एक टुकड़ा सुख Aman Kumar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक टुकड़ा सुख

अमन कुमार त्यागी 


आज एक ऐसे व्यक्ति की कहानी कहता हूँ जिसके पास धन का अभाव था मगर उसने अपने आपको कभी ग़रीब नहीं माना। उसकी पत्नी बीमार थी, बेटी बीमार थी, बेटा बीमार था यहाँ तक कि वह स्वयं इतना बीमार था कि दुनिया की किसी भी बात में उसका मन नहीं लगता था। प्रोपर इलाज नहीं हो पा रहा था परंतु वह बीमारियों और धनाभाव के कारण मरना भी नहीं चाहता था। कुछ भी कहिए, इस सब के बावजूद वह दुःखी नहीं था। जहाँ कहीं से उसे एक टुकड़ा ख़ुशी मिलती, वह उसी को ढंग से जी लेता।
सलाह देना या टिप्पणी करना बहुत ही आसान काम है। लेकिन क्या कभी परेशानी में फंसा व्यक्ति अपने को परेशानियों से बाहर निकालने का कोई प्रयास नहीं करता? करता है। उसने भी प्रयास किया अपने आपको मुसीबतों से बाहर निकालने के लिए? उसने एक बार नहीं बल्कि अनेक बार दूसरे लोगों के साथ मिलकर काम किया, काम हुआ मगर पैसे उसके हाथ पर नहीं आए। जानते हैं क्यों? क्योंकि जब किसी व्यक्ति पर कोई परेशानी आती है तो उसके सबसे निकटस्थ लोग उसे ठगना प्रारंभ कर देते हैं। दो-चार बार धोख़ा खाने के बाद उसने अपने लोगों से दूरी बना ली। कम से कम में गुज़ारा प्रारंभ कर दिया। यूँ समझो कि उसने अपनी सिकुड़ चुकी चादर में अपने पाँवों को भी सिकोड़ लिया। किंतु यह भी तो समस्या का कोई समाधान नहीं था।
उसने अपने आप से पूछा -‘आख़िर कब तक यूँ ही सिकुड़ते चले जाओगे?’ अंतर्मन से जवाब मिला, ‘जब तक सिकुड़ने का स्थान इतना छोटा न हो जाए कि उससे मुकाबिला किया जा सके।’
उसकी यह बात रहस्यमई सी प्रतीत हो सकती है। कभी-कभी तो वह स्वयं भी अपने हालात और अपने इरादों को समझ नहीं पाता था। वह कोई भी नुकसान उठाने के लिए तैयार था, यहाँ तक कि किसी की जान भी चली जाए तो जाए। परंतु क्या वह क्रूर था? क्या वह निकृष्ट था? क्या वह निराश था? कई सवाल उसके व्यक्तित्व पर उछाले जा सकते थे। लेकिन ऐसा कतई नहीं था। अपनी ग़रीबी छिपाने के लिए वह सारे काम करता था जिससे लोग उसे हटी और घमंडी भी समझने लगे थे। वह देना जानता था, और प्रयासरत था कि कभी किसी से मांगना न पड़े।
वह आशान्वित था - कभी तो सूरज निकलेगा, कभी तो धुंध छटेगी, कभी तो वह दिल से दिवाली मनाएगा और कभी तो वह मन से होली खेलेगा।
वह मंदिर नहीं जाता था मगर ईश्वर में उसकी पूरी आस्था थी। वह प्रयास करता कि उसकी वजह से किसी का दिल न दुःखे। वह किसी से कोई कंपटीशन नहीं रखता था मगर फिर भी कोई तो था जो अभावों के बावजूद उसकी टुकड़े-टुकड़े खुशियों से जलता था। उसे नीचा दिखाने और उसको नुकसान पहुँचाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देता था। मीठी-मीठी बातों में घुले हुए ज़हर को वह भी पहचानता था मगर प्रतिरोध नहीं करता था, उलटे ऐसी चालाकियों को हंस कर टाल जाता था। जानते हैं क्यों?
क्योंकि उसका नाम कमल था। वह खिल जाना चाहता था, मगर कीचड़ उसे खिलने से रोक रही थी। उसके पास न तो कोई पेस्टीसाइड था और न ही वह प्रयोग करना चाहता था। कीचड़ में होने के कारण उसकी मज़ाक बनाई जा रही थी, मज़ाक बनाने वालों में कीचड़ ही सबसे आगे थी। वह सोचता था - ‘जब पहली बार कीचड़ में कमल खिला होगा, तब उसे कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी। कीचड़ ने भला उसे क्यों खिलने दिया होगा? लेकिन क्या उसका संघर्ष काम नहीं आया?’
वह खिला और उसने दुनिया को दिखा दिया कि कोई भी गंदगी किसी अच्छी चीज़ को प्रकाश में आने से रोक नहीं सकती। कमल खिला और आसमान की ओर मुँह करके ठंडी सांस ली। यह भी कीचड़ को बुरा लगा, लगना ही था। कीचड़ का मानना था कि वह खिला तो उसके आगोश में है जबकि धन्यवाद दे रहा है खुले आसमान को। कमल उसका नाम ही नहीं था बल्कि वह कीचड़ में खिलने वाले कमल को अपना आदर्श भी मानता था। वह जानता है कि कमल कभी कीचड़ पर दोषारोपण नहीं करता बल्कि शान से पंकज भी कहलाता है। मानो कीचड़ में खिलना उसके लिए गर्व की बात रही है। यह सच भी है। गर्व उसी को होता है जिसने विपरीत परिस्थितियों पर विजय पाई हो, छल-प्रपंच से विजय पाने वाले गर्व नहीं करते, घमंड करते हैं। अहम पाल लेते हैं और यह गर्व उनके अहम से टकराना भी नहीं चाहता है। जब भी टकराया है घमंड ही किसी के गर्व से टकराया है। वही कमल के साथ भी हो रहा था। कमल पर कीचड़ का कितना दबाव होता है? यह वही जान सकता है, जिसने कभी दबाव से निकलना सीखा हो।
कमल को किसी ने बताया - ‘सरकारी योजना है जिसके अंतर्गत सरकारी तौर पर ईलाज कराया जा सकता है, पैसे भी नहीं लगेंगे।’
उसने पता किया, पता चला - ग़रीबों के लिए इलाज की व्यवस्था है। जानकर कमल को प्रसन्नता हुई। उसने जानकर शांति की सांस ली और अनायास ही उसके मुँह से निकला, ‘चलो अच्छा है अब कोई ग़रीब बीमारी में धनाभाव से नहीं मरेगा।’
जानकारी जुटाकर वह घर आया और काफ़ी विचार-मंथन के बाद अपनी बेटी को एक प्राईवेट अस्पताल में लेकर गया। इलाज प्रारंभ करा दिया गया। अब जिसे देखो वही उसे सवालिया निगाहों से देखता था। कमल ने किसी की परवाह नहीं की। घर में खानपान में कटौति उसके बच्चों ने सहर्ष स्वीकार कर ली। चिकित्सक की देखरेख में उसकी बेटी ठीक होने लगी तो उसके घर में एक दो टुकड़ा हंसी का भी गिरा। जिसे उसने भरपूर जिया। बेटी के बाद पत्नी का ईलाज प्रारंभ करा दिया।
हैरानी की बात यह भी हो सकती है कि बीमार को इंतजार क्यों? सोचिए चारा था भी क्या? इंतजार नहीं करता तो क्या करता?
जब सबका इलाज करा रहा था तब भी तो कभी किसी की दवाई आ जाती थी और कभी किसी की जबकि डाॅक्टर की फीस सभी के लिए जाती थी। एक का इलाज एक बार कराया तो डाॅक्टर की फीस भी एक ही की गई। और फिर बाक़ी लोगों में मजबूरीवश ही सही मगर उनमें धैर्य भी तो था।
जानते हैं कि उसने सरकारी योजना में अपना इलाज क्यों नहीं करवाया? क्योंकि उसके पास ग़रीबी का राशन कार्ड नहीं था और वह ग़रीबी रेखा से नीचे भी नहीं आता था। बुरे दौर में भले ही उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ा हो मगर वह एक ही दिन में अगर अमीरी में नहीं गिना जा सकता था तो फिर ग़रीबी में कैसे गिना जाता? फर्जी सर्टीफिकेट बनवाकर वह अपनी ही निगाहों में गिरना नहीं चाहता था। मतलब स्पष्ट है कि उसने कभी किसी का हक़ मारना नहीं सीखा था। वह परेशान था, मगर निराश नहीं।
कमल ने अपने परिवार का टुकड़े-टुकडे इलाज कराया और टुकड़े-टुकड़े खुशियां बटोरीं। इसे वह गृह चिकित्सा कहता था। उसे पता था कि बीमारियाँ ठीक उसी तरह आती हैं, जैसे कभी-कभी मन में अनैतिक विचार आ जाते हैं। जिसने अपने इन विचारों पर काबू पा लिया वह ठीक, नहीं तो बन गया अपराधी। उसे अपने मन और कर्म पर कंट्रोल था। वह अपने और अपने परिवार के सुनहरे भविष्य को देख रहा था। तभी तो उसने संघर्ष का लंबा रास्ता चुना।
आज वह न सिर्फ़ प्रसन्न है बल्कि बेहद प्रसन्न है। उसके बच्चे न सिर्फ़ स्वस्थ हैं बल्कि अच्छे से स्थापित भी हो गए हैं।
यह सब संभव हुआ अभावों के कारण। उसके पास पैसे की कमी थी इसलिए उसका खानपान बढ़िया रहा, उसके पास पैसे की कमी थी इसलिए उसने व्यवस्था बनाकर काम किया। इससे भी बढ़कर उसके व उसके परिवार के पास ग़ज़ब का धैर्य एवं समर्पण था। काम करने की इच्छा और मजबूरी दोनों थीं। बच्चों के सामने पढ़ने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। बाहरी चमक से वह इसलिए बचा रहा कि उसके पास पैसा ही नहीं था। समाज व संबंधियों में वह घमंडी भले ही समझा जाता रहा हो मगर उसने कभी किसी के काम को ना नहीं किया। वह जीतने के लिए कभी प्रयासरत नहीं रहा, बल्कि कर्मरत रहा, जो उसके लिए आवश्यक था, हारने का ग़म उसे कभी इसलिए नहीं हुआ क्योंकि वह कभी जीता ही नहीं था। आज भी वह यही मानता है कि जो कुछ हुआ वह उसका प्राकृत जीवन है, न कोई दिखावा और न कोई छिपाव।
तभी तो टुकड़े-टुकड़े खुशियाँ उसके खजाने में हैं।