रमणिका गुप्ता: अनुवाद की श्रंखला - भाग 6 - अंतिम कड़ी Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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रमणिका गुप्ता: अनुवाद की श्रंखला - भाग 6 - अंतिम कड़ी

रमणिका गुप्ता - श्रंखला -6

अंतिम कड़ी

“परदेस से आती देशी स्त्री कलम की कसक”

[ नीलम कुलश्रेष्ठ  ]

         बाज़ारवाद के आक्रमण व लेखिकाओं की थकती कलम [ बकौल रमणिका जी स्त्री विमर्श की दस -बारह लेखिकाएं आइकन्स हैं ] व युवा पीढ़ी की अधिकतर कटु स्त्री विमर्श के लेखन से कतराने के कारण बीच में ऐसा लगने लगा था कि नारीवाद जल्दी ही डिब्बे में बंद हो जाएगा. अचानक १४ फ़रवरी सन २०१२ मे वेलेंटाइन डे के दिन समस्त विश्व में नारीवाद का एक विस्फोट हुआ- 65देशों [अगले वर्ष 200 ] की स्त्रियों ने पुरुष सत्ता का विरोध नाच गाकर किया था जिसे नाम दिया था 'ओ बी आर 'यानि' वन बिलिअन राइज़िंग '. मज़े की बात है सन २०१८ में मुम्बई में देख रहीं हूँ सोसायटीज़ में भी ८ मार्च, महिला दिवस रो धोकर नहीं या भाषण करके नहीं, रंगारंग कार्यक्रम में नाच गाकर मानाया जाता है। इसका अर्थ ये न लगाएं कि स्त्री समस्याएं कम हो गईं हैं लेकिन स्त्री को उन्हें कम करना व खुलकर जीना आ गया है इसलिए उस स्त्री इतिहास को सहेजना भी बहुत आवश्यक है कि स्त्रियों के जीवन में अंगारे किन किन पहलुओं से बिछाए जाते हैं। हिंदी साहित्य में रमणिका गुप्ता जी की प्रायोजना एक विस्फ़ोट ही है। उनके द्वारा संपादित 'हाशिये उलांघती औरत 'जिसका लक्ष्य 40 भाषाओं की स्त्री विमर्श की कहानियों का अनुवाद है ---ये तो समय ही बतायेगा कि वन बिलिअन राइज़िंग की तर्ज़ पर इस संपादन से कितने लोग जागरूक बने.

वर्जीनिया वुल्फ़ 'अ रूम वॅन्स ओन 'या सिमोन द बुवा के 'द सेकंड सेक्स 'विश्व मे नारी चेतना के उदगम के पर्याय हैं. वर्जीनिया वुल्फ़ के अनुसार औरतें केचुओं की तरह खेतों में, मिलों में खटतीं थी। अपवाद स्वरुप कुछ ने जब कलम सम्भाली तो उन्हें चुड़ैल करार कर दिया गया लेकिन ये कलम पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती चली गई, चाहे आज तक ऐसी औरतों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। देश से बाहर बसने वाली महिलाओं में से जिनके हाथ भी कलम आई, वहां की स्त्री की तकलीफ़ों को ज़ुबां मिलने लगी।

पत्रिकाओं के माध्यम से तो प्रवासी साहित्य सामने आ ही रहा था। सर्वप्रथम कुंवरपाल ने सिंह जी व नमिता सिंह जी ने सन २००५ में 'वर्तमान साहित्य 'के दो प्रवासी विशेषांक निकालकर इस साहित्य को संयोजित करके पाठक वर्ग व शोधकर्ताओं के सामने रक्खा। हम कह सकते हैं प्रवासी साहित्य को हिंदी साहित्य की मुख्य धारा से जोड़ा। इन विशेषांक में लगभग सौ रचनाओं में से आधी रचनाएं प्रवासी लेखिकाओं की थीं जिनमें स्त्री विमर्श अलग से कोई स्वर नहीं था बल्कि ऐसे रचनाओं में नमिता सिंह जी के अपने दृश्टिकोण के अनुसार सम्रगता के एक अंग के रूप में प्रस्तुत किया था।

नेट का फ़ायदा ये हुआ कि उधर अमेरिका में डॉ अंजना संधीर ने अलग अलग देशों में अलग अलग देशों में प्रवासी भारतीयों की चवालीस कहानियों व कविताओं के संग्रह प्रकाशित करके इन्हें एक सूत्र में पिरोया। फिर तो इसे विश्विद्द्यालय के पाठ्यक्रम में भी जोड़ लिया गया। प्रवासी लेखन पर और भी विशेषांक प्रकाशित होते चले गए.रमणिका गुप्ता जी, अर्चना वर्मा, कविता वाचक्नवी व उनकी टीम ने बहुत कठिन मेहनत से प्रवासी स्त्रियों की कहानियाँ एकत्रित व सम्पादित कीं। इस शृंखला के प्रवासी अंक में अधिकतर कहानिया यू.के. व यू एस.ए.की भारतीय लेखिकाओ की लिखी हुई हैं.अपवाद स्वरूप मॉरीशस, शारजाह, नीदरलैंड.डेनमार्क व कनाडा की लेखिकाये भी शामिल हैं.इस अंक का आकर्षण है कविता वाचक्नवी का अप्रवासी महिला लेखनी पर लिखा ज़बरदस्त लेख. इस पुस्तक की कहानियों के ज़िक्र से पता लगेगा कि लुभावने व चमकते से लगते विदेशी प्रवास में स्त्री जीवन में कितनी दुश्वारियाँ हैं।

'कोठी में धान' में मॉरीशस की भानुमति नागदान की कहानी "अनुबन्धन 'में इस देश में पति व प्रेमी के बीच झूलती औरत की कहानी है. जिस समय कहानी लिखी गई होगी तब 'पति परमेश्वर 'वाली मानसिकता के समय ये बहुत बड़ी क्रान्ति होगी।

जब भारतीय पश्चिमी देशों में बसते हैं तो अपने साथ ले जाते हैं दबे सहमे से संस्कार। विदेशी उन्मुक्तता उन्हें आकर्षित तो करती है लेकिन उस जीवन में अपना प्रवेश नहीं होने देते लेकिन बरसों बाद उन्हें अपनी गलती भी समझ में आती है। इस पुस्तक में यही कशमकश अनेक स्थान में देखने को मिलती है. कहानी ' जहाँआरा '[कीर्ति चौधरी ]में भी अफ़सोस है कि लंदन में बरसों पहले यदि उसी बिल्डिंग में रहने वाले लड़कों व लड़कियों की पार्टी का आमंत्रण स्वीकार लेती तो जिंदगी बोर नहीं होती. टीन एज या युवा बच्चों के माँ बाप के भारतीय संस्कार आंधी में उड़ते पत्तों से कांपते रहते हैं कि कहीं उनके बच्चे बिल्कुल यहां के रंग में ना रंग जाएँ। एक परिचित की बेटी की विदेशी मित्र लन्दन में गर्भवती हो गई थी।उसकी मम्मी ने बहुत चिंता प्रगट की लेकिन वह बोली, "सो वॉट मॉम?वॉट इज़ रॉन्ग ?"बस तभी से उन्होंने वापिस भारत आने का मन बना लिया लेकिन सभी के लिए ये मुमकिन नहीं होता. इसी तरह विदेश में बसी माँ चिंतित हो दो बातों के बीच झूलती रहती है कि कहीं बेटी का ब्वाय फ़्रेड तो नहीं बन गया ?या नही बना तो क्यों नहीं बन पा रहा ?उन्हें चिंता खाये जाती है कि यहां के देखा देखी एशिएन बच्चे समलैंगिक सम्बन्ध बनाने लग गए हैं।

खड़ी फसल ---सन १९४७ से पहले में सत्रह कहानियां हैं. विश्व की प्रगतिशील स्त्रियों की जद्दोजेहद है कि उन्हें इंसान समझा जाए लेकिन साबिया की मुश्किल तो कुछ और तरह की है। विदेशी ज़मीन में "उसकी ज़मीन "[उषा वर्मा ]की साबिया नहीं जानती कि वह कौन है ?एशियन, पाकिस्तानी या ब्रिटिश --कौन सा लेबल उस पर ठीक रहेगा.? ये सच ही मुक्त हुई औरत की कहानी है जो सोचती है कि वह अपने को इस चक्र से बचा लेगी, यही उसकी ज़मीन है. इस अंक में 'काग - भगोड़ा '[प्रतिभा सक्सेना ]की नायिका मनका अपने पति व उसके मित्र के उसे बचलन साबित करने वाले षणयंत्र से अपने को बचा, अपने को सच साबित कर घर छोड़ देती है.

'तुम निहाल देई '[कमला दत्त]की एक खुद्दार माँ की कहानी है जो अपने बेटों के पास नहीं रहकर अकेली रहती है.इसका कटाक्ष है, "उत्तर की इज्ज़तदार विधवा सिर ही तो ढकेगी, बँगाल व दक्षिण की विधवा सिर ही तो मुड़वायेगी, ख़ूबसूरत इज्ज़तदार ईरानी सिर ही तो ढकेगी, रूढ़िवादी यहूदिन सिर ही तो ढकेगी नहीं तो अन्देशा रहेगा कि पुरुषों को उकसा रही है."यानि कि मुल्क मुल्क में औरत को गठरी की तरह बाँधा जाता है.

'सरदारनी बेगम '[रमा जोशी ]की अनपढ़ बेगम कहती है, "सिक्ख मुसलमान होने से क्या होता है --किसी का भला कर सकते हो तो करो, भगवान यही कहता है. सुदर्शन प्रियदर्शनी की 'सौ सौ दंश ' की नायिका अपने पति के बॉस के खिलाफ़ कहानी लिखकर उससे मुआफी नहीं माँगना चाहती. स्वदेश राणा ने बहुत लुत्फ लेकर 'होली 'कहानी लिखी है जिसमे दिद्दा कुंवरानी बहुत ख़ूबसूरती से बहू के रजवाड़ों की परंपराओं को उलांघकर संतान पाने की बात कह्ती हैं व जता भी देती हैं कि उस वंश में बेटा कभी भी घर के बेटे से पैदा नहीं हुआ. इस पुस्तक में और भी कहानियां हैं जो विदेश में बस गई लेखिकाओं ने खालिस देशी ज़मीन पर लिखीं हैं।

कादंबरी मेहरा जी ने अपनी कहानी से नियाग्रा फॉल की सैर कराई है। मैं उन्हें को साधुवाद देना चाहती हूँ कि उन्होंने पत्‍‌नी के लिए जो शब्द दिया है -'चिरपराई "जो कहानी का शीर्षक भी है वो कुछ अपवादों को छोड़कर पिछली पीढ़ियो की पत्नियों का पर्याय है.

'मुक्ति पर्व 'सरोज तिवारी की कहानी को पढ़कर मन में प्रश्न उठता है कि ये औरत का कैसा मुक्ति पर्व है जिसमे उसके घर में सुबह घुस आए प्रेमी का पति व बच्चों की उपस्थिति में उसे बाथरूम में बंद कर की गई ज़बर्दस्ती के कारण वह पति द्वारा लताड़े जाने पर घर छोड़ देती है, एक कस्बे में प्रेमी को ही हीरो समझ उसकी प्रतीक्षा करती है ज़किया ज़ुबैरी की कहानी 'बस एक कदम ---'की शैली को लंदन में बसा पति बात बात पर अहसान दिखाकर बंधुआ मज़दूर की तरह उसे' यूज़ 'करता है. शैली देहरी उलांघती है बहुत प्यार करने वाले विधु के लिये. 'नियति '[स्वर्ण तलवार ]में लंदन में बसी डॉक्टर समझ जाती है कि विदेशों में भी तलाकशुदा भारतीय स्त्री से कोई विवाह नहीं करना चाहता तो वह अपने पति को अपनी ज़िन्दगी में अपनी शर्तों पर आने की अनुमति देना चाहती है.

अरुणा सब्बरवाल 'मै अभी ज़िन्दा हूँ 'कहानी बताती हैं कि विदेश में भी मन्दिर भारतीय मंदिरों की तरह बिल्लियों के संघ होते हैं जहाँ भक्ति भावना कम तेरी, मेरी उसकी बात चलती रह्ती है.तलाकशुदा अन्तरा की क्रूरता मेरी समझ के बाहर है जो अपने जीवन में आए देव से अपनी कैंसरग्रस्त पत्‍‌नी को तलाक देने की बात कहती है.इसी खंड में एक विस्फोटक मुक्ति पर्व से और मुलाकात करवाती है शैल अग्रवाल 'विच 'यानि कहानी की दूसरी नायिका राबिया से जो अलग अलग देशों में ली [चाइनीज], विलियम [ब्रिटिश ]व मोहन [भारतीय ]से बिना शादी किए तीन बच्चे पैदा करके बिंदास जीवन जी रही है, जिससे अपने पति व बच्चों के साथ सुखी जीवन जीती नायिका अपनी घुट घुट कर जीवन जीती ज़िन्दगी पर कुंठित होने लगती है [क्यों?].

भारत में लड़कियों की शादी के लिए अनेक मांगें रक्खी जातीं हैं लेकिन विदेशों में बस कर कितने संस्कार व मानसिकता [ओछापन]बदल जाती है और दुखदाई बन जाती है माओं के लिए की वह ठन्डे देश में सीलिंग फ़ैन लगाने की बात करती है कि ज़रुरत पड़े तो वह आत्महत्या कर सके। इस पुस्तक की सार्थकता इस कारण को जानकार ही पता लगेगी। कहानी -'विच' परिचय करवाती है कि भारतीय परिवारों के लड़के भी लड़की के साथ एक डेढ़ साल डेटिंग करने के बाद शादी के लिए अपना फ़ैसला सुनाना चाहते है जबकि इतना ट्रायल तो कार वाले भी नहीं देते. बेहद ठंडे देश में माँ एक पंखे की माँग करती नजर आती है कि उसकी लड़की काले पीले से शादी की माँग करे तो वह पंखे से लटक कर आत्महत्या तो कर सके.

अमेरिका में पुष्पा सक्सेना की 'सच 'की बेटी विधवा माँ की आँखें खोलती है ---"भारत में यहा की उच्छृंखलता की दुहाई दी जाती है, पर यहाँ [अमेरिका] में औरत अपने औरत होने की सज़ा नहीं भुगतती.----तेइस वर्ष से तुम ये सज़ा भोग रही हो."

वैसे तो भारत में भी कुछ लड़कियाँ विधवा होकर पुनः विवाह कर लेतीं हैं, अपने जीवन को आलोक से भर लेतीं हैं लेकिन वर्षों पहले सुषम बेदी द्वारा लिखी कहानी इस आलोक को बहुत सुन्दर नाम देती है 'हिरण्यगर्भा '. सुषम बेदी की 'हिरण्यगर्भा ' प्रश्न करती नजर आती है -'पति क्या नहीं रहा कि [औरत ]मानो लूली, लंगडी, तुच्छ और अछूत हो गई वह.' विदेश से देश आने पर विधवा नायिका को मिलता है ये धिक्कार तो वह भी अपने पुराने दोस्त के पास रहने चली जाती है.अपने को एक पुरुष की भांति सोने से भर 'हिरण्यगर्भा 'बन जाती है क्योंकि उसी ब्रह्म ने तो उसे भी पैदा किया है जिसने पुरुष को. एक लड़की अपना बसा बसाया घर छोड़, अपने प्रेमी के साथ जीना चाहती है, कहती है, "मै रमा नहीं '[अपाहिज पति की सेवा करती ]--कहानी -अनिल प्रभा कुमार.

' खड़ी फ़सल ;सन् 1947 के बाद " की तेरह कहानियों में से दो कहानियाँ दिव्या माथुर की 'बचाव 'कविता वाचक्न्वी की 'पाप "में पिता के घर से बाहर जाते ही संसार के ज़ुल्म सितम को झेलती नायिकाये हैं. अक्सर हमारे या परचित परिवारों के युवा डॉक्टर या इंजीनियर बनकर विदेश जातें हैं मोटी तनख़वाह पर नौकरियाँ पातें हैं लेकिन मध्यम श्रेणी की पढ़ी लिखी एक आम लड़की पर क्या बीतती है जो इंग्लैंड में बस जाने के लिए हाथ पैर पीट रही है और तुर्रा ये कि उसके पासपोर्ट पर होम ऑफ़िस वालों ने ठप्पा लगा दिया है कि वह अंतरराष्ट्रीय कार्यालर्यों या दूतावासों में ही काम कर सकती है.अधिकतर इस पुस्तक में अनैतिक संबंधों या पतिपत्नी के रिश्तों की कहानियाँ हैं दिव्या माथुर की 'बचाव ' एक बेहद विशिष्ट कहानी बन पड़ी है क्योंकि हमें उंगली पकड़कर नायिका के माध्यम से बताती है कि इन कार्यालयों में नाममात्र की तनख्वाह व बिना सुविधाओं या पेंशन के नौकरियाँ दे दी जातीं हैं।ये ब्रिटिश सरकार के अधीन नहीं हैं इसलिए इन पर मुकदमा भी नहीं किया जा सकता। नायिका भारत से अनचाही शादी से भागी लड़की है जो ढेर सा रुपया कमाने का ख़्वाब लेकर यहां आई है.ये कहानी उन लोगों का प्रतिनिधित्व करती है जिनके विदेशों में जाकर सपने टूटते हैं। जो सस्ते बाज़ारों से कोट मफ़लर मोज़े खरीदकर, उन्हें पहनकर डरते रहतें हैं कि इसके पुरानेमालिक को कोढ़ या कोई त्वचा या छूत का रोग ना हो। इंगित भी करती है कि वीसा प्राप्त करने के लिये एक अकेली लड़की को विदेशों में अपनी देह तक होम करनी पड़ जाती है.' वही निंदिया अपने विभाग के सुपर बॉस की नीयत पर होटल के कमरे में गर्म पानी डालकर बिना प्रमोशन की चिन्ता करे हाशिया उलांघ जाती है. वह भारत की अन्य बेटियों की तरह पत्र में अपने माता पिता को यहां मिली सुविधाओं के बारे में लिखती है न की अपनी तकलीफ़ों या ज़िल्लतों के बारे में। बस विदेशों में बसी शादीशुदा औरतें अपने पति से नारकीय रिश्तों को छिपा जातीं हैं। ये कहानी हमें बताती है विदेश में बस गए भारतीय भी ये समझने लगतें हैं कि देशी लड़कियों को भी किसी से बिस्तर साझा करने में कोई हिचक नहीं होती। किसी लड़की से प्यार करने का नाटक कर उसे इस्तमाल कर अपने बॉसेज़ को परोसने का प्रयास करतें हैं। कभी कभी वीसा के लिए या नौकरी के लिए भी लड़कियों को देसी लोगों के साथ समझौता या ऐसे प्रश्नों का सामना करना पड़ता है, 'बिस्तर में तुम्हें अकेले ठण्ड लगती होगी?"

कविता जी का आलेख उनकी कहानी पर बहुत भारी है.इसमें पिता ही अपनी बेटी को आश्रम में रखते हैं.जहाँ उसकी लड़ाई स्त्री व्यवस्था से है.उसके बिस्तर में रात को घुस आयी वॉर्डन से है.

ग़नीमत है कि जय वर्मा [कोई और सवाल ?] व नीना पॉल[गुज़रे लम्हों का हिसाब ]की कहानियों की नायिकाये विदेशी है, प्रथम में डोरीन अपने धन लोलुप पति को बच्चो के आत्मनिर्भर हो जाने पर छोड़ देती है. दूसरी में नायिका दोहरा जीवन जी रहे 'गे 'पति से अलग हो जाती है..कादंबरी [ लावण्या शाह ] कत्थक डांसर वह अपनी दूनी उम्र के कत्थक गुरु के साथ विवाह कर हाशिया उलांघ जाती है. उधर लंदन में एक होने वाले विवाह में' सर्द रात का सन्नाटा ' पसर जाता है क्योंकि नेहा जब शहर से बाहर होती है तो कुछ दिनों के लिए आई उसकी बहिन तनु से उसके प्रेमी के संबंध हो जाते है.

अचला शर्मा ने एक भारतीय माँ व अमेरिका में एक अमेरिकन के साथ लिव - इन में रहने वाली बेटी के बीच कीं कश्मकश को कहानी "दिल में कस्बा रहता है " में बहुत बारीकी से बुना है. इस अंक कीं दो सुंदर कहानिया हैं 'देहिया '[पुष्पिता अवस्थी ] व''उसकी दिवाली '[पूर्णिमा बर्मन ] -कहानियों का इस योजना के विषय से दूर दूर तक का सम्बन्ध नहीं है. 'देहिया कहानी में ओल्ड एज होम में रहने वाली सास का ज़िक्र है, उसे स्नेह करती बहू भी है। इस पुस्तक में कहानी से चीनी संस्कृति की झलक देखी जा सकती है। इसमें एक चीनी औरत नायिका को बताती है कि उनके देश में शादी कम लोग करते हैं, अनेक औरत रखते हैं। कोई सम्बंध तीन चार वर्ष से अधिक नहीं चल पाता। एक आदमी के अनेक औरतों से बच्चे होते हैं। उसी तरह एक औरत की कोख से अनेक पुरुषों के बच्चे पैदा होते हैं। सूरीनाम में बसे चाइनीज़ लोगों में व नीग्रोज़ में ऐसा ही होता है।

अर्चना पैन्यूली की कहानी है"अगर वह उसे मा फ़ कर दे ----?" विषयवस्तु के कारण एक अनूठी कहानी है क्योंकि रेखा को फौजी पति के मरने के बाद पता लगाता है कि जिस नागा लड़की को उसने बोडो आतंकवादियो से बचाया था उससे एक बेटा है.

"क्या आज मै यहां होती --"[नीरा त्यागी ] में लंदन में तलाकशुदा शिखा के नलिन से सम्बन्ध बन जाते हैं लेकिन वह यह सच जान जाती है कि उसके और भी स्त्रियों से संबंध हैं.वह् उससे रिश्ता तोड़ देती है लेकिन उसकी माँ से एक स्नेह भरे सम्बन्ध उसे मिल जाते हैं.शैलजा सक्सेना की कहानी 'उनका जाना " विदेश मे पहुंचकर वहां के भ्रम टूटने की पीड़ा उकेरती है.

इस पुस्तक के खंड -'नई पौध 'में कुल चार कहानियां हैं जिससे युवा अप्रवासी लेखन के विषय में कोई स्थाई राय कायम नहीं की जा सकती. अलग अलग देशों में बिखरे अप्रवासियों की रचनाओं को शैलजा सक्सेना की कहानी 'उनका जाना 'अधिकतर भारतीयों के विदेश प्रवास की दारुण कथा है कि किस तरह सपने किर्च किर्च टूटते हैं व परिवारों को एक गैरेज में रहना पड़ता है। इसकी नायिका अपने रोगी शरीर को पति के कष्ट देते संसर्ग से बचाने के लिए अपने बच्चों से अलग रहने के निर्णय लेने का साहस रखती है। 'रिश्तों की वैतरणी '[रचना श्रीवास्तव ]' बयान करती है कि जैसा सोचा जाता है कि अमेरिका में औरत सुरक्षित है, वैसा भी नहीं है. वन्दना मुकेश की 'चाची ' क्रूर पति के अंश को पैदा ना कर पति से बदला लेती हैं. लेकिन जब हम 'खुले सिरों के जोड़'[भावना सक्सेना ]की सुगंधा का छात्र मित्र समर, जो उससे तो है ही, अपने बच्चो की मेड से सम्बंध बनाए बैठे हैं, तो सूरीनाम में भारतीय संस्कार अस्सी के दशक में धड़ाम से नीचे आ गिरे होंगे. भावना की ये पंक्तियाँ हों - 'पंद्रह बरस पहले की काम्या से बस यही अंतर है कि वह किसी भी परिस्थिति से भागती नहीं है। 'या ये पंक्तियाँ हों जो कमोबेश सभी समझदार स्त्रियां समझ जातीं हैं, -'पुरुष की मानसिकता में बदलाव लाना उसके दायरे की बात नहीं है किन्तु अपने को उससेअलग करना तो उसके अपने वश में है। '. तभी एंद्रे लोर्दे ने लिखा है -"कुछ स्त्रियां इंतज़ार करती है कि उनकी परिस्थितियों में बदलाव आयेगा लेकिन जब ऎसा नहीं होता तो स्वयम्‌ को बदल डालती हैं."

विश्व में कितनी बहसें स्त्री के अस्तित्व को कुचले जाने पर हो उठती है, माध्यम बनते है व्रतचित्र -'इंडिया'ज़ डॉटर्स "हो या पहली बार अमेरिका के कौलेज या यूनीवर्सिटी कैम्पस में हुए महिलाओं के यौन शोषण और बलात्कार की दास्तानो पर बनी 'द हंटिंग ग्राउंड ".ये जानकार तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि यहा हर पाँच मिनट में एक न एक लड़की का शोषण होता है.ये तो दावा किया जा सकता है कि भारत में स्थिति इतनी हद तक बुरी नहीं है. आशा है कविता वाचक्नवी की गलतफ़हमी दूर होगी कि विदेशों में भारत की तुलना में रेप के मामले नाममात्र को हैं.

अफ़सोस है स्त्री के प्रति सबसे जघन्य अपराध यानि कि रेप की इसमें कोई कहानी नहीं है इसलिए अलग से इसके आंकड़ों की चर्चा ज़रूरी हो जाती है। जहाँ सबसे अधिक रेप होते हैं ऐसे दस देशों में शुमार हैं सर्वाधिक रेप होने वाले देश के क्रम से अमेरिका, साउथ अफ़्रीका, स्वीडन, भारत, यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी, फ़्राँस, केनेडा, श्री लंका, इथोपिया। ये चौंकाने वाले तथ्य हैं सबसे शक्तिशाली देश में सर्वाधिक रेप। क्या समझा जाए जितना पुरुष व्यवस्था का सामर्थ्य, उतना ही स्त्री पर अत्याचार। एक बहुत चौंकाने वाला तथ्य ये है कि सन १९८० तक फ्रान्स में रेप कोई अपराध नहीं था। स्त्रियों के विरोध के कारण सन १९९२ में यौन शोषण के विरुद्ध क़ानून पास हुआ व मानसिक प्रतारणा के विरुद्ध कानून को पास होते होते सन २००२ आ गया। श्री लंका की स्त्रियां तो जब तक ४ वर्ष तक सिविल वॉर चलती रही तब तक सुरक्षा बालों द्वारा ही रेप की जातीं रहीं। उसकेबाद भी पेंसठ प्रतिशत श्रीलंका के पुरुष रेप करने के बाद अपराध भावना से ग्रस्त नहीं होते, कुछ एक से अधिक लड़कियों का रेप कर देतें हैं शायद इसीलिये श्री लंका विश्व में स्त्री आत्महत्या के लिए नंबर वन है। मुस्लिम देशों के नाम देखकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि सभी जानते हैं वहां की स्त्रियों की कितने प्रतिशत कह पाती है -'बोल लब हैं आज़ाद तेरे ' [फ़िल्म का नाम भी ].

विदेश का नाम आते ही एक उत्सुकता तो होती है कि वहां की स्त्रियों का जीवन कैसा है ?ये पुस्तक इस बात का उत्तर दे नहीं पाती। इस कमी को मुआफ़ किया जा सकता है क्योंकि भारतीय किसी दूसरे प्रदेश में या विदेश जाएँ अपनी जड़ों को खोजकर उसी में सिमट जातें हैं या अपने गुजरात में रहने के कारण लिख रहीं हूँ कि दूसरे समाज के न्यून्क्लियस तक जाना संभव नहीं होता, अपनी व्यस्तताओं के कारण या दूसरा समाज भी खुले दिल से आने वालों को अपना नहीं पाता। प्रगतिशील देशों में तो अक्सर भारतीयों को दोयम दर्ज़े का नागरिक समझा जाता है।

जैसे कि  रमणिका गुप्ता जी ये मानती हैं कि ये संपादन श्रंखला कोई मंज़िल नहीं है लेकिन एक रास्ता तो है जिस पर चलकर मंज़िल तक पहुँचा जा सकता है। ये बात और है वह मंज़िल कब तक मिलेगी ये राहगीरों को भी नहीं पता।

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पुस्तक --हाशिये उलाँघती औरत --प्रवासी कहानियां

संपादक -रमणिका गुप्ता, अर्चना वर्मा व कविता वाक्चन्वी

मूल्य --350 रुपये मूल्य

नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail.com