नौ साल की लड़की Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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नौ साल की लड़की

गर्मियों के दिन। अन्ना अपने कमरे में दर्पण के सामने खड़ी अपने बालों को निहारती हुई। मन में थोड़ी उधेड़-बुन। उसने एक सफेद बाल को खींच लिया। आज रविवार है, छुट्टी का दिन। उसकी नौ साल की बच्ची तान्या बाहर एक पेड़ के नीचे बैठकर चित्र बना रही है। रंगों से खेलने में उसकी रुचि अधिक है। जब भी अवसर मिलता रंग लेकर चित्र बनाने बैठ जाती । चीड़, देवदार के वृक्ष बनाती ही कभी कभी घास के मैदान में उगी छोटी-छोटी झाड़ियों का भी चित्र बनाती। सफेद भालू, याक, कँगारू किसी का भी चित्र चटपट बना देती। जब तान्या रंग, कूची कागज लेकर बैठ गई तो अन्ना घर की सफाई में जुट गई। सप्ताह में एक ही दिन तो मिलता है यह सब करने के लिए। रसोई, शयनकक्ष, बाथरूम, बालकनी और बैठक की सफाई में दो घण्टे कब बीत गए पता ही न चला। सफाई का काम समाप्त कर उसने स्नान किया। शरीर ताजे फूल की तरह खिल उठा। अधर गुनगुना उठे।
दर्पण के सामने खड़ी हो गई। एक-आध सफेद बाल उसे खटक गए थे और..............।
'तान्या', दर्पण के सामने अपने कपड़े सँभालती अन्ना ने पुकारा। 'अभी चित्र बना रही हूँ माँ', तान्या कूची चलाते हुए बोल पड़ी। 'फिर पूरा कर लेना। आ स्नान कर ले।' उसने फिर कहा। तान्या की कूची चलती रही।
अन्ना ने एक बार दर्पण में अपने शरीर को फिर निहारा। समय के निशान चेहरे पर उगने लगे थे। वह देर तक दर्पण के सामने विभिन्न कोणों से अपने को देखती रही। हर महिला या पुरुष युवा ही क्यों दिखना चाहता है, उसके मन में विचार उठा। वह भी कहाँ मुक्त है इससे ......?
स्मृतियों में खो गई वह। कालेज के दिनों में लान में घण्टों दोनों एक दूसरे को निहारते रह जाते बिलकुल निःशब्द। देखना ही जैसे अनुभव करना था। अनुभवों का मूक आदान-प्रदान कितना मोहक होता था? वह डाक्टरी पढ़ाई के लिए भारत से मस्कवा आया था। मुझे जाने क्यों भारत से थोड़ा लगाव था। भारत सम्बन्धी कोई भी पुस्तक पाती तो पढ़ जाती। मैंने नर्सिंग की स्नातक कक्षा में प्रवेश लिया था और उसने चिकित्सा में। कक्षाएं एक ही परिसर में चलती थीं। पर इतना ही दो प्राणियों को एक होने के लिए काफी नहीं होता।
मैं ही उसे देखकर मुग्ध हो गई थी। बड़ा संकोची था वह। वह भारत से आया है इतना ही मेरे लिए काफी था। मैंने उसका नाम नोटिस बोर्ड पर देखा था- संदीप सोनी। एक दिन खोज ही लिया मैंने। मस्कवा की जनता की ओर से स्वागत किया उसका। वह खुश हो गया। मैं उसके चेहरे को निहारती रही और वह मेरे पैरों की ओर। मैं उसकी आँखों में झांकना चाहती थी पर वह नज़रें नीची किए हँसता रहा। खिला खिला चेहरा।
'मेरी आँखों में देखो संदीप, मैंने ही कहा था। उसकी नज़रें मेरी नज़रों से मिलीं अवश्य पर तुरन्त ही झुक गईं।
'तुम इतना शर्माते क्यों हो संदीप ? "
वह केवल हँसता रहा। मुस्कराता खिला चेहरा ही उसका उत्तर था।
मेरा उसका मिलना जारी रहा। मैं उसे रूसी सिखाती वह मुझे हिन्दी सिखाता। मैं उसे अपने घर ले गई। माँ और पिता जी दोनों बहुत खुश हुए उसे देखकर। वह ऐसा था ही। वह शायद सबको प्रसन्न करने के लिए ही पैदा हुआ था।
हम दोनों का प्रशिक्षण व्यावसायिक था। अस्पताल में डयूटी लगती। मैं प्रयास करती कि मेरी और उसकी डयूटी साथ साथ लग जाए। अपने दायित्वों के प्रति बहुत गम्भीर था वह। डयूटी पूरी मुस्तैदी से हँसते हुए करता । मरीज़ उसे देखकर ही प्रसन्न हो जाते। बार बार उसे देखना चाहते। बात करना चाहते।
कितनी रातें हम दोनों ने अस्पताल में ड्यूटी करते, फुरसत में बतियाते काट दीं।
जब छह महीने रह गए ट्रेनिंग पूरी होने में मैं कुछ उदास रहने लगी। एक दिन उसीने पूछा, 'अन्ना तुझे क्या हो गया है ?"
'मेरा मन तुमसे अलग होने की कल्पना कर उदास रहने लगा है।'
"क्यों? तुम अपनी इच्छा साफ साफ बताओ'
आज वह बहुत साहसी दिख रहा था।
'मैं चाहती हूँ कि यदि हम दोनों..........।’
मेरे मुख से निकलते ही वह भांप गया।
'ठीक है। मैं अपने माँ बाप का इकलौता बेटा हूँ। वे मुझे बहुत प्यार करते हैं। मेरी इच्छा के विपरीत नहीं जाएँगे पर मेरा फर्ज़ है कि मैं उनसे अनुमति ले लूँ।'
उसी रात उसने माँ बाप से बात किया। मेरा फोटो भी ई-मेल कर दिया। मेरे बारे में विस्तृत जानकारी के साथ। उसके माता-पिता मुझसे बात करने के बाद ही कोई निर्णय लेना चाहते थे।
‌ एक दिन मेरा फोन बजा उधर से, संदीप के माँ की प्यारी आवाज़ आई 'बेटी।' उनका संबोधन मन में गहरे उतर गया। संदीप ने सब कुछ बता रखा था।
मैंने जब उन्हें 'माँ' कहा वे भी सिहर उठीं। संदीप की सिखाई हुई हिन्दी मेरे काम आ रही थी। मुझे हिन्दी में बात करते सुनकर खुश हुई। आत्मीयता का नया अनुभव। बेटे के विवाह में माता-पिता की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है यह नया आह्लादकारी अनुभव।
संदीप के माता-पिता खुले विचारों के थे। उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी। मैं बहुत खुश थी और संदीप भी। वह मुझे जौहरी की दूकान पर ले गया। दो खरे सोने की अंगूठियाँ खरीदीं। मुझसे कहा कि सुबह सूर्योदय के समय हम लोग एक दूसरे को अंगूठियाँ पहनाएँगे। प्रसन्नता से मेरे पैर मानो धरती पर नहीं पड़ रहे थे। अगले दिन सूर्योदय से पहले ही नहा धोकर हम दोनों एक खुले उद्यान में पहुँच गए। सूर्योदय की प्रतीक्षा में खड़े उत्साह से भरे । जैसे ही सूर्य की गोलाई का किनारा दिखा उसने मेरी उँगली में अंगूठी पहना दी। मैंने भी अँगूठी पहनाते हुए उसका चुम्बन ले लिया। उसने भी मेरे दाहिने गाल पर एक चुम्बन जड़ा। उस उत्तेजना भरे पवित्र क्षण के बाद हम मिलते रहे। मुझे सुतंष्ट करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी।
उसके भारत लौटने का दिन आ गया। हमारे विवाह की तिथि उसके भारत पहुँचने पर तय की जानी थी। मुझे उस तिथि के एक दिन पहले पहुँचना था। मैंने भीगी आँखों उल्लसित मन से उसे विदा किया। उसके और सभी साथी भी विदा करने के लिए आए थे।
उसका विमान उड़ा तभी मैं हवाई अड्डे से लौटी।
दिल्ली पहुँच कर संदीप रोज फोन मिलाता। एक महीने बाद शादी की तिथि तय हुई। मैंने आरक्षण करा लिया। सोलहवें दिन जब उसका फोन नहीं आया मैंने अपनी ओर से मिलाया। कोई उत्तर नहीं................मेरे सभी प्रयास व्यर्थ । समाचार बम्बई में बम धमाके की सूचना दे रहे थे। मैंने दिल्ली में पिता जी के मोबाइल पर जैसे ही मिलाया, वे फूट पड़े। उनका प्यारा बेटा बम्बई धमाके की बलि चढ़ गया था। वह अपनी बहन के यहाँ गया हुआ था। मुझे गश आ गया। अपने बिस्तर पर पड़ी मैं पानी बिना मछली की तरह तड़पती रही पर.....क्या संदीप लौट सकता था ? पर मैंने आरक्षण निरस्त नहीं कराया। पिता जी से कहा कि मैं आपसे मिलना चाहती हूँ। उन्होंने स्वीकृति दे दी। मेरे दिल्ली पहुँचने पर पिता जी लेने आए थे। मैंने घर पहुँच कर माँ जी का पैर छुआ। संदीप ने मुझे यही बताया था। उनकी आँखों में बेटे का दुःख अब भी दिखता था। पाँच दिन में वहाँ रही। पिता जी ने समझाया, 'बेटी हम लोग उम्र के उतार पर हैं। तुम्हारे लिए अच्छा यही होगा कि मस्कवा में ही रहो। बेटा तो चला ही गया........।’ आगे उनकी आवाज़ नहीं निकल सकी गला रुँध गया। मैं माँ और पिता जी से अनुमति ले मस्कवा आ गई। मैंने नर्सिंग का अपना काम शुरू कर दिया।
संदीप मेरे सपनों में आता रहा..........जैसे वह मुझसे अलग न हुआ हो ।
दो महीने बाद मुझे उलटी हुई। परीक्षण से पता चला कि पेट में कोई आ गया है। संदीप नहीं है पर उसकी एक सौगात मेरी झोली में आ गई।
दस साल बीत गए। पहले पाँच-छह वर्ष तो मैं बच्ची की देखभाल में लगी रही। तान्या स्कूल जाने लगी। मन में कई प्रश्न उभरते। मेरे साथ बच्ची तान्या का भी भविष्य जुड़ा है ? इष्ट मित्र पूछते, 'क्या अकेले रहोगी?" मैं 'हाँ, 'न' में तत्काल उत्तर न दे पाती। कुछ मित्रों ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया भी पर मैं ही पीछे हट गई।
कई बार मैंने इस स्थिति से उबरने की कोशिश की पर उबर न पाई। मुझे लगता है संदीप मेरे साथ हर समय लगा रहता है। इसे आप मेरी भावनात्मक कमजोरी कह सकते हैं। किसी मनोविश्लेषक के पास जाने की सलाह दे सकते हैं। जाने क्यों संदीप की भावनात्मक उपस्थिति मैं लगातार अनुभव करती हूँ। केवल तर्क से जीवन कहाँ चलता है ? ज्ञानात्मक समाज में बच्चों में बड़ा परिवर्तन हो रहा है। वे अपनी उम्र से अधिक परिपक्व दिखने लगे हैं। एक दिन तान्या ने ही कहा, 'मम्मी, किसी अंकल को तलाशो। मैं मदद करूँगी।’
‘मैं चौंक गई। पूछा, क्यों?'
'मैं जब अपना साथी खोज लूँगी तो अकेली नहीं हो जाओगी।’ तान्या के शब्द जैसे सच बता रहे हों।
स्मृतियों से उबरी तो फिर पुकारा, 'तान्या' ?
'आई माँ चित्र बन गया है।' तान्या ने उत्तर दिया। वह कूची, रंग उठाकर‌ रख आई। पुनः चित्र के पास पहुँच गई।
'माँ, यहाँ आओ।' उसने कहा।
कभी कभी उसी की इच्छा के अनुरूप चलना पड़ता है।
मैं पेड़ के नीचे पहुँची। उसने चित्र को पलट दिया था।
'माँ आँखें मूंद लो।' मैंने आँख मूँद लिया।
उसने कहा, 'आँखें खोलो।'
मेरी आँखें खुलीं तो तान्या का बनाया पुरुष चित्र सामने था।
'मम्मी मैंने अंकल का चित्र बनाया है।'
कहकर उसने हँसते हुए मेरे दाहिने गाल का चुम्बन ले लिया।
मैं अपने परिचितों में इस चेहरे को तलाशने लगी। पर यह चित्र किसी पर भी पूरी तरह फिट नहीं बैठता।
'चलो नहा लो। देर हो रही है बेटे।’
मेरे कहते ही तान्या ने चित्र को उठाया और चल पड़ी। मेरा मन अनन्त आकाश में उड़ने लगा।