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अपनी इसी सोच कर के चलते मेरा ध्यान पौराणिक, ऐतिहासिक तथा प्राचीन साहित्य से हटता चला गया। यहां तक कि मैंने वेद,पुराण,रामायण, महाभारत, गीता या पौराणिक पात्रों से संबंधित व्याख्याओं तथा विमर्शों को पढ़ना ही छोड़ दिया।
मुझे ये कहने में आज कोई संकोच भी नहीं है कि इस साहित्य की बेड़ियों से मुक्ति पाए बिना साहित्य को आधुनिक या समकालीन जीवन से जोड़ा ही नहीं जा सकता। हम "साहित्य जीवन का दर्पण है" जैसे जुमलों को दोहराते रहते हैं किंतु साहित्य को अपनी सुविधा और प्रमाद के चलते जीवन से बहुत दूर घसीट ले गए हैं। हम इस बात के अभ्यस्त हो गए हैं कि कहते कुछ रहो, करते कुछ रहो। हमें चौराहों पर भिक्षुक या मैले कुचैले बालकों की अनदेखी करके, उन्हें उपेक्षा से दुत्कार कर निराला, महादेवी के "भिक्षुक" को पढ़ते रहना ज्यादा सुहाता है। हम शबरी की गाथा गाते रहना चाहते हैं पर किसी की जूठन से छुआछूत की हद तक घृणा कर सकते हैं।
हम परिजनों की अनदेखी करके बाद में उनके श्राद्ध को ज़ोर शोर से मनाते देखे जाते हैं। हम सरकारों को महंगाई के लिए कोस कर तरह तरह से टैक्स चुराते पाए जाते हैं।
ये सूची बेतहाशा लंबी है। वस्तुतः हम पाखंड और छद्म को गले लगा चुके हैं।
अपवाद ज़रूर हैं लेकिन वो हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं। आगे वही हैं जो व्यवहार में सिद्धांतों से हटने और सैद्धांतिक रूप से उनसे चिपके रहने का कौशल जानते हैं।
हमारी संस्कृति, परंपराएं, प्रथाएं, रीति रिवाज बुरी तरह जाति धर्म संप्रदाय की चपेट में हैं लेकिन बौद्धिक प्रहारों से बचने में हमें ये भी पता नहीं रहता है हमारे अपने अपनाए हुए संविधानों में ठीक इनसे उल्टी बातें लिखी हुई हैं जिन्हें हम मौक़े - बेमौके पूज भी लेते हैं। हमें नानक, बुद्ध, गांधी जयंतियां मनाने के लिए चाहिएं लेकिन उन्होंने क्या कहा, क्या किया, क्या चाहा, हमारी बला से!!! हमारा दूर दूर तक भी उससे वास्ता नहीं।
हम अपनी बात को इकतरफा न बनाएं। चलिए ये भी कहते हैं कि बहुत सारे लोग इन बातों से चिढ़ते हैं और समाज को इनसे आजादी दिलाने की ख्वाहिश भी रखते हैं तो इन्हीं सकारात्मक लोगों की सोच के उजाले में हम अपनी हैसियत भर कुछ करने की क्यों न सोचें!
हम चाहते हैं कि कोई बस या ट्रेन चाहे कितनी भी भरी हुई हो हमारे लिए ज़रूर रुके किंतु हमारे बैठ जाने के बाद रफ़्तार पकड़ ले और फिर न रुके।
हम अपराधियों, आतताइयों, असामाजिक तत्वों के किसान, मजदूर, घरेलू नौकरों की आड़ में छिप कर फैलाए गए आतंक से बुरी तरह हताश हो जाने की हद तक परेशान होकर भी समकालीन साहित्य में उनके "देवत्व" का दर्ज़ा खोने नहीं देना चाहते। क्योंकि हमारे वाद हैं, विमर्श हैं, विचारधाराएं हैं, उनसे हम रत्ती भर भी विचलित न हों चाहे इसके लिए हमें समकालीन जीवन से आंख मूंदनी पड़े।
इतने मनुष्य विरोधी हम???
जीवन रुकता नहीं है। विचार और परिस्थितियां किसी सदानीरा सरिता से बहते हैं। जो कल था आज नहीं है और जो आज है वो कल नहीं रहेगा। ऐसा नहीं है कि इस बात को लोग जानते या समझते नहीं हैं। बहुत से लोग लगातार इस चिंता में अनवरत बेचैन हैं। वो लगातार कुछ न कुछ कर भी रहे हैं। सच मानिए, ये दुनिया ऐसे ही लोगों के कारण बदस्तूर टिकी हुई भी है। वो लेखक भी हैं, चिंतक भी हैं, विचारक भी हैं, संपादक या प्रकाशक भी हैं। और ये तो हमने केवल साहित्य की बात की है जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे लोगों की मौजूदगी है। चाहे वो मीडिया में हों, कला में हों, वैज्ञानिक हों, अध्यापक, चिकित्सक, इंजीनियर या अर्थशास्त्री हों, अधिवक्ता हों, व्यापार में हों या मात्र सद्गृहस्थ ही क्यों न हों। वास्तव में ये बात किसी प्रोफेशन की नहीं बल्कि इंसान के भीतर बचे इंसान की है। जीवन के मध्य जीवनतत्वों की हिफाज़त की है। उन बातों को संरक्षा सुरक्षा या सहयोग देकर बचाए रखने की है जो ज़िंदगी को बनाए रखती हैं। इन्हीं पर दारोमदार है कि ये पृथ्वी को बचाए रखेंगी।
खैर!
मैंने 2014 में अपने जीवन की आपाधापी से निजात पाने के बाद बैठ कर न जाने क्या- क्या सोचा। किसी के सोचने पर पाबंदी तो है नहीं! कोई कुछ भी सोच सकता है। दिक्कत तो तब आयेगी जब कुछ करे।