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अपने साथ मेरा सफ़र - 3


तीन.
अपनी ऐसी समझ के चलते ही साहित्यकारों के प्रति एक आंतरिक अनुभूति मुझे भीतर से प्रेरित करती कि किसी लेखक या साहित्यकार के प्रति हमें लगभग वही भाव रखना चाहिए जो प्रायः किसी बच्चे के लिए रखा जाता है। क्योंकि अबोध बालक केवल तभी भूखा होता है जब वो भूखा होता है।
जिस समय कोई भूखा बच्चा हमें दिखता है तो पहले हम यही सोचते हैं कि इसका पेट भरे। कहीं से कुछ ऐसा मिले जो इसे खिलाया जा सके। उस समय हमारी प्राथमिकता में ऐसी बातें नहीं आतीं कि इस बच्चे के भोजन की कीमत कौन देगा? इस बच्चे पर स्वामित्व किसका है? पहली कोशिश उसकी क्षुधा शांत करने की ही होती है।
संयोग से अपनी नौकरी के दौरान मुझे मुंबई, दिल्ली, जयपुर, उदयपुर, जबलपुर, कोटा, कोल्हापुर, पुणे, भोपाल आदि स्थानों पर रहने का और बहुत सारे शहर कस्बों व गांवों में लगातार आने जाने का अवसर मिला।
इन स्थानों पर रहने के दौरान अपने सहकर्मियों, परिजनों और पड़ौसियों के अलावा सबसे अधिक ध्यान मेरा उस क्षेत्र के साहित्यकारों पर ही जाता था। जल्दी ही मेरा मिलना अमृता प्रीतम, विष्णु प्रभाकर, हरिवंश राय बच्चन, कमलेश्वर, राही मासूम रज़ा, राजेंद्र यादव, मृणाल पांडे, राजेंद्र अवस्थी, सूर्यबाला, कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा, चित्रा मुद्गल, शरद जोशी, शिव मंगल सिंह सुमन, हरिशंकर परसाई, ज्ञान रंजन, धर्मवीर भारती, गोविंद मिश्र, विनोद तिवारी, इस्मत चुग़ताई, विश्वनाथ सचदेव आदि और अन्य कई प्रतिष्ठित साहित्यकारों से किसी न किसी बहाने हो गया।
मैं इन लोगों के रहन- सहन, व्यक्तित्व और तौर - तरीके को रुचि तथा सम्मान से देखने की कोशिश करने लगा। मुझे ये बात आकर्षित करती थी कि ये लोग रात- बिरात किसी एकांत में बैठे कागज़ कलम के सहारे अपनी कल्पना के नगर या गांव बसा लेते हैं। ये लफ्ज़ों में लपेट कर दर्द को सुदूर बैठे जिज्ञासु पाठकों तक कोरियर कर देते हैं। ये मन- मस्तिष्क में तरंगें पैदा करके अपने सोचे हुए को सबका सोचा हुआ बना लेते हैं। ये कोई भी पात्र गढ़ लेते हैं, कोई भी वैचारिक किला ध्वस्त कर देते हैं, कोई भी गलत एंगिल से उठी मीनार को धराशाई करने को तत्पर हो जाते हैं।
ये कौन लोग हैं? ये क्या चाहते हैं? अपने मौजूदा वक्त की नर्सरी से उखाड़ी पौध को भविष्य के किस पठार में रोप देने का ख़्वाब देखते हैं। इनकी नौकरियां, इनके व्यापार, इनके परिवार इनका मन क्यों नहीं लगा पाते?
ये वरदान पाए लोग हैं या शापग्रस्त?
बस मेरा मन होता था कि इनके पीछे- पीछे घूमूं।
ये लोग अपने से पहली बार मिले मनुष्य से भी ऐसे बोलने लग जाते थे कि जैसे इनका जन्म उसी की सहायता करने के लिए हुआ है।
ऊपर मैंने जो नाम गिनाए हैं वो तो सभी लगभग नामचीन प्रतिष्ठित लोग थे किंतु इनमें से भी कोई- कोई कभी तो मुझे ऐसा दिखता था जैसे ये होमलैस, निर्धन, निरीह लोग हैं जो कुछ ढूंढ रहे हैं और उसके बिना बेचैन हैं।
दूसरी तरफ़ मैं ऐसे हज़ारों लोगों से मिलता जो इन लोगों को दुनिया का सबसे संपन्न, मालदार, संतुष्ट असामी समझते थे। मुझे ये गोरखधंधा कभी समझ में नहीं आता था और फ़िर मैं सोचने लग जाता था कि कहीं मैं कोई शापग्रस्त आत्मा तो नहीं हूं?
मुझे कभी- कभी ये भी याद आता था कि साहित्य में अपनी रुचि के चलते मुझे मेरी नौकरी में भी अतिरिक्त ज़िम्मेदारी के रूप में ऐसे काम दे दिए जाते थे कि मुझे बहुत से लेखकों से मिलना ही पड़ता था। विश्वविद्यालय के प्रशासन अधिकारी के रूप में कवियों के स्वागत सत्कार से आख़िर मुझे क्या मिलता होगा?
लेकिन मिलता था। मैं साहित्यकारों की गतिविधियों को नज़दीक से देख पाने के मौक़े तो पाता ही था कभी- कभी बड़े साहित्यकारों की अन्य लेखकों पर बड़ी रोचक और आधारभूत टिप्पणियां भी मुझे मिलती थीं जो मुझे लुभाती थीं। चटपटी भी, सारगर्भित भी!


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