नीलम कुलश्रेष्ठ
[ आश्चर्य ये होता है की भव्य आश्रम वाले बाबाओं या गुरुओं के नित नए काले कारनामे सामने आते रहते हैं जैसे कि गुजरात के आसाराम बापू, पंजाब के राम रहीम, कर्नाटक के गुरु घंटाल,--[ बड़ी लम्बी चेन है-] जो कि उनकी किसी विश्वनीय चेली के माध्यम से किये जाते हैं फिर भी क्यों नहीं आम जनता की आंख खुलतीं ? ऐसी ही चेली हैं आचार्य रजनीश की चेली आनंद माँ शीला -जो सन 1985 में जर्मन जेल में थीं। पढ़िए `धर्मयुग `के जनवरी 1985 अंक की कवर स्टोरी में प्रकाशित मेरे लिए इंटर्व्यू ] उनकी जटिल व रोचक कथा ]
रजनीश के लाखों देशी विदेशी शिष्यों-चहेतों के बीच सिर्फ एक शिष्या माँ आनंद शीला थीं जिन्हें उन्होंने अपने धर्म की एक विचित्र माला दी थी, इस माला के आगे की तरफ़ उनकी सीधी फ़ोटो, लेकिन दूसरी तरफ़ उलटी फ़ोटो थी, यानी उसमें रजनीश का सिर नीचे की तरफ़ है ।
किसी ने उनसे पूछा था, “आपने सिर्फ शीला को ही अपनी उलटी फ़ोटो वाली माला क्यों दी है ?” “क्योंकि वह बहुत गड़बड़ लड़की है । सब उलटे-सुलटे काम करती है ।” रजनीश ने कहा था ।
उलटे-सीधे काम करनेवाली उस खूबसूर, तेज-तर्रार, स्मार्ट लड़की को अपनी शिष्या बना कर उसके इस गुण-अवगुण का भरपूर फ़ायदा उठाते रहे रजनीश । लेकिन वही लड़क उनके साथ भी अपनी आदत से बाज नहीं आयी ।
“शीला बड़ौदा के ‘जीवन-साधना’ स्कूल में पढ़ती थी, लेकिन मैट्रिक पास नहीं कर पायी थी। ” बड़ौदा के रजनीश केंद्र के स्वामी चंद्रकांत भारती बताते हैं। एक मुख्य बात यह है कि ये व शीला खेड़ा जिले के गांव भादरण के हैं, दोनों की पांचवीं पीढ़ी एक ही थी । इस रिश्ते से शीला इनकी बहन लगी । चंद्रकांत भारती आगे बताते हैं, “शीला का एक भाई विपिन अमरीका के किसी एक प्रदेश का सबसे धनी व्यक्ति है । उसके पास वह अक्सर आती-जाती रहती थी । इसलिये धारा प्रवाह अंग्रेजी बोल लेती है, साथ ही हिंदी भी ।”
“स्कूल में क्या वह सादगी से रहती थी?”
“उच्छृंखल स्वभाव की वह शुरू से ही थी । उसके पिता ने तीनों भाइयों व तीनों बहनों पर कोई अंकुश नहीं रखा था । इसलिये वह मनचाहा काम करती थी । उसने अपने कैरियर का आरंभ अमरीका की एक ‘बार’ की वेट्रेस के रूप में किया जिस कारण उसके नित नये संबंध बनते रहे ।”
“मां आनंद शीला रजनीश के संपर्क में कैसे आयीं?”
“एक बार जब वह बंबई आयी हुई थी, तो बंबई के धोबी तालाब में उसने रजनीश का भाषण सुना, वह उनसे प्रभावित हुई व उसने पुणे के रजनीश आश्रम में आना-जाना शुरू कर दिया । बाद में उसने वहीं रहने का फैसला कर लिया।”
“क्या उसे वाकई आध्यात्मिक शांति की तलाश थी?”
“मैं तो समझता हूँ उसकी योग से अधिक रुचि भोग में थी । रजनीश के माध्यम से वह अपना कैरियर बनाना चाहती थी । उस चुलबुली लड़की के पुणे आश्रम में रहने से जैसे बहार आ गयी हो । बिजली या किसी भी सरकारी महकमे में टैक्स का काम अटकता तो वह आनन-फानन वह काम करवा लाती । हाँ, उसके काम करने के तरीकों का कोई नियम नहीं था । काम पूरा करने के लिये कोई भी रास्ता अपनाने के लिये तैयार थी । जो काम रजनीश की निजी सचिव मां लक्ष्मी नहीं कर पाती थीं, उस काम के लिये शीला आगे कर दी जाती थी। वह अधिकतर एक पिस्तौल कमर में लटका कर घूमती थी । वहीं उसने एक अमरीकन संन्यासी चिन्मयानंद से शादी की जो बाद में कैंसर से मर गया । शीला के चरित्र, उसके रंग-ढंग को देख कर सचमुच आध्यात्म की तलाश में आये लोगों के बीच असंतोष फैल रहा था । जब रजनीश भी उसकी शिकायतें सुनते-सुनते तंग आ गये, तो उन्होंने कहा कि मैं तुरंत इस गड़बड़ लड़की को बड़ौदा भिजवाने का इन्तजाम करता हूं ।”
“उन्होंने शीला से कहा कि मैं कुछ विदेशी संन्यासियों को आश्रम में नहीं रखना चाहता । शीला उनके लिये तांदलजा में अपने पिता के घर एक सन्याश्रम खोले। शीला ने वहां एक सन्याश्रम खोल लिया। उधर रजनीशपुरम में फिर सरकारी काम अटकने लगे। भौंहों की चितवन,थोड़ी सी मुस्कराहट,या किसी भी रास्ते को अपना कर सरकारी अफ़सरों को पटा कर अपना काम निकाल सके ऐसी लड़की आश्रम में कोई नहीं थी। लिहाज़ा आश्रम में फिर शीला की पुकार हुई।
तब बड़ौदा में शीला के रिश्ते के भाई चंद्रकांत भारती भी रजनीश के शिष्य थे। वे बतातें हैं,"जब शीला का पूना के रजनीश आश्रम से बुलावा आया तो शीला ने बाकायदा मेरे गले में हार पहनाकर मुझे तांदलजा के सन्यासश्रम का कार्य भार सौंपा था लेकिन उसके पिता मुझे घर में नहीं रखना चाहते थे इसलिए वह सन्यासश्रम बंद हो गया था। "
रजनीश को अपने आश्रम के लिये नई जगह की तलाश थी। तत्कालीन प्रधान मंत्री ने भारत पाक सीमा पास होने के कारण उन्हें कच्छ में अपना आश्रम बनाने की अनुमति नहीं दी थी। शीला में दूरदर्शिता कूट कूट भरी हुई थी। उसने रजनीश की तलाश का पूरा फ़ायदा उठाया। एक बार उसकी प्लेन में एक अमेरिका माफ़िया के सदस्य से जान पहचान हुई। उसने ये सोचकर प्लेन में ही उसके शादी के प्रस्ताव को मान लिया कि `ये काम का आदमी है `..उस भी रजनीश का शिष्य बनाकर नाम दे दिया -जयानंद।
रजनीश की दांया हाथ माँ आनंद लक्ष्मी भारत में पुराने महल देखा रहीं थीं। उधर शीला की गुप चुप तैयारी चल रही थी,इन्हें अमेरिका ले जाने के लिये। पति जयानंद के कारण वह अनेक अमेरिकन रईसों के व माफ़िया सदस्यों के सम्पर्क में आई। उसने इन संपर्कों का पूरा पूरा फ़ायदा उठाया व रजनीश को गुप चुप अमेरिका ले जाने में सफ़ल हो गई थी। उनका ये पलायन इतना गुप्त रक्खा गया की पूना के आश्रम वासियों को भनक भी नहीं लगी थी।
31 मई 1981 सब आश्रमवासी दोपहर का खाना खाकर अपने कमरों में चले गए। गेट पर चौकीदार को हिदायत थी कि गेट पर किसी को खड़े न होने दे। उसी समय रजनीश अपने सात आठ विश्वास पात्रों को लेकर कारों से निकल गए। शीला ने अपने सौंदर्य के जादुई सुंदरता के करिश्मे से व पैसे के दम पर इतना बढ़िया इंतज़ाम किया था कि कार को मुंबई में प्लेन तक जाने की आज्ञा मिल गई थी। प्लेन स्टार्ट होने से दो मिनट पहले रजनीश कार से उतरकर प्लेन पर सवार हुये थे। लाखों रुपया सरकारी टैक्स की चोरी करके वे अमेरिका भागने में सफ़ल हो गए थे।
शीला उनकी किताबें,कैसेट्स व अन्य अत्यावश्यक रिकॉर्ड्स व फ़ाइल्स पहले ही स्टीमर से भेज चुकी थी ।
एक खास बात थी कि रजनीश ने भारत छोड़ने के एक माह पूर्व से ही मौन रखना शुरू कर दिया था, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि उनके शिष्य इतने परिपक्व हो चुके हैं कि उन्हें कुछ समझाने के लिये शब्दों की जरूरत नहीं है । प्रथम जून को, आश्रम की सुबह की प्रार्थना-सभा में जब वे प्रति दिन की तरह नहीं आये, तब लोगों को पता लगा कि वे कहीं चले गये हैं। बाद में, आश्रम का कार्यभार मां मुक्ता को सौंप कर शीला भी गायब हो गयी ।
लगभग आठ महीने तक दुनिया जान ही नहीं सकी कि वह कहाँ, किस हालत में है । अचानक उनकी तरफ़ से घोषणा हुई कि अमरीका के ओरेगॉन की 65,000 एकड़ जमीन पर वे रजनीशपुरम् की स्थापना कर रहे हैं । दरअसल, आरंभ में जयानंद उन्हें केलिफ़ोर्निया ले गया था, जहाँ ये आठ महीने तक गुप्तवास करते रहे, उधर शीला अपने प्रभाव से इनके अमरीका के आश्रम की स्थापना की जोड़-तोड़ में लग गयी थी ।
उस का प्रभाव भारत में इतना था कि वह जब भी भारत आती तो रजनीश जी के नाम पर आठ-दस लाख रुपया इकट्ठा करके ले जाती । इधर उसके ही इशारे पर पुणे के आश्रम से कैसेट्स व किताबों के नाम पर देशी बीड़ी, श्रृंगार व नशे की चीजों की स्मगलिंग की जा रही थी । भारत के अमीर अनुयायियों के साथ निहायत नीचता की हद तक धोखाधड़ी की जा रही थी, जिसका ज्वलंत उदाहरण है बंबई की मां आनंद मृदुला, जिन्होंने संन्यास ले कर स्वजनों से अपना नाता तोड़ दिया था ।
अचानक मां मृदुला को खबर मिली कि शीला को रजनीशपुरम् के लिये रुपयों की आवश्यकता है, उन्होंने मालाबार हिल्स स्थित अपनी जायदाद को 85 लाख रुपये में बेच दिया । उन्होंने 60 लाख रुपये तुरंत ही शीला को भेज दि. व 25 लाख रुपयों की पुस्तकें शीला के अनुरोध पर ख़रीद लीं । कुछ रुपयों से पुणे के आश्रम के लिये सामान ख़रीदा व आश्रम के ही नाम एक कार भी ख ख़रीदी ।
उधर शीला ने भारत के तमाम समाचारपत्रों में यह समाचार प्रकाशित करवा दिया कि ‘किन्हीं कारणों से मां आनंद मृदुला का संन्यास वापस लिया जा रहा है, रजनीश-धर्म का कोई संन्यासी न उनसे संपर्क करे, न सहयोग करे ।’ इस समाचार के प्रकाशित होते ही मां मृदुला बौखला गयीं । तुरंत ही उन्हें पुणे का आश्रम खाली करने के आदेश हो गये । वे दुःख में डूबी अपनी कार से बंबई में अपने बेटों के पास चल दीं, लेकिन शीला के समर्थक संन्यासियों ने रास्ते में उनसे वह कार भी छीन ली क्योंकि कार आश्रम के नाम थी ।
“यह दुख भरी कहानी मां मृदुला ने स्वयं मुझे अहमदाबाद में सुनायी थी । वे लोग उनके गोदाम से किताबें भी लूट कर ले जाना चाहते थे, लेकिन इस बात की भनक उन्हें लग गयी थी, इसलिये उन्हों ने आठ-दस ट्रकों में वे किताबें वहां से हटा दीं । वे अपनी किताबों को बिकवाना चाहती थी । शीला के भय के कारण उन्हें कोई सहयोग नहीं दे रहा था, फिर भी मैंने कुछ लोगों को तैयार कर के उनकी पुस्तकों की प्रदर्शनियां गुजरात में लगवायीं व सुरेन्द्रनगर के एक संन्यासी के पत्र `ढोलक` के माध्यम से शीला की तानाशाही व जालसाजी का भंडाफोड़ किया ।
बड़ौदा के एक आर्किटेक्ट चितरंजन पारिख की पत्नी वीणा भारती जालसाजी का शिकार होते-होते बचीं । अचानक यह हुआ कि मृदुला को निकालने के बाद इस सीधी-सादी गृहिणी को पुणे आश्रम का कार्यभार सौंप दिया गया । उनके पति से कहा गया कि वे चाहें तो पत्नी के साथ रहें या न रहें । जब उनके पति भी आश्रम के काम में दखल देने लगे, तो उनसे कहा गया कि वे आश्रम में न रहें । वीणा की सद्बुद्धि अभी बची हुई थी, इसलिये वे इस्तीफा दे कर चली आयीं । शीला ने अनेक गृहिणियों को भारत में महत्त्वपूर्ण पद दे कर अचानक अमरीका बुला लिया व उन्हें मजबूर किया कि उनके पति भी अपनी जायदाद बेचकर रुपया ले कर रजनीशपुरम् आ जायें । ये तो कुछ उदाहरण हैं । लेकिन यदि हिसाब लगाया जाये तो पूरे भारत में न जाने कितने परिवार शीला की कुटिलता के कारण नष्ट हो गये होंगें ।”
स्वामी जी बताते हैं, “रुपये का हिसाब-किताब शीला ने बहुत ही सावधानी से किया था । वह सीधे ही अपने नाम रुपया स्विट्जरलैंड के बैंकों में जमा कराती थी.अभी मैंने रजनीश जी के एक पुराना इण्टरव्यू का कैसेट देखा है, जिस में उन्होंने बताया है कि शीला जर्मनी जाते समय आश्रम के नाम पर जमा हुए रुपयों को ले कर नहीं गयी । प्रश्न उठता है कि उसके नाम जमा हुआ ढेरों रुपया कहाँ से आया?”
“अखबारों में प्रकाशित हुआ कि रजनीश शीला के पिता अंबालाल पटेल के दत्तक पुत्र थे । क्या यह सच है ?”
“यह शीला के दिमाग की उपज है । उसके पिता को अमरीका की नागरिकता मिली हुई है । रजनीश अमरीका इलाज करवाने का बहाना ले कर रहे थे । उन्हें अमरीकी नागरिकता मिल जाये, इसलिये ऐसे का ग़जात तैयार करवाये गये, जिनसे पता लगता था कि चार वर्ष की आयु से ही रजनीश जी को अंबालाल जी ने गोद लिया था । इस प्रकार वे भी अमरीकी नागरकिता के अधिकारी होते थे। अमरीकी सरकार उनके बढ़ते हुए धर्म-प्रचार से तंग थी, इसलिये उसने इन दस्तावेजों को कोई मान्यता नहीं दी ।”
शीला के हिसाब से सब कुछ विधिवत चल रहा था । अचानक एक हजार तीन सौ पंद्रह दिनों के मौन के बाद भगवान रजनीश ने बोलना शुरू कर दिया । लोगों से मिलना शुरू कर दिया । तब शीला की कारगुज़ारियां सामने आने लगीं । एक बार उन्होंने कहा था कि मेरी मृत्यु अनोखे ढंग से होगी । जब आप मेरे कमरे में आयेंगे, तो शरीर गायब होगा, चादर पर कुछ फूल पड़े होंगे । उन्हें भनक पड़ी कि शीला उन्हें गायब करके या मार कर उनकी उपरोक्त कही बात का फ़ायदा उठवाना चाहती है । उसने एक-एक करके उनके विश्वासपात्रों को उनसे दूर कर दिया था । शीला ने अपनी पोल खुलती देख कर स्वयं ही कहा कि मैं तनाव में रहती हूँ, मैं जाना चाहती हूं । रजनीश जी ने गुस्से में कह दिया कि अब मैं बोलने लगा हूँ । तुझे जहाँ जाना है चली जा !”
शीला के जाने के बाद उसके आदमी भी चले गये । बाद में उस के व रजनीश के वक्तव्य, शीला की जर्मनी में गिरफ्तारी किसी से छिपी नहीं ।
यह तो था स्वामी चंद्रकांत भारती के अनुसार शीला का रूप, लेकिन कुछ प्रश्न तो अब भी अनुत्तरित हैं। क्या वाकई रजनीश इन सब जालसाजियों से परे थे ? क्या वे सच ही इतने भोले हैं, जितना वे स्वयं को सिद्ध कर रहे हैं ? क्या उनका मौन वाकई आध्यात्मिक मौन था या वे शीला के सामर्थ्य को पहचान कर अमरीका में स्थापित होने के लिये जानबूझ कर उस पर निर्भर हो कर मौन हो गये थे ? जो कुछ भी रजनीशपुरम् में हो रहा था, वह रजनीश-चालित था या शीला अंधभक्त शिष्या के रूप में उनके आदेशों का पालन कर रही थी ? क्या शीला रजनीश को हटा कर रजनीशपुरम् को हड़पना चाह रही थी या रजनीश शीला द्वारा अमरीका में स्थापित होते ही उसका पूरी तरह उपयोग कर उसे दूध की मक्खी की तरह फेंक कर उसकी छवि की सामाजिक हत्या कर रहे थे ? आश्रम में एक सुरंग भी मिली है । रजनीश कहते हैं, शीला ने अपने बुरे दिनों में भागने के लिये इसे बनवायी थी । शीला कहती है कि वह रजनीश जी के भागने के लिये थी । तब उसमें इतना इंतज़ाम था कि वे तीन दिन तक खा-पी सके व बाहर भागने की तैयारी कर सकें ।
बिलकुल ताज़ा ख़बर के अनुसार रजनीश से मतभेद से पहले ही शीला का जयानंद से मतभेद हो चुका है, अप उनके तीसरे पति हैं कोई दीपानंद महाशय ।
फ़िलहाल शीला जर्मनी की जेल के सींखचों के पीछे है, रजनीश कुल्लू-मनाली में । उनकी पुरानी सचिव लक्ष्मी साथ हैं । शीला के जाने के बाद उन्होंने रजनीश वाद समाप्त कर दिया है । उसकी संहिता जला दी है व घोषणा की है कि अब मैं किसी को भी दीक्षा नहीं दूंगा ।
`धर्मयुग `से जब मनमोहन सरल जी का पत्र मिला की रजनीश की कुख्यात चेली आनंद माँ शीला बड़ौदा की हैं। उनके विषय में जानकारी भेजिए।बड़ी मुश्किल सामने आ खड़ी हुई थी। मैं कैसे पता करूंगी ? फिर सोचा कि `गुजरात समाचार `अख़बार के ऑफ़िस में जाकर इनका पता लगाया जाए।वहां उप सम्पादक बैठे थे। उनमें से किसी ने मुझे आनंद माँ शीला के पिता का पता दिया व बताया,"अम्बालाल बड़ौदा के पास के गॉंव तांदलजा में रहते हैं.वे किसी से अपनी बेटी के बारे में कुछ भी बात नहीं करते फिर भी मैं आपको पता दे रहा हूँ। "
इन्हीं से मुझे रजनीश केंद्र के प्रमुख चंद्रकांत भारती का पता मिला था। तो सबसे पहले रजनीश केंद्र के चंद्रकांत जी से मिलकर अम्बालाल जी से मिलने का चाँस तो लेना ही था।
बड़ौदा के तांदलजा गांव के शुरू में ही शीला के पिता अंबालाल मणिभाई पटेल का बेहद हवादार अनूठा बंगला । जिसके पास ही है उनका आम का फ़ार्म, घर के आंगन में कदंब का वृक्ष, पेड़ों व लताओं के साथ चारों तरफ़ फैला मनी प्लांट । बड़ौदा में काफी डराया गया था कि अंबालाल जी शीला की तो क्या, सीधे मुंह कोई बात करना भी पसंद नहीं करेंगे । फिर भी ‘चांस लेना ’ जैसा मूड लिये हम लोग वहाँ पहुँचते हैं । मेरे पति मृदुल कुमार जी को मालुम था कि आनंद माँ शीला बेहद खतरनाक औरत है इसलिए उन्होंने मुझे ये इंटर्व्यू लेने अकेले नहीं जाने दिया था। सं 1984 के अंत में बड़ा बेटा अभिनव स्कूल में था। छोटा सुलभ तीन वर्ष का हमारे साथ था ।
इनका अच्छा-खासा रोमांचकारी व्यक्तित्व रहा है । गांधी जी के निकट रहे । स्वतंत्रता संग्राम में चार बार जेल गये । जो भी बड़ी जिम्मेदारी का काम होता था सरदार पटेल उन्हें सौंपते थे । काका कालेलकर के निजी सचिव रह चुके हैं । कमलनयन बजाज के निजी दोस्तों में से हैं । श्रीराम मिल्स के लिये पाकिस्तान में काम किया । बिज़नेस किया । लेकिन सब कुछ छोड़-छाड़ कर पच्चीस वर्ष पहले तांदलजा में बस गये । सारी उम्र परंपराओं को तोड़ते रहे जैसा चाहा वैसा ।
उन दिनों `धर्मयुग `साप्ताहिक का क्या प्रभाव था वह इस बात से जाना जा सकता है कि `धर्मयुग `का नाम सुनते ही वे इंटर्व्यू को तैयार हो गए थे या उन्हें सच ही अंदाज़ नहीं था कि शीला ने इतनी जालसाज़ियाँ कीं हैं। सांवली व स्थूल काया के स्वामी ने बड़े उत्साह से बताया, “मैं शीला का पिता हूँ । इसलिये नहीं कह रहा लेकिन मैं अपने जीवन में शीला जैसे बहुत कम व्यक्तियों से मिला हूँ । बचपन से वह जहाँ भी गयी सभी को उसने प्रभावित किया । हो सकता है, मैं अपने अन्य बच्चों में कुछ कम या ज्यादा मौज़ूद हूँ लेकिन शीला मेरी खामियों और ख़ूबी के साथ हूबहू मेरी कॉर्बन कॉपी है । आइ एम वेरी मच प्राउड ऑफ़ माइ शीली !” कहते-कहते उनका गला भर आता है । आँखे सजल हो उठती हैं ।
“रजनीश और शीला में कौन सही हैं?”
“मुझे इस विवाद में मत घसीटिए । रजनीश मेरे दत्तक पुत्र हैं । ही इज ए मैन ऑफ़ बुक्स । वह अद्वितीय है । लेकिन शीला भी बड़ी सच्ची, बड़ी बहादुर लड़की है । मैं छह महीने रजनीशपुरम् में रह कर आया हूँ । उसके बाद ही यह विवाद उठ खड़ा हुआ । मैं तो वहाँ भी मस्ती में जीता था । मैं उन दोनों का आपस का मामला जानता ही नहीं तो क्या बताऊँ ?”
“खैर...शीला के विषय में ही बताइये ?”
“शीला गुजरात की खो-खो टीम की कैप्टन थी,” पतली दुबली काया व सफ़ेद काले ब्यॉय काट बालों वाली मैक्सी पहने शीला की मां मणिबेन बीच में बोलती हैं, “ वह फ़ुटबॉल भी अच्छा खेलती थी । एक बार फ़ुटबॉल से उसके पेट में बुरी तरह चोट लग गयी थी । बहुत ख़ून बहा था । उसकी बहन रोने लगी लेकिन वह हंस रही थी कि चोट मेरे लगी है । रो तू रही है ।”
पटेल जी आगे बताते हैं, “वह ग्रेजुएशन करने से पूर्व अमरीका चली गयी थी । वहाँ मोंट क्लेयर में मिट्टी के बर्तन बनाने का कोर्स रही थी । मैं जैसे ही वहाँ पहुँचा तो उसके प्रोफ़ेसर दौड़ कर मिलने आये । कहने लगे कि आप शीला के पिता हैं । आप की लड़की बहुत होशियार है । वर्ष भर का काम उसने पंद्रह दिन में सीख लिया है। मैं उससे कहता हूँ कि वह एक वर्कशॉप खोल ले, यू नो शी इज ए जीनियस ।”
तभी छोटा बेटा सुलभ कान में फुसफुसाता है,"मुझे भूख लग रही है। "
शीला की माँ आग्रह करतीं हैं," आप भी खानाखा लीजिये लंच का टाईम हो रहा है। "
मैं ईमानदारी से कह देतीं हूँ,"मुझे आपकी बेटी के ख़िलाफ़ लिखना है। मैं आपके घर का नमक नहीं खाऊँगी। "
अम्बालाल जी ज़ोर से ऐसे हंस पड़े जैसे उनकी बेटी कोई ग़लत काम नहीं कर सकती या मैं मज़ाक कर रहीं हूँ। अलबत्ता सुलभ के लिये वे एक प्लेट में रोटी सब्ज़ी ले आतीं हैं।
“शीला ने अमरीका में एक यहूदी लड़के मार्क सिलवर मेन से शादी कर के तीन महीने बाद हमें ख़बर की । उस लड़के का परिवार परंपरावादी था । इसलिये उनसे यह ख़बर गुप्त रखी गयी । शीला मार्क के द्वारा उस परिवार के संपर्क में आयी । सब लोग उसे पसंद करने लगे तो शीला व उसके पति ने हम लोगों को विवाह की पहली वर्षगांठ के लिये बुलाया । हालांकि मार्क के परिवार के लोगों के लिये तो यही शादी थी । मैं तब रजनीश की पुस्तकों का सेट वहाँ छोड़ आया था ।”
“उसके बाद वे दुनिया देखने हनीमून पर निकले । पहले हमारे पास आये व मुझसे कहा कि तीन विभूतियों –विनोबा जी, काका कालेलकर व रजनीश जी से मिलना चाहते हैं । उधर हम लोग अमरीका जानेवाले थे । हम लोग साथ-साथ बंबई में तीन दिन रहे । तभी मैंने दोनों को रजनीश से मिलवा दिया और अमरीका निकल गया ।”
“अचानक वहाँ पहुँचने के दस रोज बाद शीला का फोन मिला कि वह न्यू जर्सी से बोल रही है । रजनीश की ‘विज्ञान भैरवी’ भाषण माला सुन कर दोनों इतने प्रभावित हुए हैं कि हनीमून छोड़ कर, अपना फ्लैट व सामान बेच कर, पढ़ाई छोड़ कर बंबई आ रहे हैं । मार्क को रजनीश के यहाँ नया नाम चिन्मयानंद मिला । बाद में दस वर्ष बाद वह कैंसर से मर गया । शीला ने दूसरी शादी जयानंद से की । वह भी एक जबरदस्त आदमी है।”
“मैं बिलकुल दूसरी तरह का व्यक्ति हूँ । सब कुछ सहज रूप से स्वीकार करता हूँ । मुझे तो अब भी विश्वास है शीला जो भी करेगी, बहुत सुंदर करेगी । वह इस तरह की प्रतिभा है कि जीवन भर भी जेल में रहे तब भी खाली नहीं बैठेगी । अब भी वह एक पुस्तक लिख रही है, जिसके सौ से भी अधिक पृष्ठ लिखे जा चुके हैं।”
बाप-बेटी के मित्रवत असामान्य रिश्ते को शीला के जर्मन जेल से लिखे गये पत्रों से समझा जा सकता है। 6 नवंबर के पत्र में वह लिखती है, ‘जर्मन जेल में जमानत पर रिहा करने का नियम नहीं है । अगर मुझे जेल नहीं होती तो मेरे जीवन के अनुभवों में कुछ कमी-सी रह जाती । पूजा (शीला की निजी सचिव) भी मेरे ठीक होते हुए स्वास्थ्य को देख कर अचंभित है । हम लोग सोच रहे हैं कि जेल से छूट कर, एक होटल खोल कर नया कैरियर शुरू करेंगे । जेल यहाँ इतनी आरामदायक है कि यदि आप व बा के पास पैसा ख़त्म हो जाये तो आप भी मेरे पास आ जाइये !’
इस वाक्य पर अंबालाल चुटकी लेते हैं, “मैं भी प्रार्थना कर रहा हूँ कि कोई मुझ पर भी आरोप लगा कर मुझे शीली के पास भेज दे ।”
13 नवंबर के पत्र में वह लिखती है, “साठ दिन के बाद जर्मन पुलिस हमें छोड़ेगी । वैसे भी ओरेगॉन स्टेट का गवर्नर मुझे जल्दी बुलाने को उत्सुक है । उससे भी बदला ले कर अपनी भड़ास निकालनी है । यहाँ सब बात का आराम है, सिर्फ इससे कि मैं अपने मित्रों व प्रेमियों को बहुत याद करती हूँ। मेरा जर्मन वकील भी मुझसे मिलने प्रत्येक दिन आता है । लगता है वह मुझसे प्रेम करने लग गया है । लगभग सारा दिन मेरे साथ बिताना पसंद करता है । अगर मैं किसी जर्मन से शादी करना चाहूँ तो वह अच्छा जर्मन पति साबित होगा । लेकिन वह तो विवाहित है !”
इस मुलाक़ात के बाद मेरी अगली मंज़िल है आनंद माँ शीला के मुंहबोले सत्तर वर्षीय काका. जिन से शीला हर भारत-यात्रा में अवश्य मिलने आती है । बड़ौदा के भुतड़ी झांपा की एक छोटी-सी गली में सफेद-पीले दोमंज़िले मकान में शीला बचपन में ठुमकती फिरती थी । सामनेवाले मकान में रहते थे ये काका।
“मेरा नाम ?....नो पब्लिसिटी ।” वे शुरू में ही स्पष्ट कर देते हैं, “मैं बचपन में उसे माकड़ी [बंदरिया ]कहता था । बहुत चंचल, तेज़ व बुद्धिमान लड़की थी । उसके भाई-बहन सब यही खेला करते थे मेरे घर में, तो उस समय कैसे ख़राब हो सकते थे ?”
“आपसे उसकी आखिरी मुलाकात?”
“वह कुछ महीने पहले मिलने आयी थी । उसकी कमर में पिस्तौल लटक रहा था । दो अंगरक्षक साथ थे। एक उसके साथ में घर आ गया था, दूसरा दरवाजे पर खड़ा था ।”
“वह किससे भयभीत थी ?”
“आश्रम में उसके बहुत से दुश्मन हो गये थे । मैंने तभी ज्योतिष की गणना करके उससे कहा था कि तेरा ख़राब समय चल रहा है, रजनीश की साढ़े साती चल रही है. मैं भी कभी रजनीश का प्रशंसक था, लेकिन वहां का राजनीति के कारण उसका साथ छोड़ दिया । यू नो, ही इज ए ग्रेट रॉस्कल, उसने शीला को बर्बाद कर दिया ह । ही इज ए ग्रेट रोग । मैं यह तो जानता था कि शीला बुद्धिमान है लेकिन यह नहीं पता था कि उसमें संगठन की इतनी अद्भुत क्षमता है । सिर्फ चार वर्ष में उसने रजनीशपुरम् खड़ा कर के दिखा दिया । लोग तो उसे ‘शीलापुरम्’ कहते हैं । आप उसकी हिम्मत देखिये । शादी से पहले पता था कि उसके पति को कैंसर है लेकिन फिर भी उसने उससे शादी की । अमरीका में प्रत्येक सप्ताह टीवी पर उसका एक प्रोग्राम आता था । वह जिस तरह अमरीकी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में बोलती थी, कोई बोल नहीं सकता । शी इज ए वेरी डायनेमिक एंड केपेबिल गर्ल ।”
“विदेशी बैंकों में जो उसके नाम लाखों डॉलर जमा हैं, वह उसके पास कहाँ से आया?”
“नो कमेंट!”
खैर, जो भी हो बचपन से रखे गये अपने नाम` माकड़ी` गुजराती शब्द के अर्थ को `बंदरिया `में न लेकर हिंदी में `मकड़ी `समझें तो उसके व्यक्तित्व पर पूरा उतरता है। ये शब्द उसने सार्थक कर दिखाया है, यानी की कहीं भी, मौका मिलते ही सुंदर घर (जाला) बना लेने की अद्भुत क्षमता ! कीड़े-मकोड़े के फंसने के लिये एक सुंदर आकर्षण !
नीलम कुलश्रेष्ठ