बिरजू की पाती Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बिरजू की पाती

बिरजू की पाती

बिरजू राम फल वाला एक पेड़ के नीचे लेटा है। एक हाथ और एक पैर में प्लास्टर बंधा होने के कारण खिसकने में थोड़ी दिक्कत होती है। एक बोतल पानी पत्नी बगल में रख गई है। दाहिना हाथ और बांया पैर ठीक होने से थोड़ी राहत है। एक खाली बोतल भी बगल में ही रखी है जल निकासी के लिए। एक छोटा बिस्कुट का पैकेट भी जेब में है। प्यास लगती है तो एक बिस्कुट खाकर पानी पी लेता है।
रोज सायं पांच बजे तक उसकी पत्नी चन्दा फल बेचकर लौट आती थी। आज छह बज गए तो बिरजू की चिन्ता बढ़ी। पर क्या करते ? चल फिर सकते नहीं, केवल चिन्ता ही कर सकते थे। छह से साढ़े छह हुआ। सात बज गया। बिरजू की धड़कने बढ़ने लगीं। साढ़े सात बजे चन्दा दिखाई पड़ी। बिरजू ने कुछ राहत की सांस ली। बिरजू ज्यों ज्यों उसे निहारता उसकी परेशानी फिर बढ़ने लगी। जब बिलकुल पास आ गई बिरजू ने पूछा, 'तुम्हारा चेहरा उतरा क्यों है चन्दा ?' इतना सुनते ही चन्दा रो पड़ी, 'नहीं जाऊॅंगी अब फल बेचने ।'
'क्यों क्या हुआ ? बिरजू ने पूछा, 'क्या आज फिर कोई ?'
'गली के मराठी लोग हमसे फल नहीं खरीदते कहते हैं कि......।'
'चुप रहो चन्दा ये बुरे दिन हैं। कभी अच्छे दिन भी आएँगे।'
'कभी नहीं आएँगे हम लोगों के लिए। अब मैं नहीं’ कहते हुए पुनः रो पड़ी।
'हम लोगों की रोटी कैसे चलेगी तब ?
मेरी हालत तो देखती ही हो।' चन्दा क्या बताए ? उसकी भीगी आँखों के पास कोई उत्तर हो तब न ।
बिरजू ने उसे अपने निकट बिठा लिया। दोनों निःशब्द बैठे रहे । 'लाओ आटा मैं ही सान दूँ, दाहिना हाथ काम करता है।' चन्दा उठ गई। टीन से आटा निकाल कर सानने लगी। आटा सान चुकी तो बिरजू ने कहा, 'चंदा सामने वाली बाजार से पांच पन्ने कागज ला दे। एक कलम भी पढ़ लिख लेता हूँ न । प्रधामंत्री जी को चिट्ठी में लिखूँगा । अपने लिए नहीं औरों के लिए जो हमारी ही तरह दिक्कतें झेल रहे हैं। जा चली जा ।'
चन्दा जल्दी जल्दी गई। कागज और कलम लेकर लौट आई। बिरजू ने कागज और कलम को माथे लगा अपने पास रख लिया । चन्दा रोटी बनाने लगी पर उसके मन में भी जाने क्यों पीड़ा की जगह हुलास पैदा हो गया था। चिट्ठी की बात से दोनों को रोटी कुछ अधिक अच्छी लगी। सोए तो नींद में पुरवा ने जैसे मिसरी घोल दी हो।
सुबह उठकर चन्दा ने रोटी बनाई। बिरजू को खिलाया, स्वयं भी खाकर बर्तन साफ कर लाई तो बिरजू ने कहा, 'थाली मेरे पास रख दो। उसी पर कागज रखकर धीरे-धीरे लिखूंगा चिट्ठी । चन्दा, इस चिट्ठी का जवाब जरूर आएगा। मैं ठीक हो जाऊँगा। दो तीन महीने की तो बात है। तब मैं ही जाऊँगा फल बेचने । तब तक तो तुझे ही गाड़ी खींचनी है।'
'अगर लोग गालियाँ बकें तब ?"
'सिर नीचा कर सुनते हुए आगे बढ़ जाना।
अगर तुम नहीं जाओगी तो पेट की आग कैसे बुझेगी चन्दा ? मैं चिट्ठी लिखूँगा । कुछ न कुछ तो असर पड़ेगा ही। कहते हैं प्रधानमंत्री जी का जन्म भी पाकिस्तान में ही हुआ था। उनका भी गांव छूट गया।'
चन्दा ने बोतल में पानी भर कर रखा। खाली बोतल भी साफ कर रख दिया। फल खरीदने चली गई। चन्दा के चले जाने पर बिरजू ने बैठकर थाली को उलट कर रखा। उसी पर कागज रख कर सोचने लगा। बड़ी देर तक सोचता रहा। कैसे शुरू करें ? धीरे धीरे समझ में आने लगा और उसकी कलम चल पड़ी।
सर्व श्री प्रधानमंत्री जी को बिरजू राम फलवाले का राम राम । परमेश्वर की कृपा से जिन्दा हैं। आगे समाचार यह है कि पचीस साल की कमाई से एक कोठरी का जुगाड़ हो सका। पेट की आग सारी कमाई सोखती रही। नव निर्माण के आन्दोलन में मेरी कोठरी जला दी गई। उस पर दूसरे का कब्जा होकर ऊंची इमारत बन रही है। उसी आन्दोलन में अपना फल बचाने में मेरा बांया हाथ और दाहिना पैर टूट गया। अब सड़क के किनारे प्लास्टर लगाए पड़ा हूँ। पत्नी टोकरी में फल लेकर गली गली फिर बेचने लगी है। वही दो रोटी शाम को सेंक लेती है। मुझे भी देती है। खुद भी खाती है।
हम कोई समर्थ आदमी नहीं हैं। इतिहास तो समर्थों का होता है। लेकिन जिस हालत में पड़ा हूँ, उससे आपको अपना इतिहास बताना चाहता हूँ | मालिक क्षमा कीजिएगा, बिना कुछ कहे अब रहा नहीं जाता।
हमारे पिता उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में पैदा हुए थे। गांव पर थोड़ी खेती थी। पिता जी दो भाई थे। एक भाई खेती करने के लिए गांव में रहे और पिता जी नौकरी की तलाश में गांव के ही एक आदमी के साथ करांची चले गए। वहां एक कम्पनी में दरबानी की नौकरी मिल गई। कुछ वर्ष बाद मां को भी करांची ले गए। कहते थे चौदह रूपये पगार मिलती थी लेकिन तीन-चार रुपये में खुराकी चल जाती थी। साल में पच्चीस-तीस रुपये घर भेज दिए जाते। वहाँ का काम आराम से चल जाता।
मेरा जन्म करांची में ही हुआ। मैं पांच साल का हुआ तो करांची में दंगा शुरू हो गया। पता चला कि हम अब विदेश में हैं। अपना देश भारत अलग हो गया है। एक दिन रात में मेरे घर पर लोगों ने आक्रमण कर दिया। मां को पकड़ ले गए। उसका पता आज तक नहीं लग सका है। पिता जी मुझे लेकर भागे तो किसी तरह पानी के जहाज से बम्बई पहुँचे। उस कठिनाई का बयान करके आप का कीमती समय बर्बाद करना मैं उचित वहीं समझता।
यहाँ आकर पिता जी बहुत हताश थे। माँ को याद करके वे रोते रहते। भारत देश आजाद हो गया था लेकिन मेरे परिवार में कोई उत्साह नहीं था। बम्बई में जगह जगह जलसे हो रहे थे। हमारे घर में अंधेरा था। पिता जी गांव जाने के बारे में सोचते जरूर पर जा नहीं पाए। कहते, 'वहाँ जाकर करूँगा क्या ?" मैं एक स्कूल में जाने लगा। लोग बताते कि पाकिस्तान से आने वालों को जगह मिलेगी। लोग आते नाम नोट करते चले जाते। हमें कोई जगह नहीं मिली। जब रोटी चलना मुश्किल हो गया तो पिता जी फलों की टोकरी लेकर गली गली बेचने लगे। एक खोली किराए पर मिल गई थी। उसी में बनाते खाते और पिता पुत्र सो रहते ।
मैं पाँचवें में पहुँचा कि पिता चल बसे। उनकी झोरी में कुल ६७ रुपये निकले। मुहल्ले वालों के सहयोग से ३७ रुपये में पिता जी की अन्त्येष्टि की। पांच रुपये में हवन प्रसाद करके छुट्टी ली। बचे पच्चीस रुपये से मैं भी फल बेचने लगा।
फल बेचते हुए कुछ पैसे जोड़ा तो खोली खरीदी। पाकिस्तान से ही आए हुए एक परिवार की लड़की से शादी की। गाड़ी चल निकली। पति-पत्नी दोनों खुश थे। चलो सिर छिपाने के लिए एक जगह है हाथ पांव जब तक चल रहे हैं दो रोटी का जुगाड़ हो ही जाता है। कुछ आमदनी जरूर बढ़ी पर मंहगाई उससे तेज़ छलांग लगा देती। पत्नी कभी कभी बच्चे न होने से परेशान रहती पर मैं उसे समझाता रहता।
पिछले सप्ताह नव निर्माण के झगड़े में अपना एक हाथ और एक पैर तुड़वा कर पड़ा हूँ। पड़े पड़े सोच रहा था प्रधानमंत्री जी कि वह भारत देश कहाँ है जिसके लिए हम लोग खुशी मना रहे थे। क्या बम्बई भारत में नहीं है ? अब मुंबई हो जाने से क्या उसमें अब मराठी लोग ही रहेंगे ?
आज फल बेचकर पत्नी आई तो रोने लगी। कहने लगी, 'मराठियों की गली में मुझसे फल कोई नहीं लेता। वे कहते हैं तेरा यहाँ क्या है ? कुछ लोग तो गालियाँ भी बक जाते हैं। मैं अब नहीं जाऊँगी फल बेचने ।'
मैंने घंटे भर समझाया उसे, तब वह रोटी बनाने के लिए उठी। सुबह फिर कहने लगी, 'मेरा फल बेचने के लिए जाने को मन नहीं करता।’
मैंने समझाया- मेरा हाथ पैर टूटा है। तुम फल नहीं बेचोगी तो हम लोगों की रोटी कैसे चलेगी ? ऊँच-नीच बताया तब तैयार हुई। उसके चले जाने पर मन फिर आशंकित हो उठा। अगर नव निर्माण वाले कुछ और कर बैठे तो ?
प्रधानमंत्री जी, हम जड़ कटे लोग हैं। हमारे पास कोई महल नहीं है जिसके द्वार पर सुरक्षा बलों का पहरा हो। हम आमजन हैं। दो रोटी के जुगाड़ में ही सारी ज़िन्दगी बीत जाती है।
प्रधानमंत्री जी, मैं जरूर जानना चाहता हूँ कि हम लोगों को विस्थापित करके ही क्या नवनिर्माण हो सकेगा ? सभी प्रान्तों के लोग यदि इसी तरह करने लगे तो भारत कहाँ रहेगा ? इस दंगे में सबसे खलने वाली बात यह थी कि पुलिस प्रशासन हफ्तों आँख मूंदे रहा । उसी के सामने सब कुछ होता रहा । उसने आन्दोलन को समाप्त करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। पुलिस में मराठी ही ज्यादा हैं यह आप भी जानते हैं। तो क्या यह पुलिस और नवनिर्माण वालों की कोई मिली भगत थी या आप की ओर से कोई ऐसा निर्देश आया था। प्रशासन के पंगु रहने को क्या कहेंगे आप ?
प्रधानमंत्री जी, खुशी की बात है कि मेरे कोई सन्तान नहीं है। हम दोनों पैंसठ पार कर रहे हैं। यदि फिर दंगा हुआ और हम लोगों की जान भी चली गई तो कोई रोने वाला नहीं रहेगा। शरीर लावारिस समझकर पुलिस कहीं न कहीं फेंक ही देगी। पर हमारे जैसे न जाने कितने लोग इस बम्बई में रहते हैं, उनकी चिन्ता हमें सताने लगी है। उनकी रोजी-रोटी का धन्धा बन्द हो गया तो वे कहाँ जाएँगे? सुना है काश्मीर से वहाँ के रहने वाले पंडित भगा दिए गए। गुजरात के कई क्षेत्रों में मुसलमान जाने से डरते हैं। उत्तर पूर्व में हिन्दी बोलने वाले मजदूरों को काट दिया जाता है।
हमारे पिता अक्सर बताया करते थे कि उनके बचपन में लोग गांव से लाहोर, करांची, रंगून, मद्रास जाया करते थे। साल दो साल बाद वे सकुशल लौट आते थे अपनी गठरी-मुटरी लादे हुए। अब उसी देश में जगह जगह लोग बाहरी बताकर भगाए जा रहे हैं। मार दिए जाते हैं।
प्रधानमंत्री जी, भारत क्या दिल्ली में ही है बाकी सब जगह भारत नहीं है ? सुनता हूँ भारत तरक्की कर रहा है, अच्छा लगता है। आप लाल किले से जो बातें करते हैं, अच्छी लगती हैं। लेकिन ज़मीन पर क्या हो रहा है यह भी देखना होगा।
आप बहुत समझदार हैं। धीरे धीरे चिट्ठी लम्बी हो गई। अब लिखना बन्द करता हूँ। आप के संगी साथी, टोला मुहल्ला वालों को बिरजू फलवाले का राम-राम। चिट्ठी में कुछ गलती हो गई हो तो क्षमा करना । चिट्ठी का जवाब जरूर देना । घर जवांर का हाल चाल लिख देना। आपका- बिरजू फलवाला शिवाजी पार्क के पास सड़क किनारे-मुम्बई ।
चिट्ठी लिखकर बिरजू को ऐसा लगा कि उसने कोई किला फतह कर लिया है। चिट्ठी को थाली के नीचे दबाकर वह लेट गया। उसका चेहरा दमक उठा। ओठ फरफरा उठे। उसको लगा कि प्रधानमंत्री जी को चिट्ठी लिखना एक बड़ी बात है।
सायं काल चंदा लौटी तो उसने फिर उसे लिफाफा, पांच रूपये का टिकट और एक रूपये का गोंद लाने के लिए कहा। वह थकी अवश्य थी पर चिट्ठी के नाम पर उसे भी झुरझुरी सी अनुभव होती है। तुरन्त चली गई।
लौटी तो बिरजू से पूछा, 'चिट्ठी में क्या लिखे हो?' 'बैठो, मैं पढ़कर सुनाता हूँ।' चन्दा बैठ गई । बिरजू ने धीरे धीरे चिट्ठी को पढ़कर सुनाया।
‘लिखा तो तुमने ठीक ही है। आगे उनका ईमान जाने।' चन्दा उठी और पानी लाने चली गई। बिरजू ने सँभाल कर चिट्ठी को लिफाफे के अन्दर रखा । गोंद से बन्द किया। सोचने लगा- 'प्रधानमंत्री का पता ।..............क्या किसी से पूछा जाय ?..... नहीं पूछना ठीक नहीं है। इससे लोगों को पता लग जाएगा कि बिरजू प्रधानमंत्री को चिट्ठी भेज रहा है।.......... प्रधानमंत्री कोई ऐरा-गैरा आदमी नहीं है कि उसका मकान नं० न लिखा हो तो डाकिया नहीं खोज पाएगा।' उसने सोचा और लिफाफे पर प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली टांक दिया। चिट्ठी को छिपाकर रख लिया ।
सबेरे बिरजू ने चिट्ठी चंदा को सहेजते हुए कहा- 'इसे डाकखाने के चिट्ठी वाले बक्से में डाल देना ।'
चंदा ने चिट्ठी लेकर ब्लाउज़ में छिपा लिया और चली गई।
दो महीने बीत गए । बिरजू को लगता है कि आज ज़रूर प्रधानमंत्री जी का जवाब लेकर डाकिया आएगा। कहेगा, 'बिरजू, तुम्हें मैं कितने दिनों से खोज रहा हूँ। पता तो सही लिखा करो।' उसे झपकी आ जाती है, देखता है- लोगों की भीड़ है। उसे मंच पर बिठाया गया है। प्रधानमंत्री ने उसकी चिट्ठी पर गौर किया है। जनता खुश है। उसको धन्यवाद दे रही है।
झपकी टूटती है। उसकी आँखें डाकिया की राह देखने लगती हैं।