गार्गी के प्रश्न और याज्ञवल्क्य का तमतमाया चेहरा Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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गार्गी के प्रश्न और याज्ञवल्क्य का तमतमाया चेहरा

डॉ. बी. बालाजी, हैदराबाद

यह उदाहरण नीलम कुलश्रेष्ठ के सम्पादन सद्यः प्रकाशित ‘धर्म के आर-पार औरत’ (2010) की भूमिका का एक छोटा-सा अंश है --"लगभग दो वर्ष पूर्व भोपाल की प्रसिद्ध शिल्पी संस्था ने ‘धर्म की बेड़ियाँ खोल रही है औरत’ पुस्तक के सन्दर्भ में चर्चा रखी थी । इस मंच पर प्रख्यात शायर बशीर बद्र जी भी उपस्थित थे । मैंने अपने वक्तव्य के आरम्भ में कुछ प्राचीन स्त्री-चरित्रों के उदाहरण देने आरम्भ कर दिये, जाहिर है अवतारी पुरुषों की नीतियों पर मैं उँगली उठाती जा रही थी । वक्तव्य देते हुए मैंने बशीर बद्र जी की तरफ मुड़कर देखा और कहा, ‘आप को तो याद होगी नासिरा शर्मा की कहानी ‘खुदा की वापसी’ जिसमें....।’ उनका चेहरा तमतमा गया था । वे क्रोधित होकर बोले, ‘बस चुप भी करिये....कविता शुरू होने दीजिये ।’

तब मैं कल्पना कर सकी कि गार्गी के प्रश्नों से याज्ञवल्क्यजी का चेहरा किस तरह तमतमाया होगा । यह पुस्तक स्त्री जीवन से सम्बन्धित कई मुद्दों पर प्रकाश डालती है । विवेच्य पुस्तक सम्पादिका नीलम कुलश्रेष्ठ के सम्पादन में प्रकाशित ‘धर्म की बेड़ियाँ खोल रही है औरत’ की अगली कड़ी है । सम्पादिका  वड़ोदरा [ गुजरात ]के ‘अस्मिता’ नाम महिला बहुभाषी साहित्यिक मंच की संचालिका और इस मंच के दो दशक पूरे होने के उपलक्ष्य पाठकों को एक उपहार के रूप में यह पुस्तक भेंट की गई है । इस पुस्तक में स्त्री-जीवन के विविध पहलुओं को उजागर करने वाले 10 लेख, कविताएँ, 1 एकांकी, 14 लघुकथाएँ तथा 2 कहानियाँ संकलित हैं । सम्पादिका ने संकलित सामिग्री ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘अन्यथा’, ‘लोकगंगा’ व ‘सनद’ पत्रिकाओं से तथा ‘अस्मिता’ साहित्यिक मंच से प्राप्त की है । इसके अलावा अहमदाबाद की ‘उन्नति’ और वड़ोदरा की ‘सहियर’ एन.जी.ओ. द्वारा पाँच भागों में प्रकाशित नारी आन्दोलन के इतिहास से सम्बद्ध भिक्षुणियों की कविताएँ और गार्गी की कहानी प्राप्त की है । संकलन में कुछ रचनाएँ अनूदित हैं और कुछ मौलिक . ‘वेंकटसानी और नारियाँ’ बँगला भाषा की कहानी है । इसकी लेखिका महाश्वेता देवी हैं और अनुवादक सुशीला गुप्ता हैं । नीलम कुलश्रेष्ठ ने ‘जैन धर्म में श्वेत परिधान में लिपटी औरत’ और ‘ऋग्वेद व उपनिषद काल में वर्णित स्त्री की स्थिति’ का अनुवाद किया है । इन लेखों के मूल लेखक क्रमशः नलिनी बलवीर और डॉ. उमा देशपांडे हैं । निर्झरी मेहता रचित एकांकी ‘स्वयंवरा’ मूलतः गुजराती भाषा की  है । उर्मि कृष्ण ने ‘तिल के फूल’ कहानी की रचना लोककथा के आधार पर की है । इसी तरह ‘स्वयंसिद्धा’(मूल- सुहास ओझा, अनुवाद-वन्दना भट्ट) और ‘बुद्धस्मित’(मूल- प्रज्ञा दया पवार, अनुवाद – संजय भिसे) कविताएँ गुजराती भाषा से अनूदित हैं ।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में ‘धर्म का सामान्य अर्थ’ में ‘धर्म’ का अर्थ कर्तव्य भी लिया जा सकता है या उसका संकुचित अर्थ ‘रिलीजन’ लेने से भी पुस्तक के माध्यम से ‘स्त्री-विमर्श’ को सम्प्रेषित करने का जो प्रयास किया गया है, वह सुस्पष्ट हो जाता है । इस पुस्तक के सन्दर्भ में ‘धर्म’ को ‘रिलीजन’ माना जाए, तो ऋषि परम्परा से लेकर बौद्ध, जैन, इस्लाम, सिख, ईसाई जैसे विश्व के प्रमुख धर्मों में स्त्री को ‘सिमान द बुवा’ के शब्दों में ‘सेकंड सेक्स’ का दर्जा प्राप्त है । उसे पुरुष की बराबरी करने का न मौका दिया जाता है और न उसके प्रयासों को प्रोत्साहित किया जाता है । गार्गी जब याज्ञवल्क्य से प्रश्न पूछती है, तो उनके उत्तर न दे पाने की स्थिति में उसके सिर के टुकड़े हो जाने के श्राप का डर दिखाकर उसे चुप कराया जाता है । तस्लीमा नसरीन जब कुरान में संशोधन की बात उठाती हैं तो उसके ही देशवासी एवं धर्म के लोग उसे ‘देश निकाला’ की सजा देते हैं । भारत में शरण लेने के बाद उसके ही धर्म के धर्मगुरुओं के आदेश पर उसे भारत से पलायन करना पड़ता है । पुस्तक के प्रत्येक लेखक, कविता, लघु कथा-कहानी में स्त्री स्वतन्त्रता के अवरोधों का खुलासा किया गया है ।

संकलित सामिग्री के केन्द्र में स्त्री (औरत) है । स्वाभाविक ही है । पुस्तक जब ‘औरत’ नाम से हो, तो केन्द्र में और (स्त्री) आयेगी ही । उसके जीवन की विभिन्न समस्याएँ भी आएँगी । उसके द्वारा बेटी, बहन, माँ, पत्नी तथा सुहागन या विधवा के विविध रूपो में झेले जा रहे अत्याचारों को सहन करने की या विरोध करने की चर्चा आयेगी । पाठकों का कुछ स्थानों पर दुहराव भी लग सकता है ।

1. महाश्वेता देवी रचित कहानी- ‘वेंकटसानी और नारियाँ’ जिसमें उन्होंनने आन्ध्र प्रदेश में युवतियों को वेंकटसानी बनाने की प्राचीन परम्परा को रोंगटे खड़े कर देने वाली कथा प्रस्तुत की है ।

2. एन. ललिता के लेख में ‘देवदासी प्रथा’ तथा इसी तरह 3. सत्यनारायण देव के लेख ‘महाराष्ट्र की देवदासियों की कहानी’ में देवदासी प्रथा की विकृतियों को उजागर किया गया है । 4. नीलम कुलश्रेष्ठ का लेख ‘वृन्दावन की माइयाँ-तस्वीर कुछ बदली है’ में बंगाली युवतियों व विधवाओं की समस्याओं की चर्चा गई है, लेकिन यह दुहराव अखरता नहीं बल्कि अलग-अलग प्रदेशों में युवतियों तथा विधवाओं पर हो रहे अत्याचारों को जानने की जिज्ञासा पैदा करता है । भारतीय समाज में धर्म में नाम पर पैदा हुई विकृतियों का दर्द समझने में सहायता करता है । इन विकृतियों पर विचार करने के लिये विवश भी करता है । संकलित सामिग्री से स्पष्ट होता है कि प्रत्येक धर्म, जाति और आयु की स्त्री को भारतीय समाज में दोयम दर्जा मिला हुआ है । चाहे वह गार्गी हो, बौद्ध संन्यासिनी हो या कोई जैन साध्वी ।

पुस्तक में स्त्री के जीवन की त्रासदियों को यथार्थ रूप में चित्रण करने के लिये कहीं भी स्त्री-विमर्श का आश्रय लेकर नारेबाजी नहीं की गई है । ‘जैसा है वैसा ही’ बताना इस पुस्तक की विशेषता है । स्त्री की सहज प्रकृति का, उसकी मानसिकता का और उसके सरल आचरण के चित्रों के साथ-साथ उसके विवशतापूर्ण जीवन-निर्वाह के बिम्ब इस पुस्तक में अंकित हुए हैं । स्त्री-मुक्ति की राह की ओर संकेत भी इस पुस्तक में किया गया है । शिक्षा के प्रचार-प्रसार से होने वाली प्रगति को स्त्री-चेतना के रूप में भी देखा जाना चाहिये । शिक्षित स्त्री स्वयं जागरूक हो कर अपनी सखियों को भी जगाने के काम कर रही है । वह अत्याचारों का विरोध करना सीख रही है । धर्म के आश्रय में उसके हाथों और पैरों पर डाली बेड़ियों को वह काटने लगी है । अब वह पूजा-पाठ, विवाह आदि कराने वाली पंडिताइन, काजी, पादरी व अध्यात्म की शिक्षा देने वाली धर्मगुरु बनकर समाज को नयी राह दिखा रही है । लेकिन उसे पुरुष धर्मगुरु, संन्यासी, काजी व पादरी के समान मान-सम्मान मिलने में अभी समय लग सकता है ।

इस संकलन में कुछ लेख खोजी पत्रकारिता तथा साक्षात्कार के आधार पर लिखे गये हैं । लेखिकाओं ने अपनी जान-खतरे में डालकर यह सामिग्री जुटाई है । देवदासी प्रथा पर आधारित लेख ‘देवदासी प्रथा’ और ‘महाराष्ट्र की देवदासियों की कहानी’, वृन्दावन में शरण प्राप्त कर अपने जीवन की अन्तिम घडियों की प्रतीज्ञा करती माइयों के जीवन पर आधारित लेख ‘वृन्दावन की माइयाँ-तस्वीर बदली है’, जैन साध्वियों को जैन साधुओं से निम्न कोटि का समझा जाता है । इस सच्चाई को पूरी ईमानदारी और हिम्मत के साथ बयान करता नलिनी बलबीर का लेख ‘जैन धर्म में श्वेत परिधान में लिपटी स्त्री’ तथा ‘वेंकटसानी और नारियाँ’ शीर्षक से लिखी गई कहानी की सामिग्री का संग्रह करना आसान काम नहीं है । पुस्तक में संकलित कविताएँ कवयित्रियों के वैयक्तिक अनुभूतियों से प्रस्फुटित जान पड़ती हैं । सदियों से चली आ रही परम्पराओं की बेड़ियों को काट डालने का आह्वान करती हैं ये कविताएँ । स्त्री के परतन्त्र होने के कई कारणों को रेखांकित करती हैं । कवयित्रियों ने मिथकीय सन्दर्भों के माध्यम से इन कविताओं में पुरुषसत्तात्मक भारतीय समाज के समक्ष कई सवाल प्रस्तुत किये हैं । कवयित्रियों ने अपनी अभिव्यक्ति को सम्प्रेषित करने के लिये अभिधा, व्यंजन और लक्षण का बड़ी समझदारी से प्रयोग किया है । वे भली-भाँति जानती हैं कि किस सब्ज़ी में कौन-सा और कितना नमक, मिर्च-मसाला डालना है । कहीं भी उनकी पकाई रोटी जली या कच्ची-पकी नहीं लगती । कवयित्रियों ने राम, कृष्ण, रावण, धृतराष्ट्र, ययाति, सत्यवान, इन्द्र, ब्रह्मा, पांडव जैसे महापुरुषों द्वारा किये गये स्त्री-शोषण को अपनी कविताओं का विषय बनाया है । अपने शब्द बाणों से इन पर वार किया है । आज भी समाज में ऐसे पात्र मौजूद हैं, जो राम बन सीता की अग्नि परीक्षा लेते हैं । स्त्री के दुःख-दर्द से अनभिज्ञ बन कृष्ण तो केवल बाँसुरी बजाने में लीन हो जाते हैं । रावण, इन्द्र, बलशाली हैं, राजा हैं । इसी अहंकार में वे पराई स्त्री को लज्जित-अपमानित करते रहते हैं । अपनी वासनाओं को तृप्त करने के लिये सत्यवान अपनी सुन्दर-सुशील पत्नी सावित्री को छोड़कर पराई स्त्रियों के पीछे भागता रहता है । घर-गृहस्थी को ताक पर लगा देता है । ययाति और ब्रह्मा तो अपनी बेटियों का ही शोषण करते नज़र आते हैं । पांडव तो पांडव हैं एक स्त्री के पीछे दीवाने । उसे विवश करते हैं पाँच पतियों वाली बनने के लिये ।

विवेच्य पुस्तक में संकलित लघुकथाओं में जिन घटनाओं को कथावस्तु के रूप में प्रस्तुत किया गया है, वे पाठक के परिवेश की जानी-पहचानी होने के कारण उसके मन पर सीधे चोट करती हैं । स्त्री समस्याओं पर उसे विचार करने के लिये विवश करती हैं । पुस्तक में 14 लघुकथाएँ संकलित हैं- 13 नीलम कुलश्रेष्ठ की हैं और 1 पवित्रा अग्रवाल की । पवित्रा अग्रवाल ने अपनी लघुकथा ‘आस्तिक-नास्तिक’ में माँ-बेटी और सास-बहू के रिश्तों को रेखांकित किया है । उन्होंने एक छोटी-सी मगर मार्मिक घटना को लेकर स्पष्ट किया है कि कैसे स्त्री द्वारा स्त्री का शोषण किया जाता है । बेटी और बहू के साथ होने वाले व्यवहारगत अन्तर को छोटी कथावस्तु में समेट लिया है । नीलम कुलश्रेष्ठ की लघुकथाओं के विषय विस्तृत हैं- भ्रष्ट धर्मगुरु सभी धर्मों को मिलाकर सार्वभौमिक धर्म बनाने के असफ़ल प्रयास, पवित्र ग्रन्थों का पाठ करने का पाखंड, महिला धार्मिक गुरुओं की मानसिक अस्थिरता, बालमन पर दंगे फसादों के कुप्रभाव, महानगरों की स्त्रियों में बढ़ते जा रहे असुरक्षा के भाव, भगवान के प्रति घटते जा रहे विश्वास । इन चौदह (14) लघु कथाओं को पढ़ने के बाद उन्हें ‘देखने में छोटे लोग घाव करे गम्भीर’ कहना ग़लत न होगा । इनमें स्त्री-जीवन के विभिन्न कोणों को पूरी ईमानदारी के साथ चित्रित किया गया है ।

यह सत्य है कि स्त्री प्राकृतिक रूप में पुरुष से भिन्न है, किन्तु इसे भी ईमानदारी से स्वीकार करने में हमें आना-कानी नहीं करनी चाहिये कि वह वैचारिक स्तर पर पुरुष से किसी भी मायने में कम नहीं है । वह अपनी बात कहना जानती है और बड़े सलीके से कहना जानती है । इसी तथ्य का प्रमाण है ‘धर्म के आर-पार औरत’ । आशा है हिन्दी साहित्य-जगत में इसे आदर और सम्मान अवश्य मिलेगा तथा यह कृति पुरुष मानसिकता को बदलने में सफल होगी ।

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पुस्तक ----’धर्म के आर पार औरत’

सम्पादक  ------नीलम कुलश्रेष्ठ

प्रकाशक --किताबघर प्रकाशन, देल्ही

मूल्य --४५० रु

समीक्षक --डॉ . बी. बालाजी