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सन्तो

दिन निकलने में थोड़ी देर थी। पुरवा हवा के झोंके सुखद लग रहे थे। महीना फागुन का था। हवा में ताज़गी थी। सत्तो लुटिया में पानी लेकर बाहर गई थी। साथ में माँ भी थीं। लौटते समय उसने सुना, कोई किसी को गाली बक रहा है। थोड़ी ही देर में एक लड़की भागती हुई उसके पास आ गयी। वह सन्तो थी।
'क्या हुआ रे'। सत्तो ने पूछा
'हुआ क्या जो रोज़ होता है।’
'रोज़ होता है?"
'तुम तो ऐसे पूछ रही हो जैसे इस गाँव में रहती ही नहीं।' 'रहती हूँ लेकिन गाँव का हर आदमी क्या हर बात जानता है? तुम न बताना चाहो तो कोई बात नहीं।'
'बताना चाहती हूँ भाभी, लेकिन सुनेगा कौन? सभी तो मुँह फेर लेते हैं। बात किसी मर्द से की जा सकती है।'
‘मर्द तो मैं अपने को नहीं कह सकती। लेकिन तुम्हारा चुप औरों के लिए.........।’
'तो क्या चिल्लाऊँ?
'हो सके तो चिल्लाओ ही।'
'गाँव के लोग अगर गूँगे और बहरे हो जाएँ तब भी ।'
'सब गूंगे और बहरे नहीं हो सकते सन्तो ।'
'नहीं हो सकते यही भ्रम मुझे भी था।' सन्तो का चेहरा तमतमा गया था। तभी सत्तो की माँ को आते देख सन्तो आगे बढ़ गई और घर की ओर चल पड़ी।
सत्तो की माँ साठ पार कर चुकी थीं। चेहरे पर झुर्रियों ने कब्जा करना शुरू कर दिया था। गाँव में घटने वाली घटनाओं से वे प्रायः बेख़बर रहतीं। ग्यारह महीने पहले ही सत्तो ब्याह कर आई है। सत्तो इण्टर पास है। कुछ सोचती-समझती है । घटनाओं से निरपेक्ष रहने में उसे दिक्कत होती है। शादी के दस दिन बाद ही उसका पति नंदी कुछ कमाने के लिए बम्बई भाग गया। उसने बी.ए. पास किया था। आस-पास कोई जुगाड़ न लगने से उसने महानगरी बम्बई की शरण लेना ही ठीक समझा। इन ग्यारह महीनों में वह कुछ घर न भेज सका। कभी-कभार हाल-चाल मिल जाता और उसी से सत्तो और परिवार वालों को सन्तोष करना पड़ता ।
सत्तो न मूक थी न बधिर। गाँव में होने वाली घटनाएँ उसे परेशान करती थीं। घर में कुल चार ही लोग थे। नन्दी के माता-पिता दमे के मरीज़ थे। उनसे काम सधता ही नहीं था। कंचन अभी दस साल का था और गाँव के प्राइमरी स्कूल के कक्षा पाँच में पढ़ता था। परिवार के नाम कुल दो बीघा ज़मीन। उसी से किसी तरह रोटी दाल का जुगाड़ करना होता । नन्दी बी. ए. पास था। इसीलिए सत्तो के पिता ने लपक कर सत्तो को उसके साथ बाँध दिया। विवाह हुए अभी वर्ष भर भी नहीं हुआ था। उसके भी सपने थे। गाँव भी बदल रहा था। उनमें शहरी चाल-ढाल और चालाकी साँपने लगी थी। आदमी अपने में ही सिमटने लगा था। अब परखू दादा के अलाव पर भीड़ नहीं हो पाती। न बिल्ले की चौपाल में बैठक जमती। शराब गाँजा पीने वाले लोग पहले भी थे। लेकिन अब जहाँ इनकी संख्या बढ़ी है, वहीं नए नए छोकरे नशीली गोलियों का सेवन कर मस्त रहते। छुरे और कट्टे वालों के गोल बनते और बिगड़ते। बहुत थोड़े पैसे में आदमी को स्वर्ग पहुँचाने का जुगाड़ कर लिया जाता।
सत्तो प्रायः अपने और परिवार के भविष्य के बारे में सोचती। आज उसको झटका लगा। सन्तो की परेशानी गाँव क्यों नहीं अनुभव करता । आखिर गलती कहाँ है? वह अपने कच्चे घर के ओसारे में बैठी इसी उधेड़बुन में डूबी थी कि कंचन आकर खड़ा हो गया। ‘भाभी स्कूल जाना है।' सत्तो उठी और एक कटोरे में शाम की रखी रोटियाँ और दाल कंचन के हाथ में देकर बैठ गई। 'भाभी प्याज़ है।'
'है लाती हूँ।' कहकर सत्तो प्याज छीलने लगी ।
प्याज़ और एक लोटा पानी लाकर वह कंचन के ही निकट बैठ गई। बाबू खूब मन लगा कर पढ़ना। 'कल वाला पाठ याद कर लिया है न?" कंचन ने स्वीकृति में सिर हिला दिया तो वह प्रसन्न हो उठी। रोटियाँ खाकर कंचन ने पानी पिया। बस्ता और बैठने के लिए बोरा उठाकर वह स्कूल चला गया। स्कूल एक पेड़ के नीचे लगता था। उसके रजिस्टर में तीन अध्यापकों के नाम दर्ज थे। एक की शक्ल लड़कों ने कभी नहीं देखी थी। प्रधानाध्यापक हफ्ते में एक दिन आ जाते तो स्कूल अपने को धन्य मानता। एक अध्यापक ज़रूर आते थे। स्कूल में टाटपट्टी, चाक नाम की चीज़ नहीं थी। बच्चे बोरे या टाट का टुकड़ा घर से लाते थे और उसी पर बैठ कर पढ़ते थे। टाट यदि स्कूल को कभी उपलब्ध भी कराया जाता तो वह स्कूल का मुँह नहीं देख पाता था।
सन्तो का दबाव अभी सत्तो पर था। वह गुनगुनाते हुए झाडू देने लगी। बर्तन साफ करके उठी ही थी कि सन्तो आ गई। कहने लगी 'भाभी बोल क्या बताती है? तेरी बात समझने के लिए ही आई हूँ।'
'मैं तेरी दिक्कतों को अभी समझ नहीं पाई हूँ।'
'मेरे पिता नहीं हैं यह तो जानती हो न ।'
'हाँ।'
'माँ है और मैं हूँ। केवल एक बीघा खेत से हम लोग कैसे गुजारा करते हैं यह हम ही लोग जानते हैं।'
'जो भोगता है वही जानता है।'
"उसके खेत की भी खड़ी फसल कोई चरा ले तो कैसा लेगेगा।
भाभी मैं भूखों मरने के लिए तैयार नहीं हूँ ।
मैं लड़की हूँ। शेर की माँद में हाथ डालने का फल मुझे पता है।"
सन्तो को जैसे कुछ याद आ गया। वह उठी और तेजी से ‘फिर आऊँगी' कहकर चली गई।
आखिर सत्तो की स्थिति भी तो सन्तो से अच्छी नहीं है। चार अक्षर पढ़ लेने से ही सब कुछ नहीं हो जाता। कल उस पर इसी तरह की विपत्ति आ सकती है। गाँव के अन्य लोगों पर भी.....। लेकिन हर आदमी अपनी चमड़ी बचा कर भाग रहा है।
'किससे बात करे ।' उसने सोचना शुरू किया किन्तु कोई नाम उसे आश्वस्त नहीं कर सका। साल भर में जो उस गाँव के बारे में सुन रखा है वही तो उसकी जमा पूँजी है।
'सन्तो पुलिस को भी इसकी सूचना दे सकती है।' उसने सोचा लेकिन मन तर्क वितर्क करता रहा। पुलिस कितना सहयोग कर सकेगी? क्यों न एक........।
लेकिन पुलिस भी तो...….....। उसके हृदय की धड़कनें तेज हो गईं। उसने पुलिस के बारे में जो सुना था, उससे उस पर विश्वास करने का साहस कहाँ से जुटाए ? वह इसी उधेड़-बुन में थी कि परखू दादा के खखारने की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। उसने झाँक कर देखा कि वे ओसारे में चारपाई पर बैठ चुके हैं। परखू की ससुराल सत्तो के ही मैके में थी। सत्तो का परिवार उनपर विश्वास करता था और वे भी इस परिवार के दुख-दर्द में शामिल होते थे। सत्तो की शादी में उन्होनें ही मध्यस्थता की थी।
बैठते ही उन्होनें आवाज़ दी।
'क्या है रे। बुलाया था।'
'हाँ दादा।' सत्तो ने धीमी आवाज़ में कहा।
'कोई खास बात।'
'बात ज़रूर है लेकिन इस घर की नहीं।'
'फिर?"
'सन्तो है न।'
'सन्तो।' परखू कुछ चौंके।’
"हाँ बात उसी की है।’
'कैसी बात ?’
"उसके खेत को लोग चरा लेते हैं।’
'तो इससे तुम्हें.............।’
'वह आती जाती है। मैं सोचती हूँ कि..........।’
'तुम्हें इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए। यह गाँव है। देश आज़ाद जरूर हुआ है लेकिन आज भी समरथ का ही राज है। खेत कौन चराता है?
यह सब जानते हैं।
लेकिन बाघ से बैर कौन करे?
हमने तो समझा था कि कोई ज़रूरी काम है।'
'तो क्या करूँ?’
'तुम क्या कर सकती हो जब पूरा गाँव...............।’
'लेकिन यह बात क्या ठीक है?’
'ठीक या बेठीक का सवाल नहीं है।' नाक को उँगली से सहलाते हुए उन्होंने कहा।
'फिर।' सत्तो अधिक भावुक हो गयी।
'यह राज ऐसे ही चलता है।' वे कहते हुए उठ गए थे।
लेकिल सत्तो की शंका का समाधान नहीं हो सका। उसका मन बार-बार कचोटता। कुछ होना चाहिए। इस तरह सोचने से तो...।
वह सोचती रही और ओसारे में पड़े दानों को बीनती रही।
'एक लोटा पानी।’ माँ की आवाज़ आई। पानी देकर वह फिर दाने बीनने लगी।
आज मंगलवार है। गाँव में मंगल के दिन सायं काल मानस पाठ और कीर्तन होता है। इसी बहाने चार आदमी जुटते हैं और भजन-कीर्तन गाकर मनोरंजन करते हैं। आज सायं काल भजन-कीर्तन के बाद तीन आदमी सन्तो के खेत में पहुँच गए। एक-एक बोझ गदरा काट कर घर लेकर चले गए। सुबह हुई । सन्तो खेत की ओर गई। एक कोने गेंहूँ कटा देख उसकी आँख जलने लगी लेकिन ज़बान से कुछ नहीं निकला। वह थोड़ी देर कटे हुए खेत को देखती रही। फिर लौट पड़ी। हवा में अब भी खुनक थी। सूर्य निकल रहा था। उसके काँपते हुए हाथ सूर्य को प्रणाम करने के लिए अपने आप उठ गए। उसकी बुदबुदाहट और गर्म साँसों को सरसराती हवा ने अनुभव किया।
दिन बीत गया। शाम हुई। सन्तो को चैन नहीं था। उसने सत्तो को भी सूचित कर दिया था। बेचैनी उसकी भी कम न थी। सन्तो के कहने पर चार लोग एक पेड़ के नीचे इकट्टा हुए। उसमें दो नवयुवक व दो अधेड़ थे। सन्तो ने अपनी समस्या रखी किन्तु बाघ का नाम आते ही लोगों की घिघ्घियाँ बंध जातीं। एक नवयुवक ने अवश्य मोर्चेबन्दी की बात की। लेकिन दोनों अधेड़ उसे हतोत्साहित करते रहे। सन्तो भी सुनती रही।
'तो क्या मैं गाँव छोड़ दूँ।' उससे रहा नहीं गया। थोड़ी देर सन्नाटा रहा। केवल बीड़ी का धुँआ ही इधर-उधर फैलता दिखा।
'आप लोग कुछ बताएँ।' उसने अपनी बात दुहराई।
'गाँव के और लोगों से भी हम लोग बात कर लें।' एक ने कहा।
इसी बात पर लोग उठ खड़े हुए। सन्तो भी लौट पड़ी।
लेकिन उसके मन में धुंआ उठ रहा था।
रात भर वह सो न सकी। कभी घर के अन्दर जाती कभी बाहर आती। उसकी माँ ने एक दो बार उसे टोका भी किन्तु सन्तो जैसे सुन नहीं रही थी।
रात बीतती रही। भोर होने में कुछ देर थी। जिसे लोग बाघ कहते थे उसी ने शोर मचाया। वे अपने ओसारे में लेटे थे। किसी ने इतनी कसकर लाठी मारी थी कि वे उठ नहीं पा रहे थे। उनके एक पैर की हड्डी छितरा गई थी।
सुबह हुई। सत्तो ने सन्तों का हाल-चाल जानने के लिए कंचन को भेजा। कंचन ने लौट कर बताया 'सन्तो घर पर नहीं है।'


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