खट्टे वाले गोलगप्पे Sharovan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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खट्टे वाले गोलगप्पे

खट्टे वाले गोलगप्पे


कहानी / शरोवन


***


काला दिल रखने वाले, जब सफेद वस्त्र पहनकर बाहर निकलते हैं तो बगुले भी उन्हें देख कर हंसा करते हैं. लेकिन, मैं तुम्हें देख कर नहीं हंसी थी. बजाय तुम पर हंसने के, मैं उस सारे दिन अपनी बदकिस्मती पर रोती रही थी. यही सोच कर दंग थी कि, सफेदी की आड़ में तुम कितना अधिक काला दिल रख लेते हो?


***

'याद होगा तुम्हें, मैंने कभी तुमसे गुजारिश की थी कि, मुझे भी अपने घर ले चलो. तब तुम बड़ी ही आसानी से टाल गये थे. तब तुमने ज़रा भी यह तक नहीं सोचा था कि, अक्सर लड़के ही 'प्रपोज़' किया करते हैं. लड़कियां तो सिर्फ इस मुबारक दिन का वर्षों तक तो क्या ही, सारी ज़िन्दगी भर इंतज़ार ही करती हैं कि, उनका चाहने वाला एक दिन अवश्य ही यह बहुमूल्य अवसर उन्हें देगा, पर तुम न दे सके थे? मैं ही आगे बढ़ी थी- मैं ही ने इस परम्परा को तोड़ा था. लेकिन नहीं ! तुम इसकदर निष्ठुर भी होगे, मैं कभी सोचती भी नहीं थी. कितना मरती थी मैं तुम पर? इतना अधिक प्यार करती थी, तब मैं तुम्हें, सोचती थी कि, यदि तुम मुझे नहीं मिले तो कैसे जी पाऊँगी मैं? मगर तुमने जीना सिखा दिया था मुझे, अपने बगैर और दुनिया में भी; उस दिन से जब तुम मुझे छोड़कर, मेरी बहन को ब्याह कर ले गये थे. सिर्फ इस लालच में, कि वह एक सरकारी अफसर थी और मैं एक प्राइमरी स्कूल की मामूली-सी अध्यापिका. वह महीने में लाखों कमाती थी और मैं मात्र हजार? कितनी अजीब बात है कि, प्यार तुमने मुझसे किया और प्यार की सरकारी मोहर लगा दी किसी अन्य पर? जीवन भर साथ निभाने के वादे मुझसे किये थे? रास्ता मुझे तुमने दिखाया और घर किसी दूसरी को ले गये? मैं तुम्हें दोष नहीं दूंगी- क्योंकि, प्यार के रास्तों पर चलते हुए अचानक एक दो-राहा तुम्हारे सामने आया और तुम मेरा हाथ छोड़ कर दूसरी राह पर मुड़ गये. कितनी आसानी से तुमने दूसरी का हाथ पकड़ लिया और बात खत्म कर दी? अब उसे दोहराने से लाभ भी क्या? . . .'


'. . . तुम्हें याद होगा कि, एक दिन मैंने तुमसे कहा था कि,


'रंजन ! यह दुनिया कितनी बड़ी है और हम बहुत छोटे- बिलकुल ही तिनके समान. डरती हूँ कि, अगर हम में से कोई भी एक खो गया तो ना तुम ही मुझे ढूंढ पाओगे और ना ही मैं. इसलिए क्यों न हम ऐसा करें कि, हम में से कोई भी आगे जाकर खोये, उससे पहले वह करें कि, कभी एक-दूसरे को खोने की नौबत ही न आ पाए.'


'?'- तुम्हारा मतलब? क्या करना चाहती हो?' तुमने पूछा था तो मैं बोली थी कि,


'मम्मी-डैडी तो हमारी शादी कायदे और नियमों से जब करेंगे, तब करेंगे ही, लेकिन उससे पहले . . .'


'क्या?'


'चलो मेरे साथ.'


'कहां?'


'ये सामने ही मन्दिर है. ईश्वर को साक्षी मानकर हम दोनों अपना विवाह कर लेते हैं.'


'क्या पागल हो गई हो?' कहते हुए तुमने मेरा हाथ झिटक दिया था.


'?'- मैं बड़े ही आश्चर्य से, अपना मुंह फाड़कर तुम्हें देखती रह गई थी.


'इतनी भी जल्दी क्या है? विवाह के पवित्र बंधन में बंधने से पहले समाज के, कानून के और सदियों से चली आ रही परम्पराओं के भी कुछ नियम होते हैं. तुमने तो हद ही कर दी?'


तुमने तब मुझे पूरा भाषण ही दे डाला था.


'ठीक है. जैसी तुम्हारी मर्जी. वह समय भी आने दो. मैं चुप होकर उस दिन का इंतज़ार बे-सब्री से करूंगी. नाराज़ क्यों होते हो?' मैंने कहा था.


काफी समय की घोर प्रतीक्षा के बाद वह समय भी आया. मैं देख कर सचेत नहीं जैसे अचेत हो गई थी. तुम मुझसे आँख भी नहीं मिला पा रहे थे, जब तुमने मरारा को मेरे स्थान पर विवाह के मंडप में मंगलसूत्र पहनाया था. तुम सोच रहे होगे कि, मैं कोई विरोध करूंगी? चीखूंगी, चिल्लाऊंगी और तुम्हारे विवाह में कोई विघ्न डालूँगी? भला मैं क्या विरोध करती? मरारा मेरी बहन है. सगी न सही, 'कजिन' ही, पर है तो मेरी बहन ही. मैं क्यों उसका घर बिगाड़ती? अपने-तुम्हारे मध्य लिखी हुई सारी कहानी को चुपचाप अपने दिल के एक कोने में दफ़न करके, मन से तुमको आशीषें देकर चली आई थी. आँखें डबडबाई थीं तब मेरी. खूब रोई थी, उस दिन और रात में भी मैं. कई दिनों तक अपनी फूटी किस्मत को कोसती रही थी. तब बाद में यही सोच कर सब्र कर लिया था कि, वक्त ने हम दोनों को एक मार्ग दिखाया. जिस पर हम एक सपने को पूरा रखने का ख्याल लेकर साथ चले थे. सपना दिखा था, मेरा सपना था, उसे तो टूटना ही था क्योंकि, तुम्हारे सपने को साकार होना था. मरारा को साथ लेकर तुमने अपना सपना पूरा कर लिया. उसे लेकर तुम अपने घर की राह पर चले गये और मैं मजबूर औरत, हमेशा मर्द के सहारे पर जीने की आस लगाये रखने वाली एक कमजोर नारी? क्या करती मैं? अपनी बे-बसी और लाचारी पर केवल हाथ मलती ही रह गई थी.


काला दिल रखने वाले, जब सफेद वस्त्र पहनकर बाहर निकलते हैं तो बगुले भी उन्हें देख कर हंसा करते हैं. लेकिन, मैं तुम्हें देख कर नहीं हंसी थी. बजाय तुम पर हंसने के, मैं उस सारे दिन अपनी बदकिस्मती पर रोती रही थी. यही सोच कर दंग थी कि, सफेदी की आड़ में तुम कितना अधिक काला दिल रख लेते हो? मैंने जब तुम्हें, मरारा के साथ, तुम्हारे विवाह के बाद, मन्दिर में देखा था. तुम दोनों को देखकर तब मैं चुपचाप तुम्हारी और मरारा की नज़रों से वहीं मन्दिर में छिप भी गई थी. फिर देखकर करती भी क्या? तुमने मेरे प्यार-भरी, फूलों की अर्थी पर अपनी बे-वफा मुहब्बतों के दीप जलाए थे- बगैर यह सोचे हुए कि, उन दीपों की रोशनी में किसी के प्यार की तड़पती-चीखती आहें भी भस्म हो रही हैं. तुम क्यों परवा करते? आखिर हो तो तुम मनुष्य की सन्तान ही?


'. . . रंजन ने रश्मि का जैसे मीलों लम्बा लिखा पत्र पढ़ा तो कुछ भी क्षण भर के लिए सोच नहीं सका. ना ही कुछ कह सका- अपने आपसे भी वह जैसे नज़रें चुराने का प्रयास कर रहा था. काफी लम्बा पत्र था. आखिर पंक्तियों तक, आते-आते, उसने बीच में ही पढ़ना बंद कर दिया था. रश्मि से चार वर्षों के बाद पुन: मिलने के बाद उसने उसे इसी स्थान पर जहां पर वह बैठा हुआ था, फिर से खूब ढेर सारी बातें करने के लिए उसे बुलाया था- एक बार. मगर वह नहीं आई थी. अपने महल्ले के एक लड़के के द्वारा यह पत्र भेज दिया था, उसने. शायद अब वह बात नहीं करना चाहती थी? इसीलिये उसने ऐसा किया होगा? सोचते हुए रंजन की आँखों के सामने उसके अतीत के वे दिन फिर से एक बार उजागर होने लगे, जिनमें शायद गलती से रश्मि ने उसकी ज़िन्दगी के महत्वपूर्ण पन्नों पर दखलंदाजी कर दी थी. . .'




'गोलगप्पों के ठेले को देखते ही, रश्मि ने रंजन का हाथ पकड़ा और बोली,


'वह देखो गोलगप्पे. खट्टे वाले खाऊंगी मैं.'


कहते हुए वह रंजन को जबरन गोलगप्पे बेचने वाले ठेले की तरफ ले गई.


'तुम लड़कियां खट्टे गोलगप्पे बहुत खाती हो. जानती हो कि, कितनी गन्दगी से बनाते हैं ये लोग?'


'मैं कुछ नहीं जानती. मैं खाऊँगी जरुर.' रश्मि बोली.


'कभी-कभी तो ये लोग नाली का भी पानी इस्तेमाल करते हैं.'


'अच्छा अब, मन खराब मत करो. तुम चाहे न खाओ, मैं तो खाऊँगी.'


कहकर रश्मि, आगे बढ़ी और गोलगप्पे बेचने वाले से बोली,


'भैया ! खूब खट्टे वाले, मजेदार गोलगप्पे खिला दो, फटाफट.'


फिर ढेर सारे गोलगप्पे खाने के बाद जब रंजन, रश्मि के साथ लौट रहा था तो उसने कहा कि,


'मैंने सुना है कि, जो लड़कियां बेहद खट्टे गोलगप्पे खाया करती हैं, उन्हें प्यार में धोखा बहुत मिलता है.'


'?'- रश्मि अचानक ही चौंक गई. उसने आश्चर्य से रंजन को देखा फिर बोली,


'क्या बोला तुमने?'


'वही, जो तुमने सुना है.'


'तुम दोगे मुझे धोखा?' रश्मि बोली.


'मैं . . .मैं, क्यों दूंगा?'


'तो फिर तुमने ऐसी कड़वी बात क्यों कही?'


'अरे ! मैंने तो एक जनरल बात बोली है. तुमने तो उसे 'सीरियसली' ले डाला?'


' 'सीरियसली' नहीं, बहुत सीरियस बात कही है तुमने?'


'सॉरी !' रंजन बोला.


'अब मत बोलना, कभी भी.' कहने के बाद रश्मि खिड़की से बाहर देखने लगी. रंजन चुपचाप कार चलाता रहा. रंजन की इस बात ने पल भर में ही दोनों के मध्य का सौहार्द-पूर्ण वातावरण बोझिल कर दिया था.


रश्मि से, रंजन की सबसे पहली मुलाक़ात एक विवाह के कार्यक्रम में हुई थी. जब रंजन अपने मामा की लड़की की शादी में गया था. तब रश्मि भी घरातियों की तरफ से विवाह का हिस्सा थी. जिस लड़की की शादी हो रही थी, वह रश्मि के मित्रों में से एक थी. तब इस विवाह की कॉकटेल पार्टी में रश्मि भी अन्य लड़कियों के समान बरातियों की सेवा में लगी हुई थी. उस समय रंजन, अपनी मेज पर अन्य अतिथियों के साथ बैठा हुआ था. उसका खाली गिलास देखते हुए रश्मि ने उससे कोई ड्रिंक लाने के पूछा था तो रंजन ने हां में अपना सिर हिला दिया था. फिर उसके बाद रश्मि चली गई थी और सामने ही उसका गुलाब जल का ठंडा और मीठा पेय एक गिलास में भरने लगी थी. रजंन को न जाने क्या हुआ था कि, वह भी रश्मि को चुपचाप चोर नज़रों से देखता रहा था. लेकिन रश्मि ने उसके ड्रिंक के पेय के साथ जो किया था उसे देख कर रंजन बहुत अधिक आश्चर्य से भर चुका था. वह सोचने लगा था कि, क्या लड़कियों को अपना झूठा खिलाते उन लड़कों को बहुत अच्छा लगता है जिन्हें वे पसंद किया करती हैं? अथवा, ऐसा करके क्या वे अपनों को बहुत अधिक 'जीनियस' या विजयी समझा करती हैं? रंजन उस समय तो इस बारे में कोई भी ठोस निर्णय रश्मि के बारे में नहीं ले सका था. उसने उस समय केवल इतना ही समझा था कि, लड़कियों की तो कुछ आदत ही होती कि वे इस तरह की हरकत करें. सो अपने मन में रश्मि के प्रति फिर भी कोई विकार न रखते हुए रंजन ने उसके सामने ही जब उसने पेय का ड्रिंक उसे दिया था, उसने एक घूँट पीकर रश्मि को दिखा दिया था. तब रश्मि जैसे अपने मुख पर एक विजयी मुस्कान लिए उसके पास से चली गई थी.


बाद में, विवाह के अन्य कार्यक्रमों के दौरान रश्मि भी रंजन के आस-पास ही मंडलाती रही थी. फिर मुख्य भोज के समय जब दूल्हा-दुल्हन सामने बैठे हुए थे और उनके भी सामने विशिष्ट भोजन की थालियाँ खाने के लिए रखी हुई थीं तो सब ही दुल्हे से अपनी दुल्हन को भोजन का ग्रास खिलाने की अपील कर रहे थे. ऐसा ही दुल्हन के साथ भी था. फिर जब दुल्हे ने दुल्हन को एक ग्रास अपने हाथों से खिलाया तो उसने बहुत ही शर्मिन्दगी से अपने होठ खोले तो रंजन के पास खड़ी हुई रश्मि ने कहा कि,


'देखो तो, कितना अधिक शर्मा रही है यह?'


'शर्मा नहीं रही है बल्कि, सोच रही थी?'


'क्या सोच रही थी?' रश्मि ने पूछा तो रंजन एक संशय से उसकी तरफ देखता हुआ बोला कि,


'यही कि, भोजन का यह अनोखा ग्रास कहीं उसे झूठा करके तो नहीं दिया जा रहा है?'


'?'- रश्मि को जैसे काटो तो खून ही नहीं. तुरंत ही उसका मुख सफेद पड़ गया. उसकी चोरी पकड़ी गई थी. वह तुरंत ही रंजन के पास से चली गई थी. लेकिन, दूसरे दिन, विदाई के समय जब रंजन चुपचाप बैठा हुआ था तो रश्मि उसके सामने अवसर मिलते ही फिर एक बार ठंडे पानी का गिलास लिए खड़ी थी. उसे यूँ खड़े देख रंजन बोला,


'मैंने तो पानी नहीं मंगाया था?"


'मुझे मालुम है.'


तो फिर?'


'मैं खुद ही लाई हूँ.'


'वह क्यों?' रंजन ने आश्चर्य से पूछा.


'आप इस पानी को एक घूँट पीकर झूठा कर दीजिये, बाद में मैं पी लूंगी.'


'अच्छा ! लेकिन क्यों?'


'वह, मैंने आपको अपना झूठा शरबत पिलाया था इसलिए. आपका झूठा मैं पी लूंगी तो हिसाब बराबर हो जाएगा.' रश्मि बोली तो रंजन ने हंसते हुए कहा कि,


'वाह ! यह खूब ही रही. खुद ही मुंसिफ और खुद ही मुजरिम?'


'?'- रश्मि ने कुछ नहीं कहा. वह चुप और खामोश अपना सिर झुकाए हुए खड़ी रही. फिर थोड़े से पलों के बाद रंजन ने उससे कहा कि,


'कोई बात नहीं. मैंने कोई भी बुरा नहीं माना है. ये तो आपस में चलता रहता है.'


बरात विदा हो गई तो रंजन भी बरात के साथ अपने घर वापस आ गया. उसके जाते समय रश्मि उसे चुप नज़रों से जाते हुए देखती रही. फिर बाद में जब समय और बदला. दिन आगे सरक गये तो एक दिन रंजन और रश्मि की मुलाक़ात इन्टरनेट के ज़रिये फेसबुक पर हो गई. इस तरह से दोनों फिर से एक बार मिले. बातें हुईं. दोनों में बातों का सिलसिला यूँ आगे बढ़ा कि, कब दोनों अचानक से बहुत करीब आ गये, किसी को पता ही नहीं चल सका. यह भी एक संयोग था कि, रंजन जिस कम्पनी में काम करता था, उसने उसकी तरक्की करके उसे रश्मि के ही शहर में भेज दिया. रंजन का अपने ही शहर में आने और वहां पर नौकरी करने से रश्मि को बहुत ही अधिक प्रसन्नता हुई. उसके लिए तो सोने में सुहागा हो गया. अब रंजन से जो मुलाकातें उसकी फेसबुक पर होती थीं वह अब साक्षात होने लगीं थी.


अब तो रंजन अक्सर ही रश्मि के साथ अपनी शामें व्यतीत करने लगा था. शायद ही कोई रविवार ऐसा होता था कि, जिस शाम वह रश्मि के साथ किसी अच्छे से रेस्तरां या होटल आदि में खाना नहीं खाता था. दोनों की आपसी घनिष्ठता और मुलाकातों का एक दिन ऐसा आया कि, अब दोनों ही विवाह-सूत्र में बंधने के सपने देखने लगे थे. फिर धीरे-धीरे एक दिन रश्मि ने रंजन का ज़िक्र अपने मां-बाप और अन्य साथ में रहने वाले रिश्तेदारों और परिचितों से कर दिया. उसके पारिवारिक जनों ने भी रंजन को पसंद कर लिया. मगर इन दोनों का विवाह पहले होता, उससे पहले रश्मि की बड़ी बहन मरारा का विवाह पहले होना बहुत आवश्यक था. मरारा, रश्मि के ताऊ, जो उसके पिता के बड़े भाई थे, उनकी लड़की थी. वह एक बहुत ही अच्छी कम्पनी में मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर काम करती थी. उसने मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएट किया हुआ था और एक लाख से भी अधिक उसकी एक माह की तनख्वाह थी. साथ में कम्पनी की तरफ से मोटर गाड़ी तथा अन्य आवश्यक सुविधाएं भी मिली हुईं थीं. सो यहीं इसी स्थान पर रश्मि और रंजन के विवाह की बात अटक गई थी. घर में बड़ी बहन मरारा थी. वह भी पढ़ी-लिखी और लाखों में कमाने वाली कमाऊ स्त्री थी. उसका पहले विवाह होना बहुत ही आवश्यक था. अगर बड़ी बहन से पहले छोटी बहन का विवाह हो जाता है तो फिर यह तो भारतीय समाज है- सैकड़ों मुंह और हजारों बातें होंगी. हो सकता है कि, आगे चल कर मरारा का विवाह होना भी खटाई में पड़ जाए? इसी बात को मद्देनज़र रखते हुए पहले मरारा के लिए वर की तलाश जारी हो चुकी थी.


लेकिन, यह काम भी इतना आसान नहीं था. अच्छे और मन-पसंद वर कोई सड़कों पर तो मिलते नहीं हैं. सालों लग जाते हैं, ढूंढते हुए- केवल एक वर की तलाश में. मरारा के लिए लड़का नहीं मिला तो रश्मि का विवाह भी खटाई में पड़ चुका था. मरारा की मां कुछ अन्य ही स्वभाव और स्वार्थी विचारों की थीं. उनकी समझ में आया कि, क्यों न रंजन का विवाह मरारा से ही कर दिया जाए? आखिर क्या फर्क पड़ता है. हैं तो दोनों बहनें हीं. रश्मि न सही तो मरारा ही सही. उनके विचार व सुझाव धीरे-धीरे रंजन के मां-बाप के कानों तक जा पहुंचे. रंजन के माता-पिता भला क्या करते? उनके लिए तो दोनों ही लड़कियां अपने पुत्र रंजन के लिए माकूल थीं. केवल बात रंजन के हां कहने पर ही रुकी हुई थी. तब रंजन से पूछा गया. उसने तुरंत ही मना भी कर दिया. वह बोला कि,


'जब आप लोगों को मालुम है कि, मैं और रश्मि, दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं और विवाह भी करना चाहते हैं तो आप लोगों के मस्तिष्क में यह ख्याल आ कैसे गया?'


उसके बाद शादी-विवाह का यह मामला काफी दिनों तक दोनों ही परिवारों में शांत बना रहा. लेकिन, कैसे भी क्यों न हो, मरारा का ब्याह पारिवारिक परम्परा और रीति-क़ानून के अनुसार पहले ही होना था. वह घर की बड़ी थी. इसलिए उसके लिए लगातार वर की तलाश जारी रही. रश्मि, सरकारी स्कूल की अध्यापिका थी. उन्हीं दिनों राज्य में शिक्षा का नया स्तर आरम्भ होता, उससे पहले ही रश्मि का स्थानान्तरण दूसरे शहर में हो गया. जब तक उसका ब्याह नहीं होता था, तब तक उसने यह नौकरी करनी चाही थी, सो वह दूसरे शहर में चली गई. मगर, रंजन से वह बाकायदा अपना सम्पर्क फेसबुक, 'मेसेज' और फोन के जरिये बनाये रही. रंजन भी उसको बराबर फोन करता था. फेसबुक और मेसेज पर उससे सम्पर्क बनाये रखता था. आरम्भ के दिनों में वह एक-दो बार रश्मि से उसके शहर जाकर मिल भी आया था. लेकिन बाद में दोनों का यह सिलसिला धीरे-धीरे कम होने लगा था. इसका भी कारण, एक तो दोनों का अलग-अलग शहरों में रहना, फिर दोनों की नौकरियां में भी अंतर था. अंतर यह कि, जब एक की छुट्टी होती थी तो दूसरे को काम करना पड़ता था. इन सब हालात का असर यह पड़ा कि, अब दोनों के मध्य बातचीत का सिलसिला मात्र औपचारिक्ताओं तक ही सीमित हो चुका था.


इन्हीं दिनों, जब एक दिन रंजन का सामना मरारा से हो गया तो वह उसे देखते ही दंग रह गया. बला की खुबसूरत थी वह. रश्मि, की खूबसूरती उसके समक्ष नहीं के बराबर थी. मर्द का तो स्वभाव ही होता है- क्षणमात्र में फिसल जाना. फिर, मरारा को भी रंजन का स्वभाव और व्यक्तित्व बहुत पसंद आ चुका था. वह भी रंजन में अब रूचि लेने लगी थी. फिर अब रश्मि भी बहुत दूर थी. उसकी अनुपस्थिति का मरारा ने भरपूर फायदा उठाया और पूरी तरह से गुणा-भाग करके, शेष में रंजन को अपने वश में कर लिया. परिणाम, इन सारी बातों का यह हुआ कि, अब रंजन, रश्मि के स्थान पर मरारा की तस्वीरें अपने दिल के उस पर्दे पर बनाने लगा जहां पर रश्मि का अक्श कभी बहुत पहले ही वह अपनी ईमानदारी के साथ बना चुका था. लेकिन, आज के युग में इस तरह की ईमानदारी कहाँ तक स्थिर रहती हैं? दिल फिसलता है तो पैर भी फिसल जाते हैं. और जब पैर फिसलने लगते हैं तो मनुष्य डंडी भी मारने से बाज़ नहीं आता है. यही हाल रंजन का भी हुआ था. मरारा उसे अपने भावी जीवन के लिए, रश्मि के अनुपात में हर दृष्टिकोण और सोच-समझ से कहीं अधिक महत्वपूर्ण लगी थी. रश्मि मरारा के सामने एक साधारण से नाक-नक्श वाली लड़की थी. वह हजारों में कमाती थी. एक साधारण-सी सरकारी प्राइमरी स्कूल की अधापिका थी और मरारा, बला की हसीन, खुबसूरत लड़की थी. वह लाखों में हर महीने खेलती थी. इसके अतिरिक्त उसे कम्पनी की तरफ से मोटर-गाड़ी, ड्राईवर और आधुनिक फ़्लैट भी मुफ्त में मिला हुआ था- रश्मि के सामने मरारा को तो जीतना ही था.


रंजन, एक दिन मरारा के साथ विवाह के मंडप में बैठ गया और वह भी रश्मि को कोई भी खबर दिए बगैर, उसे कुछ भी बताये बिना. रश्मि ने जब अपने स्थान पर रंजन के साथ मरारा को बैठे देखा तो देखते ही वह सन्न-सी रह गई. उसे एक बार को खुद पर विश्वास भी नहीं हो सका. क्या मर्द और उनका प्यार यही होता है? कितना निष्ठुर, बे-मुरब्बत और फरेबी निकला, उसका प्रेमी? उसका रंजन, इतना घटिया किस्म का इंसान होगा? उसने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था. विवाह की सारी रस्में पूर्ण हो गई. रंजन, मरारा को अपने भावी जीवन की जीवन-संगनी बनाकर, ले चलता बना और वह उफ़ भी नहीं कर सकी थी. कितना बुरा उसके प्यार का हश्र हुआ था? रश्मि ने अपना दुःख, अपने दर्द अपने ही तक सीमित रखे और चुपचाप अपने नौकरी वाले शहर, जहां पर वह पढ़ाती थी; चली गई. फिर वह अब उस शहर और स्थान में रुक कर करती भी क्या जहां उसके प्यार की अर्थी बगैर किसी अग्नि के ही जलकर राख हो चुकी थी.


आरम्भ में काफी दिनों तक, रंजन के द्वारा किये गये इस घटिया और कुंठित मिजाज़ के साए उसके चारों तरफ उसको अपना मुंह चिढ़ाते रहे. दिन होता चाहे रात- रंजन की प्यारी-प्यारी तस्वीरें उसको जीने नहीं देती थीं. जीवन का एक लम्बा सफर उसने रंजन के सामीप्य में गुज़ारा था. कितने ही दिन उसके साथ बैठ कर उसने अपने भावी जीवन के सपने सजाए थे, मगर अब उन सपनों के स्थान पर उसके टूटे हुए दिल के टुकड़ों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचा था. वह अक्सर ही याद किया करती थी कि, कितनी प्यारी-प्यारी दिल की हसरतों के साथ उसने कभी अपने प्यार के पुष्पों से रंजन का नाम लिखा था, मगर कौन जानता था कि, उसके वही फूल उसकी सारी ज़िन्दगी के मनहूस कांटे बन कर, उसे अपनी विवशता पर मात्र मजबूरियों के हाथ मलने लिए छोड़ गये थे.


रश्मि ने किसी तरह से रो-रोकर, आंसुओं को पोंछकर, काली रातों में तकिये को अपने आंसुओं से भिगो-भिगोकर खुद को समझाया. रह-रहकर कभी दिन में, कभी रातों में और कभी-कभी तो लोगों से मुंह छिपा-छिपाकर, खूब ही रोई. फिर भी उसने अपना दुःख, अपना दर्द और अपने साथ हुये इस छ्लेबी व्यवहार का ज़िक्र तक किसी से नहीं किया. उसने यही सोचकर खुद को संतोष दे लिया था कि, जो उसकी किस्मत में था ही नहीं, वह उसे उसके ईश्वर ने नहीं दिया था और जिसका था वह उसे खूब धूम-धड़ाकों के साथ, शहनाइयों की चीखों के साथ ले अपने घर में जा चुकी थी.


सो इस तरह से रश्मि ने अपने आपको समझा लिया था. वक्त ने उसके जख्मों पर मलहम रखा. हांलांकि, उसके जख्म भरे नहीं थे, बल्कि सूख अवश्य ही गये थे. अब वह रोती नहीं थी. उसके आंसू किसी ने पोंछे नहीं थे, मगर रोजाना की चलने वाली मौसमी हवाओं ने सुखा अवश्य ही दिए थे. वह रंजन को भूली तो नहीं थी, फिर भी उसे अब याद भी नहीं करती थी. बाद में समय और बीता. दिन गुज़रे. महीने हुए. वर्ष बीत गये. लगभग तीन वर्ष होने को आये थे, जब से मरारा की शादी हुई थी. इन तीन वर्षों में रश्मि को सारी दुनियां ही बदली-बदली नज़र आने लगी थी. ब्याह और प्रेम जैसी जीवन की इन महत्वपूर्ण बातों के विषय में उसने सोचना ही बंद कर दिया था. इस मध्य उसकी मां-पिता और अन्य रिश्तेदारों, परिचितों ने उसके विवाह करने की बात चलाई तो उसने स्पष्ट मना कर दिया था. कह दिया था कि, उसके जीवन में इतना बड़ा हादसा हो चुका है और उससे वह पूरी तरह से उबर भी नहीं पाई है. जब उसने इस प्रकार से कहा तो, फिर सभी ने उससे इस विषय पर बात ही करना बंद कर दी थी.


यह सब तो चल ही रहा था कि तभी एक ऐसा धमाका रश्मि के परिवार में हुआ कि, जिसने सारे परिवार की जड़ें तक हिलाकर रख दी थीं- मरारा को तीन माह के गर्भ के साथ संसार में फैली हुई महामारी कोविड-19 का संक्रमण हुआ और आनन-फानन, हर तरह के महंगे-से-महंगे इलाज के बाद भी कोई उसे बचा नहीं सका. वह रंजन को अकेला छोड़कर अपने बिन जन्में नवजात शिशु के साथ दूसरी दुनिया में सदा के लिए चली गई. चली गई तो रंजन एक बार फिर से तन्हा और अकेला रह गया. मरारा के मरने के पश्चात रश्मि के परिवार में ये अटकलें लगाई जानें लगीं कि, 'अब तो रश्मि को रंजन से अपना विवाह कर लेना चाहिए. क्या फर्क पड़ेगा, सब कुछ फिर से वैसा ही हो गया है, जैसा कि, आरम्भ में था,'इतना ही नहीं, रंजन के परिवार वालों के साथ, रश्मि के भी परिवार वाले रंजन से रश्मि के विवाह के लिए तैयार हो चुके थे- मगर अपने दुःख की मारी, एक जटिल सदमें को झेलकर, फिर से जीने के लिए एक मजबूर वह औरत जिसने रंजन के चेहरे पर दुनिया के कितने ही विश्वासघाती, निष्ठुर रूप देखे थे; वह कैसे और किस भावी जीवन की उम्मीद पर हां कर देती? रंजन भले ही उसका भूतपूर्व प्रेमी था, लेकिन था तो दूजा पति, उसका दूजा घर? एक झूठा, इस्तेमाल किया हुआ वह बे-मुरब्बत शख्स जिसने भले ही उससे सहज ही किनारा कर लिया था मगर उसके बाद एक बार भी पूछने तक नहीं आया था कि वह जीवित भी है अथवा मर गई है? एक ऐसा घर जो कभी उसका था, अब जो झूठा भी हो चुका है, उसमें जाकर वह क्या करेगी? वह इतनी भूखी भी नहीं है, कि उसके बगैर जी भी न सके. सच ही तो कहा है किसी ने, कि वक्त इंसान को बहुत कुछ सिखा देता है. रश्मि ने भी बहुत कुछ इसी दुनियां में रहते हुए, दुनियांदीरी के बहुत सारे पहलू देख लिए थे. उसने एक दिन, रंजन से विवाह के लिए, दोनों ही परिवारों में, सबके सामने स्पष्ट इनकार कर दिया. रश्मि के इनकार करने के पश्चात रंजन भी अपना-सा मुंह लेकर ही नहीं बल्कि इस सारे परिवार से बहुत दिनों के लिए कहीं गुम हो गया.


बाद में, एक बार फिर से दिन बदले. तारीखें नई हुईं. मौसम बदल कर आये और गये भी. आसमानों की हवाओं में सावन-भादों के बादल दिखे, बरसे और फिर हवा की तरह गायब भी हो गये. मानसून जिस तरह से आये थे उसी तरह से अपना काम करके चले भी गये. खेतों में हरियाली दिखने लगी. सरसों फूलकर पीली हुई और फिर कटने की प्रतीक्षा करने लगी. होली आई और रंगों की बरसात करके चली भी गई. गर्मियाँ फिर से आईं, खेत कटे और खाली हो गये. गर्मियाँ इसकदर पड़ने लगीं थीं कि, पैसे और समर्द्ध परिवार वाले लोग समुन्द्र के किनारे गर्मी से राहत पाने के लिए चले गये.


तब उन्हीं दिनों रंजन भी सागर किनारे अपनी छुट्टियां बिताने के लिए चला गया. उसे तीन सप्ताह का अवकाश अपनी कम्पनी से मिला था, सो इसी कारण वह भी सागर की बालू और ठंडक में अपना एकांतमय समय व्यतीत करने आ गया था. तब एक दिन, शाम का सूरज डूब रहा था और डूबते हुए सूर्य की सोने जैसी चमकती हुई किरणें, सागर के थिरकते हुए जल में दूर क्षितिज के किनारों को बार-बार चूमने का प्रयास कर रही थी. तभी रंजन ने सूर्य की इन रश्मियों के सहारे एक लम्बी स्त्री की परछाईं अपने सामने ही, बालू के तीर पर देखी तो उसने यूँ ही दूर से उसे देखा. देखा तो उस परछाईं की रूप-रेखा उसे कुछ-कुछ जानी-पहचानी-सी लगी. तब वह अपने स्थान से उठा और यूँ ही उस स्त्री की ओर चल दिया जिसकी परछाईं ने एक प्रकार से उसे अपने पास बुलाने का निमन्त्रण दिया था. वह शीघ्र ही उस स्त्री के पास पहुंचा और मात्र एक दृष्टि जब उसकी तरफ डाली तो देखते ही चौंक भी गया. एक बार को उसे विश्वास भी नहीं हुआ- उसके सामने रश्मि खड़ी थी- बेहद खामोश, अकेली, जीवन से जैसे हर बात का संघर्ष करती हुई, चेहरे पर उदासी नहीं बल्कि भरपूर गम्भीरता का सहारा लिए हुए. जैसे हर बात का संघर्ष करती हुई, चेहरे पर उदासी नहीं बल्कि भरपूर गम्भीरता को समेटे हुए- खामोशी से- चुप और आँखों की गहराइयों में दुनियां-जहान का दर्द समेटे हुए.


आपस के मध्य खामोशी का प्रभाव रखे हुए जब रंजन ने रश्मि को देखा तो सहसा ही उसके मुख से निकल पड़ा,


'कैसी हो?'


'?'- रश्मि ने आँखों की मौन और मूक भाषा में अपने सिर को हिलाया. जैसे कह रही हो कि, 'मर तो नहीं सकी, केवल ज़िंदा हूँ.'


'यहाँ सागर तट पर गर्मियों में घूमने आई हो या फिर. . .?'


'मैं तो यहाँ, अक्सर ही आ जाती हूँ.'


'?'- रंजन चुप हो गया और फिर इधर-उधर देखने लगा.


'अक्सर ही. . ., मैं कुछ समझा नहीं?'


'मतलब- यहीं इसी शहर में रहती हूँ, पढ़ाती हूँ. मेरा मतलब अपनी नौकरी भी करती हूँ.' रश्मि ने कहा तो रंजन ने बात आगे बढ़ाई. वह बोला कि,


'इसका मतलब, तुम्हारा 'ट्रांसफ़र' फिर से हो गया?'


'नहीं. 'प्रोमोशन' हुआ था. यहाँ के स्कूल की प्राधानाचार्या बनकर आई हूँ.'


'ओह. . .'आई सी'. . .?


'?'- खामोशी.


'कांग्रेचुलेशंस.' रंजन बोला.


'थैंक यूं- तुमने बताया नहीं?'


'किसे बताती? अपने जीवन की खुद ही अल्फा और ओमेगा हूँ.'


'क्या बात कही है तुमने? लगता है कि, कहीं साहित्यकार तो नहीं बन रही हो?'


'पता नहीं. समय इंसान को बहुत कुछ बना देता है.'


'हां. तुम सही कहती हो. मुझे भी वक्त ने क्या से क्या बना दिया है? मैं कैसा था और क्या हो गया हूँ?'


'इसमें कुछ सोचने की क्या बात है? जिन हालातों में तुमने समझौता किया या निकल कर आये, उन सबका परिणाम कुछ आसान तो नहीं होना था.'


'मुझे बहुत दुःख है.'


'किसलिए?'


'तुमको छोड़कर मरारा से शादी कर ली थी.'


'तो इसमें कौन सी बहुत छोटी और बहुत बड़ी बात हो गई? जो कुछ मरारा के पास था, वही मेरे पास भी था. जो मरारा ने तुमको तुम्हारी पत्नी बनकर दिया है, वही शायद मैं भी देती. फर्ज़ करो कि, मरारा की जगह पर अगर मैं होती और मैं मर जाती तब?'


'हां. यह तो है.'


हर कोई अपने जीवन के इस विवाह जैसे महत्वपूर्ण फैसले के लिए स्वतंत्र होता है. मार्ग में चलते हुए एक दो-राहा तुम्हारे सामने आया और तुम दूसरी तरफ मुड़ गये. बस बात खत्म हो गई.'


'फिर भी, मैं बहुत शर्मिंदा हूँ. तुम्हारा अपराधी भी हूँ. जानता हूँ कि, तुम मुझे मॉफ तो नहीं करोगी?'


'नहीं. इसमें मॉफी मांगने वाली कोई बात भी नहीं है. तुमने वही किया था, जो तुम कर सकते थे.' रश्मि ने कहा तो रंजन आगे बोला,


'अब तो सब कुछ बदल चुका है. लगता है कि, हम जहां से चले थे, फिर से वहीं आकर ठहर चुके हैं.'


'तुम्हारे साथ ऐसा हो सकता है. मैं तो बहुत आगे, अपना सब कुछ पीछे छोड़कर, आ चुकी हूँ.'


'उसको तुम फिर से समेट सकती हो.'


'मैं, इसकी जरूरत नहीं समझती हूँ.'


'लेकिन, मुझे तो है.'


'जाकर ढूंढ लो. दुनियां बहुत बड़ी है. कोई तो मिल ही जायेगी.'


'तुम मेरा साथ दे सकती हो?'


'हूँ. . .! बहुत खट्टे गोलगप्पे खाती थी. अब साहस नहीं है.'


'?'- रंजन फिर से चुप हो गया तो रश्मि बोली,


'अब मैं जाऊं?'


'मैं, तुमसे इस विषय पर विस्तार से बात करना चाहता हूँ? कल, इसी स्थान पर, यहीं सागर के किनारे, तुम फिर एक बार आ सकोगी मुझ से मिलने के लिए?'


'कोशिश करूंगी. वायदा नहीं करती मैं.'


'ठीक है. मैं इंतज़ार करूंगा. तुम्हारा घर, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है.'


और दोनों की बात समाप्त हो चुकी थी. रंजन बड़ी देर तक सागर के किनारे खड़ा रहा था. मगर रश्मि, उसके पास से जा चुकी थी. मगर वह दुसरे दिन, निर्धारित समय से बहुत पहले ही यहाँ आकर बैठ चुका था. बैठे हुए वह रश्मि के आने की प्रतीक्षा कर रहा था. मगर उसके स्थान पर एक अनजान और अपरिचित लड़के ने जब उसे रश्मि का लिखा हुआ यह लम्बा पत्र दिया तो वह घोर आश्चर्य से भर गया था. वह तो सोचे बैठा था कि, रश्मि अवश्य ही आयेगी और एक बार फिर से सब कुछ नया-नया हो जाएगा. . .'


'. . . सोचते हुये रंजन के मस्तिष्क को एक झटका सा लगा. वह अपने प्रारब्ध से निकल कर बाहर आया. अपने आस-पास देखा. सागर की शाम की लहरें बढ़-बढ़ कर उसके पैरों को चूम रही थीं. दूर सागर तट के इस मशहूर शहर की विद्दुत बत्तियां भी मुस्कराते हुए आने वाली रात का पैगाम देने लगी थीं. रंजन ने निराश और थकी-थकी दृष्टि से अपने हाथ में पकड़े हुए रश्मि के पत्र को एक बार फिर से देखा. जहां से उसने पढ़ना रोक दिया था, उसी स्थान पर आकर वह एक बार फिर उसे पढ़ने लगा. आगे रश्मि ने लिखा था कि,


'कितना अजीब सा लगता है, यह सोच कर कि, एक अबला औरत के जीवन में, उसका माथा, सिन्दूर, बिंदी, हाथ-पैर, चूड़ियां, कंगन और बिछुए, गला, मंगलसूत्र, हथेलियाँ, मेंहदी, सिंगार सब कुछ तो उसके पति के नाम का है. जिस घर को वह अपना समझती है, वह और उस के बाहर लिखा हुआ नाम तक उसके पति का है. जब ऐसा है तो फिर वह किस बात की लालसा रखती है, कि उसका क्या है? और अब ! वह घर भी झूठा हो चुका है. जैसे झूठी थाली, झूठा शौहर, इस्तेमाल किया हुआ पति? मैं क्यों ऐसे घर और ऐसे पति की लालसा करूंगी? समझ में नहीं आता है कि, तकदीर ने तुम्हारे किये हुए पर तमाचा मारा है या मेरे जख्मों को सहलाया है? सही बात तो यह है कि, तुमने वर्षों पहले मुझे जिस स्थान पर लाकर अकेला, तन्हा और मजबूर छोड़ दिया था, वहां से कोई भी राह तुम्हारे घर तक जाने की मुझे इजाजत नहीं देती है. आज मैं, जहां भी हूँ, जैसी भी हूँ- भली हूँ. अच्छी हूँ. शादी करना अच्छी बात होती है. जीवन-साथी भला और अच्छा मिल जाए तो और भी अच्छी बात होती है; लेकिन, यह कहना कि, औरत का जीवन उसके साथी बगैर अधूरा है, चल नहीं सकता है, कष्टकर है . . .आदि, आज के युग में सागर की उन लहरों समान नज़र आता है जो किनारों को चूमने बार-बार आकर टकराती तो हैं, लेकिन बदले में बालू के बने हुए दूसरों के घरौदों को भी तोड़ कर चली जाती हैं. मैंने भी अपना एक बसेरा बनाने की कोशिश की थी. मगर तुमने उसे तोड़ दिया. वर्षों पूर्व. और अब ना तो वह बसेरा है. ना ही ठिकाना और ना ही वह पहले वाली खट्टे गोलगप्पे खाने वाली रश्मि जीवित रही है. दूसरे शब्दों में मुझे अब खट्टे गोलगप्पे खाते हुए बहुत डर लगने लगा है.


शाम डूब चुकी थी. सागर की लहरों पर रात की जलने वाली विद्दुत बत्तियों की चमक उसके जल में अपना नृत्य कर रहीं थी. रंजन ने अपने हाथ में पकड़े हुए रश्मि के पत्र को एक बार फिर से देखा- देखा और फिर अपने दोनों हाथों से उसे मसल कर कागज की एक गेंद का रूप दिया और उसे बड़ी बे-दर्दी से सागर की लहरों में भटकने के लिए फेंक दिया. ठीक वैसे ही जैसे उसने एक दिन रश्मि को अकेला संसार में भटकने के लिए छोड़ दिया था. आदमी की फितरत- उसे कौन-सी वस्तु कब अच्छी लगती और कब बेकार? कौन जाने?


- समाप्त.