हमारे इसी आज के लिए..... Sharovan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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हमारे इसी आज के लिए.....

हमारे इसी आज के लिए . . .

'शायद आजकल की लड़कियों का यह एक फैशन ही बन चुका है कि प्यार के मज़े लेने के लिए, अपना समय पास करने के लिए वह ऐसा ही करती हैं, अपना कोई न कोई 'बॉय-फ्रेंड' बनाती हैं, और जब समय आता है एक साथ बंधने के लिए तो बड़ी ही आसानी से वे किनारा भी कर जाती हैं.'

***

अचानक ही किसी धूर गोले ने आकाश में चीखते हुए अपनी लम्बी चमकती हुई तलवार के साथ अपना अस्तित्व समाप्त किया तो शहर से काफी दूर एक मील के पत्थर पर बहुत खामोश और उदास बैठे हुए मधुप का भी जैसे कलेजा शरीर से बाहर आ गया. आधी रात से ज़्यादा समय हो चुका था और सड़क बिलकुल ही जैसे तन्हा हो चुकी थी. किसी भी यात्री और दिन के समय के भारी यातायात से महरूम. कभी-कभार कोई लारी या यदाकदा आने जानेवाला स्कूटर आदि जब भी वहां से गुज़र जाता था तो अपने शोर के साथ बैठे हुए मधुप के सारे बदन को भी अंधेरी रात में बिजली की मद्दिम रोशनी से सनी हुई धूल के गुबारों में छुपा जाता था.

दूर शहर में शहनाइयां बज रहीं थीं. धूरगोले एक के बाद एक आकाश में अपनी रोशनी बिखेरते हुए सारे शहर की खामोशी का भी जैसे दम तोड़ जाते थे. सहसा ही बैठे हुए मधुप को ध्यान आया कि अब बारात चढ़ने लगी है. बारात का हुजूम धीरे-धीरे मधुलिका के घर की तरफ बढ़ रहा होगा. सुबह होने से पहले-पहले ही इस रात की काली स्याही में वह किसी दूसरे की हो जायेगी. फिर उसके बाद सब कुछ समाप्त हो चुका होगा. समाप्त हो चुका होगा उसके प्यार की कहानी का लिखा हुआ अंतिम पृष्ठ का अंतिम वाक्य, उसके प्रेम पथ का अंतिम पग, उसके एहसास, एहसासों की संवारी-संजोई हुई दुनियां और उसके जीने के वे तमाम तौर-तरीके कि जिनकी एक-एक हरकतों में कभी मधुलिका के साथ के गुज़ारे हुए पलों की खुशबू समाई हुई थी. कितना चाहा था उसने मधुलिका को? किसकदर अपने जिस्म की एक-एक कतरनों में उसे बसा रखा था उसने. इसकदर कि वह सांस लेता था तो खुशबू मधुलिका की आती थी. वह बात करता था तो मधुलिका के दूधिया, कोमल जिस्म पर पहने हुए कपड़ों से जेसमीन के जैसे सफेद फूल झड़ने लगते थे. लेकिन सब कुछ बेकार हो गया. उसके द्वारा प्यार के समेटे हुए सारे फूल बिखर कर मौसमी हवाओं के दामन में जाकर सदा के लिए लुप्त हो गये. एक बार भी वह अपने मन की बात कभी भी उससे नहीं कह सका? अगर कह देता तो शायद आज उसके प्यार की कहानी का मज़मून ही कोई दूसरा होता?

सहसा ही मधुप को ध्यान आया वह पल और वह समय जब ऐसे ही एक दिन मधुलिका फिर से उससे पेन्सिल मांगने आई और अपनी गलती मानते हुए कहने लगी थी कि,

‘देखो ! मैं कितनी ला-परवा होती जा रही हूँ कि हरेक कीमती चीज़ बहुत ही आसानी से खो देती हूँ.’

‘क्या फिर से पेन्सिल खो दी है तुमने?’ मधुप ने कहा तो वह बोली,

‘हां, पता नहीं न जाने कब और कहां गिर गई है. कहीं खो न जाए इसीलिये मैंने उसे अपने बालों में लगा लिया था, फिर भी गायब हो गई.’ मधुलिका ने बड़े ही भोलेपन से कहा तो मधुप उसे बहुत गौर से देखते हुए सोचने लगा कि, ‘कहीं इसी तरह से वह मुझे भी न खो दे कभी?'

‘अब क्या सोचने लगे. जल्दी से दूसरी पेन्सिल दो न. मुझे बहुत सारा होम वर्क करना है.’

मधुप ने चुपचाप अपने हाथ की पेन्सिल उसे थमा दी तो वह उसे लेकर जैसे ही आगे बढ़ी तो तुरंत ही अपने ही स्थान पर अचानक से ठिठक भी गई. पीछे लौटते हुए वह मधुप से बोली,

‘और हाँ, अब से मैं तुम्हें मधुप और तुम मुझको मधुलिका नहीं बोला करोगे.’

‘तो फिर . . .?’ मधुप ने एक संशय के साथ मधुलिका को देखा तो बोली,

‘हम दोनों एक-दूसरे को ‘मीता’ कहकर बुलाया करेंगे. मैंने किसी उपन्यास में पढ़ा था कि जब लड़का और लड़की दोनों के नाम एक समान होते हैं तो आपस में वे एक-दूसरे को मीता कहकर बुलाते हैं.’

‘अच्छा! मतलब जानती हो मीता और मीत का?’

'हां जानती हूँ- एक अच्छे मित्र.’

‘और . . .’?

‘और मुझे नहीं मालुम.’ कहते हुए मधुलिका चली गई तो मधुप काफी देर तक उसके ख्यालों में भटकता फिरा था. . .

बचपन से एक ही स्थान, एक ही शहर, और एक ही साथ खेलते-पढ़ते, झगड़ते हुए वे दोनों कब कालेज पहुँच गये उन्हें पता ही नहीं चला था. एक दिन जब बसंत का मौसम था. वृक्षों और तमाम पेड़-पौधों के सूखे पत्ते धरती के आँचल पर लापरवा पसरने लगे थे. ठंडी और कोमल नाजुक हवाएं जब भी मानव शरीरों से लिपटती थीं तो हर किसी का बदन एक अजीब ही सिहरन से जैसे सहम सा जाता था. आकाश अक्सर ही साफ़ रहने लगा था. बसंत पंचमी करीब आती जा रही थी और आसमान में रंग-बिरंगी पतंगे भी उड़ने लगी थीं. स्कूल की छुट्टी के बाद मधुप तो कटी हुई पतंगे लूटने में मस्त रहता था पर मधुलिका अपनी अन्य सखी-सहेलियों के साथ एक स्थान पर बैठ कर गपशप करती हुई इन्हीं तमाम लड़कों को पतंगे लूटते हुए देखती रहती थी. पतंगें लूटते हुए इन लड़कों में कोई भागते-भागते गिरता था, किसी के चोट लगती थी और कोई आपस में झगड़ जाता था. मधुलिका इन सबको देखती थी और खिल- खिलाकर हंस पड़ती थी.

तब ऐसे ही एक दिन शाम का समय था. कोई चूड़ियां पहनाने वाला आया तो मधुलिका की मां ने उसको भी रंग-बिरंगी चूड़ियां पहनवा दीं. तब चूड़ियां पहनने के बाद मधुलिका अपने हाथ की चूड़ियों को कभी आसमान की तरफ उठाते हुए उनकी झंकारों में खो जाती तो कभी उन्हें बड़े ही प्यार से निहारने लगती थी. वह अभी भी आकाश की ओर अपनी नज़रें उठाये हुए रंग-बिरंगी चूड़ियों की मधुर झंकारों में खोई हुई थी कि तभी अचानक से उसे ऐसा लगा कि जैसे अचानक ही कोई बड़ा सा वृक्ष का तना उससे आ टकराया है. इस प्रकार कि वह बड़ी बुरी तरह से नीचे जमीन पर जा गिरी. एक डरावनी चीख उसके मुंह से निकली और जब उसको होश आया तो पता चला कि मधुप किसी पतंग लूटने की कोशिश में उससे जा टकराया था. उसके उस समय चोट लगी या नहीं, यह तो पता नहीं चला, पर उसके हाथ की नई पहनी हुई सारी चूड़ियां भी टूट चुकी थीं. मधु अपनी अस्त-व्यस्त दशा में अपने हाथ और कपड़े झाड़ते हुए नीचे भूमि पर से उठी और बहुत खिन्न होते हुए मधु से बोली,

'पतंग लूटते हो या मुझे मारने चले थे?'

'अब . . .अब . . .!' मधु ने अपनी गलती मानते हुए कुछ कहना चाहा कि तभी मधुप फिर से भडक गई. बोली,

'क्या अब, अब लगा रखी है. आँखों का इस्तेमाल भी करना भूल गये हो. कहीं मेरे हाथ-पैर टूट जाते तो?'

'देखते हुए तो भाग रहा था, अब तुम भी यहीं, इसी जगह पर खड़ी होगी मुझे ध्यान ही नहीं रहा.'

'मेरी सारी चूड़ियां तक तोड़ डालीं तुमने. अम्मा ने कितने प्यार से मुझे पहनाई थीं.'

'कोई बात नहीं. मैं ला दूंगा तुम्हारे लिए और भी नई चूड़ियां.'

'मैं ला दूंगा . . .! अब हटो मेरे सामने से. जाने दो मुझे.' मधु कहते हुए जैसे मारे खीज कर चली गई तो मधुप उसे चुपचाप जाते हुए देखता रहा. दोनों के मध्य में एक पल में सारा माहौल ऐसा तनावपूर्ण हो चुका था कि मधुप का भी पतंगे लूटने का सारा नशा हिरन हो गया था. थोड़ी देर तक अपने स्थान पर ही खड़ा रहा, बाद में वह भी उदास मन से अपने घर पर आ गया. मधु को गिराकर, उसके चोट मार कर, उसकी चूड़ियां तोड़कर उसने अच्छा नहीं किया, बडी रात तक वह इसी बात को सोच-सोच कर अफ़सोस मनाता रहा.

दूसरे दिन स्कूल में भी मधु उससे नाराज़ ही बनी रही. उसने कुछ ज्यादा बात भी नहीं की. मधुप उससे बोलता तो वह केवल हां-हूँ में ही उत्तर देती रही. मधुप ने उससे बात करने की कोशिश की और कहा कि,

'पेन्सिल चाहिए तुम्हें?'

'मैं आज दो पेंसिलें लेकर आई हूँ.' कह कर मधु ने बात समाप्त कर दी तो मधुप समझ गया कि अभी तक मधु का कल वाली बात का क्रोध उतरा नहीं है.

दोनों के मध्य फिर कुछेक दिन इसी तरह से तनाव बना रहा. वे कभी बोलते, कभी नहीं भी बोलते. फिर एक दिन मधु शाम के समय अपने घर के सामने लगे बहुत पुराने नीम के वृक्ष के मोटे-बड़े, विशालकाय तने के सहारे खड़ी हुई सामने जाती हुई सड़क के यातायात को यूँ ही निहार रही थी, कि तभी उसके पीछे मधुप आकर चुपचाप खड़ा हो गया. परन्तु मधु तो उसको पहले से आते हुए देख चुकी थी. वह उसकी तरफ बगैर देखे ही बोली,

'अब क्या है?'

'अच्छा ! तो तुम्हें मालुम है कि मैं यहाँ आकर खड़ा हूँ?'

'तुमने तो छिपने की पूरी कोशिश कर ही ली थी?' मधु उसके सामने आकर बोली.

'हां. इरादा तो कुछ ऐसा ही था.'

'क्यों?'

'तुम्हें एक 'सरप्राइज़' देना था.'

'कैसा 'सरप्राइज़'?

'यह देखो. तुम्हारी चूड़ियां. मैंने तोड़ दी थी पिछले हफ्ते पतंग लूटते हुए.'
मधुप ने उसे हरे रंग की चूड़ियां दिखाईं तो मधु के चेहरे पर तुरंत ही एक मुस्कान आई. इस प्रकार कि वह बहुत गम्भीरता से मधुप का मुखड़ा देखने लगी.'

'?'- बहुत प्यारी हैं.' मधु बोली.

'जब इन्हें अपने हाथों में पहनोगी तो ये और भी प्यारी हो जायेंगी.'

'अब लाये हो तो पहना भी दो.'

'मैं? और चूड़ियां? तुम्हें पहनाऊँ?'

'हां. . .आं? तुम्ही पहना भी दो. इसमें आश्चर्य करने की क्या बात है?'

'मतलब जानती हो?'

'सचमुच नहीं जानती. तुम बस इन्हें पहना दो.' यह कहते हुए मधु ने अपने हाथों की कलाइयां उसके सामने फैला दीं.

मधुप ने तब उसे चूड़ियां पहनाईं. जिन्हें देख कर मधु फूलों के समान खिल उठी. फिर मधुप से बोली,

'जाओ मॉफ किया तुम्हें. अब कभी धक्का न देना सबके सामने.'

'प्रोमिस. अब कभी ऐसा नहीं करूंगा.' मधु ने अपने दोनों कान पकड़े तो मधु बोली,

'अब इतने भी सीधे मत बनो.'

फिर दोनों ही खिल-खिलाकर हंस पड़े.

इस तरह से दिन बीते. महीने फिर साल गुज़र गये. मधु की चूड़ियों का नाप बढ़ा तो मधुप ने उसी नाप की और चूड़ियां लाकर मधु को पहना दीं. दोनों के बीच यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कि मधु की चूड़ियों का नाप स्थिर नहीं हो गया. दोनों के कॉलेज समाप्त हुए. चूड़ियों का नाप नहीं बढ़ा और कॉलेज से आगे की शिक्षा के दिन भी नहीं बढ़ सके. मधुप ने नौकरी ढूंढना आरम्भ कर दिया था, मगर मधु को उसके माता-पिता ने घर पर ही बैठाया. वे चाहते थे कि मधु का विवाह कर दिया जाए. इसलिए उसके घर में उसके उचित वर की तलाश आरम्भ हो चुकी थी. बहुत कोशिशों के बाद मधुप को एक नलकूप विभाग में अवर अभियंता के पद पर सरकारी नौकरी मिल गई तो उसे अपने घर से मात्र चालीस किलोमीटर की दूरी पर ही जाना पड़ता था. आरम्भ में वह अपनी बाइक से ही जाता रहा. मगर बाद में उसे ऋण मिला तो किश्तों पर उसने एक कार भी खरीद ली. हांलाकि, नौकरी की व्यस्तता और घर से अक्सर ही दूर रहने के कारण मधुप की मुलाकातों का सिलसिला अब काफी कम हो गया था, लेकिन फिर भी वह मधु को भुला नहीं सका था. जब भी वह अपने घर आता तो मधु से मिले बगैर नहीं जाता था. यदि अवसर मिलता और समय होता तो वह उसे अपनी कार से बाज़ार में खरीदारी आदि भी करा देता था. दोनों अभी तक वैसे ही मिलते थे. कभी-कभी उनमें कहा-सुनी भी हो जाती थी. कहने का आशय है कि उम्र के पच्चीस बसंत पार करने के बाद भी अभी तक दोनों के व्यवहारों में कोई विशेष तब्दीलियाँ नहीं आ सकी थी. यह बात मधु में बड़ी आसानी से देखी जा सकती थी. उसका व्यवहार मधुप के लिए बिलकुल वैसा ही था जैसा कि कॉलेज के दिनों में रहा करता था. मगर फिर भी मधुप अब कहीं बहुत अधिक गम्भीर हो चुका था. वह मधु को अब दूसरे अंदाज़ से देखने लगा था, क्योंकि जब दिल की सोई हुई धड़कनों में स्पंदन जाग्रित हुए, मन-मस्तिष्क में प्रेम की माला में बुने हुए मोती हसरतों और एहसास के गीत गुनगुनाने लगे और दिन भर साथ रहते हुए जब अलग होने का विछोह का दर्द परेशान करने लगा तो मधुप को ये पता चला कि वर्षों से मधुलिका के साथ-साथ चलते हुए अपनी मनमानी से एक-तरफा प्यार की डोर थामे हुए वह इसकदर दूर आ चुका है कि जहां से लौटना अब आसान ही नहीं बल्कि बेहद कठिन भी है. उसके बदले हुए ख्यालात और सपनों की दुनियां में तैरते हुए हसीन पुष्पों के झिलमिल करते हुए रंगों ने जो रूप मधुलिका का बनाकर उसके सामने पेश किया, तो वह उसको अपनी बाहों में समेटने के लिए बेताब हो गया. उसने सोचा, कि अब समय आ चुका है कि उसे मधुलिका से अपने दिल की बात कह देनी चाहिए. वह भी अब बहुत चुप, खामोश और गुमसुम सी रहने लगी है. क्या पता जो बात उसे कहनी चाहिए वही मधु कहना चाहती हो, पर कह नही पा रही है और जो वह उसके मुख से सुनना चाहती है, वह उसने अब तक कही नहीं है?

मगर नहीं, मधुप के अपने मन में बनाई हुई धारणा और तस्वीरों का पर्दाफाश जब हुआ तो वह यह सब देख और सुनकर विश्वास भी नहीं कर सका. जब एक दिन वह एक सप्ताह की छुट्टियों में अपने घर पर आया हुआ था तब ही मधु उससे अन्य दिनों की भांति पहले ही के समान मिली और उससे किसी विशेष काम के लिए दूसरे शहर के अच्छे और बड़े मॉल में खरीदारी करने के लिए उसकी कार के साथ जाने की गुजारिश की. मधुप तो यह सब चाहा ही रहा था, सो उसने भी तुरंत हां कह दी. फिर दूसरे दिन वे दोनों खरीदारी के लिए चले गये. रास्ते भर मधुप यही सोचता रहा कि अपने मन की बात कहने के लिए उसे इससे अच्छा अवसर फिर कभी भी नहीं मिलेगा. और जब वे दोनों वापस मॉल से खरीदारी करके वापस आ रहे थे तो मधु को कहीं दूसरे ख्यालों में भटका हुआ जान कर मधुप ने ही बात छेड़ी. वह बोला कि,

'मधु.'

'हां.'

'कई दिनों से देख रहा हूँ कि तुम अक्सर ही कहीं न कहीं गुमसुम और विचारों में खो सी जाती हो?'

'तुम ठीक कहते हो.'

'सब खैरियत तो है?'

'नहीं खैरियत-वैरियत, कुछ भी नहीं है.' मधु ने कहा तो मधुप ने उसे एक पल गौर से देखा, फिर बोला,

'मैं सबब जान सकता हूँ?'

'क्यों नहीं. जब सबको ही अब धीरे-धीरे पता चलने लगा है तो फिर तुमको क्यों नहीं मालुम होना चाहिए.'

'तो फिर बताओ न, आखिर बात क्या है?'

'मम्मी-पापा ने मेरे लिए लड़का देख लिया है और अब कभी भी वे उसके घर मेरा रिश्ता लेकर जा सकते हैं.'

'तो उन्हें जाने दो.' मधुप ने उसका मन लेना चाहा तो मधु को जैसे विद्दयुत का करेंट लग गया हो. वह अपनी जगह पर भड़कती हुई बोली,

'तुमने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि,'उन्हें जाने दो'. जबकि मुझे यह रिश्ता बिलकुल भी पसंद नहीं है.'

'अगर यह रिश्ता पसंद नहीं है तो फिर कौन सा रिश्ता पसंद है?'

'मैं अगर बताऊँ तो तुम मेरी 'हेल्प' करोगे?'

'तुम्हारी मदद नहीं करूंगा तो फिर किसकी करूंगा? तुम नाम तो बताओ?'

'?'- इस पर मधु चुप हो गई. बड़ी देर तक वह सोचती रही तो मधुप ने उसे जैसे चिताया. वह बोला,

'बताओ न. कौन है वह लड़का जो तुम्हारे दिल का राजकुमार बना हुआ है?

'तुम सचमुच मेरी मदद करोगे, अगर मैं उसका नाम तुम्हें बता दूँ?'

'जरुर ही तुम्हारी मदद करूंगा. मुझ पर विश्वास तो करो.'

'मीता.'

'?'- मधुप की तुरंत ही पुतलियाँ फैल सी गईं. उसने मन ही मन खुश होकर मधु की तरफ देखा तो वह बोली कि,

'लेकिन तुम 'मीता' नही.'

'तो फिर कौन है वह?'

'वह मधुनाथ जो हमारे क्लास में अक्सर ही सबसे पीछे बैठ जाया करता था.'

'?- . . .' मधुप के सिर पर अचानक ही जैसे पहाड़ टूट कर गिर पड़ा. इतना अधिक वह विचलित हुआ कि अचानक ही उसके कार का संतुलन ही बिगड़ गया. तुरंत ही वह जैसे होश में आया और कार को एक किनारे ले जाते हुए उसने उसके ब्रेक पूरी ताकत से कस दिए. कार लड़-खड़ाती हुई एक किनारे पर जाकर चीं . . .चीं करती हुई रुक गई.

'क्या हो गया तुम्हें?' मधु भी अचानक यह सब देख कर आश्चर्य से गड़ गई.

'कुछ नही.'

'तुम्हारी तबियत तो ठीक है न?'

'हां.'

'अब ठहरे रहो यहीं पर थोड़ी देर तक. शायद गर्मी के कारण तुम्हें चक्कर आ गये हों. मैं ठंडा ड्रिंक देती हूँ, उसे पीकर ही आगे चलना.' कहते हुए मधु ने बर्फ में रखे हुए ड्रिंक को निकाला और उसे खोलकर मधुप को दिया. उसने चुपचाप ड्रिंक ले लिया. एक दो घूँट पिए और फिर कार चालू करके वापस सड़क पर आ गया. सारे रास्ते भर वह कुछ नही बोला. चुपचाप बड़ी खामोशी से कार चलाता रहा और सोचता रहा. सोचता रहा कि क्यों उसने इस लड़की से इतना प्यार किया? प्यार भी किया था तो क्यों वह इसके इतने करीब आ गया? करीब भी आया था तो फिर क्यों नहीं उसने इसे कॉलेज के दिनों में ही अपने मन और अपनी प्यार की हसरतों के बारे में आगाह कर दिया था? वह तो सदा से ही धोखे में रहा है. मधु तो अपने 'मीता' से प्यार करती है. वह 'मीता' जो केवल और केवल उसका ही है. वह अपने को उसका 'मीता' समझता रहा था पर उसका 'मीता' तो कोई और ही है. एक दिन जब उसने पूछा था कि,'मीता' का अर्थ जानती हो, तो कितनी सहजता से वह बोली थी कि,'मैं यह सब नहीं जानती.' लेकिन वह जानती थी. उसकी मधु, उसकी ही नाक के नीचे, मधुनाथ की बाँहों में झूलती रही, उसे प्यार करती रही और उसे आहट तक न लगी? कितना अधिक आहत हुआ है वह यह सब जानकर? इसकदर कि प्यार की डगर पर हजारों-हजार कदम चलने के बाद भी वह मधु के प्यार की तनिक ख़ाक तक न पा सका और मधु, उसने तो अपने एक पग में ही प्यार के सारे पड़ाव नाप लिए हैं? सचमुच में उसके शहर और उसके प्रांत की लडकियाँ कितनी बे-वफा और बे-मुरब्बत होती हैं? यह बात सही हो या ना भी हो, फिर भी मुहब्बत करने वालों की डोलियाँ अक्सर रुखसत होकर अपनी ससुराल पहुँच ही जाती हैं और उनके प्यार करने वाले मात्र कहार ही देखते रह जाते हैं.


किसी तरह से अपने मन-मस्तिष्क और टूटे-घायल जिस्म से मृत प्यार की आस्थाओं का कफ़न बाँध कर मधुप घर पहुंचा. मधुलिका को उसने उसके घर पर छोड़ा. सारी रात वह अपने प्यार की हारी हुई बाज़ी के बारे में सोच-सोच कर करवटें बदलता रहा. दूसरे दिन उसने अपनी छुट्टियां रद्द कीं और मधुलिका को बताये बगैर ही अपने कार्यालय में ड्यूटी पर पहुँच गया. काफी दिनों तक वह इन सारी बातों को दोहराता रहा. सोचता था कि, ऐसा कैसे हो गया? मधुलिका के व्यवहार और सामीप्य से तो ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आया था कि, वह उसके स्थान पर किसी अन्य लड़के को प्यार भी करती है? वह तो आरम्भ से ही उसके साथ बैठती थी. लड़ती और झगड़ती थी. उसके साथ खाती थी. उसको छेड़ा करती थी. उसे चुटकियां काटती थी. जब भी साथ में खाना खाती थी, उसे एक-दो ग्रास अपने हाथों से भी खिला देती थी. जान-बूझ कर पेन्सिल खोने का बहाना बनाकर उससे पेन्सिल मांगने आया करती थी. दोनों का नाम एक ही है, इसलिए उसे मीता कहकर बुलाया करती थी. शायद आजकल की लड़कियों का यह एक फैशन ही बन चुका है कि प्यार के मज़े लेने के लिए, अपना समय पास करने के लिए वह ऐसा ही करती हैं, अपना कोई न कोई 'बॉय-फ्रेंड' बनाती हैं, और जब समय आता है, एक साथ बंधने के लिए तो बड़ी ही आसानी से वे किनारा भी कर जाती हैं.

दिल की असीम और पवित्र भावनाओं के साथ किया गया सच्चा और निस्वार्थ प्यार सदा ही बलिदान माँगता है. एक त्याग की आवश्यकता होती है, ऐसे पवित्र प्रेम को अमर बनाने के लिए. प्रेम की खातिर कितनों ने ही त्याग किया है. फरहाद ने शींरी की चौखट तक मीलों लम्बी नदी खोदी थी. हीर नदी में डूब मरी थी. सुकरात ज़हर का प्याला पी गया था. सीता अपने पवित्र प्रेम की खातिर धरती में समा गई थी और जीज़स सारी दुनिया के प्रेम की खातिर सूली पर चढ़ गये थे; उसे भी अपने प्यार का घर बसाने के लिए यह बलिदान देना ही होगा.

इस प्रकार से सोचते हुए मधुप ने पहले तो मधुलिका के माता-पिता से बात की. उन्हें मधुनाथ के बारे में अवगत कराया. मधुनाथ से खुद भी मिला और उससे मधुलिका के रिश्ते की बात की. इतना सब कुछ होने बाद जब बात बन गई तो फिर मधुलिका और मधुनाथ के विवाह की तैयारियां आरम्भ हो गई. अपनी शादी में आने के लिए मधुलिका ने उसे भी कार्ड भेजा था और विवाह में सम्मिलित होने के लिए गुजारिश भी की थी. और आज जब बारात ने चढ़ना शुरू किया, धूर-गोले अपनी रोशनियों के साथ आकाश में गड़-गड़ाने लगे तो मधु से यह सब देखा नहीं गया तो वह चुपचाप, किसी को कुछ भी बताये बगैर, शहर से काफी दूर यहाँ बाई-पास के अकेले एकांत में आकर एक मील के पत्थर पर आकर बैठ गया था. यहाँ बैठे हुए उसे वह घटना भी याद आई कि, जिसने उसे मधुलिका को और भी करीब लाकर खड़ा कर दिया था. कॉलेज के दिनों में जब एक लड़के ने मधुलिका को छेड़ दिया था तो वह उससे हाथा-पाई कर बैठा था. इस लड़ाई में उसके हाथ में चोट आई थी तो उसे अपने हाथों से खाना खिलाते समय मधुलिका ने कहा था कि,

'चलो, मुंह खोलो, जब देखो तब हर किसी से लड़ने के लिए तैयार बैठे रहते हो?' मधु ने अपने हाथ से निवाला बनाकर मधुप के मुंह में दिया तो मधुप उसे गम्भीरता से निहारने लगा. तब मधु उसके मन की भावना को समझते हुए आगे बोली,

'ऐसे क्या देखते हो. चुपचाप बगैर कुछ भी कहे हुए खाना खा लो.'

'कोई तुमसे कुछ भी कहता रहे और मैं कायरों के समान सुनता रहूँ?' मधुप ने कहा तो मधु तुरंत बोली,

'कहता रहे तो कहने दो. मुझ पर क्या फर्क पड़ता है? हम लड़कियों को तो लड़के यूँ भी छेड़ते ही रहते हैं. उनकी तो आदत ही है. देख कर अपनी आँखें बंद कर लिया करो.'

. . . . . सोचते हुए मधुप की आँखों से आंसुओं की बूँदें टपक कर नीचे भूमि की मिट्टी में विलीन हो गईं. बरात का हुजूम मधुलिका के दरवाज़े तक पहुंच चुका था. धूर-गोलों ने चीखना-चिल्लाना अब बंद कर दिया था. रात्रि के एक बजने जा रहे थे. बाई-पास की यह अकेली और तन्हा सड़क गहरी होती रात का सहारा लेकर अब और सूनी हो चुकी थी. मधु ने अपने चारों तरफ एक बार निहारा. सिवाय सूनी और अकेली सड़क के उसे जब कहीं कुछ भी नज़र नही आया तो वह भी वहां से उठा और थके हुए कदमों के साथ अपने घर आया. कमरे में मेज के सामने आकर उसने मधुलिका के विवाह के उपहार के लिए एक चेक काटा और उसे बधाई के थोड़े से शब्द भी लिखे,

'मधु,

बहुत बधाई हो तुमको, ज़िन्दगी के इस नये सफ़र की सुहानी शुरुआत के लिए. मैंने सारा कुछ पाने की आस में अपना सारा कुछ लगा दिया, मगर फिर भी अफ़सोस इसलिए नहीं है कि जिसको दिया है वह भी तो अपना ही था. अब कुछ और तुम्हारे दामन में देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है. सिवाय मेरी कमज़ोरिया, कमियाँ और मेरी खताएं ही अब मेरे पास है. ये खुबसूरत शाम जो अब रात में बदल चुकी है, इसके लिए इतना ही कहकर तुम्हारी दुनिया से सदा के लिए बहुत दूर चला जाना चाहता हूँ कि,

'जब तुम अपने प्रिय साजन की बाहों में जाओ तो उससे यही कहना कि, हमारे इसी आज के लिए किसी ने अपना कल सदा के लिए लुटा दिया है.' - मधुप.'

समाप्त.