स्त्री भावनाओं को मूर्त करते अनूठे प्रतीक Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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स्त्री भावनाओं को मूर्त करते अनूठे प्रतीक

[ गुजरात की व कुछ अन्य कवयित्रियों का काव्य संग्रह ]

डॉ. रेनू यादव

घर घर होता है फिर भी स्त्रियों के लिए घर एक सपना क्यों होता है ? क्यों उसे अपने ही घर की देहरी लाँघने की जरूरत पड़ती है ? क्यों वह कोख को लेकर चिंताग्रस्त रहती है ? तथा क्यों उसे अपने सपने भी बेड़ियों में जकड़े नज़र आते हैं ? इन्हीं सवालों के जबाव ढूँढने घर की देहरी लाँघकर निकली है स्त्री क़लम । नीलम कुलश्रेष्ठ जी के संपादन में निकलने वाली पुस्तक ‘घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम’ काव्य-संग्रह में 70 कविताएँ संकलित हैं । यह पुस्तक सन् 2019 में वनिका पब्लिकेशन से प्रकाशित हुई है । नीलम कुलश्रेष्ठ रसायन विज्ञान में एम.एस.सी करने के बावजूद भी हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट योगदान दे रही हैं । ‘ज़िन्दगी की तनी डोर : ये स्त्रियाँ’, ‘परत दर परत स्त्री’, ‘स्त्री-पीड़ा के शोध की रिले रेस’ (स्त्री-विमर्शी पुस्तकें), ‘हैवनली हैल’, ‘शेर के पिंजरे में’, ‘चाँद आज भी बहुत दूर हैं’ (कहानी-संग्रह), ‘दहशत’ (उपन्यास) प्रकाशित कृत्तियाँ हैं ।

‘घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम’ संग्रह को तीन भागों में विभाजित किया गया है - खंड – 1 घर, देहरी व कोख, खंड – 2 घर व बाहर, खंड – 3 सायबर फैमिनिज़्म

इस संग्रह में समस्त कविताओं के अध्ययन के फलस्वरूप निम्नलिखित बिन्दू सामने आते हैं – घर, कोख, सपने वर्चस्ववादी सत्ता का दवाब, विरोध तथा स्त्री-पीड़ा के अनेक रूप ।

1. घर

स्त्रियों के लिए घर एक आभासी जगह है, जहाँ उसे स्वयं को स्थापित करने के लिए पूरी ज़िन्दगी संघर्ष करना पड़ता है । वह घर में अथवा घर बनाने की चाहत में एक ही समय स्थापित और विस्थापित समानांतर रूप से होती है । उसे बचपन से ही इस प्रकार संस्कारित किया जाता है कि जो उसका है यानी मायका अथवा पीहर, उस घर में वह परायी है तथा जो उसका नहीं है यानी ससुराल, वह घर उसका अपना है और ससुराल जाने के पश्चात् उसे सबसे पहले ताना इसी बात का मिलता है कि वह दूसरे घर से आयी है । अर्थात् होने और न होने के बीच अपने अस्तित्व को संभावित घर के स्तम्भ से खुद को बाँधकर अपना होना साबित करने के जद्दोजहद में वह पूरे जीवन असुरक्षा की भावना से ग्रसित रहती है । डॉ. नलिनी पुरोहित की कविता में घर भावनाओं से बना है –

“तुमने घर बनाया / ईंट का / मैंने घर बनाया / मन का / ईंटे टूटती गयीं / तुम बदलते रहे / मैं अपनी ईंटें /कहाँ से लाऊँ” ?

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. – 27. वनिका पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली. सं. प्रथम, 2019.

निर्झरी मेहता ‘घर के भीतर बसे छाँव के गाँव’ के रूप में आधी आबादी को संबोधित करती हैं, अपर्णा भटनागर के लिए ‘औरत और घर’ नामक कविता में घर पुरूष द्वारा सुनहरे सपने सजाये जाने का एक माध्यम है, वन्दना भट्ट ने औरत की कोख का प्रतिबिम्ब, सास बहू की साँझी कोख तथा पीढ़ी आगे बढ़ाने का एक साँझे साधन के रूप में घर को देखती हैं । मल्लिका मुखर्जी कहती हैं कि उन्होंने बचपन से ही घर का सपना देखा था और जब घर बनाने लगी तब सपने कई कई बार टूटे और अंत में वे कहती हैं –

“‘घर का सपना’ और

‘सपनों का घर’ के बीच का फ़र्क

जब समझ में आया,

बुढ़ापे ने हाथ बढ़ा दिये”

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 30

डॉ. नलिनी पुरोहित के अनुसार घर में स्त्री होती अवश्य है लेकिन वह पुरूष की साँसें, निगाहें, पदचाप, मौन, अहम, आवाज़ को ओढ़े रखती है । रेनु सक्सेना पति और बच्चों से ही घर का अस्तित्व मानती हैं । मंजु महिमा घर में स्त्री को बोनसाई के रूप में परिवर्तित होते हुए देखती हैं । डॉ. सुषमा सेन गुप्ता उस घर को सजाने वाली माँ को धीरे धीरे विस्थापित होते हुए देखती हैं । वे कहती हैं, “घर और आंगन से एक कमरा / एक कमरे से एक चारपाई / और अब सिर्फ एक एयरबैग / एक एयरबैग / मेरी माँ का समूचा घर” ।

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 91.

डॉ. सुषमा सेन गुप्ता की भाँति मल्लिका मुखर्जी भी अपना दर्द व्यक्त करती हैं –

“मैं भी उसी संसार में व्यस्त हूँ,

यह जानते हुए भी

कि एक दिन सिमट जायेगा

मेरा यह संसार एक एयर बैग में”

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 92

2. कोख

स्त्री के लिए कोख प्रकृति द्वारा प्रदत्त सबसे खूबसूरत और अनोखा शक्ति है, किंतु स्त्री पर कोख को लेकर वर्चस्ववादी सत्ता हमेशा से दबाव बनाती आयी है । यदि कोख से वंशवृद्धि और स्त्री की उपयोगिता का औचित्त्य न स्थापित किया जाता तो स्त्री इस तरह से हाशिए पर भी न होती । सृजन की अक्षमता के बाद उन्हें बंजर घोषित कर उनके पूरे अस्तित्व को नकार दिया जाना, अथवा कोख से मनवांछित फल न मिलना अर्थात् बेटी पैदा होना अथवा बार-बार गर्भपात होने पर उन्हें छोड़ दिया जाना आदि कोख की उपयोगिता को सिद्ध करते हैं । डॉ. वत्सला पाण्डेय की कविता में यह दर्द देखा जा सकता है -

“कोख यंत्र / आधुनिक मंत्र / स्त्री की गुलामी का / जिसमें रखता है /पुरूष... / स्त्री से छुपाकर / हथकड़ियाँ / और बेडियाँ”

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ.50

प्रायः पुत्रोत्पत्ति का दवाब स्त्री को असुरक्षित रखता है । उसका अपनी कोख और बच्चे की सुरक्षा के प्रति संशयग्रस्त रहने के कारण लोगों को अविश्वासनियता की दृष्टि से देखना स्वाभाविक है, क्योंकि पति के अलावा उसका अपना घर अपने बच्चे से बनना होता है किंतु परिवार बच्चे पर पारिवारिक आधिपत्य समझता है । जिन स्त्रियों के जीवन में पति के प्रेम का अभाव रहता है उनके लिए संपूर्ण संवेदना का केन्द्र उसका अपना बच्चा होता है, जिस पर वे एकछत्र अधिकार जमाये रखने की कोशिश करती हैं । यहाँ तक कि सास अपने बहू के साथ बेटे का प्रेम बाँटने में हिचकती है (कुछ अपवादों को छोड़कर) जबकि बेटे के जीवन में दोनों का स्थान अलग-अलग होता है । यहाँ आधिकारिक घर पुत्र (पुरूष) है । वंदना भट्ट अपनी कविता ‘घर और कोख’ में उचित ही कहती हैं,

“औरत की कोख का प्रतिबिम्ब है घर

सास बहू की साँझी कोख है घर”

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 29

अर्पणा भटनागर ‘औरत और घर’ नामक कविता कहती हैं कि प्रसव के समय छटपटाती औरत के लिए पति का एक सांत्वना भरा शब्द जीवन का समवेत गान महसूस होता है । डॉ. वत्सला पाण्डेय के अनुसार कोख में पलने वाले ही अपनी सत्ता बनाकर स्त्री के अस्तित्व पर तांडव कर रहे हैं । डॉ. मीरा रामनिवास की कविता ‘बेटी’, संतोष श्रीवास्तव की कविता ‘हादसा’, उर्मिला शुक्ल की कविता ‘बेटियाँ’, निशा चंद्रा की कविता ‘उसे बचाओ’ में बेटियों के जन्म के बाद किसी अनहोनी आशंका में डूबी माँ, समाज में बेटियों के प्रति दृष्टिकोण और भ्रुण हत्या तथा बेटी बचाओ का नारा देने के पश्चात् भी बेटियों पर होने वाले अत्याचार पर प्रकाश डालती हैं ।

3. सपने

वर्चस्ववादी सत्ता का धर्म के साथ मिलकर स्त्री को किसी न किसी पुरूष के आधीन रहने हेतु बनाये गए नियमों के साथ स्त्रियों के सपने और खुशियाँ भी सत्ता के आधीन कर दी गईं । वह स्वतंत्र रूप से कभी सपने नहीं देख सकती । बचपन से ही उसके मन में या तो राजकुमार और राजकुमारी की कहानी सुनाकर विवाह के युटोपियाई जीवन और प्रेम के सपने बुने जाते हैं, जो विरले ही सच होते हैं अथवा पराया धन कहकर उसे दूसरे घर में स्थापित होने के लिए उसके सपनों को सोने-चाँदी के साथ जड़ दिया जाता है । लड़की पढ़ी-लिखी हो अथवा अनपढ़, उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य विवाह, पति और परिवार से जोड़कर ही देखा जाता है । इस लक्ष्य तक पहुँचने में लड़की का परिवार, समाज, परंपरा और संस्कृति तथा मीडिया जगत बढ़-चढ़कर भूमिका निभा रहा है । जब सपने युटोपियाई दिखाये जायेंगे और यथार्थ कुछ और होगा, तब लड़की का सपने लहुलूहान तो होंगे ही । ‘मैं चली’ कविता में डॉ. रानु मुखर्जी ‘सपनों के पंछी फड़फड़ा कर रह गए’, उड़ान कविता में डॉ. मालिनी गौतम इक्कीसवी सदी की लड़की के सपनों और उसे पूरे होने की स्वतंत्रता पर एक प्रश्न चिन्ह खड़ा करती हैं कि ऐसी क्या बात है कि खुले आकाश में स्वछंद उड़ने की स्वतंत्रता देने के पश्चात् भी लड़कियाँ लहूलुहान होकर गिर रही हैं ? स्वतंत्रता देने से ही तात्पर्य है उधार की स्वतंत्रता । वे समाज से सवाल करती हैं कि स्वतंत्रता के पश्चात् भी उनके सपने अधूरे क्यों है ? उन्हें अपना पूरा सत्व, पूरी ताकत क्यों लगानी पड़ जा रही है ? पूर्णिमा मित्र कहती हैं कि तुमसे पहले बहुतों ने सपने देखे हैं, लेकिन वे अपने घर और परिवार के लिए अपने सपनों की कुर्बानी देती हैं ।

वर्चस्ववादी सत्ता की अपेक्षाओं और निर्धारित मापदंड़ों के विपरीत सपने देखने वाली लड़कियों के लिए सबसे आसान आलोचना है – बदचलन अथवा चरित्रहीन । लीक से हटकर अपने सपने पूरा करने की कोशिश में वे प्रायः अकेली रह जाती हैं या छोड़ दी जाती हैं कि जैसे अकेलेपन की सज़ा से कभी तो वापस लौटेगी । उदाहरण के लिए भार्गवी पांड्या की कविता ‘मैं और मेरा लक्ष्य’ देख सकते हैं । इस कविता में कवयित्री लक्ष्य तक तो पहुँच जाती हैं पर अपनों को अपने साथ नहीं पातीं । वे लिखती हैं -

“अकादमी अवार्ड मिल रहा है / खुशी से मैं पागल हूँ / स्टेज पर मेरे बारे में बहुत / कुछ बोला गया ! / मेरी नज़र ढूँढ़ती हैं अपनों को / ऑडियंस में / लेकिन कोई दिखायी नहीं दिया” ।

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 108

बचपन से जिन सपनों के साकार होने का सपना वे देखती आयी हैं, वह पूरा भी हुआ, अवार्ड भी मिला, अपनों को खो भी दिया और उन्हीं खोये हुए अपनों की जरूरतों को पूरा करने के लिए शॉपिंग मॉल में पहुँच जाती हैं । जिम्मेदारियों और सपनों के बीच संघर्ष करती वे खुद से पूछती हैं - ‘कहाँ हूँ मैं’ ?

जिम्मेदारियों को कंधों पर ढ़ोते हुए सपनों के लिए संघर्ष करती स्त्रियों के लिए बहुत ही सुन्दर कविता है - ‘जादूगरनी होती हैं औरतें’ । डॉ. रंजना अरगड़े अपनी इस कविता में खुले आकाश में उड़ सकने वाली पिंजड़ें में बंद औरतों के जादू से परिचित करवाती हैं । कच्चें अनाज को सुंगधित स्वादिष्ट भोजन में बदलने से लेकर अपने अंदर एक नया जीव धारण करना, अपनी इच्छाओं को दबाकर, अपने आँसूओं को पीकर भी दूसरों के जीवन को सिंचित करना, आदमकद मर्दों को अपने आगे झुका देने की क्षमता रखते हुए भी निर्विरोध मार खाते रहना, अपनी परिवार को संजोये रखने, सुरक्षा, खुशी और ईज़्जत के लिए नासमझ बन लोगों को खुश होने का दिखावा करते रहना, अपने जख़्मों को सुर्ख गुलाबों में बदल कर इस सांसारिक बाज़ार में एक रहस्यमयी नटिनी की तरह जीवन जीती है और पितृसत्ता को ये सभी जादूगरी लगती है । जिसे कबीर जैसे अनेक साधू-संतों ने ‘माया’, ‘छलना’ कहा है । ‘ग्लोबल होने से पहले’ कविता में पूनम ज़ाकिर स्त्री-संस्कारों में बदलाव की बात करती हैं और स्त्री-पुरूष को एक धरातल पर ले आने का आवाहन करती हैं । किंतु कविता के अंत में उनका ‘लेकिन...’ कहना, स्त्री के सपनों पर एक प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है ।

4. वर्चस्ववादी सत्ता का दवाब एवं विरोध

‘मेरा जन्म / एक हादसा माना गया’ से लेकर ‘इन दिनों मैं सीख रही हूँ / बंजर ज़मीनों में / बीज बोना” (पृ. 65), “वक़्त ने मेरी चप्पल तोड़ दी है” (पृ. 71), “छोड़ना होगा तुम्हें अपना अहम् / क्या इसलिए नहीं करवाने दे रहे / तुम मुझे अपनी चप्पल ठीक” (पृ. 72) “चूल्हे और चक्की की आड़ में / घूँघट की सरहदों में कैद हो / मुट्ठी भर आसमान ताकने को तरसती” (पृ. 73) आदि पंक्तियों में सत्ता का पूर्णतः दबाव और उससे उत्पन्न पीड़ा दिखाई देती है । अपनी पीड़ा व्यक्त करने में वे डरते-डरते लिखती भी हैं - “डरती हैं क़लम कागज़ पर अंगारे भरने से” (पृ. 70)

फिर भी वे हौसलों का दामन थामे हुए कहती हैं - “मैं केवल ‘मैं’ होकर जीना चाहती हूँ” (पृ. 74), “मैं छोड़ती नहीं हूँ उम्मीद” (पृ. 124), “कई बार गिरी / कई बार उठी / फिर गिरी, फिर उठी”, “सफलताएँ भी तो हौसलों की चेरी हैं” (पृ. 122), “मैं बाँधने चली दुनियाँ को मुट्ठी में” (पृ. 123)

सरूप ध्रुव अपनी कविता ‘घायल हैं तेरे पर’ में आधी आबादी की हौसला बढ़ाती हैं । पूर्णिमा मित्र ‘धरती में समाना छोड़ो’ कहकर प्रेरित करती हैं । मल्लिका साराभाई इक्कीसवीं सदी की बेटियों के लिए लोरी सुनाती हैं कि तुम किसी से डरना नहीं और अपना रास्ता खुद बनाना ।

यह टीस का ही परिणाम है कि आधी आबादी की आवाज़ बनकर ये कवयित्रियाँ सत्ता को चुनौती भी देती हैं । ‘मैं सतत् बढ़ूँगी’ कविता में कवयित्री अपना धैर्य और हौसला टूटने नहीं देतीं । वे कहती हैं,

“चहारदीवारों की लक्ष्मण-रेखा

तोड़ चुकी हूँ मैं...

दकियानूसी तानों पर रोना

छोड़ चुकी हूँ मैं...”

घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 121

नीलम कुलश्रेष्ठ अपनी कविता ‘देहरी लाँघकर’ में बड़े ही ज़ोरदार ढंग से सत्ता को चुनौती देते हुए इतिहास में दर्ज होने और उभरने की बात करती हैं । ‘बाँग’ कविता में कवयित्री एक लम्बे समय तक तकलीफ सहने के बाद आवाज उठाती हैं । रेनु सक्सेना को डर है कि सच लिखने से कहीं सच बच्चों को बिखरा न दे । ‘स्वयं को पा लिया मैंने’ में डॉ. प्रणव भारती लिखती हैं कि चूल्हें चौके और घूँघट से निकल मौन को तोड़ते हुए आत्मसम्मान जागृत हो गया है, खुद को पा लिया है मैंने ।

अलकनंदा साने कहती हैं कि बचपन में जब बिन्दी और चूड़ी पहनी थी तब पति के खयालों से परे होकर पहने था लेकिन कैसे यह बाद में सुहागन होने का प्रतीक बन गया और इसका स्वामित्व तुम्हारे पास कैसे चला गया ? यह प्रश्न सुहागन स्त्री का है तो दूसरी ओर एक विधवा इन सुहाग के साधनों को विधवा होने पश्चात् पहनने का जिद्द करती है । नीरजा भटनागर अपनी कविता ‘सूनी माँग के सपने’ में कहती हैं कि मैं विधवा होने के पश्चात् भी माँग में सिन्दूर पहनूँगी, माथे पर बिंदिया सजाऊँगी तथा हाथों में काँच की चूड़ियाँ खनकाऊँगी । यह कविता बिल्कुल अलकनंदा साने की कविता से उलट है । अलकनंदा पति की यादों या उसका स्वामित्व स्वीकार करने से इंकार करती हैं वहीं नीरजा भटनागर पति की मृत्यु के पश्चात् सुहाग के प्रतीकों को पहन कर उनकी यादों को हृदय में संजोना चाहती हैं । किंतु दोनों में ही एक बात समान दिखाई देती हैं वह है – पितृसत्ता का विरोध । सुहागन के लिए सुहाग के प्रतीकों का निषेध तथा विधवा का सुहाग के प्रतीकों को पहनने की जिद्द दोनों ही पितृसत्ता का विरोध है ।

‘रेत की मछली’ में डॉ. सुधा श्रीवास्तव वर्चस्ववादी सत्ता से प्रतिरोधात्मक स्वर में कहती हैं कि मुझे चाहे समंदर से बाहर जितना भी खिंचने की कोशिश की जा रही हो मैं रेत पर तड़प तड़प कर नहीं मरूँगी । सामना करूँगी और जिऊंगी अपने तरिके से । डॉ. नीरज सुधाशूं ‘सुनो पुकार’ कविता में त्रेता और द्वापर युग का उदाहरण देती हैं कि उस युग में भगवान बनकर स्त्रियों की रक्षा किए, किंतु आज के समय में तुम नहीं आ रहे । आज नेत्रहीन, कर्णहीन और मौन प्रशासकों के बीच स्त्रियाँ सूखे पत्तों सी किरचती मानवता के बीच डटी खड़ी हैं

5. स्त्री-पीड़ा के अनेक रूप –

वैसे तो घर, कोख, सपने एवं वर्चस्ववादी सत्ता का दबाव पीड़ा के ही रूप हैं, किंतु इस संग्रह कुछ अन्य कविताएँ हैं जो कुछ हटकर स्त्री-पीड़ा को दर्शाते हैं ।

पारमिता शतपथी त्रिपाठी की कविता है – साड़ी । यह उड़िया में लिखी गई कविता है, जिसका अनुवाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र ने किया है । भारतीय मर्यादा और संस्कृति का प्रतीक साड़ी को कवयित्री अपनी संवेदना का एक हिस्सा मानती हैं । वे कहती हैं कि साढ़े पाँच मीटर की मर्यादा पहनने के बाद स्त्री की गरिमा में बढ़ोत्तरी दिखाई देती हैं और वहीं दूसरे परिधानों में कमी देखी जाती है । लेकिन यह मर्यादा आयी कहाँ से है, क्या इस मर्यादा को स्त्रियों ने किसी के सामने हाथ पसार कर माँगा था अथवा किसी ने जबरन खींच कर थमा दिया था ? अथवा यह किसी के षड़यंत्र का हिस्सा था अथवा किसी रोमांटिक सपनों में खोये नवजवान का उपहार ?

वजह चाहे जो भी हो साड़ी पहनने वाली स्त्री के प्रति लोगों का पूर्वाग्रही धारणा संस्कार और मर्यादा में बंधे होने का होता है । वे एक ओर वर्चस्ववादी सत्ता से सवाल करती हैं और दूसरी ओर इस परिधान का उपयोग कर वे कुछ मानवीय कर्तव्य भी निभाती हैं । वे साढ़े पाँच मीटर की मर्यादा को कई टुकड़ों में बाँटती हैं, एक टूकड़ा कबाड़ बटोरने वाली औरत के फटे घाघरे में पैबंद लगाने के लिए, दूसरा टूकड़ा बलात्कार के बाद गाँव की अमराई में फेंके गये नंगे शव को ढंकने के लिए, तीसरा दहेज ना ला पाने वाली नई-नवेली दुल्हन... जो जली हुई अवस्था में अस्पताल में भर्ती है, उसकी चादर बनाने के लिए और आखिरी टुकड़ा पाँच सितारा होटल में ग्राहकों को शराब परोसने वाली लड़की के वक्षबन्धन को सिलने के लिए । ये सभी टूकड़े मर्यादित पितृसत्तात्मक व्यवस्था के नग्न मानसिकता के खिलाफ एक मुहिम खड़ा करते हैं । ये सभी टुकड़े परिधानों के प्रति पूर्वाग्रही सोच को दरकिनार कर मानवीयता के पक्ष में खड़े होते हैं ।

इसी प्रकार डॉ. मालिनी गौतम ‘साँप सीढ़ी’ कविता में स्त्री-पुरूष के प्रतिद्वन्दिता पर अट्ठहास करती नज़र आती हैं । पूनम ज़ाकिर ‘धर्मयुद्ध’ कविता में बुद्धिजीवी तथा सामान्य स्त्रियों में तुलना करती हुई दिखाई देती हैं कि जो बातें बुद्धिजीवी स्त्रियों को गैरजरूरी लगती हैं उन्हीं बातों के लिए के सामान्य अनपढ़ स्त्रियाँ अपनी आवाज बुलंद कर स्त्री-विमर्श को मजबूत बनाती हैं ।

‘ज़िन्दा हूँ मैं’ कविता में प्रेम की अदम्य इच्छाओं के बीच प्रेम की प्यासी, संघर्ष करती एक विक्षिप्त स्त्री की कविता कही जा सकती है । कवयित्री प्रीति ‘अज्ञात’ द्वारा लिखित इस कविता को पढ़ने पर कहीं भी विचारों की क्रमबद्धता नहीं दिखाई देती । लेकिन इस कविता का सूत्र सिर्फ कुछ पंक्तियों में देखा जा सकता है –

“उम्मीद के पूरे होने की / स्वार्थी उम्मीद में / अब नहीं जीती मैं / उत्तरों की बाट जोहती / सूखी सुराहियाँ / नहीं पीती मैं / हँसती हूँ कि ‘जिन्दगी’ / चलती रहे / पुकारती हूँ, कि चलो / मेरी ही गलती रहे”

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 125

‘गलती’ एक ऐसा शब्द है, कि न जाने कितनी ही विवाहित स्त्रियाँ रह सह लेने की स्थिति में पति से मान-मनुहार कर खुद की ही गलती मानते हुए बेवश जीवन जीने के कगार पर होती है, ऐसी स्त्रियाँ सूखी सुराही को देख देखकर तड़पती तो हैं पर अपनी आवाज़ नहीं उठा पातीं । परिवार में अपनी इमेज़ के प्रति नकारात्मक आलोचना होते हुए देखकर, पति के विवाहेत्तर संबंधों के प्रति आवाज उठाते हुए, घर में अपनी जगह बनाते हुए लगभग सभी स्त्रियाँ अपने जीवन में कभी न कभी ऐसे संघर्षों का सामना करती हैं । हैरानी की बात यह होती है कि इस रिश्ते में गलती करना गलत नहीं होता, औरतों का गलत के खिलाफ आवाज़ उठाना गलत हो जाता है । प्रायः वे अपना पाँव जलती आग पर रखते हुए चल रही होती है ।

देखा जाय तो यह कविता काव्य की कसौटी पर खरे नहीं उतरती, लेकिन इस संग्रह में यह कविता स्त्री-पीड़ा की टीस का सबसे बेहतर उदाहरण है । इस कविता में परत-दर-परत स्त्री के लिए प्रेम की चाहत, उसकी विवशता, अपनी जगह बनाने की जद्दोजहद, अपने इमेज़ के प्रति सकारात्मक होने की चाहत, बार बार उसे गलत ठहराये जाने के बाद निराशाजनक स्थिति, अपमान का घूँट पीने के बाद भी ज़िन्दा रहने की कवायद, और भी बहुत कुछ दिखाई देता है । ‘मैं छोड़ती नहीं हूँ उम्मीद’, ‘हँसती हूँ व्यर्थ ही/ हँसी न आने पर भी’, ‘पुकारती हूँ गला फाड़ / अनसुना हो जाने पर भी’, ‘उम्मीद के पूरे होने की / स्वार्थी उम्मीद’, ‘सूखी सुराहियाँ / नहीं पीती मैं’, ‘चलो / मेरी ही गलती रहे’, ‘अपनी ही बेवकूफियों से मिल पड़ती हूँ मैं’, ‘है बंजर जमीं, उधर सरहदों में’, ‘सोने के पिंजरे का / एक परिंदा हूँ मैं’, ‘ईमां सलामत, तभी तो / ज़िन्दा हूँ मैं’ आदि पंक्तियाँ इस कविता की एक-एक पंक्ति हर औरत के जीवन का हिस्सा है, उसके बावजूद भी उसकी ये बातें, ये पीड़ा किसी के लिए जरूरी नहीं समझी जाती । ज़िन्दा रह जाना, जिंदा होने की चाहत या जिन्दा रहने की छटपटाहट... इस टीस को गाँव घर की बहुतेरी स्त्रियाँ समझती हैं । क्योंकि सिर्फ साँसों का चलना ही जिंदा होने की निशानी नहीं है, लेकिन ये साँसें चलती रहे इसके लिए भी लड़ना पड़ता है ।

‘अछूत औरतें’ कविता में प्रभा मुजुमदार बाज़ार में स्त्री की स्थिति को बयाँ करती हैं कि स्त्री परंपरागत हो अथवा मॉडर्न, बाज़ार उसे हर रूप में भुनाने का प्रयास करता है । तीज-त्यौहार हो अथवा विज्ञापन, चाहे बीमा के लिए असहाय आश्रीत को संबल देना हो अथवा मॉडर्न वर्ग की स्त्रियों के लिए पोशाक तैयार करवाना, सब पर बाज़ार ही हावी है । वे कहती हैं –

“बाज़ार को नहीं चाहिए /बगैर ब्रांड की औरत / जो बन सकती है / ख़रिद और बिक्री की / शर्तों के लिए चुनौती । /बाज़ार बचाना चाहता है / इन औरतों से /दुनियाँ की... तमाम औरतों को / कभी परंपरा के नाम पर / कभी प्रगति के नाम पर” ।

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 132

अंजू शर्मा की कविता है - ‘चालीस साला औरतें’ । इस कविता में वे उम्र के चालीसवें मौसम का आख्यान प्रस्तुत करती हैं -

“ये जो फैली हुई कमर का घेरा है न / ये दरअसल अनुभवों के वलयों का स्थायी पता है / और ये आँखों के इर्द गिर्द लकीरों का जाल है / वह हिसाब है उन सालों का जो अनाज बन / समाते रहे गृहस्थी की चक्की में / ये चर्बी नहीं / ये सेल्युलाइड नहीं / ये स्ट्रेच मार्क्स नहीं / ये दरअसल छुपी, दमित इच्छाओं की पोटलियाँ हैं / जिनकी पदचापें अब नई दुनियाँ का द्वार ठकठकाने लगीं हैं”

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ.134

‘शतरंज के मोहरे’ कविता में कवयित्री सुधा अरोड़ा समाज की दृष्टि में अकेली औरत तथा स्वयं की दृष्टि में अकेली औरत का खुद के प्रति दृष्टिकोण एवं संघर्ष दोनों ही नज़रिए पर प्रकाश डालती हैं । अकेली औरत चाहे किसी भी स्थिति में अकेली हो, चाहे वह आजीवन अविवाहित हो, विवाहित होकर अकेली हो, तलाकशुदा अथवा विधवा, हर स्थिति में यह समाज के लिए अवांछित लगता है । लेकिन इस कविता में सुधा अरोड़ा इक्कीसवीं सदी की अकेली औरत की सूझ-बूझ और बौद्धिकता के कारण कभी अकेलेपन को नकारने के उपक्रम को बड़े ही सुंदर ढंग से दर्शाती हैं । वे कहती हैं कि अकेली औरत लोगों के लिए हमेशा खतरा बनी रहती है अथवा लोग उसे सबसे ख़तरनाक औरत समझते हैं । लेकिन “उन सारे महापुरूषों को / अपने ठेंगे पर रखती / एक विजेता की मुस्कान के साथ”

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 137.

वाले भाव से ऐसे समाज पर करारा व्यंग्य भी करती हैं और अपनी ज़मीन खुद तैयार करने वाली स्त्री को विजयिनी भी दिखाती हैं । उनका कहना है कि ऐसी बौद्धिक स्त्रियाँ समाज की कम ही परवाह करती है ।

“इक्कीसवीं सदी की यह औरत

हाड़ माँस की नहीं रह जाती,

इस्पात में ढ़ल जाती है,

और समाज का

सदियों पुराना,

शोषण का इतिहास बदल डालती है”

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 137.

प्रतीक भावों के दर्पण -

इस काव्य-संग्रह में घर, कोख, सपने, वर्चस्ववादी सत्ता के दबाव आदि की टीस एवं पीड़ा के लिए प्रयोग किए सटिक प्रतीक भावनाओं को मूर्तवत बना देते हैं, उन्हें सरलता से अभिव्यक्त करने तथा बोधगम्य बनाने में प्रतीक सहायक होते हैं । ये सत्य है कि प्रतीक देश, काल तथा समयानुसार परिवर्तित होते रहते हैं, किंतु इन प्रतीकों को स्त्री-भावनाओं को लक्षित करके ही देखा जाना चाहिए ।

प्रतीक जातीय स्मृत्ति पर आधारित होते हैं, जो लेखक के जीवन अनुभव से संबंध रखते हैं। रचना में उद्धृत बिम्ब-प्रतीक पाठक के स्मृत्ति का हिस्सा बन जाते हैं तथा पाठक के अनुभव संसार के साथ मिलकर पात्रों को अथवा दृश्य को सजीव बनाते हैं । इस प्रक्रिया को समझने में युंग का सामूहिक अवचेतन का सिद्धांत सहायक होगा । युंग के अनुसार अज्ञात मन की कार्य-पद्धति के कारण दबी हुई इच्छाएँ प्रतीक रूप में अभिव्यक्त होती हैं । ‘मनोविश्लेषण और मानसिक क्रियाएँ’ नामक पुस्तक के अनुसार युंग का मानना है कि, “प्रतीक और उस मूल वस्तु या विचार में, जिसका वह प्रतीक (Symbol) है, एक अटूट संबंध होता है, जिसके कारण प्रतीक को न ‘यथार्थ’ वस्तु कहा जा सकता है, और न ‘अयथार्थ’ । प्रतीक अनेकों होते हैं और हमारी विभिन्न प्रकृत इच्छाओं की व्यंजना करते हैं”

- मनोविश्लेषण और मानसिक क्रियाएँ – डॉ. पद्मा अग्रवाल. पृ. 45. मनोविज्ञान प्रकाशन, बनारस, द्वितीय संस्करण 1955

इस पुस्तक में पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाले विभिन्न प्रतीकों का चयन किया गया है । कुछ कवयित्रियों ने घरेलू सामग्री हल्दी, लाल मिर्च, नमक, टमाटर, चपाती, अचार, चटनी, धनिया-पुदीना, सिलबट्टा, प्याज़, क़बाब, जलेबी, दही-बड़ा, दाल, कड़ाही, आलू, लिपस्टिक, बिंदी, काजल, चूड़ियाँ, साडियाँ, चावल, कंकड़, चूल्हे, चौकी, घूँघट आदि को प्रतीक के रूप में चयन किया है । मंजु महिमा ‘रसोई से काव्य-व्यंजन’ कविता में रसोई में प्रयोग किए जाने वाले सामग्री को स्त्री-जीवन का अहम हिस्सा मानती हैं । जीवन में सुख-दुख के एहसास के लिए अचार, दर्द और मनोभावों की परतों के लिए प्याज़, अनुभव के लिए क़बाब, सुखमय और कड़वाहट भरी जिन्दगी में प्रेम की अहमियत के लिए जलेबी, हर परिस्थिति में ढ़ल जाने के गुण के लिए आलू प्रतीक का चयन करती हैं । प्याज़ कविता में वे कहती हैं –

“प्याज़ की तरह, / मेरी ज़िन्दगी में, / दर्द की परतें दर परतें, / चढ़ती चली गयीं ।/ आज जब मैं इन्हें, / छीलने बैठती हूँ तो, / आँसू निकल आते” ।

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 46-47

इन प्रतीकों को देख कर मुझे कुछ दिन पहले रति सक्सेना जी की फेसबुक पर लिखे पोस्ट की याद आती हैं वे अपने गुरू का उदाहरण देकर लिखती हैं कि जो रसोई में भोजन पकाना नहीं जानता वो कविता लिखना नहीं जानता ।

इन कवयित्रियों ने घरेलू प्रतीकों के चौखट लांघकर बाहरी दुनियाँ में भी कदम रखा है । उदाहरण के लिए मधु प्रसाद की कविता ‘रेत की नदी’ में देख सकते हैं -

“मेरे शहर में

एक नदी रहती हैं

बहती नहीं हैं

क्योंकि नदी रेत की है”

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 80

इस पंक्तियों में प्रेम के अभाव में विरक्त हो जाने की पीड़ा को देख सकते हैं । वे कहती हैं कि उन्होंने पूर्व में स्वयं उस पीड़ा का अनुभव किया है इसलिए वे उस विरहिणी की पीड़ा समझ सकती हैं –

“मैं प्रतिदिन / उस नदी के सीने के ऊपर से / गुज़रती हूँ । / नदी की प्यास मुझे छू जाती है / बादल बरसते हैं / पर नदी का मन / भीग कहाँ पाता है” ?

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 80

इसी कविता की भाँति कुछ बदले हुए रूप में प्रतिभा पुरोहित अपने हृदय को मजबूत करते हुए पीड़ा पहुँचाने वाले के लिए चुनौती बन जाती हैं –

“तुम जो मेरे आगे

रेत का मरूस्थल

तलाश रहे थे

कंक्रीट बिछा दी है मैंने

घास का बगीचा

या सब्ज़बाग बोने की जगह” ।

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 82

अनीता दूबे ने अपनी कविता ‘क्यों तुम ऐसे हो’ में विभिन्न रंगों को प्रतीकों के रूप में बड़ी ही खूबसूरती से चुना है । “तुम भूल जाते /मेरे जन्मदिन की सफ़ेद तारीख /मैं हर बीते / नारंगी पल का हिसाब रखती हूँ”

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 82

इस लम्बी कविता में कवयित्री स्पष्ट या साफ के लिए सफ़ेद रंग, प्रेम के लिए नारंगी, खूबसूरत अथवा प्रिय के लिए सुनहरे, मन को भाने वाला के लिए चमकीला, संशयग्रस्त तथा संघर्षमय जीवन के लिए मटमैला रंग, प्रेम के एहसास के लिए गुलाबी, प्रेम में लबालब के लिए जामुनी रंग, प्रेम से पूरित ख्वाब के लिए सतरंगी, कल्पना के लिए आसमानी, प्रणय का एहसास के लिए पीला, वेदना मिश्रित शांति के लिए नीला, प्रेम के लिए लाल, छद्म के लिए काले रंग का चयन करती हैं । अन्नदा पाटनी अपनी कविता ‘रसोई व जीवन के रंग’ में स्त्री के जीवन में तीन सौ पैंसठ दिनों में रसोई में प्रयोग किए जाने वाले मसालों के रंगों से जीवन के रंगों की तुलना करती हैं तथा सौंदर्य प्रसाधनों के रंग से स्त्री-जीवन में होने वाले क्षणिक तथा निरंतर चलने वाले मनोवृत्तियों को समझाती हैं । वन्दना भट्ट पत्नी को एक रंगविरंगे कोलाज़वर्क के रूप में देखती हैं । निर्झरी मेहता ‘चौखट’ कविता में वर्चस्ववादी सत्ता को ‘उजाले की दुनियाँ’ तथा हाशिए पर खड़ी आधी आबादी को ‘घर भीतर बसे छाँव के गाँव’ कहती हैं । लड़कियों को दिए जाने वाले संस्कारों के लिए बड़ा ही सटिक प्रतीक ‘चौखट’ का चयन करती हैं । इन तीन प्रतीकों के माध्यम से आधी आबादी का सम्पूर्ण इतिहास उभर कर सामने आता है ।

प्रतीक हमारे मन में दबी भावनाओं को न सिर्फ उगाहते हैं, बल्कि उसे विस्तार भी देते हैं । उदाहरण के लिए कवयित्री की एक दूसरी कविता ‘चौखट’ प्रतीक को देख सकते हैं जिसे इन्होंने भाखड़ा नंगल बाँध से भी मजबूत बताया है, जिसे लाँघना या तोड़ना बेहद मुश्किल होता है –

“रूकावट चौखट की

कितनी भारी भरकम है जी !

प्रचंड भाखड़ा नंगल बाँध से...”।

- घर की देहरी लाँघती स्त्री क़लम – नीलम कुलश्रेष्ठ. पृ. 25

इन्होंने आँसूओं के लिए समुद्र, मन के लिए फर्श, तथा पीड़ा के लिए बिच्छु की टीस प्रतीक का चयन किया है ।

मंजु महिमा ने स्त्री का मानसिक बधियाकरण के लिए बोनसाई, सिनीवाली शर्मा ने स्त्री को ‘घी का दीया’, डॉ. उषा उपाध्याय ने पीढ़ी दर पीढ़ी बेटियों के आँखों में संजोये जाने वाले सपनों के लिए ‘काजल’, डॉ. प्रणव भारती मन में जमा होने वाली दुखद घटनाएं जिनके प्रति आवाज नहीं उठा सकते, उसके लिए ‘बिस्तर की सलवटें’ प्रतीकों का चयन किया हैं । कुछ अन्य प्रतीक जैसे प्रेमाभाव के लिए सूखी सुराहियाँ, वर्चस्ववादी सत्ता द्वारा स्त्रियों के लिए निर्धारित मापदंड के लिए सोने के पिंजरे, कमज़ोर के लिए तिनके, सुनहरे सपने के लिए सुनहरी मछली, आवाज़ उठाने को बाँग देना, प्रणयात्मक प्रेम के लिए सिंदूरी, विचार के लिए दुशाला, टूटी भावनाओं के लिए उधड़ी कतरनें, अपरिपक्वव के लिए अधपकी धूप, बच्चों के लिए कच्चे घड़े, हौसलों तथा सपनों के लिए पंख का चयन किया है ।

कुछ मिथकीय प्रतीकों का भी चयन किया गया है क्योंकि मिथकिय प्रतीक, जैसे कि राधा, सीता, पार्वती, सत्यवती, गांधारी आदि को आदर्श एवं पतिव्रता नारी के रूप में सिद्ध कर स्त्रियों को संस्कार दिए जाते हैं ताकि स्त्रियाँ उन्हीं के पदचिन्हों पर चलकर तथाकथित सफल वैवाहिक जीवन जी सकें । इस संग्रह में पूर्णिमा मित्र ने सीता का नाम नहीं लिया है किंतु ‘धरती में समाना छोड़ो’ कविता के शिर्षक के माध्यम से स्त्रियों को सीता जैसी आज्ञाकारी नारी बनने तथा सदैव मूक रहकर अत्याचार सहने का विरोध किया है । निर्झरी मेहता ने वर्चस्ववादी सत्ता द्वारा निर्धारित मापदंड़ों के लिए ‘लक्ष्मण-रेखा’ वर्चस्ववादी मानसिकता के लिए हिरण्यकश्यप तथा सत्ता से लोहा लेने वाली स्त्री के लिए ‘नरसिंहरूपा वामा’ का चयन किया है ।

अतः इस संग्रह की 70 कविताओं में कवयित्रियों ने जीवन-तल में जाकर ऊबड़-खाबड़ अनुभवों के साथ से कंकड़, पत्थर, सीपी, रेत और कुछ फूलों को चुनकर रखा गया है । कुछ कविताएँ अति भावुकता की स्थिति में लिखी गई हैं । जो काव्य-कला की कसौटी पर भले न खरी उतरें लेकिन आधी आबादी की विशुद्ध भावनाओं को, उनकी पीड़ा को प्रकट करने में पूरी तरह से सफल हुई हैं ।

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पुस्तक  ---- ` घर की देहलीज़ लांघती स्त्री कलम`

सम्पादक -नीलम कुलश्रेष्ठ

प्रकाशक---वनिका पब्लिकेशन्स , देलही

मूल्य -- ३०० रूपये

समीक्षक --- डॉ . रेनू यादव, गौतम बुद्ध युनिवर्सिटी

ई-मेल- renuyadav0584@gmail.com

फोन - 9810703368