जीवन के टेढ़े मेढ़े रास्ते पार करता :स्त्री सशक्तिकरण Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

जीवन के टेढ़े मेढ़े रास्ते पार करता :स्त्री सशक्तिकरण

समीक्षा

लाइफ @ ट्विस्ट एण्ड टर्न .कॉम -जीवन के टेढ़े मेढ़े रास्ते पार करता :स्त्री सशक्तिकरण

डॉ. आशा सिंह सिकरवार, अहमदाबाद 

''लाइफ़ @ ट्विस्ट एण्ड टर्न . कॉम " साझा उपन्यास का आवरण चित्र बहुत कुछ कहता है जिस पर स्त्री की तस्वीर अंकित है जिसकी एक आँख खुली है और एक आँख बंद । इसका अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति पर आँख बंद करके भरोसा नहीं करना चाहिए, एक आँख खुली रखनी चाहिए ।

डिजिटल साझा उपन्यास में डॉ .सुधा श्रीवास्तव, डॉ. प्रणव भारती, नीलम कुलश्रेष्ठ, मधु सोसी गुप्ता, डॉ. मीरा राम निवास, और निशा चन्द्रा आदि लेखिकाओं ने सहभागिता की है ।
उपन्यास का कथानक रूपरेखा और संयोजन नीलम कुलश्रेष्ठ का है

   स्त्री प्रेम के चंद शब्द सुनकर पुरुष के पीछे पीछे चल पड़ती है । न आगे सोचती है न पीछे का सुनती है । नतीजतन छल और विश्वासघात का शिकार हो जाती है । अनेक बार स्त्री सदमे में चली जाती है,वह छले जाने की पीड़ा सह नहीं पाती है। डिप्रेशन जैसी जानलेवा बीमारी की शिकार हो जाती है ।

   पुरुष आगे बढ़ जाता है परन्तु स्त्री अपनी जगह से नहीं छूट पाती । इसका मतलब स्त्री का ह्रदय आज भी निश्छल प्रेम से भरा है । इसके पीछे भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था है जिसने पुरुष के लिए विकल्प बनाए हैं और स्त्री के लिए नहीं । इस अर्थ में स्त्री -पुरुष की तुलना में अधिक संवेदनशील है, इसलिए उसे अपनी संवेदनशील प्रकृति की सुरक्षा स्वयं करनी होगी और अपनी आँख हमेशा खुली रखनी होगी ताकि छली न जाए ।

उपन्यास के नाम लाइफ़ @ ट्विस्ट से ही ज्ञात होता है कि किसी खास घटना का संकेत है,जिसके घटने से पूरा जीवन ही बदल गया है । जिदंगी में एक ऐसा मोड़ आया है जिसमें जीवन और मृत्यु का प्रश्न खड़ा हो गया ।

उपन्यास की कथावस्तु एक ऐसी स्त्री की कथा है जिसे प्रेम में धोखा मिलने की वजह से मन मस्तिष्क दुख में डूब गया है । विषाद में डूबे ह्रदय को उपन्यास की करुण कथा का विषय बनाया है । आज तकनीकी युग में, भौतिक सुख सुविधाओं में शिक्षा और मूल्यों का ह्रास हुआ है । नयी पीढ़ी का युवक भी उतना ही असंवेदनशील है जितना पिछली पीढ़ी का पुरुष । आधुनिक जीवन शैली ने नयी पीढ़ी की संवेदनशीलता छीन ली है । फ़ैशन में रची बसी यह पीढ़ी प्रेम को भी फ़ैशन की तरह ही जीवन का हिस्सा मान कर जी रही है । वह किसी अन्य के दुख के लिए स्वयं को उत्तरदायी नहीं समझती है ।

 आधुनिक शैली में लिखा गया इस उपन्यास में तीन पीढ़ियों की स्त्रियों की उपस्थिति और साझा अनुभव का एक मुकम्मल पोथा है । नयी पीढ़ी को केंद्र में रखकर लिखा गया यह उपन्यास गंभीर समस्याओं और सवालों के जवाब की खोज में जब निकलता है तब वर्तमान जीवन की,ना कि खुद को बोल्ड कहने वाली अत्याधुनिक नयी पीढ़ी की खोखले,दंभी व्यवहार की पोल खुल जाती है । आधुनिक दिखने की दौड़ में जीवन मूल्यों में पिछड़े गए हैं ।

उपन्यास मुख्य कथा के साथ छोटी - छोटी प्रासंगिक कथाएँ भी साथ -साथ चलती हैं । दामिनी, कावेरी और मीशा तीन पीढ़ियों का जो जिंदगी से टकराव है। जिसमें पहली पीढ़ी दामिनी समझदार और सकारात्मक दृष्टि लेकर नयी पीढ़ी से अपना ताल मेल बिठाने में सफ़ल होती है, जबकि कावेरी पति के रहते और मृत्यु के बाद भी यातना में पिसती है ।शंकी पुरुष चाहे जितनी सुख सुविधा अपनी पत्नी को दे दे, परंतु वह कभी भी प्रेम नहीं दे सकता है । वैवाहिक संबंध प्रेम और विश्वास की नींव पर खड़ा है।

इसमें शंका की कोई गुंजाइश नहीं है । यह संबंध स्त्री पर एक तरफा बोझ की तरह आ गिरा है । पुरुष भौतिक सुख देने के बावजूद भी स्त्री का आत्मिक पक्ष जीत नहीं पाया है इसके पीछे अकारण शंकाओं की भूमिका रही है ।प्रेमी की उपस्थिति गौण है फिर भी कावेरी को अधेड़ उम्र में भी दंश झेलने पड़ते हैं । दंश देकर पुरुष स्त्री से प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है ?

आज कल सोशल साइट्स पर तीव्रतर नयी पीढ़ी सक्रिय हो गई है । रेशमी पर्दों की सच्चाई ने एक भटकाव को जन्म दिया है । नयी पीढ़ी की स्त्री मीशा अपने कालेज में एक युवक के रहन- सहन से आकर्षित होकर प्रेम में पड़ जाती है कुछ दिनों में ही उसे धोखे का अहसास हो जाता है। इस प्रेम संबंध विच्छेद के कारण मीशा के मन - मस्तिष्क पर गहरा असर पड़ता है । यदि प्रेम होता तो वह छोड़ कर क्यों जाता ? यह समझने के लिए वह ज़हनी तौर पर तैयार नहीं होती ।

स्त्री-पुरुष के बीच जो प्राकृतिक अन्तर है अर्थात् स्त्री स्वभाव जुड़ने का निमित्त बनता है जबकि पुरुष की प्रकृति इस जुड़ाव को एकदम से खारिज कर देती है और वह जब चाहे तब निर्णायक भूमिका में दिखाई देता है ।

जैसे जैसे शिक्षा और समाज का विकास हुआ पुरुष से स्त्री की मूल्यगत अपेक्षाएँ बढ़ी हैं । स्त्री-पुरुष के बीच जो संवेदनात्मक अन्तर था उस खाई को पाटने का कार्य नयी पीढ़ी के हिस्से में था दोनों को ही प्रेम को स्वीकार कर समाज का नव निर्माण करना था पर ऐसा नहीं हो पाया । यह उपन्यास युगों से चली आ रही स्त्री की पीड़ा का अंकन है ।

आज की युवा पीढ़ी रहन सहन को महत्व देती है पर वास्तविक जीवन और स्थितियों को समझती नहीं है, इस पीढ़ी को प्रेम का अर्थ ही नहीं मालूम, इसलिए बाजारवाद ने बाॅय फेंड और गर्ल फ्रेंड वाले खेल में नयी पीढ़ी बर्बादी की कगार पर है । इससे समाज में जिन समस्याओं को जन्म दिया है - डिप्रेशन, आत्महत्या, अकेलापन, भटकाव आदी हैं । उपन्यास में बखूबी इन समस्याओं को अंकित किया गया है ।

उपन्यास में अत्यधिक पात्रों की भरमार के कारण कथावस्तु में बिखराव मिलता है । एक के बाद एक घटनाएँ निरंतर घटित होती हैं । जिसके कारण मुख्य कथा का विकास जितना होना चाहिए था उसमें बाधा उत्पन्न हुई है । जिसके पीछे एक कारण मुझे यह भी लगता है कि चार मस्तिष्कों से एक कथावस्तु पर कार्य करना कतई आसान नहीं रहा होगा । एक लेखिका द्वारा यदि लिखा जाता तो चिंतन की भावभूमि अधिक संवेदनात्मक और मुखर होती है ।

फिर इसमें भी एक भय यह काम करता है कि नयी पीढ़ी पर अपने विचार थोपने का आरोप भी बना रहता,इसलिए यह मानकर चलते हैं कि छ:लेखिकाओं द्वारा लिखा गया यह उपन्यास नयी पीढ़ी के लिए अमूल्य निधि साबित होगी। जिस पीढ़ी ने बल्कि देखा ही नहीं भोगा भी है देश और दुनिया के अपने अनुभव को नयी पीढ़ी के साझा भी किए हैं ।

'' ये कैसा इश्क है अजब सा रिस्क है '' मीशा गीत गा तो रही है परंतु इस गीत के बोल को महसूस नहीं कर रही है । गीत गाते हुए एक आधी नयी पीढ़ी रिस्क (खतरा)उठा रही है क्यों कि वह प्रेम को भी कपड़े की तरह नित नए पहर रही है ।

आज कालेजों में लड़कियाँ प्रेम में पड़ने से पहले सुरक्षा नहीं देखती हैं और अपने जीवन को खतरे में डाल लेती हैं ।

नयी पीढ़ी इतनी जल्दी डिप्रेशन का शिकार हो रही है कि उसके पास सोचने समझने का वक्त नहीं है । दामिनी और कावेरी दोनों मीशा को डिप्रेशन में संभाल रही हैं । स्त्री ही स्त्री को समझती है यहाँ सार्थक प्रतीत होता है ।

नीरा जैसी सशक्त स्त्री सामने आती है जो महिला सशक्तिकरण की बात ही नहीं करती बल्कि महिला सुरक्षा में के लिए जागृति फैलाने में सक्रिय भूमिका निभा रही है । यहाँ प्रश्न यह खड़ा होता है कि देह की सुरक्षा स्त्री को मिल भी जाए तब भी समाज में स्त्री को मानसिक सुरक्षा कैसे प्राप्त होगी ? आज एक तरफ स्त्री के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया जा रहा है वहीं स्त्री को मानसिक क्षति पहुंचाई जा रही है ।

     पति के रहते असुरक्षा का भार ढोती स्त्री की सुरक्षा का भार कौन उठाएगा ? जिस समाज में स्त्री जी रही है वहाँ उसे हर कदम पर अपमान सहना पड़ता है, पति द्वारा आशंकाओं पर जलील होना पड़ता है वह कुछ नहीं कहती है, कहे भी तो क्या ? विवाह के बीस इक्कीस साल बाद भी पति पत्नी पर शक करे,ठीक विवाह की वर्षगांठ पर कावेरी का ह्रदय इस चोट को सह जाती है बच्चों की ख़ातिर ।

     इतना ही नहीं पति की मृत्यु के बाद समाज एक विधवा स्त्री के साथ कैसा सलूक करता है ? सभी आधुनिक परिवेश में जीते अवश्य हैं पर आज भी शादी- विवाह या धार्मिक कार्यों में विधवा स्त्री के साथ अछूत जैसा व्यवहार किया जाता है । इस उपन्यास में सामाजिक मूलभूत समस्याओं पर जोर दिया गया है । संदर्भ-

"कितना भी औरत अपने को मजबूत बनाए लेकिन उसके आस पास की दुनिया कितनी क्रूरता से याद दिलाती रहती है कि तुम्हारा पति क्या गया तुम अशुभ हो गईं ।''
जहाँ भी कथा में संवाद हुए हैं वे सार्थक बन पड़े हैं -

''आज सबसे बड़ा मसला उसकी अस्मिता और हिफाज़त का है ।घर और बाहर दोनों ही जगह उसके अस्तित्व को ललकारा जाता है । स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई जाती है इसलिए उनकी सुरक्षा व भावात्मक सहायता के लिए कुछ न कुछ करते रहना चाहिए ''

पुरुष मानसिकता में बदलाव की दरकार करता यह उपन्यास स्त्री पर पड़ रही चोट को लगातार इंगित करता चलता है । रोजमर्रा के जीवन में स्त्री छोटे - छोटे दंश सहती हुई भीतर से टूट रही है । बाजारवाद से ढंके समाज को अंदेशा तक नहीं मिल पाता है और स्त्री आत्म हत्या तक पहुँच जाती है ।
तरक्की पाने के मोह में दूसरी तरफ एक ऐसा भी पुरुष है जो शिक्षित स्त्री को अपने बाॅस के पास भेजने में हिचकिचाता नहीं है । दो मोर्चे पर संधर्ष कर रही स्त्री भी उपन्यास में हताश दिखाई पड़ती है सशक्तिकरण के सभी शब्द खोखले दिखाई पड़ते हैं ।

स्त्री क्या सोचती है ? क्या समझती है ? उसे फर्क नहीं पड़ता है। परिणाम स्वरुप जबरन अपने फैसले को थोपता है, जिसके कारण वह आत्महत्या कर लेती है ।लेखिका ने इस घटना को भी उपन्यास में एक प्रेरक संदेश की तरह स्त्री के स्वाभिमान की रक्षा हेतु चित्रित किया है ।

लिंग भेद की समस्या आज भी यथावत है आज भी परंपराओं में दबी कुचली स्त्रियाँ हर घर में मौजूद है । जहाँ बेटी पैदा करने पर घर में उदासी का माहौल देखने मिलता है अथवा ताने, दंशों से छलनी कर दिया जाता है ।

इसमें पितृपक्ष की भूमिका संदेह में है एक संवाद जो समाज की मानसिकता उजागर करता है पिता का यह कहना-

"समझा-बुझाकर आया हूँ अब सब ठीक है गलती तो हमारी ही बेटी की थी सास को उल्टा जवाब दे रही थी इसलिए उसे घर से बाहर निकाल दिया ।''

असुरक्षा का भाव स्त्री के भीतर इतना घर कर गया है कि तकलीफ़ होने पर वह किसी से कुछ नहीं कहती है । चुपचाप सह जाती है पूरा की पूरा सशक्तिकरण एक ओर रखा रह जाता है जब पितागृह से कोई साथ खड़ा नहीं होता है ।बाहर से चमकदार दिखने वाले समाज की खोह भीतर से सड़ी है जिसमें स्त्री निरन्तर संघर्ष कर रही है ।

दामिनी, यामिनी, कामिनी तीन बहनों के घर परिवार में आत्मीयता एवं सुख-दुख के बीच रची बसी उपन्यास की कथा व्यापक फलक पर समकालीन समस्याओं से जुझती है बल्कि उपाय भी खोज लेती है इस अर्थ में नई है ।

शुरुआत में जहाँ प्रिशा जैसी बोल्ड पत्रकार का परिचय मिलता है जो सेनेटरी नैपकिन पर लेख लिखकर कई पुरस्कार जीत लेती है और समाज में सशक्तिकरण का उदाहरण प्रस्तुत करती है । स्त्री पत्रकारिता कितना कठिन कार्य है ? इसका भी संकेत मिलता है । उपन्यास देह की सुरक्षा से शुरु होता है और अंत तक आते -आते मन की सुरक्षा का प्रश्न पर टिक जाता है ।

सबसे दुखद घटना थी कि डिप्रेशन से बाहर आने के लिए डाक्टर, दवा, योग,गीत, संगीत नृत्य, मोटीवेशन लोगों के पास से गुजरते हुए लेखिका ने एक परिपक्व सोच को छुआ कि मीशा विषाद से नहीं निकल पा रही है क्यों कि वह हिस्टीरिया जैसी बीमारी की भी शिकार हो गई है । यहाँ लेखिकाएं सीधे सीधे समाज की रूढ़ियों और परंपरावादी सोच को आईना दिखा देती है ।

उपन्यास में पात्रों की संख्या यह बताती है कि रिश्तों नातों के नाम पर हमारे पास एक लम्बी फेहरिशत है पर भाई बहन ही खुल कर आपस में बात नहीं कर पा रहे हैं । परिवार को मालूम नहीं है कि एक मासूम बच्ची प्रेम के नाम पर कितनी यातना भोग रही है ।स्त्री पात्र सभी विश्वसनीय हैं । एक दूसरे से गहरा जुड़ाव भी देखने मिलता है ।

विकल्पहीनता के दौर में स्त्री अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किस तरह स्वयं को तैयार करती है यह भी एक बहुत बड़ा प्रश्न है ? उपन्यास में चारों तरफ़ सतर्क दृष्टि कार्य करती है ।

    एक परिपक्व निर्णय के साथ उपन्यास में सकारत्मक दृष्टि के साथ किस तरह अंत होता है यह जानने के लिए पाठक वर्ग उपन्यास की खोज में निकलेगा,उसे रोचकता में एक जिंदगी का मूल्यांकन अवश्य प्राप्त होगा ।

उपन्यास में मनोवैज्ञानिक से वैज्ञानिक तथ्यों तक पहुंच नामात्र मानसिक या काल्पनिक भटकाव न होकर यथार्थ की जमीन पर बुनियादी समस्याओं से जुझना ही लेखन का उद्देश्य स्पष्ट कर दिया गया । उपन्यास की भाषा शैली अपने आधुनिक होने के कारण अपने परिवेश को दिखाने में सक्षम है ।

     अतः हम कह सकते हैं कि आज भी स्त्री जीवन कठिन है सबसे ज्यादा नयी पीढ़ी के सामने डिप्रेशन का खतरा खड़ा है । देह और मन दोनों ही स्तर पर स्त्री संघर्षरत है । स्त्री अपने आप से जो अंदरूनी लड़ाइयाँ लड़ रही है जिसका एक दृश्य समाज के समक्ष प्रस्तुत हुआ है जिसमें वह एक दम अकेली है । उपन्यास का उद्देश्य सटीक और सार्थक है । मन-मस्तिष्क के बीच संतुलन बनाकर नयी पीढ़ी (स्त्रियाँ) जिंदगी में सक्रिय भूमिका निभाएंगी और परिपक्व दृष्टि के साथ संपूर्ण आत्मनिर्भर बनेंगी, हमें भविष्य के प्रति आश्वस्त करेंगी एवं इस उम्मीद के साथ इस उपन्यास की समीक्षा पाठकों के हाथों में सौंप रही हूँ । सभी लेखिकाओं को हार्दिक शुभकामनाएं एवं अभिनन्दन । एक महत्वपूर्ण विषय को उपन्यास की विषयवस्तु के रूप में चयन किया ।
-------------------------------------------------------------------------------------------

पुस्तक -- लाइफ़ @ट्विस्ट एन्ड टर्न कॉम  [साझा उपन्यास ]

लेखिकायें ---डॉ .सुधा श्रीवास्तव,डॉ . प्रणव भारती,नीलम कुलश्रेष्ठ, मधु सोसी,डॉ . मीरा रामनिवास,निशा चंद्रा

समीक्षक -- डॉ . आशा सिंह सिकरवार,अहमदाबाद, ( संपादक-कंट्री आफ इंडिया समाचार पत्र,लखनऊ)
7802936217
प्रकाशक --- वनिका पब्लिकेशंस, देल्ही

मूल्य-200