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आमजन से सत्ता के गलियारों तक

नीलम कुलश्रेष्ठ

     मन में उबलते गुबार को, किसी ग़लत या सही बात की प्रतिक्रिया स्वरूप कागजों पर उतार देने के लिये गद्ध में सबसे छोटी विधा है 'लघु कथा. 'कोई ऎसा छोटा काँटा मन में चुभ गया हो, जो लेखकीय रूह को बेचैन किए रहता हो और समय ना हो कि आप उस पर कुछ लंबा लिखें तो उस बेचैनी को 'लघु कथा 'में ढाला जा सकता है लेकिन ये मत समझिए कि हर कोई जब चाहे इसे लिख सकता है क्योंकि ये एक बेहद महीन कारीगरी है. इसके केन्द्र में कोई विचार रखकर छोटी कथा लिखी जाती है. वह सफ़ल तभी होती है जब वह अंत में चरम पर पहुँचकर पाठक को भी एक झटका दे. जीवन भर लघु कथा की साधना करने वाली पवित्रा अग्रवाल पाठक के मन में समाज के ज्वलंत विषयों पर सोचने को विवश कर बिहारी के दोहो की तरह नाविक के तीर बनकर बेधने में सफ़ल रही है अपने प्रथम लघु कथा संग्रह 'आँगन से राजपथ 'में. 

       मै आज तक विजय तेंडुलकर की लघु कथा 'कुर्सी 'का मराठी से हिन्दी अनुवाद जिसमे नेताओं की पद लोलुपता पर तीखा व्यंग है व खलील जिब्रान की विश्व से सबसे छोटी लघु कथा 'भूत 'आज तक नहीं भूल पाई. यही है सशक्त लघु कथा की संप्रेषणनीयता भारत में जिस तरह कुछ लघुकथाकारों ने इसे प्रतिष्ठा दिलवाई है, बताने की आवश्यकता नहीं है. इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखने वाले कंबोज जी ने इस पुस्तक का बहुत सटीक शीर्षक दिया है 'आँगन से राजपथ'. पवित्रा का सजग ग्रहणीनुमा व्यक्तितव इस संकलन में छाया हुआ है, जो घर ही नहीं सम्भलाती, घर के हर संबंधों को, घर के नौकरों से संबंधों को, समाज के अन्य अंगों से इसके जुड़ाव को तौलती चलती है. लेकिन साथ ही साथ अपनी तीखी दृष्टि से नेताओं, प्रशासन, महिला व्यापारियों व गणतंत्र के चौथे खम्बे मीडिया पर भी कटाक्ष करती चलती है. 

      पवित्रा ने अपनी पहली 'लघु कथा ' में दर्शा दिया है कि व्यक्ति के अपने परिवार से किसी से सम्बन्ध अनुसार 'शुभ -अशुभ 'का मायने बदल जाता है.. उधर दूसरी ' उलाहना 'में वह् तेज़ बहू की बात बताती है जिसकी 'चित भी मेरी व पट भी मेरी' [वास्तु शस्त्र का मखौल उड़ाती इस शीर्षक की लघु कथा भी है इस संग्रह में ] होती है. यदि सास तेज़ हो तो ये बात उस पर भी लागू हो सकती है. इन्ही रिश्तों व ननद  व पति पत्‍‌नी की नोंक झोंक है अनेक लघु कथाओं में जैसे, 'कथनी -करनी ', 'तूने क्या दिया ', 'अशुभ दिन ', 'प्यार पर प्रश्नचिन्ह ', 'दखल ', 'झापड़', में. 'गैरों की तरह ' लघु कथा से इन संबंधो की एक बात पर कटाक्ष किया जाता है कि ''माँ 'व 'सास' से सच ही किसी भी स्त्री के अलग तरह से भावनात्मक रिश्ता होता है. 

          मेरे ख़्याल से ऐसी कोई लेखिका नहीं होगी जिन्होंने घरेलू सहायक अपनी बाइयो पर कुछ ना लिखा हो क्योंकि यही वो खिड़की होती है जिनसे ये लेखिकाये निम्न वर्ग की मनसिकता व जीवन समझ सकती हैं.. आश्चर्य ये है कि पवित्रा ने अपनी लघु कथाओं के माध्यम से व्रह्द स्त्री विमर्श की बात अभिव्यक्त की है जैसे 'दबंग 'की बाई अपने पति को घुड़क कर बच्चों को उसके पास छोड़कर काम पर जाती है. 'जागरूकता 'में बाईं की बेटियां टी वी देखकर पढ़ने की मांग करती नजर आती हैं. 'काहे का मर्द ''की बाईं पति छोड़ने का साहस रखती है. 'मजबूरी 'की मालकिन बाईं की जाति को भी अनदेखा कर देती है. 'छूत के डर से 'व 'झटका 'में बाई पैसे के चक्कर में छूत नहीं लगाना चाहती.  

       पवित्रा ने संग्रह की अपनी भूमिका में लिखा है कि उनका जन्म व्यर्थ के आडम्बरों से दूर् एक आर्य समाजी परिवार में हुआ था. इसी बात को दर्शाती है उनकी लघु कथाये ' जेल की रोटी ', 'शुभ दिन, 'अशुभ दिन ''लक्ष्मी ', बैठी लक्ष्मी ', 'वास्तुदोश 'इसी बात को प्रमाणित करती है. इनमें अंधविश्वास पर गहरी चोट है. यदि भारत के लोग ऎसे ही आँख खोलकर धर्म का पोस्ट मार्तम कर ले तो आसाराम व राधे माँ जैसे लोग अपनी अंधविश्वास की रोटिया तो ना सेक पाये. 

        इस संग्रह की दो लघु कथा 'पर -उपदेश '. व फ़िजूल खर्ची 'पवित्रा के हिन्दी प्रेम को भी दर्शाता है व हिन्दी समाचार पत्रों की ओर आम जनता की मानसिकता द्वारा उनकी दुर्दशा की तरफ भी इशारा करती है व मुझे भी एक हिन्दी दैनिक के संपादक की बात याद आ गई जिन्होंने कहा था, ''जब हिन्दी भाषी ही हिन्दी अखबार नहीं खरींदेंगे तो और कौन खरीदेगा ?'' 

       उस समय गैर विदेशी निदेशक व शिल्पा शेट्टी का दूरदर्शन पर चुंबन बहुत चर्चा में रहा या कि टी आर पी बढ़ाने के लिये उसे बार बार दिखाकर चर्चित बनाया गया था. बाद में शिल्पा ने स्व्यं स्वीकारा था कि वे कुछ ऎसा करना चाहते थे कि लोग गैर के भारत आने को ना भूल पाये. इसी घटना का विश्लेषण किया है दो लघु कथाओं 'बवाल कयों? 'व टी आर पी का चक्कर' में. मुझे लेखिका की बार बालाओं व सड़क पर साँप का तमाशा दिखाने वाले सपेरो से सहानुभूति बहुत अच्छे लगी क्योंकि सभी जानते है कि मुंबई की बार बालाओं के परिवार इनकी कमाई से चलाते थे. आज टी वी व फ़िल्मों में लोग घर पर बैठकर भड़काऊ डांस देख् रहे है तो इनका धन्धा बंद करने का औचित्य क्या है जबकि मुंबई का 'कामाठीपुरा 'हो या कोलकत्ता का' सोना गाछी 'वहा इससे भी आगे का धन्धा ज़ोर शोर से चल रहा है. ऎसे ही कोल सेंटर हो या रात्रि की शिफ्ट मे काम करने वाला कोई दूसरे व्यवसाय, इन्हें अययाशी का अड्डा बताने वालों का नज़रिया ही बदल जाता है जब अपनी बेटियां यहा काम करने लगती हैं.  

       अकसर किसी मरीज़ के मरने पर डॉक्टर्स की पिटाई कर दी जाती है. इस घटना के दोनों पहलूओं को दिखाया है दो लघु कथा के माध्यम से. एक दिलचस्प व्यंग है फतवा जारी करने पर 'एक और फतवा ''या मुस्लिम परिवारों में मशीन की तरह बच्चा पैदा करते रहते हैं व कठमुल्ला लोग कहते है, 'जचगी के समय किसी स्त्री की मौत हो जाए तो उसे जन्नत मिलती है. ' इन क्रूर अंधविश्वासों से समाज को निकालने का प्रयास निसंदेह प्रशंसनीय है. 

        'लोकतंत्र ' जैसी लघु कथाये राजपथ पर टहल कर वहां के भ्रष्टाचार का जायज़ा कराती हैं. ' 'लोकतंत्र ' शब्द को पढ़कर आपको लालू यादव याद आयेंगे, वहां का चारा कांड याद आएगा. पुलिस विभाग व राजनीति की क्या छवि एक लड़की के दिल में है ये 'करेला और नीम चढ़ा 'से जाना जा सकता है. 

     राष्ट्र गीत व राष्ट्र गान के अंतर को कितने लोग समझते हैं यहाँ तक कि हैं राष्ट्र की सरकार पर पालने वाले नेता भी क्या इस अन्तर को जानते हैं ?या पॉल्यूशन चेक करने वाला भी ट्रेफ़िक पुलिस कर्मचारी भी सही लोगो को पकड़ता है ?या देश में भ्रष्टाचार बढ़ाते खुले घूमते लोगो की तरह पर्यावरण दूषित करता पेट्रोल का धुँआ उड़ाता घूमता रहता है? ये ऎसे प्रश्न है जिनसे आम आदमी टकराता ही रहता है व वो गणित भी समझता रह्ता है कि किसको किसी भव्य कार्यक्रम कि अध्यक्षता करने बुलाया जा रहा है व बुलाने वाले का कौन सा स्वार्थ पूरा हो रहा है ? जैसे कि 'दूरदर्शी के सर इस बार अपने कार्यक्रम में दान लेने के लिये किसे व्यापारी को नहीं बुला रहे. बच्चे का किसी स्कूल में दाखिला होना है तो उसी के प्रिंसीपल को आमंत्रित कर रहे हैं. 

     इन सबके बीच शहर के मेयर भी कम नहीं है जिनका ड्राइवर ट्रेफ़िक रूल तोड़ता है और वे उसी पर चिल्लाते हैं, ''तुम मेरा नाम लेकर इन्हें डरा रहे हो ?अपनी जेब से सौ रुपये का जुर्माना दो. '' 

        यही है पवित्रा के 'आँगन से राजपथ 'तक पहुँचने की जोड़ तोड़, जिसके रास्ते पूरा करने के लिये मीडिया को मुर्गा खिलना पड़ता है, दारू के नशे उसे डुबोना पड़ता है तब कही 'जुगाड़ ' होता है. बीच में इसी जुगाड़ से 'रानी झाँसी अवॉर्ड 'लेना हो तो एक हज़ार रुपये दीजिये या किसी व्यवसायी महिला को निम्न वर्ग की महिलाओं से अपना व्यवसाय चलवाते हुए समाज सेविका का पुरस्कार लेते देखिये. 

      इन लघु कथाओं में एक कमी खटकती है कि इनकी प्रस्तुति के कलात्मक पक्ष की तरफ़ ध्यान नहीं दिया गया, जैसी की तैसी संवादों के साथ पाठकों के आगे रख दी गई है व 'इतना भारी ?', दारू की खातिर ', तरीका ग़लत 'व 'बेईमान कौन ? 'जैसे शीर्षक सिर्फ़ किस्सगोई बनकर रह गए हैं. लेकिन ये हो ही जाता है कि कब लघुकथा सरक कर किस्सागोई की सीमा में पहुँच जाए ये पता ही नहीं चलता. इन सब विविध विषयों, जिनसे लेखिका की पैनी नज़र का कायल होना पड़ता है, को देखकर 'बेचारा रावण 'भी हैरान है कि इस हैवानों की दुनियाँ में मुझे ही क्यों हर वर्ष जलाया जाता है ?

     पुस्तक समीक्षा ; आँगन से राजपथ 

      [लघुकथा संग्रह ]

   लेखिका ;पवित्रा अग्रवाल 

   प्रकाशक ;अयन प्रकाशन. नई दिल्ली

   मूल्य ;220 रुपये

   समीक्षक -- नीलम कुलश्रेष्ठe

  e-mail-kneeli@rediffmail. com

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