हांटेड एक्सप्रेस - (भाग 04) anirudh Singh द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हांटेड एक्सप्रेस - (भाग 04)

मेरे ठीक बगल में वही अधेड़ महिला बैठी हुई थी,जो कुछ देर पहले विंडो सीट पर मौजूद थी......वह महिला सुबक सुबक कर रोते हुए अपने आंसुओ को साड़ी के आँचल से पोंछ रही थी......
मेरी स्थिति काटो तो खून नही वाली थी....क्योंकि इतना सब कुछ होने के बाद इतना तो मेरी समझ में आ ही चुका था कि यहां मौजूद प्रत्येक शख्स सामान्य इंसान न होकर एक छलावा है......और अब, जब वह मेरे ठीक बगल में आ बैठी थी तो ऐसे में मेरी घिग्घी बढ़ जाना लाजिमी था।

पर कहते है न कि कोई भी डर एक सीमा तक होता है,जब डर अपनी सारी सीमाएं लांघ जाता है, तो जीवित बचे इंसान को आदत हो जाती है उसी डर के साथ जीने की.....यही मेरे साथ हुआ था......पिछले कुछ समय मे मैंने जो जो देखा,जो जो महसूस किया वह सब डर का उच्चतम रूप था.......अब आखिर मैं भी कब तक यूं ही डर से थरथराता रहता.......वैसे भी मैं कोई डरपोक तो था नही.....एक निड़र व साहसी पत्रकार था मैं...हालांकि मेरी जगह कोई सामान्य ह्रदय वाला इंसान होता तो इन परिस्थितियों में अभी तक हार्ट अटैक आ गया होता.......मैंने तो अब सोच लिया कि ज्यादा से ज्यादा मौत ही तो आएगी......उस से ज्यादा क्या होगा?........वहां से भागने की जगह मैंने आखिरकार हिम्मत करके उस बिलखती महिला से पूँछ ही लिया......

"आंटी जी....कौन है आप..?....क्या हुआ आपको?"

महिला ने कोई उत्तर नही दिया,यहां तक की मेरी तरफ देखा भी नही......

अब आगे क्या करूँ,मैं यह सोच ही रहा था कि तभी मेरी सामने वाली सीट से आवाज आई......

"हमें मुक्ति दिला दो....बेटा.....हम वर्षो से मुक्ति के लिए यूं ही तड़प रहे हैं। "

अवाक होकर मैंने देखा कि वहीँ वृद्ध व्यक्ति एक बार फिर अपने पुराने स्थान पर ही मेरे ठीक सामने वाली सीट पर मौजूद हैं......वह बुरी तरह से गिड़गिड़ा कर मुझसे मदद मांग रहा था....पहले तो मैं अचानक से उसे अपने सामने देख थोड़ा सा डरा ....पर फिर मैंने उस से भी ठीक वहीं सवाल किया जो कुछ देर पहले उस महिला से किया था......
सवाल किसी से पूंछो,जबाब कही और से आ रहे थे...यह सिलसिला इस बार भी जारी रहा.....

"मैं बताता हूँ......"
अब जबाब थोड़ी दूर से आया....और जबाब देने वाला इस बार वो ही टीसी ड्यूक ओर्फीन था,जो मुझे इस ट्रेन तो लेकर आया था.....

तेजी से दौड़ती इस ट्रेन में उस टीसी की भी पता नही कहां से एंट्री हो गयी थी.......यहां कुछ भी सम्भव था इतना तो मैं समझ चुका था.....और साथ ही यह भी समझ चुका था कि इस ट्रेन में मौजूद कोई भी शख्स मुझे नुकसान नही पहुंचाना चाहता था.....क्योंकि यदि ऐसा होता तो कब का यह अजीबोगरीब लोग मुझे मौत के घाट उतार चुके होते।

ड्यूक ने मेरी ओर बढ़ते हुए तेज आवाज में बताना आरम्भ किया

"हम सभी वर्षो से इस ट्रेन के कैदी है गोलू....मरने के बाद भी हम सभी भीषण यातनाओं से गुजर रहे है....हम सब मुक्त होना चाह रहे है......और इसी लिए वर्षो से तुम्हारा इंतजार कर रहे थे......हमें मुक्ति सिर्फ तुम्ही दिला सकते हो गोलू.......हमें इस नर्क रूपी दुनिया से मुक्ति दिलाओ....."

यह आखिर क्या कह रहा था ड्यूक.....वर्षो से मेरा इंतजार क्यों कर रहे थे ये लोग....और आखिर मैं कैसे इन भटकती रूहों को मुक्ति दिला सकता था......ड्यूक के इस जबाब ने तो मेरे मस्तिष्क में पनप रहे सवालो की संख्या में अप्रत्याशित बढोत्तरी कर दी थी।

" मुझे कुछ समझ नही आ रहा....क्या आप मुझे विस्तार से बताएंगे? "
मेरी हिम्मत अब लगातार बढ़ती जा रही थी...और यही हिम्मत मुझे उनसे सवाल करने को प्रेरित कर रही थी।

"गोलू,तुम्हारे यहां आने का एकमात्र उद्देश्य हमारी मुक्ति ही है.......श्याम नारायण जी ने हमसे वायदा किया था कि एक दिन तुम यहाँ आओगे और हमें इस यातना भरे बन्धनों से मुक्त कराओगे ।" ड्यूक ने बताया

मेरे दादाजी का एकदम सही नाम लिया था ड्यूक ने...पर उनका इस सब से आखिर क्या सम्बंध....इस से पहले मैं अपना कोई अगला सवाल उस से पूंछता.....ड्यूक ने आगे कुछ ऐसा बताया कि मेरे दिमाग के फ्यूज उड़ गए।

"गोलू हमारे लिए न सही...कम से कम अपने माता पिता की हत्या के प्रतिशोध के लिए तो तुमको उस दुष्ट पिशाच का मायाजाल तोड़ना होगा...."

बस इस से अधिक न तो ड्यूक ने कुछ बताया और न ही मुझे पूंछने का मौका दिया....क्योंकि अगले ही पल ड्यूक का शरीर धुंआ बन कर गायब हो गया था....और उसके बाद सामने बैठा वह वृद्ध व्यक्ति, बगल में बैठी महिला......दोनो ही ठीक ड्यूक के जैसे ही हवा में धुँआ बन कर उड़ गए....

"रुको.....तुम ऐसे नही जा सकते.....क्या जानते हो मेरे माता पिता के बारे में....प्लीज मुझे बताओ..."

मैं बस चीखता ही रह गया......दरअसल उसके अंतिम शब्दो ने मुझे व्यथित कर दिया था.....
मेरे माता पिता....जिनको मैंने आज तक सिर्फ एक ही तस्वीर में देखा है.....दादाजी ने सिर्फ इतना बताया था कि एक महामारी के दौरान मेरे जन्म के एक साल बाद ही वह दोनों चल बसे थे......उस से ज्यादा मुझे कुछ भी नही पता था.....।

अचानक से अब मेरे चारो ओर एक बार फिर से धुँआ फैलने लगा....अब उस ट्रेन का एक एक भाग धुंए में बदल रहा था.....मुझे कुछ भी समझ नही आ रहा था.....और फिर वह धुंआ बढ़ता ही गया.....मुझे कुछ भी नजर नही आ रहा था.........थोड़ी देर बाद मुझे एहसास हुआ कि ट्रेन गायब हो चुकी है....और मैं जमीन पर खड़ा हूँ...मेरी पीठ पर मेरा भारीभरकम बैग है.....धुंए की जगह पर चारो ओर कोहरा ही कोहरा फैला है....कोहरे से निकलने वाली ओस की बूंदों ने मुझे भिंगो दिया है...मैंने अपने आसपास देखने की कोशिश की तो मुझे बगल में ही दो डिब्बे वाली वही खस्ताहाल ट्रेन रखी हुई दिखी,दिखने में यह ठीक वैसी ही दिख रही थी,जैसी मैंने इसे रात में मोबाइल फ्लैश की रोशनी में पहली बार देखा था...एकदम खस्ताहाल.....यह सब क्या हो रहा था मैं यह समझ पाता उस से पहले ही कुछ टॉर्चो की रोशनी मेरे ऊपर पड़ी....कुछ लोग मेरी ओर दौड़ते हुए आ रहे थे....वह आपस मे कुछ बातें भी कर रहे थे......जब वह एकदम करीब आ गए तो मुझे पता चला कि वह रेलवे पुलिस के जवान थे.....उन्होंने मेरा चेहरा अच्छे से देखा.....जब उन्हें यकीन हो गया कि मैं एक यात्री हूँ तब उन्होंने बताया कि कोई चोर रेलवेस्टेशन से एक महिला का पर्स छीन कर इस ओर भागा है.....वह पुलिस वाले उसी चोर का पीछा कर रहे थे.....उन्होंने मुझसे भी पूछा कि क्या किसी शख्स को यहां से भागते हुए देखा है.....मैने ना के जबाब में सिर हिलाया और साथ ही उनसे बगल में खड़ी ट्रेन के बारे में पूंछा तो उन्होंने बताया कि यह ट्रेन वर्षो पहले देवगढ़ जाया करती थी,अब फिलहाल कचरे की स्थिति में बंद पड़ी है.....देवगढ़ सिर्फ सड़क के द्वारा ही जाया जा सकता है....... उसके बाद वह मुझे सुरक्षा की दृष्टि से ऐसी सुनसान जगह न आने की हिदायत देकर आगे बढ़ गए।

मैंने घड़ी पर नजर डाली तो सुबह के पांच बजे चुके थे, मैं तेज कदमों के साथ बढ़ता हुआ आगे बढ़ा....तो कुछ ही देर में मैं वापस उसी पालमपुर स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहुंच चुका था...जहां रात में मैं दिल्ली से आई अपनी ट्रेन से उतरा था।
प्लेटफार्म पर अब कुछ भीड़भाड़ दिख रही थी,शायद दिल्ली जाने के किये कोई ट्रेन रुकने वाली थी........मैं बुरी तरह भयभीत था.......देवगढ़ जाने की हिम्मत अब नही बची थी......थोड़ी ही देर बाद जैसे ही दिल्ली जाने वाली ट्रेन आई.....मैं उसमे बिना टिकिट ही जा बैठा....सीट पर बैठने के बाद मैंने चैन की सांस ली.........पर दिमाग में अभी भी वही सारा घटनाक्रम एक फ़िल्म के जैसे चल रहा था........साथ ही ढेर सारे सवालों ने भी जेहन में उथलपुथल मचा रखी थी.....जान बचने की खुशी तो थी ही,पर साथ में मैं बेताब था इस ट्रेन के रहस्य जानने के लिए........इस ट्रेन से खुद का सम्बंध जानने के लिए....और सबसे बड़ा रहस्य यानी अपने माता पिता के बारे में जानने के लिए......कुछ देर सोचते रहने के बाद मेरे दिमाग में कुछ ऐसा कौंधा कि मैंने तुरन्त ही एक खतरनाक निर्णय लिया.......ट्रेन स्टेशन छोड़ने के लिए सीटी बजा चुकी थी......और मैं पटरी से सरकती ट्रेन से अपने बैग समेत वापस प्लेटफार्म पर छलांग लगा चुका था......।

....... कहानी जारी रहेगी.......