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घुटन - भाग ५

दूसरे शहर में जाने के बाद भी रागिनी की माँ अपनी बेटी की चिंता करती रहती थीं। इसी तनाव में दिन पर दिन वह कमज़ोर होती जा रही थीं। अपनी बेटी के कुंवारी माँ बनने के आघात के कारण वह ख़ुद को संभाल ही नहीं पाईं और कुछ ही हफ़्तों में हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गई।

इतना बड़ा दर्द सहन करने की ताकत रागिनी में नहीं थी। वह मर जाना चाहती थी पर इस सब के बाद भी ज़िंदा रहने के लिए अब उसके पास दो कारण थे। एक तो उसके पिता जिनका इस दुनिया में उसके अलावा और कोई ना था और दूसरा वीर का दिया अंश जो एक बीज के रूप में उसके गर्भ में अंकुरित हो रहा था। उस आख़िरी मुलाकात के समय रागिनी भी कहाँ जानती थी कि वह वीर के बच्चे की माँ बनने वाली है। यदि जानती तब भी उसकी बेवफाई देख कर उसे कभी नहीं बताती।

उधर वीर प्रताप अपनी सामान्य ज़िंदगी जी रहा था लेकिन रागिनी के साथ किए व्यवहार का एक कांटा तो उसके मन में था जो कभी ना कभी उसके दिल को भेदता ज़रूर था और कभी-कभी उस कांटे के चुभने का उसे दर्द भी होता था; लेकिन जो सुख, ऐशो आराम, सम्मान रुक्मणी से विवाह करने पर उसे मिला वह सब कुछ रागिनी के साथ उसे कभी नहीं मिल पाता।

उधर रागिनी को गर्भावस्था के इस कठिन समय में भी यदि किसी का सहारा था तो वह थे उसके पिता उमा शंकर, जिन्होंने हमेशा उसके प्यार का सम्मान किया। वह रागिनी की दुविधा समझ रहे थे उन्होंने उसे अपने पास बुला कर बिठाया और उसके सर पर हाथ फिराते हुए कहा, "रागिनी बेटा किसी भी बात की चिंता मत करना, मैं तुम्हारे साथ हूँ और मैं अपनी बेटी को अच्छी तरह जानता हूँ बस तुम अपना ख़्याल रखना। चलो चल कर डॉक्टर को दिखा कर आते हैं।"

रागिनी अपने पिता की बाँहों से लिपट गई और कहा, "थैंक यू पापा।" 

देखते-देखते नौ माह गुजर गए और रागिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया। वह बिन ब्याही माँ बन गई लेकिन वह कभी भी इसके लिए शर्मिंदा नहीं हुई। उसे तो अपने प्यार पर गर्व था। उसने जो भी किया निष्ठा के साथ, विश्वास के कारण, प्यार के कारण। उसके प्यार में ना छल था ना कपट था ना धोखा था और ना ही किसी तरह का स्वार्थ था। उसने तो अपना तन-मन सब कुछ वीर पर न्यौछावर कर दिया था।

रागिनी ने अपने बेटे का नाम रागिनी गुंजन की ही तरह तिलक गुंजन रखा। उसके नाम के पीछे उसके पिता के नाम का संबोधन बिल्कुल नहीं था। रागिनी ने अपने बेटे की परवरिश इस तरह से की जैसे एक शेरनी बच्चे को जन्म देती है और अपने संरक्षण में उसके पिता से छुपा कर उसे पालती है। तिलक जैसे-जैसे बड़ा हो रहा था वैसे-वैसे ही रागिनी उसे अपने जीवन की अपने भूतकाल की कहानी एक नाटक के रूप में सुनाया करती थी। तिलक कहानी की नायिका के प्रति बहुत ही विनम्र था। नायक के लिए वह अपनी माँ से प्रश्न करता, "माँ कहानी के नायक ने ऐसा क्यों किया ?" 

रागिनी कहती, "बेटा कहानी के नायक के मन में लालच ने जन्म ले लिया था। मन की सुंदरता से ज्यादा उसे तन की सुंदरता अच्छी लगने लगी थी।"

इस कहानी को सुनाते समय कई बार रागिनी की आँखें आँसुओं से डबडबा जाती थीं। आवाज़ आँसुओं को अंदर ही अंदर रोकने के कारण रुआंसी सी हो रुंध जाती थीं।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

क्रमशः

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