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चन्द्रिका


चन्द्रिका

दो नदियों के मिलने पर जिस नदी का पानी स्थिर हो जाता है उसका समापन मान लिया जाता है। प्रयाग में यमुना का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। उसका पानी स्थिर, शान्त दिखता है गंगा का पानी हरहराता हुआ आगे बढ़ जाता है। तिरमुहानी में नहाने के लिए लोग नावों पर चढ़कर जाते हैं। नावें किले के पास ही नहीं अन्य अनेक जगहों से तिरमुहानी की ओर सरसराती हुई भाग रही हैं। प्रयाग में यों तो नित्य स्नानार्थी आया करते हैं पर माघ के महीने में जमावड़ा अधिक होता है। बारहवें वर्ष कुम्भ और छह वर्षों पर अर्द्धकुम्भ तो दुनिया भर से लोगों को आकर्षित करता ही है पर हर वर्ष माघ में स्नानार्थियों, कल्पवासियों, साधु सन्तों का समागम ।
आज वसन्त है माघ के पाँच मुख्य स्नान पर्वों में एक । साधु-सन्तों के शिविरों में यद्यपि चहल-पहल कम हुई है पर स्नानार्थियों की काफी भीड़। आज अनेक लोग वसन्त के कारण पीले वस्त्र धारण किए हुए। गंगा में अरइल की ओर जो नावें लगी हैं उनमें नाविक का काम एक बालिका भी कर रही है। नाम है चन्द्रिका। उसका गांव भी निकट ही है। नाविक का काम उसके पिता, बाबा भी करते रहे। उसे भी चप्पू थामना पड़ गया। पिता की अकेली सन्तान । 'बाबू जी हमारी नाव पर आइए। तिरमुहानी तक ले चलूँगी।’ एक परिवार से चन्द्रिका ने कहा।
'तुम नाव चला लोगी ?
'साल भर से चला रही हूँ बाबू जी ।'
'तुम्हारी उम्र कितनी है?"
'सत्रह साल तीन महीने।’
'तब तो तुम नाबालिग हो।'
'क्या आपको मैं नाबालिग लगती हूँ ।'
'बिल्कुल। अठारह साल से कम उम्र के लोग नाबालिग ही होते हैं । तुम्हारी नाव पर ठीक नहीं।'
'अगर मैं कहती कि अठारह साल की हूँ, तो आप बैठते ।'
'बिल्कुल'
'पर मेरे बापू ने झूठ बोलना नहीं सिखाया।
गुरु जी ने भी नहीं ।'
'तुम कितने तक पढ़ी हो।'
'हाई स्कूल तक ।' तभी कुछ और यात्री आ गए। वह उनकी ओर बढ़ी।
'आइए बाबू जी हमारी नाव पर ।'
'कितना लोगी? 'पचास रूपये बाबू जी ।' उसकी नाव पर बैठते हुए वे बोले, 'चार लोग हैं चालीस रूपये देंगे।' उन्हें बिठाकर उसने नाव को खिसकाया और तिरमुहानी की ओर खेते नाव को ले चली चप्पू चलाते हुए। यात्री उसका चप्पू चलाना देखते रहे। वह तेजी से चप्पू चलाते हुए नाव को खेती रही।
'तुम क्यों नाव खेने का काम करती हो ?' एक ने पूछ लिया।
'मैं समझता हूँ लड़कियाँ कोई मजबूरी में ही इस तरह का काम करती हैं।'
'लडकियाँ नाविक कम हैं, यह सही है। मैंने भी बापू के बीमार हो जाने पर चप्पू पकड़ा। अब मुझे यह काम रास आने लगा है। इसी के सहारे बापू की दवा कराती हूँ, घर का खर्च चलता है।'
'तुम्हें कोई दिक्कत तो नहीं आती?"
'दिक्कत किस धन्धे में नहीं आती बाबू जी ? रोटी का जुगाड़ करने के लिए दिक्कतों से जूझना ही होता है ।'
'अगर नाव पलट जाय तो ?"
'यहाँ लहरें नहीं उठतीं । सावधानी से चलाने पर नाव पलटने का कोई डर नहीं होता ।'
'क्या तुम्हें तैरना आता है?"
'बिलकुल । बिना तैरना सीखे कोई चप्पू नहीं पकड़ता ।'
साइबेरिया से आए कुछ स्लेटी कुछ सफेद रंग के पक्षी नदी में चहचहा रहे थे। यात्री लाई तथा अन्य खाद्य सामग्री उनकी ओर फेंकते । वे उन्हें खाते हुए किलोल करते । चप्पू चलाते हुए उसने तिरमुहानी पर नाव रोकी। उसे बेड़े से फँसा दिया। तीन यात्री स्नान की तैयारी करने लगे। चौथा सामान की रखवाली के लिए नाव पर बैठा रहा। नाव पर बैठे हुए चन्द्रिका ने जेब से एक पुस्तक निकाली। उसके पन्ने पलटने लगी। वह पढ़ने का प्रयास करती पर दूसरी नावें आकर उसकी नाव को असंतुलित कर देतीं। उसे सॅंभालना पड़ता । किताब बन्द हो जाती। नाव सॅंभल जाने पर उसने पुनः किताब खोली। चौथा यात्री जो सामान की रखवाली कर रहा था चन्द्रिका के हाथ में किताब देखकर पूछ बैठा-
'कौन सी पुस्तक है?'
'हिन्द स्वराज'
'किसकी लिखी है?"
'मोहन दास करमचंद गांधी की ।'
'गांधी की ?"
'हाँ।'
'तुम्हें कहां मिली ?"
'मेरे बाबा गांधी जी के साथ कुछ दिन रहे। उनका देहान्त पांच साल पहले ही हुआ। उन्हीं की सन्दूक में मुझे यह किताब मिली। छोटी किताब है। जेब में रखती हूँ। कभी कभी पढ़ लेती हूँ।'
‘क्या गाँधी की बातें तुम्हें ठीक लगती हैं?"
'अभी तो मैं समझ कम पाती हूँ। जितना समझ पाती हूँ उतना ठीक ही लगती हैं ।'
तब तक तीनों लोग नहा कर आ गए। चौथे आदमी ने बताया 'यह गांधी की किताब पढ़ती हैं।' तीनों आश्चर्य से उसे देखते हुए कपड़े पहनने लगे। चौथा आदमी नहाने के लिए नदी में कूद गया। दो डुबकी लगाकर जल्दी ही आ गया।
सबने कपड़े पहन लिए तो उसने कहा, 'आप लोग बैठ जाइए।' नाव खोलकर चप्पू चलाने लगी ।
चारों आपस में बात करते रहे। ‘इस उम्र में गांधी' कहकर वे हँस पड़े। चन्द्रिका चप्पू चलाती रही। नाव तेजी से किनारे की ओर बढ़ी साइबेरिया से आए पक्षियों को पीछे छोड़ती हुई । चन्द्रिका ने नाव को किनारे लगाया। किराए के मिले चालीस रूपये सलवार की जेब में रखा और पुनः यात्रियों का आवाहन करने लगी।
आज पर्व का दिन है। चन्द्रिका ही नहीं सभी नाविक अधिक से अधिक कमा लेना चाहते हैं। वह सूर्योदय से ही चप्पू चला रही है। सूर्यास्त के समय जब उसने अपनी नाव बांधी उसकी जेब में पाँच सौ साठ रूपये आ चुके थे। बगल ही गांव है। मल्लाह ही अधिक हैं उसमें। गंगा ही सबको रोटी देती है । चन्द्रिका घर पहुँची। पिता की हालत बिगड़ी हुई देखी । चचेरे भाई वंशी को पुकारा, ‘बापू की हालत आज फिर बिगड़ गई है। अस्पताल ले चलना है।'
'बापू' उसने पुकारा। बापू की एक धीमी कराहती आवाज़ उभरी। वंशी भी चटपट तैयार हुआ। दौड़कर गांव का ही एक रिक्शा ले आया । चन्द्रिका अपने बापू राजमन को पकड़कर रिक्शे में बैठ गई। वंशी साइकिल से साथ चला। तीनों घंटे भर बाद अस्पताल पहुँचे। सायं का समय। आपात कक्ष के डाक्टर ने पुराने पर्चों को देखा। तीन महीने पहले ही डाक्टर ने परामर्श दिया था। दोनों गुर्दे खराब हो चुके हैं। ज्यादा दिन ये गुर्दे नहीं चल पाएंगे। जब भी बापू की तबियत खराब होती, चन्द्रिका भागकर उन्हें अस्पताल ले आती । दो दिन अस्पताल में रखकर पुनः घर ले आती। फिर वही नदी में नौका खेना और घर खर्च तथा बापू की दवा के लिए पैसा जोड़ना। चौबीस घंटे अस्पताल में ही बीत गए। चन्द्रिका बापू के लिए विचलित। आज जब डाक्टर ने फिर कहा कि ये गुर्दे ज्यादा दिन नहीं चल पाएंगे चन्द्रिका की आंखें बरस पड़ीं।
पूछ बैठी, 'डाक्टर साहब क्या ये गुर्दे ठीक नहीं हो सकते ?"
'नहीं। दोनों गुर्दे लगभग जवाब दे चुके हैं।'
"क्या कुछ नहीं किया जा सकता डाक्टर साहब ?"
“यदि कोई गुर्दा मिल जाए तो उसका प्रत्यारोपण किया जा सकता है। पर इसमें पैसा ज्यादा लगेगा। तुम्हारे बस की बात नहीं है।'
'कितना पैसा लगेगा डाक्टर साहब ?"
'लाखों रूपये तो गुर्दे के ही लगेंगे, प्रत्यारोपण में भी लाखों का खर्च अलग से।'
'क्या एक गुर्दे से भी काम चल जाता है डाक्टर साहब ?"
“हाँ।'
'यदि मैं अपना एक गुर्दा दे दूँ तो ....।'
डाक्टर ने नज़र उठाकर चन्द्रिका को देखा।
'तब भी प्रत्यारोपण का खर्च तो पड़ेगा ही।'
डाक्टर साहब उठ पड़े। चन्द्रिका वंशी के साथ बापू को सँभाले बाहर तक लाई । वंशी एक रिक्शा बुला लाया। चन्द्रिका ने बापू को रिक्शा पर बिठाया और घर की ओर चल पड़ी। साथ में साइकिल पर वंशी ।
राजमन की उम्र कुल पैंतालीस। बापू को बचाना है, चंद्रिका सोचती रही। मैं अपना एक गुर्दा दे दूँगी। एक बीघा खेत है। बेच दूँगी। अस्पताल का खर्च पूरा हो जाएगा। बापू ठीक हो जाएँगे तो कमाते खाते रहेंगे।
'और तुम ?" उसके मन ने प्रश्न किया।
मैं बापू की बेटी हूँ। अपनी शक्तिभर बापू को बचाऊँगी। एक गुर्दे से यदि उनका काम चल सकता है तो मेरा भी चल जाएगा। उसके मन ने स्वयं ही उत्तर भी खोज लिया। वह अभी बालिग नहीं हुई है। इससे क्या उसके गुर्दा दान में कोई बाधा पड़ेगी, इसका अनुमान उसे नहीं था। रिक्शा घर के सामने रुका तो चन्द्रिका और वंशी ने मिलकर राजमन को उतारा।
प्रातः चन्द्रिका ने अपने चाचा सुखमन से बात की। कहा, 'चाचा जी खेत बेचवा दो। बापू की दवा के लिए यही एक चारा है।' सुखमन जी वंशी के साथ नाविक का ही काम करते हैं। यदि उनके पास पैसा होता तो खेत वे खुद खरीद लेते। वे परेशान अवश्य हुए पर कोई चारा न था। राजमन के जीवन का प्रश्न था। सुखमन एक दूकानदार चन्द्रेश के पास गए। खेत बेचने की चर्चा की। अपनी कठिनाई बताई। चन्द्रेश होशियार था सुखमन का घनिष्ठ भी। बोल पड़ा, 'खेत तुम्हीं क्यों नहीं ले लेते।'
'मेरे पास पैसा कहाँ है?" सुखमन के मुख से निकला।
'मेहरी के जेवर बेच दो। जो पैसे कम पड़ेंगे में दे दूंगा।'
सुखमन को भी लगा कि घर की ज़मीन घर ही में रह जाय। वे घर लौटे। पत्नी से बात की। जेवर बेचने पर वह सहमत न होती पर ज़मीन का मोह भी कम न था । अन्ततः सहमति बनी। सुखमन ने चन्द्रिका से कहा, 'बेटी, खेत लिखाने का जुगाड़ मैं ही करता हूँ कुछ उधार लेकर ।'
'कब तक जुगाड़ हो जाएगा चाचा जी ?"
'आठ-दस दिन तो लगेगा ही।'
सुखमन झोले में जेवरों की पोटली दबाए दूकान पर पहुँचे। चन्द्रेश ने जेवरों को परीक्षण के लिए भेजा। परिणाम आया तो सुखमन का कलेजा बैठ गया। हँसुली जिसे वह सोने की समझता था पीतल की निकली। केवल चांदी के जेवर खरे थे। कुल मिलाकर पन्द्रह हजार ही मिल सकते थे।
'अब ?' सुखमन का चेहरा उदास था।
'कितना रुपया लगेगा?' चन्द्रेश ने पूछा।
'एक लाख से अधिक ही समझो।’ सुखमन ने बताया।
'सवाई देना पड़ेगा।'
"एक लाख का साल में पच्चीस हजार ब्याज।' सुखमन गुणाभाग करते फुसफुसाया ।
'वह तो होगा ही।' चन्द्रेश ने हामी भरी।
"भैया घर में भी राय- बात कर लूँ। अभी जेवर रखो कल आकर बताऊँगा।' सुखमन चल पड़े पर पैर जैसे अधिक भारी हो गए हों।
घर पहुँचे तो राजमन चारपाई पर लेटे थे। वे आज कुछ टनमन दिख रहे थे। उनकी देखभाल चाची को सौंपकर चन्द्रिका नाव खेने चली गई थी । सुखमन जैसे ही नजदीक पहुँचे राजमन बोल पड़े,
'कहाँ गए थे सुखमन?"
'कुछ रूपये की जुगाड़ में गया था।'
'रूपये क्या करोगे?"
'भैया आप ही के दवा दर्मद के लिए। डाक्टर कहते हैं गुर्दा बदलना पड़ेगा।'
‘कितना रूपया लगेगा?"
'डाक्टर तो लाखों बताते हैं।'
‘हूॅं...............पर चन्द्रिका लाखों कहाँ से लाएगी। और तुम्हीं कहाँ से लाओगे। उधार का ब्याज नहीं चुका पाओगे। उधार मत लेना।'
'पर भैया दवाई कैसे हो पाएगी ?"
राजमन के चेहरे पर मुस्कान तैर गई ।।
'सुखमन मालिक तो ऊपर वाला है। उसने अगर पर्वाना काट दिया हो तो तुम कैसे बचा पाओगे?"
'ऐसा न कहो भैया ।' सुखमन की आँखों में आँसू आ गए। वे अपना आँसू पोछते राजमन का पैर दबाने लगे।
'देखो सुखमन, चन्द्रिका अभी नाबालिग है। उसने देश-दुनिया देखी नहीं है। मैं नहीं चाहता जाते जाते उसके या तुम्हारे ऊपर कोई बोझ डाल जाऊँ। मेरे न रहने पर चन्द्रिका का ध्यान रखना।’........ राजमन की आवाज भी कभी कभी रुक जाती जैसे वे जाने की तैयारी कर रहे हों। थोड़ा सँभलते हुए उन्होंने कहना जारी रखा-
'सुखमन, मैंने जाने का मन बना लिया है। गुर्दा तो एक बहाना है। मौत को कोई बहाना चाहिए। हमारी तुम्हारी हैसियत गुर्दा बदलवाने की नहीं है। दवा - दर्मद भी हैसियत के मुताबिक मिल पाती है। मैंने चन्द्रिका को चप्पू पकड़ा दिया है पर जीवन का चप्पू चलाने के लिए अनुभव चाहिए। वह होशियार है, रास्ता पकड़ लेगी। उसकी माई बिटिया को पढ़ाना चाहती थी। जितना हो सका मैंने पढ़ा दिया है। सुखमन अपना हाथ मेरे हाथ में दो ।' सुखमन ने अपना दाहिना हाथ राजमन के हाथ में रख दिया। राजमन की आवाज़ जैसे मुश्किल से निकल रही हो।
'देखो सुखमन, चन्द्रिका की माई जाते जाते चाँदी के दस रूपये और एक करधनी मुझे दे गई थी। रूपये और करधनी कोठरी के दाहिने कोने एक हाथ नीचे गड़े हैं। जब कभी चन्द्रिका की शादी हो तो इस चांदी से उसके लिए कुछ बन जाएगा। मुझे पानी पिलाओ सुखमन। पिंजरा जर्जर हो जाए तो उसे छोड़ देना ही अच्छा होता है। मेरे चलने का वक्त आ गया है। बहुत खर्च मत करना।' सुखमन दौड़कर एक गिलास पानी ले आए। धीरे धीरे घूँट घूँट पिलाया।
'मन तृप्त हो गया सुखमन।' राजमन ने रुक रुक कर कहा पर आवाज़ बदल गई थी। सुखमन को कुछ शंका हुई।
'चन्द्रिका को बुला लाता हूँ। वंशी की माई, भैया का देखिहो', कहते हुए सुखमन नदी की ओर दौड़ गए।
सुखमन नदी तट पहुँचे । चन्द्रिका नाव को किनारे ला रही थी। नाव जैसे ही किनारे लगी, सुखमन ने कहा, 'घर चलो, भैया ने बुलाया है।'
'क्या बापू की तबियत ज्यादा खराब हो गई है?"
'नहीं। लेकिन इस समय तुम्हें उनके पास रहना चाहिए।' चन्द्रिका ने उतराई जेब में रखी। नाव को बांधा और चल पड़ी।
सुखमन के जाने के बाद राजमन का गला घर घराने लगा था वंशी की माई बर्तन धुल रही थी। इसीलिए घरघराहट को सुन नहीं पाई। सुखमन और चन्द्रिका केवल पन्द्रह-बीस हाथ दूर रह गए थे कि राजमन को एक हल्की खांसी आई और उनका सिर बाईं तरफ लुढ़क गया। एक चीख के साथ सुखमन और चन्द्रिका दौड़ पड़े। पंछी उड़ गया, आँखें खुली रह गईं थीं।

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