बेसहारा Aman Kumar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बेसहारा


अमन कुमार त्यागी

जनवरी की कँपकँपा देने वाली सर्दी थी। मैंने स्वेटर और जैकेट पहने होने के बावजूद सर्दी से ठिठुरन का अहसास किया। चाय पीने का मन हुआ और एक मित्र के साथ छोटे से होटल में घुस गया। वहाँ पहले से ही काफ़ी लोग जमा थे। बैठने के लिए मेरी निगाहें सीट तलाश रही थीं। मैंने खाली स्थान देख मित्र का हाथ दबाया और स्वयं भी उस ख़ाली सीट पर बैठ गया। तभी मेरी निगाहें उस बच्चे पर टिक गईं जो बड़ी फुर्ती के साथ चाय टेबिल पर कपड़े से सफ़ाई कर रहा था।
निश्चित ही उस बालक को देख मेरा हृदय पिघल आया। मेरे जिस्म में अब गर्मी आ गई थी, या यूँ समझो कि मस्तिष्क गर्मी-सर्दी का अहसास छोड़ उस बालक के बारे में सोच रहा था, जिसके तन पर मामूली और झीने से कपड़े थे। ऐसे झीने कि उसका हाड़-माँस का शरीर ही नहीं बल्कि एक-एक पसली साफ़ चमक रही थी। होंठों पर उसके कंपन्न था, पैरों में ठिठुरन थी परंतु क्या मजाल कि मेज की सफ़ाई करते वक़्त हाथ ज़रा सा भी ठहरा हो। अभी मैं उस बालक को देख ही रहा था कि तभी किसी ने आवाज़़ लगाई- ‘ए छोटू चाय लेकर आ।’ उसने तत्काल कपड़े को हाथ में समेटा, पास में ही स्थित पानी की टोंटी के पास गंदा कपड़ा रखा, हाथ धोए और काउंटर पर पहुँचा। जब वापिस आया तो उसके हाथ में दो काँच के गिलास थे, जिनमें चाय भरी थी। वह चाय के गिलासों को अपनी छोटी सी मुट्ठी में समा लेने का प्रयास कर रहा था। मैंने स्पष्ट देखा कि वह क्षणभर के लिए ख़ुश हुआ। दुनिया-ज़हान की सभी पीड़ा उस वक़्त उसके चेहरे से दूर थी, वह चाय और काँच के गिलास की गर्मी अपनी मुट्ठी में पल भर में ही समेट चुका था। गिलास मेज़ पर टिकाने के बाद हमारी तरफ़ आया। बोला- ‘बाबू जी क्या लाऊँ ?’ अब तक मैं बैठ चुका था। मैं उस बालक से अधिक से अधिक बातें करना चाहता था। मैंने पूछा- ‘क्या-क्या है, तुम्हारे पास ?’ वह तपाक से बोला- बे्रड-पकौड़ा, समोसा, गाजर का हलुवा, रसगुल्ले, बर्फी जो भी आप कहेें।’ जब वह बता चुका तब मैंने उससे पूछा- ‘और चाय?’ वह बोला- ‘बाबू जी वो तो है ही।’
- ‘ठीक है दो गिलास चाय लेकर आओ।’ वह चला गया। मैं उस बच्चे के बारे में सोचने लगा। ऐसे तो भारत का नवनिर्माण नहीं हो सकता। विकास की बातें करने वाले हमारे देश में यदि बच्चों का यह हाल होगा तो विकास के सभी ढिंढौरे, ढोल की तरह खोखले साबित होंगे। मेरा लेखक मन उस बच्चे के प्रति दयावान हो उठा। मैं ही क्या दुनिया का कोई भी लेखक या सामाजिक व्यक्ति संवेदनहीन हो ही नहीं सकता। मैं उस बच्चे की सहायता करना चाहता था लेकिन समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ? अभी कुछ समझ पाता कि बच्चे ने मेज़ पर गिलास रखते हुए पूछा- ‘और क्या लाऊं, बाबू जी?’ मैं अपनी सोच के दायरे से बाहर आया और पुनः उसी बच्चे को देखने लगा, जिसके बारे में सोचना शुरू किया था। विश्वास मानिए, उस वक़्त तो मुझे अपनी जान ही निकलती सी लगी, जब मेरी निगाह उसके जिस्म के निचले हिस्से पर पड़ी। उसने हाफ पैंट पहन रखी थी। सर्दी से बचने की नाकाम कोशिश करते हुए वह दोनों घुटनों को आपस में मिलाकर गर्मी पाना चाहता था। पैर नंगे ही थे, उंगलियां सूजकर मोटी हो गईं थीं। यकायक मुझे अपने बच्चे की याद आ गई। हल्की सी सर्दी में भी उसे छींके आने लगती हैं, और स्वयं मैंने कितने कपड़े लाद रखे हैं। मगर बावजूद इसके सर्दी का शिद्दत के साथ अहसास कर रहा हूँं । ‘तुम रहते कहाँ हो?’ मैंने बच्चे से पूछा। पहले तो वह सकपकाया, उसने होटल मालिक की ओर देखा, जो किसी ग्राहक से पैसे लेने में व्यस्त था। उसने मुझे अपना पता बता दिया। तभी किसी ग्राहक ने उसे पुकारा। वह चला गया। मैं और मेरा मित्र चाय की चुस्कियाँ लेने लगे। मित्र एक पत्रिका के पन्ने पलटने में मशगूल था जबकि मेरे जे़हन और आँखों से वह बच्चा उतर ही नहीं पा रहा था। उसकी नंगी टांगों पर तनकर खड़े हुए रोम मुझे अपने दिल में चुभते प्रतीत हो रहे थे। मैंने जैसे-तैसे गिलास की चाय समाप्त की और होटल स्वामी को पैसे देते हुए उससे पूछा- ‘तुम्हें इस बच्चे पर दया नहीं आ रही है।’
पैसे लेते हुए वह मुस्कुराया, फिर बोला- ‘दया ही तो आती है साहब! तभी तो रोज़दारी पर रख लिया है, वरना आजकल बच्चों को दुकान पर कौन रखने देता है। बालश्रम कानून का खुला उल्लघंन हमने सिर्फ़ इसलिए किया है साहब! कि इन बेसहाराओं को कुछ सहारा मिल जाए।’ उसके कहने से मुझे लगा कि वह मेरी मज़ाक बना रहा है। मैंने तुरंत कहा- मैं कानून की बात नहीं कर रहा हूँ भाई! मैं तो नैतिकता की बात कर रहा हूँ। यह बच्चा सर्दी से ठिठुर रहा है, जबकि तुमने स्वयं इतने कपड़े लाद रखे हैं।
जवाब में उसने जो कहा वह भी विचारणीय है। उसने कहा था- ‘साहब हम किस-किसकी मदद करें, कहाँ तक कपड़े बांटें, आप यदि इस बच्चे की कुछ मदद करना चाहते हैं तो करें, इससे एक वर्ष बड़ी बहन भी है, जो आस-पड़ौस में काम कर रोटी का जुगाड़ कर ही लेती है। माँ-बाप हैं नहीं।’
-‘क्या हुआ था इसके माँ-बाप को?’ मेरे पूछने पर उसने बताया- ‘साहब टीबी हो गई थी, इलाज़ के लिए पैसे नहीं थे और सरकारी अस्पताल इनके घर से इतना दूर था कि वहाँ तक किराया भी इन लोगों के पास नहीं था। शुरू में तो मेहनत-मज़दूरी करके गली-मुहल्ले के डाॅक्टरों से इलाज़ कराते रहे मगर जब शरीर में जान नहीं रही तो घर में बैठ गए। ना खाने को पैसे रहे ना ही इलाज़ को, हारकर इस बच्चे को होटल में काम करना पड़ा। ’’
उसकी बात सुनकर मन विचलित हो उठा था। अब मैं उस बच्चे और उसकी बहन की मदद करना चाह रहा था। मैंने अपने मित्र को विदा किया, स्वयं बाज़ार की ओर चल दिया। रेडीमेड गारमेंट की दुकान से उस बच्चे और उसकी बहन के लिए एक-एक जोड़ी कपड़े ख़रीदे। मन में ऐसी संतुष्टि हुई जैसे कि कोई बड़ा काम कर डाला हो। मैंने वह कपड़े बच्चे को दिए और अपने दफ़्तर चला गया।
दफ़्तर से सीधे घर पहुँचने पर मैंने उस बच्चे तथा उसकी बहन के संबंध में पत्नी से ज़िक्र किया। मेरी सहृदय पत्नी ने अपने बच्चों के कपड़ों में से एक-एक जोड़ी कपड़े और दिए। हम दोनों शाम को उनके घर पहुँच गए। झोपड़-पट्टी में स्थित उनका घर भी उन बच्चों की तरह दयनीय था। चारों ओर बदबू का साम्राज्य था। घर में उनके बर्तन तक भी टूटे-फूटे थे और कपड़ों के नाम पर वही सबकुछ था जो उनके तन पर था। हम लोगों से जो भी संभव मदद हो सकती थी की। कपड़े-बिस्तर के अलावा दोनों बच्चों का स्कूल में दाख़िला भी करा दिया, आवश्यक किताबें भी दिला दीं। हमारे बच्चों को भी उनमें दिलचस्पी होने लगी थी और वह बच्चे भी अब अपने आपको बेसहारा नहीं मान रहे थे। उन्होंने हमारे घर पर भी आना-जाना शुरू कर दिया था। मेरे बहुत से मित्रों ने भी उन बच्चों की मदद की। पढ़ने में भी वह बच्चे कमज़ोर साबित नहीं हुए। समय गुज़रता गया। अब दोनों बच्चे बड़े हो गए थे।
वह किस जाति के हैं और मूलरूप से कहाँ के रहने वाले हैं अभी तक भी वह जान नहीं पाए हैं और न ही कभी उनका कोई रिश्तेदार ही उनसे मिलने आया है। हमारे परिवार को ही उन्होंने अपना परिवार समझ लिया है। अब वह झोपड़-पट्टी में भी नहीं रहना चाहते थे। उनकी सुविधा और वहाँ के गंदे माहौल से बचाने के लिए हम उन्हें अपने घर ले आए थे।
सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था परंतु मेरे पड़ोसी और रिश्तेदार मुझसे कटने लगे थे। बहुत सी बातों पर हम पति-पत्नी में भी तकरार होने लगी थी। ख़र्चे बढ़ चुके थे और आमदनी सीमित थी। अपने दो बच्चों का ख़र्च वहन करना भारी था, दो बच्चों पर दया कर कभी-कभी पछतावा होने लगता था परंतु फिर जल्दी ही सबकुछ समान्य हो जाता। लाख चाहने के बावजूद हम उन बच्चों को दिल से नहीं अपना पा रहे थे, हाँ अपनाने का नाटक करने में कोई कमी नहीं थी। जीवन में वह सबकुछ नहीं हो पाता है, जो दिल चाहता है और सर्वथा वह सब भी समाज के लिए उचित नहीं होता है जिसे मन की गहराइयों में जाकर उचित समझ लिया जाता है।’ यह बात अब मेरे मस्तिष्क में आ रही थी। जब मैं अपनी बेटी को साथ लेकर बाज़ार जाता हूँ तब किसी की भी निगाह हमारी ओर नहीं उठती है और जब मैं उस ग़रीब बेसहारा बच्ची, जिसे मैं बेटी ही समझता हूँ, उसे लेकर बाज़ार जाता हूँ तो लोग कनखियों से हमें देखते हैं। मोहल्ले की महिलाओं को भी मेरी पत्नी ने हमारे बारे में कानाफूसी करते देखा है।