पांच.
इसका एकमात्र हल यही है कि जो कुछ लेखकों द्वारा लिखा जाए उसे पहले कुछ समय तक पाठकों के लिए बाज़ार में छोड़ दिया जाए। लोग उसे पढ़ें।
कुछ वर्ष के बाद या तो वो स्वतः ही लुप्त हो जायेगा अथवा उस पर चर्चा - प्रशंसाओं के माध्यम से वह और उभर कर साहित्य जगत में आ जायेगा। उस पर समीक्षा या आलोचनाएं लिखी जाएंगी, वो कहीं न कहीं पुरस्कृत होता दिखाई देगा अथवा अन्य किसी माध्यम से उभर कर आयेगा।
तब ये देखा जाना चाहिए कि कौन से तत्व हैं जो उसे निरंतर बाज़ार में बनाए हुए हैं, लोगों का ध्यान उस पर दिला रहे हैं और तब उन तत्वों की खोज उस पर अनुसंधान या शोध का रास्ता खोलती है। उसे शोध के लिए चुन लिया जाना चाहिए।
लेकिन इधर एक बात देख कर मैं बहुत विस्मित हुआ।
जब मैं अलग- अलग क्षेत्र के कुछ साहित्य के शोधार्थियों से चर्चा करता तो मेरी दिलचस्पी ये जानने में ज़रूर रहती थी कि साहित्य विषयक अपनी शोध या रिसर्च के लिए वो क्या विषय चुन रहे हैं? मेरी बात शोध अध्यापकों या निर्देशकों से भी होती।
तब मुझे पता चला कि अधिकांश शोध छात्र आज भी भक्ति काल या रीति काल के उन वर्षों पुराने विषयों को ही शोध का विषय बनाना चाहते हैं जिन पर कई कई बार शोध हो चुकी है।
मैं तब चौंका जब मैंने पाया कि जो शोधार्थी आधुनिक साहित्य पर काम करने के इच्छुक हैं वो भी प्रेमचंद, प्रसाद, निराला से आगे नहीं बढ़ते। मेरे आश्चर्य का कारण ये था कि आज से लगभग पचास साल पहले जब मैं ख़ुद अपने स्नातक शिक्षा के दौर में था तब भी इन्हीं साहित्यकारों की कृतियों को शोध के लिए चुन लेने का प्रचलन था और अब लगभग आधी सदी गुज़र जाने के बाद भी लोग "प्रेमचंद की नारी" जैसे विषयों पर न केवल चर्चा कर रहे हैं बल्कि उन्हें शोध खोज का विषय बनाना चाहते हैं।
तो क्या पिछले पचास साल ये पता नहीं लगा पाए कि प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों या कहानियों में नारी को कैसे चित्रित किया? क्या वह रहस्यमयी नारी आज भी अनचीन्ही है। उसकी दशा और गोपनीयता पर पांव रख कर शहर शहर में आज हज़ारों साहित्य के डॉक्टर घूम रहे हैं! क्या साहित्य, चिंतन या शोध वहां आकर रुक गया? या फिर कारण कुछ और है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि आज के अधिकांश शोध विद्यार्थी अनुसंधान प्रक्रिया से अनभिज्ञ हो चले हैं। उन्हें कहीं से कुछ ढूंढना नहीं आता इसलिए वे खोजे ढूंढे माल को ही पुनः पुनः तलाशते दिखाई दे रहे हैं।
इसके कारण चाहे जो भी रहे हों लेकिन मुझे ये ज़रूर लगा कि पिछले चार साल पांच दशक का ताज़ा और बेहतरीन साहित्य अभी ठीक से खंगाला ही नहीं जा सका है। उस पर शोध परक दृष्टि डाली ही नहीं गई है।
इस बात ने मुझे कुछ विचलित किया और एक अर्थ में प्रेरित भी किया कि वर्तमान साहित्य की थोड़ी बहुत पड़ताल ज़रूर की जाए।
ऐसा नहीं हो सकता कि प्राचीन शास्त्रीय विमर्शों की लगातार आंधी के बावजूद उन्हीं विषयों की बार बार पड़ताल की जरूरत बनी हुई हो।
केवल सुविधाभोगिता की आदत के चलते हमारे अनुसंधान निर्देशक और स्वयं शोधार्थी उसी झुरमुट के इर्द- गिर्द बने हुए हैं जो बार बार का देखाभाला है। ये एक तरह से एकेडमिक्स को दोहरा नुकसान है कि एक तरफ खोजी खोजाई चीज़ की तलाश में कारवां के कारवां निकले हुए हैं दूसरे नया अनचीन्हा ढेर उस साहित्य का इकट्ठा हो रहा है जिस पर कोई ध्यान देने वाला है ही नहीं।
यहां थोड़ा वस्तुनिष्ठ होने की ज़रूरत है। एक ऑब्जेक्टिविटी और वैज्ञानिक अप्रोच हमें चाहिए कि हम वांछित और अवांछित में भेद कर पाने योग्य पैनापन हासिल करें।