उत्कृष्ट कलात्मक सांकेतिकता से किर्च किर्च होते मानव मन की व्यथा Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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उत्कृष्ट कलात्मक सांकेतिकता से किर्च किर्च होते मानव मन की व्यथा

नीलम कुलश्रेष्ठ

'सिलवटें 'विकेश निझावन जी के कहानी संग्रह की एक एक सिलवट मैं पलट क्या रहीं हूँ एक तीखे दर्द से गुज़र रहीं हूँ या उस साँकेतिक भाषा से झटके खा रहीं हूँ जो सिर्फ़ किसी पात्र, किसी समस्या पर दूर से इशारा भर करती है. आप ये भी कह सकतें हैं कि किसी की ज़िंदगी को ये भाषा उस पर पड़े पर्दे को ज़रा सा खिसका कर और तुरंत बंद कर उस पात्र की या स्थिति की ज़रा सी झलक से या सिर्फ़ दो तीन संवादों से सारी की सारी तकलीफ़, संघर्ष भरी कहानी कह जाती है। आप मेहनत करते रहिये उस कहानी को समझने की। विकेश जी की कहानी' स्पून फ़ीडिंग' नहीं हैं.यहाँ पाठक को अपने दिमाग़ के सारे दरवाज़े खोलकर इस संग्रह के दर पर बैठना होगा। इंसान की ज़िंदगी किसी समारोह किसी त्यौहार, गैट टुगेदर में सुंदर आभा बिखेरते कपड़ों में सजी धजी मुस्कान बिखेरती रहती है, ज़ोर ज़ोर से ठहाके लगाती है, अपने अंदर न जाने कितनी तरह के ग़मों की सिलवटें समेटे।

बहुत बरसों बाद विकेश जी की कहानी'अँधेरे' पढ़ी थी आदरणीय सुधा ओम ढींगरा जी द्वारा सम्पादित कहानी संग्रह 'अम्लघात 'में और मैं सच ही इनके सांकेतिक भाषा के चक्रव्यूह की गुंजलक में जा फँसी थी। इस कहानी के विषय में स्वर्गीय हिमांषु जोशी जी का कहना था कि ये अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कहानी है. इनकी कहानी की भाषा की कोमलता ने प्रभावित तो किया था लेकिन इसका अंत ऊपर से निकल गया था। जी हाँ, मैं पिछले वर्ष की बात कर रहीं हूँ। मजबूरन मुझे फोन करके 'अँधेरे 'कहानी को समझना पड़ा था. इसका आफ़्टर इफ़ेक्ट ये हुआ कि मैंने तुरंत अपनी कहानियों के ऐसे उलझे अंत को स्पष्ट कर दोबारा लिखा क्योंकि आजकल फ़ोन करने की ज़हमत कौन उठाता है ? ये कहानियाँ थीं 'उस महल की सरगोशियाँ ', हरे स्कर्ट वाले पेड़ों तले ', [एक प्रबुद्ध लेखिका ने इसके अंत को पढ़कर पूछा था कि क्या ये पुनर्जन्म की कहानी है ? ]व 'आकाश बूँद'। इस कहानी को पढ़कर इनकी कलम को समझने के लिये अमेज़ॉन से 'सिलवटें 'मँगवाई थी। 'सिलवटें 'निझावन जी की चुनी हुई कहानियाँ हैं इसलिए अधिकांश बहुत सशक्त कहानियां हैं।कुछ वर्ष पूर्व 'हंस 'में प्रकाशित 'गाँठ' जैसी प्रयोगात्मक कहानी सहित कहानियाँ सांकेतिक तो हैं ग़नीमत है लेकिन समझ में आ रहीं हैं।

इस कहानियों में परिवार के सम्बन्ध सबसे अधिक मुखर हुये हैं या हम कह सकते हैं कि हमारे क्लिष्ट निम्न मध्यमवर्ग व मध्यमवर्ग समाज की सच्चाइयां खुल रहीं हैं।दिल को चीर देने वाली इतनी मर्मांतक कि

' एक लकीर दर्द की ' में पैसे की कमी व परिस्थितियों के दवाब में एक युवा अतुल विवाह करने के अपने शरीर के अर्थ को ही खो बैठता है. इसमें आपको अपने आस पास के पात्र नज़र आएंगे या 'पुनर्जन्म 'जैसी कहानी को पढ़कर आप चाहे स्त्री हों या पुरुष, आपको लगेगा कि ये कहानी आपकी ही है। स्त्री के लिए माँ व पुरुष के लिए पिता मृत्यु के बाद कभी भी मरते नहीं हैं जैसे वो उनमें ही समा जाते हैं।

बहुत चुटीली व जानदार भाषा की कहानी है 'चीरहरण '.किसी लड़की की परिस्थितियां ऐसी होतीं हैं कि वह चाहकर भी अपने जीवन साथी का चुनाव नहीं कर सकती। जानते बूझते हुए भी जीजा जी के अधेड़ बॉस से शादीनुमा चीरहरण करवाने को तैयार हो जाती है। इस कहानी को कुछ इस तरह रचा है कि लगता है चुलबुली सुनीता हमसे बात करके अपना गुस्सा निकाल रही है। ये हठीली लड़की ज़रूर कोई विद्रोह करेगी लेकिन स्त्री जीवन ही है कि जाएँ तो जाएँ कहाँ ? समाज में स्त्री की स्थिति को लेकर, बच्ची पैदा होने पर बहुत करारा व्यंग किया है निझावन जी ने 'पोस्टमार्टम 'कहानी में। बहुत सी स्त्रियां कोख में ही मार डाली जातीं हैं. कुछ पैदा तो हो जातीं हैं लेकिन करने को आत्महत्या करने को मजबूर की जातीं हैं। अधिकतर जी जातीं हैं लेकिन अर्द्धमृत अवस्था में जीवन यापन करतीं हैं।

'महादान 'या 'न चाहते हुये ' 'जाने और लौट आने के बीच ', की संवेदनशील बेटियों व 'एक टुकड़ा ज़िंदगी 'की ग्रामीण चाची के विशाल दिल या बदहाल मकान में रहने वाली अपने दो शादीशुदा बेटों  द्व्रारा तिरस्कृत रिश्ते निबाहती बुआ से मिलने का एक सुकून भरा' स्पर्श 'हो - ये कहानियां रिश्तों को निबाहती  हुई इंसानियत का पाठ पढ़ा जाती हैं। 'केवल एक सीढ़ी की जगह 'की दीदी अपनी शादी के लिए लड़के वालों को अपनी माँ के नाम से, जो छः वर्ष पहले ही गुज़र चुकीं हैं, पत्र स्वयं ही लिखती है। भाई व पिता को पता लगता है तो वे भी स्तब्ध रह जातें हैं। ऐसे साधारण लेकिन चमत्कृत करते हुये घरेलु कथानक इस संग्रह की विशेषता हैं।

मुझे राजेंद्र यादव जी का 'हंस 'में लिखा एक सम्पादकीय का अंश याद आ रहा है, ''विदेशी लेखकों ने बहुत सी कहानियां घर के सदस्यों के आपसी रिश्तों के बदलते हुए समीकरण पर लिखीं है लेकिन भारत में लेखक इस सच्चाई को बहुत बारीकी से अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे। ''हो सकता है उनके शब्द कुछ और रहे हों। विकेश निझावन जी की कहानियां व रेखाचित्र 'हंस 'में प्रकाशित होते रहे हैं लेकिन यदि यादव जी के जीवन काल में ये संग्रह प्रकाशित हो जाता तो उनकी शिकायत दूर हो जाती।

' चाइल्ड एब्यूज़ 'जैसे विषय को अपनी दो कहानियों 'गुल्लक 'व 'आश्रम 'में कुछ इस तरह उठाया गया है कि मासूम बच्चे कहीं भी घर या आश्रम में सुरक्षित नहीं हैं। उस नौकरीशुदा स्त्री की बेटी शिप्रा उसे कभी स्पष्ट शब्दों में नहीं बताती कि वह कुछ घिनौनी हरकतों का शिकार हो रही है। नौकर राघव व शर्मा अंकल की शिकायत भी नहीं करती लेकिन उस नन्ही बच्ची की छटपटाहट व डर पाठकों के दिल में सीधे उतर जाता है.उस माँ की मजबूरियां क्या हैं ? ये बात कहानी ही बतायेगी। दूसरी तरफ़ मजबूर कस्तूरी की मजबूर माँ जिस कारण से उसे चाकू सौंपती है, मजबूरन आश्रम के मास्टर के डर से उसे भी चाकू की धार तेज़ करनी पड़ती है।

साहित्य जगत में सम्मान पाने व देने की तृतीय श्रेणी की अंधी ललक देखनी हो तो साहित्य रूपी तालाब को गन्दा करने वाली मछ्लियों के साथ 'मछलियां 'कहानी के अदंरूनी जगत में तैरना पड़ेगा। यदि आप साहित्य से जुड़े हुए हैं तो ऐसी मछलियाँ आपके पास भी तैर रहीं होंगी. यदि विकेश जी आज के समय में ये कहानी लिखते तो इसमें फ़ेसबुक पर बने नित नए साहित्यिक मंचों द्वारा बांटे जा रहे मुफ़्त के डिजिटल सम्मानों व उन्हें टैग करते रचनाकारों की इठलाहट पर वह व्यंग से ज़रूर भरी होती. ये पंक्तियाँ इसी कहानी की हैं ;

''आगे आने की होड़ में सुमेर और उस जैसे लोग, मछलियों की तरह फड़फड़ा रहे हैं। साहित्य तो साधना होती है, आज तक यही सुनती चली आ रही थी लेकिन क्या आज के वक़्त में ये परिभाषा झूठी पड़ गई है ?''

स्त्री विमर्श या ऐसे ही पाठ पर अलग साहित्य के स्लेबस का निर्माण हो चुका है लेकिन इस आधी आबादी में कुछ ऐसी भी स्त्रियां हैं जो सास के घर में उसे झूठा कलंकित करके जेल भिजवा सकतीं हैं [सुरक्षा कवच] या फिर घर में हर समय कलह करके शक करके 'सिलवटें 'के नायक की तरह उसे आत्महत्या पर मजबूर कर देतीं हैं या' कीड़ा 'की बुढ़ऊ की बीवी हो. 'कीड़ा 'कहानी की बुनावट, कथ्य का ट्रीटमेंट सब कुछ अद्भुत है।

'एक और इबारत 'में मुंबई के प्लाज़ा अपार्टमेंट की सातवीं मंज़िल के फ़्लैट में छोटे शहर से आया हाथ में जाम लिये मीडिया में काम करता प्रफुल्ल है जिसकी कुंठायें उसी शहर के दोस्त के सामने बह निकलीं है, ''ज़िंदगी यहाँ इतनी व्यवहारिक हो गई है कि जब थोड़ा सा एकांत मिलता है तो अपने बारे में सोचकर ग्लानि होने लगती है। ''

'उसकी मौत 'में विदेश से घर आया सुपुत्र है जो घर की बदहाल हालत देखकर सोचता रह जाता कि उसका भेजा रुपया कहाँ चला गया ?वो सोच कैसे सकता है कि वो पैसा उसके अय्याश पिता घर की ज़रूरतें न पूरी करके बाहर उड़ाते रहे हैं।

'कुर्सी' किसी नेता की हो या ग्रहणी की कुर्सी, मोह तो मोह ही होता है। ये कहानी बड़े विद्रूप को रचती है कि वृद्धावस्था में कुर्सी पर बैठे बैठे पीठ ही क्यों न अकड़ जाए, डॉक्टर को चाहे दिखना ही क्यों न पड़े लेकिन कुर्सी ज़रुरत ही नहीं होती उससे कुछ रिश्तों के नर्म तंतु भी जुड़े होते हैं, ऊपर चले गए व्यक्ति से जुड़ने का अहसास भी होता है। ।

मैंने बहुत साहित्य नहीं पढ़ा लेकिन इन कहानियों में जो कोमलता से भरा ट्रीटमेंट है उसे पढ़कर मुझे गोविन्द मिश्र जी व नवनीत मिश्र जी की कहानियाँ याद आ रहीं हैं।

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पुस्तक [कहानी संग्रह ]--'सिलवटें '

लेखक --विकेश निझावन

प्रकाशक --प्रलेक प्रकाशन, मुंबई

मूल्य --२६० रु।

समीक्षक --   नीलम कुलश्रेष्ठ

Kneeli@rediffmail.com