Kinne books and stories free download online pdf in Hindi

किन्ने

किन्ने

किन्ने चौराहे की ओर बढ़ा ही था कि कई आँखें उसको घूरने लगीं। आँखों ही आँखों में वे लोग कुछ कह रहे थे। उनकी फुसफुसाहट किन्ने के लिए ही थी। वह हैरान था । किन्ने कोई इतना बड़ा आदमी नहीं कि चारों और उसी की चर्चा हो ।
'तुम आए नहीं' क ने लपक कर टोका था ।
'अब नहीं आ सकूँगा' किन्ने का उत्तर था।
'तुमने पहले क्यों नहीं सोचा था?’ क की आँखें कुछ चढ़ गई थीं। 'दिन-रात सोचता ही रहा। अब जाकर ज़मीन पकड़ पाया हूँ,' उसने साहस करके कहा।
'तो मामला खत्म समझूॅं ?" क का तेवर कुछ तेज ही था । 'बिल्कुल खतम समझो बाबू जी, इस वाक्य को कहने में उसने पूरी ताकत लगा दी थी।
क ने कुछ भद्दी गालियाँ सुनाईं और कहता गया- 'अच्छा देखूँगा।',
किन्ने कुछ कदम आगे बढ़ा। ख को देखकर वह कन्नी काटना ही चाहता था कि उन्होंने स्वयं पुकारा ‘अरे भाई कहाँ जा रहे हो?’ ‘बाबू जी कुछ काम-धाम के चक्कर में’..... उसकी आवाज फँस रही थी।
'मैंने तो तुम्हें बताया था कि तुम्हारा भाग्य पलट जायगा लेकिन
तुम.........' कहते-कहते ख रुक गए थे।
कुछ दूरी पर ग आता दिखाई पड़ा। किन्ने उससे बचने के लिए गली की ओर मुड़ गया। ख भी उसके सामने किन्ने से कोई बात नहीं करना चाहता था ।
पिछले एक सप्ताह से किन्ने को इसी प्रकार या तो साक्षात्कार देना पड़ता है या कहीं कन्नी काटना।
एक दिन चौराहे पर जाते हुए मैंने उससे पूछ लिया ‘भाई किन्ने, तुम्हारे चारों ओर इतनी आँखें क्यों बिछी रहती हैं?"
'बाबू जी', किन्ने की आवाज़ भर्राने लगी थी ‘मेरे बारे में जानकर क्या करोगे?' लेकिन उसकी पिटारी खुल चुकी थी, कहने लगा, 'बाबू जी मैं खुद नहीं जानता कि मैं कहाँ पैदा हुआ था। मेरे चार साल पूरा करते बाप चल बसा। माँ ने दूसरी शादी कर जी। नए बाप ने मुझे- एक घर में बर्तन माँजने, सफाई करने के लिए भेज दिया। मुझे वहीं रहना पड़ता। सुबह चार बजे से ही आवाज आती ‘किन्ने' और किन्ने आँख मलता हुआ दौड़कर अंगीठी जलाने लगता। अंगीठी जलते ही चाय की केतली चढ़ाकर हाथ मुँह धोकर जल्दी तैयार होता । किन्ने चाय लेकर सबको बिस्तर पर ही दे आता और फिर दिन भर का काम बर्तन माॅंजना, कपड़ा धोना, पोंछा-सफाई, बिस्तर लगाना और न जाने क्या-क्या ? रात के दस ग्यारह बजते रहते। किन्ने का शरीर और आँखें जवाब देने लगतीं। सुस्ताने के लिए टेम कहाँ? कभी माँ जी पुकारती, कभी बाबू जी कभी लड्डू, टोनी और चन्दा की पुकार होती और किन्ने को बिजली की तरह हाजिर होना पड़ता। एक मिनट की भी देरी.....।

शरीर टूटता रहता किन्तु सबके सो जाने पर बोरा बिछा कर लेट जाता और नींद.. .. जैसे धक्का देकर आती। कुछ दिन ज़िन्दगी यों ही कटती रही लेकिन मन और शरीर में जाने कौन-कौन से सपने उगने लगे थे। सपनों का उगना नाजायज़ था यह आज भी मैं सोच नहीं पाता। कभी दो अक्षर पढ़ने की सोचता पर थकान और काम के आगे कुछ न हो पाया। पर सपने बराबर उगते रहे।
'अब तो देश आजाद है' मेरे इतना कहते ही वह अपने को रोक नहीं सका। उसकी आँखों में उभरता आक्रोश साफ दिख रहा था, कहने लगा 'बाबू जी एक दिन मैंने सुना कि देश आज़ाद हो गया। मैं बाज़ार गया था। एक जलसे में मैं भी शामिल हो गया। काम का ध्यान ही न रहा। डाँट-फटकार के डर से नौकरी पर लौटकर नहीं गया। मन जवान हो रहा था। जेब में अठन्नी थी। सोचा आज काम चले कल देखा जायगा। दूसरे दिन से ही रिक्शे को हाथ लगाया जिससे आज भी दो जून रोटी का जुगाड़ होता है। दिन में रिक्शा चलाता। रात में किसी फुटपाथ पर सो जाता। ज़िन्दगी शायद यो ही कट जाती, पर एक लड़की को मेरे पल्ले पड़ना था। उसके भी परिवार में सिर्फ उसकी बुढ़िया माँ और वही थी‌। चौका बर्तन करके दो जून रोटी का जुगाड़ कर लेती। एक पुरानी कोठरी किराए पर ले रखी थी। मैं भी पड़ोस में पड़ा रहता था। बुढ़िया की बीमारी में भी जो कुछ मदद कर सकता था किया। वह बच नहीं सकी। माँ के मरने पर लड़की तो अपना होश ही खो बैठी थी। मैं ही उस लाश को रिक्शे पर लादकर नदी में डाल आया था।
लौटा तो देखा कोठरी में ताला लगा था। लड़की वहीं बैठी थी। उसकी आँखों में आँसू नहीं थे। मकान मालिक ने कोठरी पर कब्जा जमा लिया था। वह लड़की जिसे मैं निन्नी कहकर पुकारता हूँ उठी और मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। उसने धीरे से कहा, 'मुझे अपने साथ रख सकोगे?’ थोड़ी देर के लिए मैं सकपका गया था पर हाथ उसकी ओर बढ़ गए थे। रिक्शे की कमाई से गाड़ी खिंचने लगी। निन्नी को फुटपाथ अखरता था। सपनों का उगना जारी रहा। झुग्गी बनाकर रहना शुरू किया। लेकिन आज़ाद देश में झुग्गियाँ पानी के बुलबुले हैं। जब सरकार की इच्छा हुई उन्हें तोड़ दिया गया। कभी उनके बदले थोड़ी ज़मीन दी गई, कभी नहीं भी दी गई। न जाने कितनी बार किन्ने की झुग्गियाँ टूटी पर उसे ज़मीन कभी न मिल सकी।'
'तुम्हें ज़मीन क्यों नहीं मिल सकी?" मैंने उससे पूछा। 'अब मुँह न खुलवाइए बाबू जी, झुग्गियों का टूटना आपने भोगा नहीं है...........।’ किन्तु वह ज़्यादा देर चुप न रह सका। अभिव्यक्ति अपने आप फूट पड़ी, 'झुग्गी और फुटपाथ के बीच अपनी जिन्दगी बिताते हुए निन्नी कभी-कभी पूछ ही लेती-हमारे बच्चे भी क्या इसी तरह और मेरी आँखें उसकी आँखों पर टिकते हुए ज़मीन देखने लगतीं।
इसी बीच कुछ सनसनी फैली। दो-चार लोगों से सुना कि
कुछ ज़मीन और मदद मिल सकती है। कुछ लोग दौड़ रहे थे मदद पाने और कुछ मदद दिलाने के लिए। क, ख, ग, ऐसे ही लोग थे जिन्होंने कुछ दिलाने का वादा किया था। मेरे और निन्नी दोनों के मुँह में पानी भर आया था। क के साथ एक दिन गया था। मदद की बात तो हुई लेकिन उसके साथ एक शर्त थी- तुम्हें अपना धर्म बदल लेना होगा। आपसे सच कहता हूँ मैं व्रत, उपवास, रोजा, नमाज कभी नहीं रख सका। हनुमान मंदिर पर एक बार प्रसाद चढ़ाया था। पीर की मजार पर भी हो आया था। लेकिन यह तब हुआ था जब हम और निन्नी साथ रहने को तैयार हुए थे। उसके बाद तो ज़िन्दगी की उठा-पटक में ही लगा रहा और अब जब धर्म बदलने की बात की गई मैं उठ पड़ा। बिना निन्नी से बात किए मैं कैसे कुछ कह सकता था?
घर आया। निन्नी तवे पर रोटी डालते हुए पूछ बैठी 'क्या हुआ?" मैंने कहा 'रोटी बना लो फिर बताते हैं।' चटपट रोटी बनाकर वह मेरे आगे आकर बैठ गई। उसकी आँखें मेरे चेहरे पर टिक गईं लेकिन मेरी जबान खुल नहीं रही थी। 'क्या बात है?" उसने पूछा।
'क्या बताऊँ निन्नी, वे लोग कहते हैं अपना धरम बदल लो तो.........’ मेरे मुँह से निकल गया। कुछ देर तक वह और हम चुपचाप एक दूसरे को बिसूरते बैठे रहे। अचानक वह उठी और बोल पड़ी 'नहीं लेनी है हमें मदद उनसे, कह दो। मेहनत और ईमान हमारा धरम है। इसे कैसे बदलेंगे हम?" मैं भी उठ पड़ा और निन्नी का हाथ अपने हाथ में रखकर देखता रहा।'
इतनी कथा कहने के बाद किन्ने बिल्कुल शान्त हो गया था। मैंने पूछ लिया 'किन्ने तुम्हारी जबान तो बहुत साफ है।' 'निन्नी पढ़ी है बाबू जी उसी ने मुझे भी, अब चलूँ, देर हो रही है' कह कर वह मेरे सामने से खिसक गया।

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED