नदी का पेट कितना उपजाऊ होता है ये किसी फ़्लोटिंग गार्डन को देखकर ही पता लगता है जिसकी नहर नदियों के पानी को सींचकर बनाई होतीं हैं। किसी भी नदी का जब रास्ता रोका जाता है तो क्या होता है ? स्त्रियां क्यों नदियों को पूजतीं हैं ?इसका उत्तर मिल जाएगा।

इस संग्रह में कुछ कहानियों  में पानी के सरंक्षण की बात नहीं कही गई बल्कि पानी से जुड़े भावनात्मक रिश्तों की बात है कि जैसे ममता सिंह की `तुझी मी वाट पाहते `, कृष्ण बिहारी जी की `डुबकी `व गोविन्द सेन ` बयरी माँ  `. ममता जी ने बेहद ख़ूबसूरती से समुद्र [ समुद्र भी तो पानी का एक रूप है ] के सौंदर्य व भयावहता को रचा है। भयावहता ऐसी कि कहीं उसकी रेत दलदल बनकर लोगों की जान ले लेती है और एक प्रेमिका अपने प्रेमी के डूबने वाले दिन हर बरस उसी समुद्र तट, पर आती है इस ख़ुशफ़हमी में कि वह अब भी ज़िंदा है। कृष्ण बिहारी जी की कहानी में गाँव की एक छोटी बच्ची है जो अपने आप पाँच वर्ष की आयु में अच्छी तैराक बन जाती है। किसी दीवानगी की हद तक नदी को प्यार करती है। इन्होंने एक संकेत दिया है कि गाँव की प्रतिभाएं इसी तरह देश के शीर्षस्थ प्रतिभाओं में शुमार नहीं हो पातीं क्योंकि उन्हें रास्ते दिखने वाले प्रशिक्षक नहीं होते।

हमारे जीवन में बचपन में कितने ही लोग हम पर प्यार लुटाने वाले आते हैं, हम उस समय ध्यान नहीं देते। इसी तरह गोविन्द सेन का नायक बड़े होकर गाँव की ऐसी `बयरी माँ `को याद करता है जो हमेशा पानी भरने में उसकी सहायता करती थी। बड़े होकर उसे अफ़सोस होता कि जिस औरत को बहरी होने के कारण ही बयरी नाम रख दिया था, वह कभी उसका असली नाम क्यों नहीं पूछ पाया ?मेरे ख़्याल से ऐसे लोग हम सबके जीवन में आते हैं। मुझे बचपन की धोती से हर समय सिर ढके एक `पोंगनी वाली अम्मा `याद आ गई, जो नाक में बड़ी सी टॉप्स के आकर की लोंग पहनती थी जिसे पोंगनी कहते थे।कोई भी उसे घरेलु काम करने बुला लेता था। उसका असली नाम मुझे नहीं पता था ।

ये कहानी संग्रह नहीं है बल्कि देश के दिग्वज मनीषियों द्वारा पानी के हर पहलू पर विमर्श, इसमें बढ़ते जा रहे प्रदूषण की चिंता व इसके अलोप होते जाने की चिंता का दस्तावेज है। दोनों सम्पादकों को विशेष रूप से सुषमा मुनींद्र जी को बधाई दे रहीं हूँ क्योंकि इसके सम्पादन के बीच हम दोनों की बातचीत से उनकी मेहनत का पता चलता रहता था।

 

पुस्तक --`पानी हाट बिकाये `

सम्पादक -सुषमा मुनींद्र व डॉ.नीलाभ कुमार

प्रकाशक --वनिका प्रकाशन, देल्ही

एन ए -168, गली नम्बर -6, विष्णु गार्डन, 

नई देल्ही -110018, मो.न. --9837244343

पृष्ठ --200

मूल्य --430 रु

समीक्षक -नीलम कुलश्रेष्ठ

मो. न. --9925534694

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श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ