स्त्री चेतना की साहसिक कहानियां
कलावंती, राँची
नीलम कुलश्रेष्ठ के तृतीय कहानी संग्रह की 'चाँद आज भी बहूत दूर है 'में, स्त्री के मन की जाने अनजाने परतों को बहुत ही संवेदनशीलता से छूआ है नीलम जी ने। चाहे वे घर परिवार की महिलाएं हों या बाहर नौकरी पर जाने वाली कामकाजी स्त्रियाँ- उनके सुख दुख उनके संघर्ष। उनकी नायिकाएँ अपने जीवन की स्थितियों से दुखी जरूर हैं पर वे इसे अपना भाग्य मानकर चुप नहीं बैठ जातीं । वे प्रतिकार की हिम्मत जुटाती हैं और सामनेवाले को चुनौती देती हैं। अपनी नियति को बदलने का हर संभव उपाय करती हैं- ' अपनी किस्मत इंसान नहीं बदल सकता लेकिन अपने मन की मजबूती से अपने जीवन को आगे बिगड़ने से बचा सकता है...अपने जीवन में उदेश्य पैदा कर सकता है। '
एक घरेलू स्त्री की तकलीफ उनके शब्दों में इस तरह बयान होती है'मेरी सरहदों पर बिंदी, बिछुए, सिंदूर... अधिक कहूँ तो पायल का पहरा है । ' 'उस पार की औरत 'कहानी में उस स्त्री के प्रति ज़माने का बेदर्द बर्ताव है जिसकी सरहदों पर इन सुहाग चिन्ह के पहरे नहीं होते या वक़्त उन्हें छीन लेता है।
तो बाहर नौकरी करती एक आर्कीटेक्ट को सामने वाले को समझाना पड़ता है – ' मेरी ये पहली नौकरी है। आगे के लिए ये बात समझ में आ जाएगी । ज़रूरी थोड़े ही है की सब आप जैसे ही हों। आई एम वर्किंग इन योर ऑफ़िस लाइक आ पर्सन नॉट लाइक आ फ़ीमेल । ”
ये 'साक्षात्कार 'कहानी का संवाद है। इसमें कहीं गुजराती शब्दों की झलक भी दिखाई देती है।
एक चिड़िया के बहाने उन्होने कितनी खूबसूरती से लिखा है- “वह अपने नन्हें व्यक्तित्व पर बार बार चोंच मारकर अपने सौंदर्य का उत्सव मनाती है । आस पास के लोग अभ्यस्त नहीं होते कि कोई मादा अपनी छवि का उत्सव मनाए, वे उसे भगाते हैं, आईने को ढँककर रखने लगते हैं। ” इसी प्रतीक को उपयोग में लेते हुए नीलम जी ने अपनी कहानी 'नाकाबंदी 'में अभिव्यक्त किया है कि जब स्त्री को अपने व्यक्तित्व के सौंदर्य व ताकत का अंदाज़ हो जाता है तो उसे आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। इस कहानी से हमें कुछ स्त्रियों की बातचीत से पता लगता है कि अहमदाबाद से वड़ोदरा जाती क्वीन गाड़ी में औरतों के डिब्बे में बैठी स्त्रियां या सभी देश की स्त्रियों क्यों अपने जीवन में लगभग एक से दुःख झेल रहीं हैं।
कहानियां ‘वो दूसरी औरत’, ‘ए आग लगो को ओ 'में दादी व नानी के प्यार को प्रतिष्ठित करने के प्रयास को देखकर बहुत सुखद अनिभूति होती है क्योंकि 'माँ 'की महिमा तो हर स्थान पर बखानी जाती है।
इस संग्रह की एक और प्यारी सी कहानी है -'नो स्माइल प्लीज़ !'जिसमें आज के उन छोटे बच्चों की मासूम सी दास्ताँ है जो अपने घरवालों के हर समय मोबाइल से फ़ोटो लेने से चिढ़ने लगते हैं।
इन कहानियों में स्त्री जीवन के बहाने हम आज के परिवेश और लगातार बदलते समाज को भी देख पाते हैं । समय बदल गया है पर समाज स्त्री को उसी पुरातन रूप में देखने का आकांक्षी है। स्त्री ने पुरुषों की तरह काम करना सीख लिया है, उनकी तरह ही वे अब आर्थिक मोर्चों पर भी हाथ बंटा रही हैं, उनका व्यक्तित्व नया है। इसे समझने और सम्मान देने की मांग करती ये कहानियाँ, नई स्त्री चेतना की कहानियाँ हैं।
वनिका पब्लिकेशंस ,देल्ही की डॉ .नीरज शर्मा ने ख़ूबसूरती से कवर डिज़ाईन के साथ इसे प्रकाशित किया है।
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स्त्री की दशा को बयाँ करती कहानियाँ
-मुकेश दुबे, सीहोर
प्रस्तुत कथा संग्रह ‘चांद आज भी बहुत दूर है’ में नीलम कुलश्रेष्ठ ने चांद की दूरी को एक अलग ही अंदाज में देखा और साबित भी कर दिया कि लाख बदलाव की बयार बहे, जमाना कितना भी तरक्की कर ले, मगर स्त्री की वास्तविक दशा की धरा से सच्चाई का चांद आज भी उतनी ही दूर है जितना चांद इस धरा से । नीलम ने चांद को प्रतिमान मान, विभिन्न कोणों से आज की नारी को निहारा है, उसके स्वरूप को देखा है चांद में । शीर्षक कथा ‘चांद आज भी बहुत दूर है ’ की नायिका ज्योति के माध्यम से नीलिमा ने पूरी ईमानदारी से साबित किया है कि नारी की प्रगति एक वलय पर चल रही या छल रही नारी के समान ही है जो चलती जाती है और अंत में उसी जगह लौट आती है जहाँ से यात्रा आरंभ की थी । दस कथाओं का अप्रतिम संग्रह जिसमें चांद दूर है परन्तु पूर्णिमा की धवल चांदनी बिखरी हुई है । जब नारी ने ठान लिया अपने सपनों को साकार करने का और तलाश लिया है अपने हिस्से का आसमान, इन्हीं भावों का जीवंत चित्रण है संग्रह की कथा ‘उस पार की औरत’ । जिस्म का रेशम जब तार-तार होता है, सुकोमल मन संज्ञाविहीन होकर पथरा जाता है और रह जाता है एक ‘पथरीला बुत’ जो पुरुष के छल से कतरा-कतरा बिखरी नारी की भावनाओं की नजीर है । कथा ‘राजनीति’ स्त्री के भरोसे को जीतने व तोड़ने के तानेबाने पर भावनाओं का दिलकश कसीदा है । समाज के सुसंस्कृत कहे जाने वाले तबके की मानसिकता को पूरे मनोयोग से रेशा दर रेशा बुना है नीलम ने ‘बयान से परे’ कहानी में । ‘निचली अदालत’ में कथ्य चौंकाता है । क्योंकि इसमें मुंबई के अस्पताल के ई एम अस्पातल में लम्बे समय तक दाख़िल एक नर्स अरुणा शानबाग़ के बहाने यूथनेशिया यानि कि इच्छा मृत्यु पर एक बहुत सशक्त बहस छेड़ी है। ये बात पाठकों पर छोड़ दी जाती है कि वे इसके पक्ष में या विपक्ष में अपनी राय बनाएं। कहानियां ‘वो दूसरी औरत’, ‘नो स्माइल प्लीज्’ और ‘ए आग लगो’ भी पाठक के मन में गहराई तक उतर जाती हैं ।
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लेखिका - नीलम कुलश्रेष्ठ
पुस्तक - “चाँद आज भी बहूत दूर है
समीक्षा - कलावंती, मुकेश दुबे
प्रकाशक – वनिका पब्लिकेशन्स
मूल्य- 300