ठीहा
चन्दन बाबू को डाकखाने की नौकरी से सेवानिवृत्त हुए दस वर्ष बीत चुके हैं। उनके एक ही लड़का है देवकी। देवकी एक दैनिक के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत है। पहले आगरा में था अब दिल्ली पहुँच गया है। चन्दन बाबू ने एक छोटे से शहर में जिसे मण्डलीय केन्द्र भी कहा जाता है पूरी ज़िन्दगी काट दी । कहीं स्थानान्तरण भी हुआ तो निकट ही। पत्नी का देहान्त पिछले जाड़े में हो गया। चन्दन बाबू अकेले हो गए। घर के अन्दर अब कोई रहा नहीं जिससे सुख-दुख की बातें हो सकें। वे सत्तू, चूड़ा को डिब्बे में रखते । जब भोजन बनाने की इच्छा न होती, इन्हीं से काम चलाते । भोजन बनाना उन्हें आता था। जब बनाते, बहुत रुचि से रोटियाँ सेंकते ।
दीवाली में देवकी सपरिवार आया। चन्दन बाबू का घर भर गया। वे देवकी के बच्चे सिद्धार्थ के साथ खेलते उसकी फरमाइशें पूरी करते। पुत्रवधू नीरा भोजन बनाती, जलपान की व्यवस्था करती। सिद्धार्थ बाबा के साथ लगा रहता। दो दिन के लिए ही आया था देवकी। दूसरे दिन देवकी ने पिता से कहा, 'पिता जी, आपको यहाँ अकेले कष्ट होता है। आप भी मेरे साथ चल कर रहिए । यहाँ अकेले आप......।' पुत्रवधू ने भी आग्रह किया। सिद्धार्थ दो दिन में ही बाबा से इतना हिल मिल गया था कि अब उससे दूर होने में चन्दन बाबू भी कष्ट का अनुभव करते। सायंकाल चाय पीते हुए जब देवकी ने पुनः साथ चलने की बात की तो चन्दन बाबू इनकार न कर सके। देवकी तुरन्त स्टेशन भागा पिता जी के लिए टिकट लेने ।
यह संयोग ही था कि जिस बोगी में उसका आरक्षण था उसी में उसके पिता के लिए भी बर्थ मिल गई। जो कुछ अधिक देना पड़ा वह वरिष्ठ नागरिक के लिए तीस प्रतिशत की छूट से समाहित हो गया। चन्दन बाबू का घर दो कमरे एक बरामदे का था। सामने काफी जगह थी। उन्होंने घर का सारा सामान एक बड़े बक्से में भर दिया। पड़ोसी से उनके सम्बन्ध अच्छे थे। उन्हें ही घर की रखवाली का भार सौंप अपने बच्चे के साथ दिल्ली आ गए।
देवकी ने यमुना विहार के सी ब्लाक में चालीस गज वाले मकान की ऊपरी मंजिल को किराए पर ले रखा था। दिल्ली स्टेशन से यमुना विहार जाते हुए चन्दन बाबू ने आदमियों की जो भीड़ और आगे निकलने की मारामारी देखी उससे बहुत विचलित हो गए। बस में बैठे हुए वे दिल्ली वासियों को टिफिन लिए भागते देखते रहे। गाड़ियों की लम्बी लम्बी पंक्तियाँ, उनका उर्त्सजन उनकी आंख में मिर्च की तरह लगा।
चालीस गज में बने मकान में ऊपरी मंजिल के लिए रास्ता पीछे से रहता है। वे जब पीछे से घुसकर ऊपरी मंजिल पहुँचे उन्हें कुछ अखरा । देवकी ने बताया, पिता जी यह दिल्ली है यहाँ एक कमरे और बरामदे में न जाने कितने परिवार रहते हैं। वे कमरे में सोफे पर बैठ गए। टी. वी. खोलकर नीरा और देवकी जलपान की व्यवस्था में लग गए। सिद्धार्थ और चन्दन बाबू टी. वी. के कार्यक्रम देखते रहे।
बारह बजे देवकी अपने कार्यालय चला गया। उसे देर रात लौटना होता। रात में एक बजे लौटा। चन्दन बाबू को देवकी का देर रात लौटना अखरता रहा पर......। सप्ताह में एक दिन देवकी को विश्राम मिला। उसी दिन उसने चन्दन बाबू को नीरा और सिद्धार्थ के साथ दिल्ली घुमाया। लालकिला, चांदनी चौक, राजघाट, प्रगति मैदान, संसद, राष्ट्रपति भवन, कनाट प्लेस देखकर सब लोग शाम को लौटे तो बिल्कुल थक गए थे। रात में सोए तो किसी को होश न रहा।
दो सप्ताह भी नहीं बीता कि चन्दन बाबू को घर की याद आने लगी। घर छोटा था पर खुली जगह तो थी। जहाँ चाहते कुर्सी या चारपाई डाल लेते। यहाँ तो वे पिंजरे में बन्द हो गए हैं। अपने परिवार के अलावा किसी से जान पहचान नहीं। इस दो सप्ताह में किसी से परिचय हुआ भी तो बस राम राम तक । यहाँ चन्दन बाबू को पूछने कोई नहीं आता। अपने शहर में दिन भर में दो चार लोग तो आ ही जाते। घंटों बैठते बतियाते । यहाँ कोई नहीं। सिद्धार्थ भी स्कूल जाता है। सुबह शाम वह अपने गृहकार्य के बोझ से दबा रहता। जब कभी समय पाता बाबा के पास बैठकर बतियाता अवश्य पर उसके पास भी समय कहाॅं ? चन्दन बाबू टी.वी. देखते रहते। पर कोई टी.वी. कब तक देखेगा ? देवकी सुबह देर से सोकर उठता। सिद्धार्थ से उसकी बातचीत विश्राम के दिन ही होती। गृहकार्य पूरा कराने में नीरा ही मदद करती ।
चन्दन बाबू मन बना रहे हैं बच्चे से कहें कि वह उसे घर भेज दे। वे पिछले दो दिनों से सोच रहे हैं कि कहें पर कह नहीं पा रहे हैं। नीरा ने टोका भी, 'पिता जी आप कुछ सोचते रहते हैं।' पर चन्दन बाबू, 'कुछ नहीं कह कर टाल गए।
आज देवकी के चले जाने पर वे पुत्रवधू से कह कर नीचे उतरे । रास्ता पीछे से था। वे घूम कर सड़क पर आ गए। जेब में पैसे भी थे और दिल्ली का मानचित्र भी । उन्होंने हाथ देकर एक आटो को रोका। आटो वाले को यह न लगे कि यह आदमी दिल्ली के बारे में कुछ नहीं जानता, इसीलिए उन्होंने उस पार्क का नाम याद कर लिया था, जहाँ आज वे जाना चाहते थे। उन्होंने पार्क का नाम बताया और आटो ले उड़ा। चन्दन बाबू एक सम्भ्रान्त व्यक्ति की तरह बैठे हुए थे यमुनापार करते ही उन्हें लगा कि उन्होंने काफी दूर के पार्क का नाम ले लिया है। पार्क के निकट पहुँच कर आटो रुका। चन्दन बाबू उतरे । किराया पूछने पर सरदार जी ने एक सौ पाँच रूपये कहते हुए मीटर की तरफ इशारा किया। चन्दन बाबू ने किराया दिया। आटो चला गया। काफी देर तक वे वहीं सड़क के किनारे खड़े रह गए। उनकी जेब में तीन सौ रुपये थे। अभी इतना बचा है कि वे लौट सकेंगे। पर एक पार्क में कुछ देर बैठने के लिए इतने रुपये खर्च करना उन्हें अखर गया। सड़क पर सरसराती गाड़ियों को देखते रहे। ऐसा लगा जैसे वे चल नहीं किसी नदी में तैर रही हों। रुपये वे कमीज़ की ऊपरी जेब में रखे हुए थे। एक बार जेब में झाँक कर आश्वस्त हुए। धीरे से वे पार्क के गेट पर पहुँचे। वहाँ सुरक्षा के लिए एक व्यक्ति को तैनात देखकर उन्होंने सोचा-चलो लावारिस नहीं है यह पार्क। दिन के ढाई बजे थे। वे पार्क के अन्दर घुसे तो हैरान रह गए। जहाँ जरा सी भी छाया थी युवा जोड़े चिपक कर बैठे या लेटे थे। कार्तिक की ढाई बजे की धूप तेज़ होती है। उन्हें लगा कि यदि वे पार्क में घूमते हैं तो सभी जोड़ों के लिए खलनायक सिद्ध होंगे। गेट के निकट ही सीमेन्ट की एक बेंच जिस पर कोई छाया नहीं थी, खाली थी। वे धूप में ही उस पर बैठ गए पर नज़र उठाकर पार्क में देखने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। जिधर भी दृष्टि जाती कोई न कोई जोड़ा ही दिखता। उनकी असहजता को सुरक्षा में लगे जवान ने भांप लिया। वह भी आकर उनके पास बैठ गया। धीरे से पूछा, 'बाबू जी, कहाँ से आए हैं आप?’
'यमुना विहार से।'
'लेकिन इस समय दिन के ढाई बजे ?' जवान ने फिर प्रश्न कर दिया। 'भाई मैं सेवानिवृत्त हूँ । खाना खाने के बाद मन हुआ कि कहीं घूम आएँ। पार्क देखकर सुस्ताने को मन हुआ पर यहाँ तो...........।' 'ठीक कहते हैं आप बाबू जी पर इन जोड़ों को भी कहीं मिलने की जगह होनी चाहिए। होटल कितने महँगे हैं आप जानते ही हैं। घर में जगह नहीं। ये कहाँ मिलें ? इनमें से ज्यादातर स्कूल कालेज में पढ़ते हैं। कुछ दूसरे लोग भी हैं जो अपने विश्राम के दिन मिल लेते हैं। मुझे पांच साल हो गए यहाँ ड्यूटी करते।' जवान बताता रहा।
धूप तेज लग रही थी। 'बाबू जी यदि बुरा न मानें तो चलकर मेरे साथ छाया में बैठें। यहाँ धूप में......।’ जवान के इतना कहते ही चन्दन बाबू उठ पड़े। जवान के साथ ही आकर उसके केबिन में स्टूल पर बैठ गए। 'बाबू जी, आप कहीं बाहर से आए लगते हैं', जवान ने पूछा।
'हाँ, तुम्हारा अनुमान ठीक है, मैं उत्तर प्रदेश से हूँ लखनऊ के आगे।' चन्दन बाबू ने बताया।
'मैं भी यू.पी. का ही हूँ, यहीं अलीगढ़ के एक गांव का', जवान ने गुटका की एक पुड़िया को फाड़ा, पूछा 'क्या आप भी लेंगे बाबू जी ?' चन्दन बाबू के 'न' कहते ही उसने मसाले को मुँह में डाल लिया। इसी बीच किताब कापी लिए हुए एक लड़का और लड़की आए। जवान को दस रुपया पकड़ाया जाने लगे तो जवान ने कहा, 'भैया जी जरा बच के ।'
दोनों मुस्कराते हुए अन्दर चले गए। अन्दर तो छाया में कहीं जगह नहीं है ?’ चन्दन बाबू बोल पड़े।
'इनके लिए है। कोई जोड़ा दूसरे जोड़े को नहीं छेड़ता-
बल्कि उनके लिए जगह बना देता है। मुझको भी चार पैसा मिल जाता है वर्ना वेतन तो......। इसी पैसे के बल पर मैंने गांव में तीन कमरे का मकान बनाया हैं बाबू जी । इस साल उसकी सफाई करा दूँ फिर घर वाली का इन्तजाम करूँ ।'
'अभी शादी नहीं की ?'
'नहीं बाबू जी मेरे बाबू जी ने कहा- 'मकान बनाले फिर शादी कर।'
बात मुझे भी जँच गई।
'तुम्हारी डयूटी कब से कब तक रहती है ?"
'यह न पूछो। आठ से आठ तक बारह घण्टे की डयूटी है। हम दो लोग हैं एक दिन में रहता है एक रात में। महीने के अन्त में डयूटी बदल लेते हैं। हमारा साथी सुलतानपुर का है। दोनों ने मिलकर एक छोटा-सा कमरा सोने और खाना बनाने के लिए किराए पर ले रखा है। हवा किसी तरफ से नहीं आती। इसीलिए सात सौ में मिला।'
'तुमने यहाँ घर बनाने की नहीं सोची ?"
'सोचने से कहीं घर बनता है बाबू जी । यहाँ तो पूँजी वाले घर बनाते हैं। हम लोगों के लिए दो जून रोटी का जुगाड़ हो जाता है, यही बहुत हैं ।'
चन्दन बाबू उठे तो जवान भी उनके साथ बाहर आया।
'अब कहाँ जाएँगे बाबू जी ?' उसने पूछा। 'यमुना विहार ही जाऊँगा।’ चन्दन बाबू के मुँह से निकला। 'बाबू जी हवा खोरी के लिए सुबह आइए। छह से आठ तक आराम से टहलिए।' उसने सलाह दी। जवान ने यमुना विहार की ओर जाने वाली बसों को टटोला। दो बसें आईं दोनों ठसाठस भरी थीं ।' आप आटो से ही चले जाँय, बाबू जी। बसों में बड़ी भीड़ है।' उसने एक आटो रोककर चन्दन बाबू को बिठा दिया।
आटो चल पड़ा। चन्दन बाबू अपने छोटे से घर की स्मृतियों में खो गए। पत्नी के साथ बिताए दिनों की यादें उन्हें गुदगुदा रही थीं। पचास वर्षों का साथ उसकी स्मृतियां एक एक कर जैसे आकाश से उतर रही हों। एक क्षण को उन्हें लगा जैसे पत्नी आकर बगल में बैठ पूछ रही हो, 'ठीक हो न ?’
यद्यपि चौराहों पर जहाँ भी आटो रुक जाता उनकी आँखों से पानी निकलता पर स्मृतियों में खोये चन्दन बाबू को आज कुछ भी अनुभव नहीं हुआ। जब आटो ने ब्रेक लगाया वे एक बार उछल से गए। चालक ने कहा, 'साहब यमुना विहार सी ब्लाक आ गए।' वे स्मृतियों से झटके से लौटे। उतरते हुए पूछा, 'पैसे ?’
'एक सौ दस रूपये साहब जी, चालक ने कहा।
'इधर से गए थे तो एक सौ पांच ही पड़े थे।' 'थोड़ा-मोड़ा इधर-उधर हो जाता है साब' कहते हुए उसने मीटर की ओर इशारा किया।
किराया देकर उन्होंने एक दूकान से एक किलो सेव खरीदा। अपने आवास की ओर चलते हुए उन्होंने उन संकेतों को ध्यान से देखा जो उन्होंने जाते समय पहचान के लिए गठिया लिए थे। उन्हीं संकेतों के सहारे वे अपने बच्चे के आवास तक पहुंच गए। दरवाजे पर लगी घंटी बजाई । पुत्रवधू ने आकर दरवाजा खोला। सेव का पैकेट उसे देकर वे उसके पीछे पीछे सीढ़ियां चढ़ गए।
पुत्रवधू नीरा ने बिस्कुट और एक गिलास पानी दिया। टी.वी. खोल दिया। चाय बनाने लगी। चन्दन बाबू ने पानी पिया। दरवाजे की घंटी फिर बजी। पुत्रवधू ने जाकर खोला सिद्धार्थ आ गया था। सिद्धार्थ ने आते ही बस्ता एक किनारे रखा और बाबा के पास आकर बैठ गया। 'ड्रेस उतार दो बेटा', माँ की आवाज़ आई। उसने ड्रेस उतारा। दूसरे कपड़े पहने। नीरा तब तक घर की बनी मठरी और चाय ले आई। चन्दन बाबू और सिद्धार्थ बैठकर चाय पीने लगे। टी.वी. पर कभी कभी दृष्टि चली जाती। सिद्धार्थ ताश की गड्डी ले आया। बाबा के साथ बैठ खेलने लगा। चन्दन बाबू ने टी. वी. बन्द कर दिया। थोड़ी देर बाद नीरा की आवाज़ आई, 'बेटा, स्कूल का काम पूरा कर लो ।' सिद्धार्थ अपना काम पूरा करने में लग गया। टी. वी. फिर चन्दन बाबू के साथ हो गया।
दूसरे दिन जब देवकी सोकर उठा दस बज रहे थे। नहा धोकर चन्दन बाबू के पास आकर बैठ गया। बाबू जी कोई तकलीफ तो नहीं है । 'तकलीफ तो कोई नहीं है पर घर को खाली छोड़ना ठीक नहीं है। आजकल जो स्थिति है तुम जानते ही हो......।'
‘पर वहाँ कैसे ?"
'वहाँ मुझे कोई दिक्कत न होगी। अभी हाथ पांव चल रहे हैं।'
'पर आरक्षण भी जल्दी नहीं मिल पाता। देखता हूँ।'
'जितनी जल्दी हो सके बेटा।'
देवकी नीचे उतर गया। साइबर कैफे में टिकट आरक्षण की स्थिति देखी। दो दिन बाद गोरखधाम में टिकट मिल गया लेकर आया। चन्दन बाबू बहुत खुश हुए। देवकी ने पत्नी से बताया 'बाबू जी को नरसों घर जाना है।
'इतनी जल्दी ?' पत्नी ने कहा।
'देख रही हो उनका मन यहाँ नहीं लगता। उनके लिए धोती कुर्ता, अँगोछा का इन्तजाम कर लेना ।'
'ठीक है।'
देवकी चला गया तो पुत्रवधू ने चन्दन बाबू से पूछा, 'बाबू जी, यहाँ मन नहीं लगता न ?’
'बेटी घर भी देखना है। अगर उसे छोड़ दिया जायगा तो.... ।' चन्दन बाबू ने एक लम्बी सांस ली।
चन्दन बाबू प्रातः जब अपने स्टेशन पर उतरे तो ऐसा लगा जैसे पिंजरे से छूट गए हों। मुस्कराते हुए जब वे अपने दरवाजे पर पहुंचे, पड़ोसी ने चिकोटी काटी, 'आखिर अपने ठीहे पर लौट ही आए।’ दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े।