अपने साथ मेरा सफ़र - 4 Prabodh Kumar Govil द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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अपने साथ मेरा सफ़र - 4


चार.
इस पृष्ठभूमि के साथ ही आपको एक और बात बताना भी ज़रूरी है। ये साहित्य को लेकर की जाने वाली रिसर्च या शोध से संबंधित है।
शैक्षणिक दायरों में मैं ये देखा करता था कि साहित्यकारों का काम उस व्यक्ति जैसा है जो अपने परिवार के लिए राशन पानी, अर्थात रोटी कपड़ा और मकान की व्यवस्था करता है। बस फ़र्क इतना सा ही है कि एक सामान्य आदमी जो काम केवल अपने परिवार के लिए करता है वही काम साहित्यकार या लेखक पूरे समाज के लिए कर रहे हैं। उनका जुटाया हुआ सामान सार्वजनिक होता है जो उसके लिए है वो जिससे भी संबंधित है। मतलब लेखक की हर रचना पर अदृश्य रूप से ये लिखा हुआ है "टू हूम सो एवर इट मे कंसर्न"।
ऐसे में उस साहित्य पर होने वाली किसी भी शोध का दायित्व ये है कि वो लेखक के लाए राशन को साफ़ करके उसके पोषक तत्वों के बारे में लोगों को बता दे।
पहले हम सारी प्रक्रिया समझ लें, फिर हम कदम कदम पर उठने वाले अपवादों पर भी बात करेंगे। और तब देखिएगा कि आपको कितना मज़ा आता है। इसलिए मेरी गुज़ारिश है कि तब तक इस अपेक्षाकृत उबाऊ बात को भी सुन लीजिए।
तो मैं कह रहा था कि शोधार्थी का काम बिल्कुल उस गृहिणी की तरह ही है जो घर में लाए गए राशन को संभाल कर उसकी पड़ताल करे, उसे साफ़ सुथरा करे, उसे संरक्षित करे और बाद में उसे उसके तमाम पोषक तत्वों सहित परिवार के लिए पेश करे।
आप कह सकते हैं कि ये तो बहुत कठिन काम है। बड़े झंझट वाला।
तो? वो तो है ही।
तभी तो आपको साहित्य के डॉक्टर की पदवी दी जाती है जो ज़िंदगी भर आपके मस्तक पर चिपकी रहती है। साहित्यकार को थोड़े ही कुछ पदवी दी जाती है। इसके अपवादों पर भी हम बाद में बात करेंगे।
अब एक बात पर और ध्यान दीजिए। जैसे गृहिणी ने बाज़ार से लाए गए सौदे को संभाला और खाने योग्य संरक्षा के साथ संजो कर रखा ठीक वैसा ही काम अनुसंधान कर्ता का भी है बस केवल इस अंतर के साथ कि ये अनाज या खाद्य- पदार्थ पूरे समाज का है। इसकी मियाद भी अपरिमित है और दायरा भी अनंत। इसीलिए रचनाएं "कालजयी" भी होती हैं, अल्पकालिक भी होती हैं, ख़ारिज करने योग्य भी होती हैं और असफल भी होती हैं।
इस तरह अब तीन पार्टियां हो गईं। एक लेखक, दूसरा पाठक और तीसरा शोधार्थी। इसके अतिरिक्त भी शोध- चक्र के कई और भाग हैं। जैसे - समीक्षक या आलोचक, संपादक, प्रकाशक। किंतु इन सबकी अलग अलग व्याख्या की ज़रूरत तो हमें केवल तब पड़ती है जब साहित्य किसी कच्चे माल की तरह फ़ैला बिखरा पड़ा हो और बनाए जाने की प्रक्रिया में हो। यहां तो हम लेखक का काम पूरा हो जाने के बाद की चर्चा ही कर रहे हैं जिसमें इन सबका काम पूरा हो चुका माना गया है। अर्थात हम इस पायदान से तो आगे निकल आए।
शोध के विषय में एक बात और महत्वपूर्ण है।
क्या सारा का सारा लेखन शोध किए जाने की आवश्यकता है? क्या हर रचना अनुसंधान कर्ता की निगाहों से गुजरनी ही चाहिए? यदि ऐसा नहीं है तो ये फ़ैसला कब और किसके द्वारा हो कि कौन सा साहित्य शोधात्मक है या अनुसंधान किए जाने योग्य है और कौन सा समय की धारा में ऐसे ही छोड़ा जा सकता है।
और यदि हम ये मानें कि हर सृजन को शोध प्रक्रिया से तो गुजरना ही चाहिए तो इसके पर्याप्त और सक्षम चुंगीनाके या टोल प्लाजा कौन से हों? इन पर नियंत्रण कर सकने वाला दस्ता कौन हो और वो कब- कहां ये काम संपन्न करे।
वस्तुतः ये कार्य इतना जटिल है नहीं जितना हम इसे समझ रहे हैं।
कैसे? आइए देखते हैं।